दैवसिक प्रतिक्रमण श्रमण
==हाईकू==
प्रति कम न,
सुमन !
क्यों दुखाना किसी का मन ।
भूल करने निर्मूल,
पाद-मूल-गुरु खड़ा मैं ।।
क्षमा सभी से,
क्षमा सभी को,
नहीं किसी से वैर ।
आग से राग द्वेष,
त्याग, सो जाग के कर रहा है ।।
करके पाप,
लिया नाप उत्पथ, अब काँपता ।
प्रतिक्रमण करता मैं,
दो भूलों की क्षमा हमें ।।
स्थावर त्रस-काइय,
ए, वे, ते, चौ, पञ्च इन्द्रिय ।
कृत कारिता-नुमत,
हा ! हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।।
धर्म उत्तम क्षमादि,
मूल-गुण महाव्रतादि ।
तप द्वादश, चरित त्रयोदश,
शील-गुणादि ।
दृढ़ता पाऊॅं,
अ, सि, आ, उ, सा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ, पूर्वा-चार्या-नुसार,
स्तव-समेत ।
करता हूँ,
श्री भक्ति सिद्धालोचना का कायोत्सर्ग ।।
नमन अर्हन्,
सिद्ध, सूरि, भगवन्, पाठक ऋषिन् ।
चार शरण,
सिद्ध, अर्हन्, श्रमण, धर्म माहन ।
चउ उत्तम,
सिद्ध, अर्हन्, सुत्तम, व्रति महत्तम् ।
चौ मङ्गलरु
सिद्ध, अर्हन, सुगुरु देव वाक् पुरु ।
जन्मे, सिन्धु दो, द्वीप अढ़ाई,
कर्म-भू पन्द्रहों में ।
तीर्थक, अर्हन्,
आदियर, भगवन् जिन जिनेश |।
बुध, केवलि, अन्तकृत,
पारग, परिनिर्वृत |
देवाधिदेव,
आचार्य-उपाध्याय, दृक्, ज्ञान, व्रत |।
चक्री सद्धर्म,
इनका मैं करता हूँ कृतिकर्म ।
भगवन् करूँ सामायिक,
विसरूँ सावद्य जोग ।
कृत कारिता-नुमत,
आजीवन साथ त्रियोग ।|
प्रतिक्रमण अतिचारों का,
करूँ पाप-गर्हा भी ।
जब तलक भजूँ आपको,
तजूँ पाप चर्चा भी ॥
(कार्यात्सर्ग)
श्री मन् !
नृसिंह ! महामना !
तीर्थंक ! जिन ! वन्दना ।
लोक-आलोक,
ऋषीश चार-बीस अभिनन्दना ।।
ऋषभ, जित,
सम्भौ-अभिनन्दन,
सुमति, पद्म,
सुपार्श्व,चन्द्र,
पुष्पदन्त, शीतल
श्रेयांस, पूज्य,
विमल, नन्त,
धरम, शान्ति, कुन्थ,
अरह, मल्लि,
मुनि-सुव्रत,
नमि, अरिष्ट नेमि,
पार्श्व, सन्मति |
होंय प्रसन्न
भक्त अनन्य मुझ पे
तीर्थक ये ।
केवल ज्ञान,समाधि,बोधि
करें प्रदान मुझे ।।
दें सिद्धि
‘इन्दु’ जेय कमल-बन्धु
‘गंभीर-सिन्धु’ !
झलके, ज्ञान जिनके
तिहु-लोक मानिन्द बिन्दु ।।
सम्यक्त्व, ज्ञान,
वीरज, दृक्, सूक्ष्मत्व, अवगाहना ।
अगुरु-लघु, अव्याबाध,
गुणाष्ट सिद्ध पावना ।।
तप-संयम, ज्ञान दर्शन
नय सिद्ध वन्दना ।
कायोत्सर्ग श्री भक्ति-सिद्ध
उसकी करूँ निन्दना ।।
पत गुणाष्ट,
हत कर्माष्ट, ज्ञान दृक् व्रत साथ ।
चरित-सिद्ध-संयम,
थित ऊर्ध्व-भुवन-माथ ।।
भूत-भविष्यत्, वर्तमाँ,
सभी सिद्धों को नमो नमः ।
कमों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
व्रत, समिति, गुप्ति,
विध तेरह चारित्राचार ।
उसके अति-चारों की
आलोचना का इच्छाकार ।।
विरला
नाम अहिंसा महाव्रत पहला
हा ! हा !
