परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 1
‘निःस्वार्थ’ करुणा करे केली,
हृदय इन वसु याम ही ।।
आहा सुखद भव-लयी इनका,
दूर-दर्शन नाम ही ॥
इमि पग रखें ये संभल के,
जैसे चले नव अंगना ।
कर लीनी कर हंसी-मती,
चढ़ता विषय विष रंग ना ।। स्थापना।।
‘निर्दोष’ निज जीवन बनाने,
विसर दीनी वञ्चना ।
रे ! शिष्य हैं शिष्यायें काफी,
राग लेकिन रञ्च न ॥
ली साँस सुख की मूक-
पशुओं ने इन्हीं की देन है ।
पञ्छी विहरते लख गगन,
मिलता इन्हें सुख चैन है ।। जलं ।।
‘निर्लोभ’ वृत्ति देखिये,
इनकी गगन को चूमती ।
उपलब्धियों का श्रेय दे,
गुरु ज्ञान परिणति झूमती ॥
मुस्कान दुखियों के दुखों का,
राम बाण इलाज भो ।
है सन्त कैसा ? खुश किसी से,
किसी से नाराज जो ।।चन्दनं ।।
‘नीरोग’ बनने बिना,
वैशाखिन् डगर पे चल दिये ।
संकट नहीं आये,नहीं ऐसा,
सुभट बन दल दिये ॥
है तेज आज ललाट पे,
फीका दिवाकर दिख रहा ।
हर कृत्य स्वर्णिम अक्षरन्,
इतिहास अद्भुत लिख रहा ।।अक्षतम् ।।
‘निर्मोह’ मारग सुमर ओढ़ा,
दुशाला दैगम्बरी ।
जिस डाल बैठे काटना,
उसको हुआ है किसी घड़ी ॥
जी इन्हें वसुधा से कुटुम्बिन् ,
भाँति निश्छल नेह है ।
थे शान्त कलि परमाणु उनसे,
हुआ निर्मित देह है ।।पुष्पं ।।
‘निष्पक्ष’ वर बरसात होती,
रात दिन किससे छुपा ।
हों कामनायें पूर्ण सारी,
प्राप्त कर इनकी कृपा ॥
देवें उठा ये नजर विघटें,
बदलियाँ काली घनी ।
दिल स्वयं अपने पूछ लो,
बिगड़ियाँ नहिं किनकी बनी ।।नैवेद्यं।।
‘निस्पृह’ स्व-पर कल्याण में,
नित समय इनका खरचता ।
पीड़ा निरख पर अनवरत,
लोचनन जल इन झलकता ॥
नित निवसना वसु मात् प्रवचन,
गोद है रुचता इन्हें ।
विन्यास शब्दों का अहा,
अद्भुत, लगे करकश किन्हें ।।दीपं।।
‘’निश्चल’ अहा परिणति सदा,
जागृता-वीची मरण में ।
बन्ध्या सुतन सेहरा सजाना,
हुआ कब आचरण में ||
मन्मथ पलक भी हुआ हावी,
वो पलक ना दीखता ।
शिव मुख किया, सोचा कहाँ है,
पीठ वो मग ठीक था ।। धूपं ।।
‘निष्कम्प’ अपने व्रतन,
गफलत, रञ्च भी कब छू सकी ।
देखे बिना शोधे कहाँ,
इन-मन वचन काया रखी ॥
ये पृष्ठ संस्थित मांस के,
कब सेवने के पक्ष में ।
रहते सदा निज गेह कब ,
झाँका करें पर कक्ष में ।। फलं ।।
‘निस्पन्द’-संस्थिति रसिक ये हैं,
सोचते सबका भला ।
इन भाँति किसके पास,
धारा खड्ग चलने की कला ॥
कब काम कल की पीठ पे,
ये लादने की सोचते ।
आहा कृपण समयन कहाँ,
नाहक निमिष इक ढ़ोलते ।। अर्घं।।
*दोहा*
एक ‘निरामय’ है यही,
यही ‘निरापद’ एक ।
आ पल इनके पास में ,
बैठें मथ्या टेक ॥
॥ जयमाला ॥
भावी ‘निराकुल ‘तीर्थ कलि,
आये जगत् ये तारने ।
हिंसा मचाती नृत्य-ताण्डव,
अहिंसा विस्तारने ।।
आके इन्होंने पापियों की,
थाम ली पतवार है ।
‘निरुपम’ चरित अघ छुड़ा के,
करना सिखाया प्यार है ॥
प्रतिभा थली पश्चिम हवा,
रुख मोड़ने इनने जनी ।
‘निष्काम’ पुरु गुरु-कुल रचा,
इन सा कहाँ समता धनी ॥
मिल गये गायों के लिये,
गोपाल इनके रूप में ।
‘जि ‘निरीह’ कब मण्डूक भाँति,
रहा चाहें कूप में ||
सुन आह दीनन अश्रु-धारा,
इन चली किस सिन्धु को ।
‘निस्सीम’ करुणा विभव इन,
अद्भुत लजाये इन्दु को ॥
कृति मूक-माटी शाम तक,
ला दे बिठा निज द्वार पे ।
‘निर्भीक’ सिंह चर्या चुनी,
करने विजय भव-हार पे ॥
आनन्द क्षण ताँता कहो,
कब चाहता इन टूटना ।
‘नीराग’ मन इनका विशुद्धि,
चाहता नित लूटना ॥
‘मानुज बने मानव’ रहें,
इनका प्रयास सदैव ही ।
‘नीरज’ समझ अद्भुत अहा,
इन पास शत्रु कुटेव की ॥
कब रेख दूजों की मिटा,
की रेख अपनी पीन हैं ।
‘निकलंक’ कब मथ नीर,
कीनी व्यर्थ संध्या तीन हैं ||
पुनि जिनालय पाषाण के,
बनने लगें इन भावना ।
‘निर्मद’ बने परमेष्ठी,
पर विसरी निगोदन ठाँव न ॥
रे ! मातृ-भाषा दर्द ,
इन्होंने लिया पहचान है ।
‘निःसर्ग’ मन इन देख विषयन-
मल बना कब श्वान है ।।
भो ! इन्हें प्यारी संस्कृति,
पूर्वजों की है जान से ।
‘निःसंग’ विद्या सिन्धु सिंचूँ ,
हृदय इन गुण गान से ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
*दोहा*
गुरु गुण कीर्तन है कहाँ,
रे ! आसाँ सी बात ।
जिह्वा धर जुग-सहस भी,
खा बैठे हैं मात ॥
Sharing is caring!