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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 115

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 115

मुझ सा दूजा न भागवाँ ।
मिल आप गये जो बागवाँ ।।
थी एक यही बस आश ऽमा ।
मैं भी छू पाऊँ आसमाँ ।। स्थापना ।।

प्रासुक जल से भर कलशिया ।
पद आप-पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
झूठा कितना संसार है ।। जलं ।।

भर कर रज मलयज कलशिया ।
पद आप-पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
सोया, हा ! खोया पार है  ।।चन्दनं।।

भर कर परात अक्षत जिया ।
पद आप पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
‘कलि’ खिलना, कम न हार है ।।अक्षतं।।

भर थाल पुष्प से है लिया ।
पद आप पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
जग नगर नार सा प्यार है  ।। पुष्पं ।।

पकवान थाल सज-धज लिया ।
पद आप-पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
चाँदी बस दिन हो चार है ।। नैवेद्यं।।

घृत अठपहरी ‘कर’ कर ‘दिया’ ।
पद आप-पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
थारी मारी बेकार है ।। दीपं ।।

घट, धूप नूप ‘कर’ कर जिया ।
पद आप-पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
किस अंग नहीं तन भार है ।। धूपं ।।

फल थाल हाथ में ले लिया ।
पद आप पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
इक संयम सच सुख द्वार है ।। फलं ।।

कर एक-मेक वसु द्रव लिया ।
पद आप-पास जैसे किया ।।
आई अँसुअन की धार है ।
मानव कितना लाचार है ।। अर्घं ।।

==दोहा==
सीखा जिनसे गाय ने,
वितरण निस्पृह नेह ।
गुरु विद्या सुख-गेह वे,
विथला दें सन्देह ।।

॥ जयमाला ॥

।। धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।

याद कथा अभिमन्यु करके ।
मरणावीचि समाधि धरके ।।
लगी गूँथने गुण अरहन्ता ।
धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।

माँ मदालसा कर फिर आगे ।
बँध सनेह शिशु कच्चे धागे ।।
प्रसव पीर सह गई अनन्ता ।
धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।

बना दोल हाथों को अपने ।
सुना रही लोरी मिस सपने ।।
शुद्ध बुद्ध तू सिद्ध भदन्ता ।
धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।

वर्ष आठ रख सिर-पलकों पे ।
फेर हाथ फिर शिशु अलकों पे ।।
कहे मुक्ति मारग निर्ग्रन्था ।
धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।

स्वप्न हुआ साकार ले रही ।
बलाँ सभी, आशीष दे रही ।।
जा बन शीघ्र मुक्ति वधु कन्ता ।
धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

**दोहा**
बिन्दु तुच्छ मैं पा गया,
सिन्धु तुच्छ नहीं बात ।
यहाँ भेजने में रहा,
वृद्ध जनों का हाथ ।।१।।

बाधक नहिं साधक बने,
ये क्या कम पुरुषार्थ ।
उनके जीवन भी खिले,
पद्म-पन्थ-परमार्थ ।।२।।

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