पृथ्वी कायिक
असंख्याता-संख्यात
जल-कायिक,
अग्नि-कायिक,
असंख्याता-संख्यात
वायु-कायिक,
जीव-कायिक-हरित
नन्तानन्त,
बीज-अकुंर ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘वे’
असंख्याता-संख्यात
कृमि शंखादि
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘ते’
असंख्याता-संख्यात
जूँ चिवट्यादि,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय चौ,
असंख्याता-संख्यात
कीट, डाँसादि ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
वा पञ्चेन्द्रिय,
असंख्याता-संख्यात
पोतुप-पाद,
श्वेद्, उद्भेद
समुर्च्छ, अण्ड, रस, जरायुजात,
जीव प्रमुख पनक्ष,
योनियों में चौरासी लक्ष,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
भगवन् !
करूँ दैवसिका-लोचना जोड़ के हाथ ।
प्रथम व्रत अहिंसा महाव्रत
अमृषावाद ।।
अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निःसंग,
छठा-नुव्रत तथा ।
समिति, ईर्या,
आदान, निक्षेपण, भाषा, ऐषणा ।
प्रतिष्ठापन, उच्चार, प्रसवण आदि क्षेपणा ।।
ज्ञान, दर्शन, चरण,
गुप्ति, तन, मन, वचन,
दश मुण्डन,
धरम-ध्यान दश, धर्म श्रमण,
सोला कषाय,
नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, नौ नो-कषाय,
संसार सप्त ,
भय शुद्धि अष्ट, प्र-वचन माय,
जीव निकाय,
षटावश्यक, पञ्च चारित्र अक्ष,
अठ दशक शील सहस्र,
गुण चौरासी लक्ष ।
संयम, तप, अंग द्वादश,
पूर्व चउदहों में ।
भावना क्रिया पन-बीस
वाबीस परिषहों में ।।
उपसर्ग चौ संज्ञा प्रत्यय,
गुण मूलोत्तर जे ।
तिनमें,
लज्जा प्रमाद, भय, हास, अनादर से ।
राग विरोध,
पिपासा-क्रोध,
मान, माया, लोभ से ।
क्रिया-प्रादोषि
पर-तापनि, दृष्टि ,पुष्टि क्षोभ से ।।
लेश्या, गारव, दण्ड़,
तिय संक्लेश परिणामों को,
मिथ्या, ज्ञान, दृक्, व्रत,
विय संक्लेश परिणामों को-
किया, योग्य से हटा,
दिया अयोग्य में उपयोग ।
किये प्रयोग हा !
मिथ्यात्व अव्रत कषाय योग ।।
दिन आभोग, नाभोग
अतिचार, नाचार तथा ।
सर्वातिक्रम व्यतिक्रम हों मृषा,
पा आप कृपा |।
कर्मों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
करता हूँ,
श्री भक्ति प्रतिक्रमण का कायोत्सर्ग ।।
कायोत्सर्गम्
अर्हन् वन्दना,
सिद्ध, सूरी, धी-धना, जै महा मना ।
नुति श्री मन्त,
सिद्ध, सूरि, धी-मन्त, जगत् त्रि सन्त ।
नुति नन्त हो,
दोनों भगवन्त को, तीनों सन्त को ।
णमो जिणाणं
जिणाणं णमो णमो, नमो जिणाणं ।
जै निस्सीहिए,
जै निस्सीहिए, जै जै जै निस्सीहिए ।
नन्त नमोऽस्तु
नमोऽस्तु नन्त, सिद्ध नन्त नमोस्तु ।
अर्हन्, समर्थ,
सममन, सुमन, विशुद्ध, बुद्ध !
योग, प्रशम, भाव-सम,
निः संग, नि:शल्य, नन्त !
ममत्व, रोष,
घमण्ड, माया, मोष, भयादि हन्त !
गुण गागर, अप्रमेय,
सागर-शील महर्षिन् |
तपस्विन्, बुद्धि-ऋर्षिन् !
नमो नम: श्री वीर वर्धमाँ !
