परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 123
पलक मुझे रख लो निगाह में ।
खड़ा विछा के पलक राह में ।।
फिर तो समझो खुली लॉटरी ।
इच्छा पहली यही आखरी ।।स्थापना ।।
जल से भर लाया गागर हूँ ।
कर लो अपने-सा, पामर हूँ ।।
फिर तो समझो भाग खुल गया ।
गुल खुल जीवन बाग खिल गया ।। जलं ।।
भर चन्दन लाया गगरी में ।
आ मेरी जाओ नगरी में ।।
फिर तो समझो आया सावन ।
हरा भरा खुशियों से दामन ।। चन्दनं।।
भर अक्षत लाया परात में ।
कर सँग लो निज शिव बरात में ।।
फिर तो समझो दिल्ली पा ली ।
राखी होली मनी दिवाली ।। अक्षतम् ।।
गुल संकुल लाया परात में ।
दो मुस्काँ आशीष साथ में ।।
फिर तो समझो छुआ आसमाँ ।
‘मार’-मार पा हुआ खातमा ।।पुष्पं ।।
नव्य-दिव्य चरु लाया कर में ।
आने लगूँ आप चाकर में ।।
फिर तो समझो मिला खजाना ।
लगा हाथ इक नया बहाना ।। नैवेद्यं ।।
घृत भर ले आया प्रदीप मैं ।
जरा और कर लो समीप में ।।
फिर तो समझो लगा किनारे ।
हुये पूर्ण अरमाँ खुद सारे।। दीपं ।।
दश विध गंध लिये आया मैं ।
कर लीजे अपनी छाया में ।।
फिर तो समझो गई छा…हरी ।
गई बिला दुख बला शरबरी।। धूपं।।
ऋतु फल भर लाया परात में ।
फल शिव थल दो थमा हाथ में ।।
फिर तो समझो हुआ करिश्मा ।
आप आप गुम हुआ लो गुमां ।। फलं ।।
आया ले वसु द्रव्य पिटारी ।
शरणा मिल ‘गुरु’ जाय तिहारी ।।
फिर तो समझो छटी बदलिंयाँ ।
पा गुल, हुई गुलाबी गलिंयाँ ।।अर्घं।।
==दोहा==
पश्चिम संस्कृति खा रही,
कृति से जिनकी मात ।।
शिष्य ज्ञान गुरु वे हमें,
रख शिव तक ले साथ ॥
॥ जयमाला ॥
।। पारखी… पारखी… पारखी ।।
बस लिये, ‘दिये’ दिये ।
हाथ रत्न कर लिये ।।
नजर आचार्य की,
पारखी, पारखी, पारखी ।।
काठ को कठोर लख ।
काट-काट अब न थक ।।
और तेज धार की,
पारखी, पारखी, पारखी।।
कम न शत्रु का कहर ।
सजग चूँकि अठ पहर ।।
चल न सकी मार की,
पारखी, पारखी, पारखी ।।
मति-मराल रख हिये ।
वार बस विफल किये ।।
शत्रु हाथ-हार की,
पारखी, पारखी, पारखी।।
बाढ़ थी थमी कहाँ ।
मच्छ भी यहाँ वहाँ ।।
तैर सरित पार की,
पारखी, पारखी, पारखी ।।
बागवाँ की बात हर ।
‘कर’ कर दृग् बन्द कर ।।
गगन भी दरार की,
पारखी, पारखी, पारखी ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
और नहीं कुछ चाहिये,
चाहत प्रथम अखीर ।
तैर बाहुओं से रहा,
दिखला देना तीर ।।
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