परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 128
गुरु विद्या सिन्धु मिरे ।
मेंटें भव-भव फेरे ।।
दर खूब धूम फिर के ।
आये अब द्वार तिरे ।।स्थापना।।
‘कर’ कर तर उदक घड़े ।
तेरे दरबार खड़े ।।
छल-गहल किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।।जलं ।।
कर कर रज मलय घड़े ।
तेरे दरबार खड़े ।।
मन-तपन किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।।चन्दनं ।।
सित अछत परात भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
पद विछत किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।।अक्षतम् ।।
चुन पहुपन थाल भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
मद मदन किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।। पुष्पं ।।
सज नेवज थाल भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
क्षुध् बखुद किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।। नैवेद्यं ।।
लख दीपक थाल भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
तम भरम किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।। दीपं ।।
कर गन्ध सुगन्ध भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
कज करज किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।। धूपं ।।
ऋतु फल-दल थाल भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
लत-गलत किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।। फलं ।।
अर अरघ परात भरे ।
तेरे दरबार खड़े ।।
क्षण विघन किनार करे ।
वर दें गुरुदेव मिरे ।। अर्घं ।।
==दोहा==
अचल तीर्थ चल नेक के,
जो इक रचनाकर ।
कलि जैनी आधार वे,
नमन तिन्हें शत बार ॥
॥ जयमाला ॥
।।वन्दना – वन्दना – वन्दना ।।
रञ्च संग संग ना ।
कहाँ संग अंगना ।।
धन्य धन्य मुनि गणा ।
वन्दना-वन्दना-वन्दना ॥
रख रहे कदम निरख ।
पथिक अनेकान्त पथ ।।
हाथ भक्ति अंध ना ।
वन्दना-वन्दना-वन्दना ॥
मुख खोलें बन्द ज्यों ।
मिसरी सुगन्ध त्यों ।।
गीर् द्वन्द्व धुन्द ना,
वन्दना-वन्दना-वन्दना ॥
लोक व्यवहार लख ।
लें अशन निरख-निरख ।।
हिय पसन्द सन्ध ना ।
वन्दना-वन्दना-वन्दना ॥
बाद उपकरण रखें ।
नैन पीछी से लखें ।।
‘चक्षु श्रुत’ स्वच्छन्द ना ।
वन्दना-वन्दना-वन्दना ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
अरज जरा सी आपसे,
कलि जुग इक विश्वास ।
एक बार ही दो दिखा,
गुण अनंत जिन राश ॥
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