केवलि, बुद्ध,
अर्हन्, सिद्ध, पूर्वज्ञ श्रुत-समृद्ध,
ज्ञानी अवधि,
मनः पर्यय ज्ञानी, ज्ञान, विज्ञानी,
तप, तपस्वी,
गुण, गुणी, महर्षि, गुप्ति, प्रगुप्त,
दृक्, दर्शनी,
प्र-वचन प्रवचनी,मुक्ति, प्रमुक्त,
तीर्थ, तीर्थक,
ब्रह्मचर्य बिहारी-ब्रह्म, प्रबुद्ध
क्षपक, क्षीण-विमोह
क्षीण-वन्त, बोधित बुद्ध |
विनय, नम्र, व्रत, व्रति,
समिति, समिति-वन्त |
करें मंगल
चैत्य-वृक्ष, चैत्य, विद् समय-नन्त ॥
ऊर्ध्व, धः मध्य लोक,
सिद्धायतन, सनम्र ढ़ोक ।
निर्वाण थल,
अष्टापद सम्मेद गिरि उर्जन्त ।
नगर पावा, नगरी चम्पा,
आदि नादि जयन्त ।।
थविर, गुरु, आचार्य, उपाध्याय,
चौविध संघ |
प्रवर्तकादि संयमी अन्य और भी
साधु वृन्द ।।
विहरते जो, पन-दश धर्म भू,
वा नृलोक में ।
हित मंगल,
बद्धाञ्जली सिद्धों को देता ढ़ोक मैं ।।
हा ! अतिचार,
दृक्, ज्ञान, वीर्य, तप, चारित्राचार |
दुष्चेष्टा मन,
दुष्प्रवृति वचन, दुष्कर्म काय ।
समिति, गुप्ति, पञ्च महाव्रत
षट् जीव निकाय ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
सवेग किया गमन,
किया व्यर्थ परिभ्रमण ।
हलन किया चलन,
आगमन पल गमन ।।
हा ! जागरण, शयन,
हा ! कर्वट, परि-वर्तन,
असत् कर्कश गमन,
चलासन या उद्वर्तन,
छुये सकल तन-प्रदेश
छुये या एक-देश
आकुंचनाद
आस्पद असमाध
प्रद संक्लेश
इनमें ए, वे, ते, चउ, पंचेन्द्रियों को,
दिया कष्ट
हा ! समाविष्ट,
किया अस्त-व्यस्त
या किया विनष्ट
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हा ! उर्ध्व मुख गमन,
अधो मुख गमन हहा !
हा ! तिर्यग् मुख गमन
मुख दश दिश् गमन हा !
हा ! चंक्रमण किया
प्राणी, हरित, पणग, बीज,
जल-विकार
तन्तु, लट, चीवटि, मृत्तिका, कीच ।।
संघट्टन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
समिति ईर्या संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
समिति भाषा,
क्रमशः
मध्यंकशा, परकोपिनी, कटु कर्कशा
परुष,
छेदंकरा, अतिमानिनी,
अनयंकरा, भयंकरा
निष्ठुरा, विभाषा दश ।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
समिति भाषा संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हहा ! भोजन अयोग्य अन्तर्गत
अधः कर्म से ।
भोजन पाण, पणय, बीज, हरि,
पूर्व कर्म से ।।
कर्म पश्चात् वा,
कृत उदिष्ट, कृत या निर्दिष्ट से ।
संश्लिष्ट रज-दया
आहार इष्ट, या गरिष्ट से ।।
क्रीत या मिश्र,
थापित, अनिषिद्ध या समूर्च्छित ।
प्राभृत, बलि प्राभृत,
अभिघट दोषाच्छादित ।।
मात्रा-अधिक हा !
