परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 121
मुझ शबरी के धन राम ओ ।
मुझ मीरा के घनश्याम ओ ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
पल अब-तब मुख तव नाम हो ।। स्थापना।।
घट भर लाये हम नीर के ।
हा ! मार खाय तकदीर के ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
कर कर शुभ भाव इनाम दो ।। जलं ।।
घट भर लाये रज मलय के ।
ढ़िग पहुँच न पाये विनय के ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
मारग बतला शिव धाम दो ।।चन्दनं।।
हम लिये थाल अक्षत भरे ।
कुछ-कुछ सहमे कुछ-कुछ डरे ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
मन खुद सा कर अभिराम लो ।। अक्षतम् ।।
भर लिये पुष्प की थालियाँ ।
हा ! रुठी सी खुशहालियाँ ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
बस दिखला मेरा ग्राम दो ।। पुष्पं ।।
लाये घृत के व्यंजन सभी ।
पाये नहिं छोड़ व्यसन अभी ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
जिह्वा मन लगा लगाम दो ।। नैवेद्यं ।।
लाये घृत दीप सुहावने ।
छाये जीवन अन्धर घने ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
तम का कर काम तमाम दो ।। दीपं ।।
घट धूप-नूप लाये मुदा ।
मंडूक-कूप पन ही फिदा ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
मति हंस मिरे कर नाम दो ।। धूपं ।।
ऋतु-फल लाये मीठे पके ।
भागें मृग से हारे थके ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
‘कर’ थमा थान विश्राम दो ।। फलं ।।
मिश्रण कर लाये द्रव्य हैं ।
मन देखें, लगे अभव्य हैं ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
लिखवा भव्यों में नाम दो ।। अर्घं ।।
==दोहा==
हस्ताक्षर करुणा रहा,
तीर्थ दयोदय धाम ।
श्री गुरु दीन-दयाल वे,
सविनय तिन्हें प्रणाम ॥
॥ जयमाला ॥
।। ‘खर तर तप’ तप रहे श्रमण हैं ।।
बिन्दु तीर बन आई जल की ।
घन-गर्जन हो रही न हल्की ॥
पल-ऐसे तरु-तल ठाड़े, नव-
कार मन्त्र जप रहे श्रमण हैं ॥
‘खर तर तप’ तप रहे श्रमण हैं ।
सर सरिता बन गये मरुस्थल ॥
जा गिरि शिखर सहज ऐसे पल ॥
दोपहरी रवि सम्मुख नित क्रम-
गुणित कर्म खप रहे श्रमण हैं ।
‘खर तर तप’ तप रहे श्रमण हैं ॥
साँय-साँय कर हवा चल रही ।
नहीं कौन सी फसल जल रही ॥
ऋतु हेमन्त शिशिर निशि कब थित-
गगन तले कँप रहे श्रमण हैं ।
‘खर तर तप’ तप रहे श्रमण हैं ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
और नहीं कुछ चाहिये,
सिर्फ यही अभिलाष ।
तब सँभाल लेना मुझे,
जब जा, आय न श्वास ॥
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