या लेना भोजन गिरा गिरा के ।
क्षण-भोजन भू तीन न तकना
होश गवा के ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
समित्-यैषणा संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
श्री मन् ! समिति आदान-निक्षेपण
फलक, पोथी,
आसन, पीछी,
कमण्डलु, विकृति, मालादि जो भी
पिच्छी आदि से,
बिना प्रतिलेखित उठाते हुये ।
जल्दी-जल्दी में,
सप्रमाद हा ! इन्हें बिठाते हुये ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
दाँ-निक्षपण संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
प्रतिष्ठापन समिति अन्तर्गत
साँझ काल में ।
निशि अदृश संस्थल,
छुद्र छिद्र या विशाल में ।।
अभावकाश आदि
थान सचित्त, स्निग्ध धान में ।
संयुक्त बीज,
युक्त हरित काय, भू प्रधान में ।।
नासिका मल,
उच्चार, प्रसवण, विकृति, कफ ।
क्षेपण पल,
कर रहे जीव जो कोई भी उफ ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
प्रतिष्ठापन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हा !
महाव्रत सत्य दूसरा,
राग-द्वेष, हास से ।
प्रदोष कोध-गुमान,
माया, लोभ अभिलाम से ।।
सनेह, मोह, भय, प्रमाद,
लज्जा, गारव तथा ।
कारण किसी भी अन्य से,
हा ! किया भाषण-मृषा ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हहा !
अचौर्य महाव्रत तीसरा, ग्राम मठ में ।
खेट, नगर, द्रोणमुख, पत्तन,
या कर्वट में ।।
संवाह, सभा-मण्डप,
मण्ड़ल, या सन्निवेश में ।
अदत्त वस्तु कोई भी उठा लाया,
हा ! जिनेश मैं ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
व्रत-श्रमण चतुर्थ,
ब्रह्मचर्य महाव्रत में ।
नर, तिर्यञ्च, देव, अचेतन स्त्री,
त्रि जो जगत् में ।।
तिनके शब्दों में,
मनोज्ञामनोज्ञ-रूप रसो में ।
रूपों में, गन्धों में,
मनोज्ञामनोज्ञ-रूप स्पर्शो में ।।
हा !
परिणाम चक्षु इन्द्रिय रस परिणाम में ।
या,
परिणाम घ्राण इन्द्रिय स्पर्श परिणाम में ।।
परिणाम नो-इन्द्रिय, कर्ण में
वाक् काय मन का ।
संवरण, न कर पाया रक्षण,
ब्रह्म-धन का ॥
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
अथ, पञ्चम महाव्रत
विरक्ति परिग्रह से ।
परिग्रह वो
अन्तः बाह्य नाम से जानते जिसे ।।
विधाष्ट अन्तः परिग्रह
मोहनी, ज्ञानावरणी ।
नाम, गोत्रायु,
अन्तराय, वेदनी, दृगावरणी ।।
अनेक विध बाहिर परिग्रह
पीठ, पुस्तिका,
संस्तर, शैय्या,
कमण्डलु, फलक, भाण्ड, पीछिका,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
अथ, षष्टम विरक्ति
रात्रि-भुक्ति अणुव्रत में ।
चौ-विधा-हार
अशन-पान, खाद्य, स्वाद्य इनमें ।।
आहार खट्टा, कड़वा,
कषायला, नमक हीन ।
आहार मीठा, तीखा,
सचित्ताचित या नमकीन ।।
काय वाक् मन से,
अयोग्याहार में लिया रस हो ।
धिक् ! हा ! हन्त ! हा !
स्वप्न भी रस से न किया बस हो ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
स्वप्न दर्शन विराधन में,
मन विपर्यासिका ।
विपर्यासिका स्त्री-दृष्टि-वच,
तन विपर्यासिका ।।
विपर्यासिका
भोजन बारम्बार दुःश्रवण से ।
हुआ उच्-च्याव,
पल-स्वप्न हा ! नाना चिन्तवन से ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
स्वप्न दर्शन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
आर्त वा रौद्र ध्यान में,
संज्ञा परिह जहान में ।
संज्ञा आहार, भय, मैथुन, संग,
शल्य मान में ।।
शल्य मिथ्यात्व, क्रोध, नेह, निदान,
माया, लोभ में ।
लेश्या अशुभ कषाय क्रोध मान,
माया, लोभ में ।।
हा ! परिणाम आरम्भ,
परिग्रह परिणाम में ।
हा ! परिणाम मिथ्यात्व,
असंयम परिणाम में ।।
शब्द स्पर्श में,
प्रतिश्रया-भिलाष परिणाम में ।
गन्ध रस में,
काय-सुखा-भिलाष परिणाम में ।।
क्रिया प्रदोष,
प्राणातिपात क्रिया परिताप में ।
रूप में, क्रिया कायाधिकरण में,
क्रिया पाप में ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
हा ! गुप्ति-मन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
श्री मन ! भोजन कथा में,
धन कथा में, अकथा में ।
वैर कथा में,
हा ! राज कथा, चोर, स्त्री विकथा में ।।
पर पाषण्ड कथा में,
मौखरिका, कंदर्पिका में ।
आत्म-प्रशंसा कथा में,
भास-देश डंबरिका में ।।
पर-पैशून्य, परिवाद,
जुगुप्सा पीड़ा कर में ।
कथा कौत्कुच्य,
सावद्यानु-मोदिका वा निष्ठुर में ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
गुप्ति-वचन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
श्री मन् !
गुप्ति तृतीय नाम तन,
चित्र कर्म में ।
काष्ट कर्म में,
कर्म लयन लेप, वस्त्र कर्म में ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
हा ! गुप्ति-काय संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हा ! अनाचार भावेक में,
दो द्वेष-रा-गुद्-वेग में,
ति दण्ड, गुप्ति, गारवा
चौ कषाय, संज्ञा चार वा
समिति, पञ्च, महाव्रत,
सजीव, छः आवश्यक
भयों में सप्त, अष्ट मदों में
ब्रह्म-नौ-गुप्तियों में
श्रमण धर्म दश में
पैढ़ी-गृही एकादश में
भिक्षु प्रतिमा बारहा,
क्रिया तेरा,
प्राणी चौदहा,
प्रमाद पन्द्रा,
प्रवचन सोला,
संयम सत्रा,
असम्पराय अठारहन्,
उन्नीस नाथाध्ययन,
असमाधियाँ बीस,
सबल क्रिया इक्कीस,
बीस-वे परिषह,
सूत्राध्ययन तीस ते,
अरिहन चौबीस,
बीस-पन भावन-क्रिया-थान,
छब्बीस पृथ्वियाँ,
गुण साधु सत्ताईस में
आचार कल्प अट्ठाईस में
पाप सूत्र उन्तीस,
मोहनी तीस,
कर्म विपाक इकत्तीस,
बत्तीस जिनोपदेश,
अत्यासादन तेतीस,
जीवाजीव अत्यासादन
ज्ञान, दर्शन
अत्यासादन वीर्य, तप, चरण
करता उन सभी,
पूर्व दुष्कर्मों का मैं गर्हण ।
भूत, भविष्यत्,
वर्तमान दोषों का प्रतिक्रमण ।।
भावी पापों का प्रत्याख्यान,
हा ! गर्हा अगर्हित की ।
अनालोचित का आलोचन,
निन्दा अनिंदित की ।।
आराधना श्री मन् !
करूँ
विराधना प्रतिक्रमन ।
दिन निन्दन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
निर्ग्रन्थ लिङ्ग हमें आप्त,
कृपया दें करा प्राप्त ।
प्रवचन है यही,
परिपूर्ण, न इस सा कहीं ।
जिन-कथित,
नैकायिक है, यही सामायिक है ।
निःशल्य, शुध्द, मार्ग मोक्ष
प्रमोक्ष, क्षमा मुक्ति का ।
मार्ग निर्याण, निर्वाण,
सिद्धि, श्रेणी वा प्रमुक्ति का ।।
मारग परि-निर्वाण का,
दुक्ख परि-हान का ।
निर्विवाद है यही,
यही, शरण-शरण्य सही ।
प्राप्त होता हूँ इसे,
करता, श्रृद्धा, रुचि, स्पर्श भी ।
इसके जैसा उत्तम,
न था, न है, न होगा कभी ।।
इस से, दृक् से
ज्ञान वृत से, जीव होते सिद्ध हैं ।
होते हैं मुक्त,
कृतकृत्य, विमुक्त-दुख, बुद्ध हैं ।।
श्रमण होता हूँ,
भोग विरक्त भी, उपशान्त भी ।
उपाधि, मूर्छा, असत् मान, वञ्चना
छोड़ता सभी ।।
सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
दिन निन्दन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
भगवन् !
सार्व-कालिक आलोचन
जोड़ के हाथ ।
श्रमण व्रत,
अहिंसा महाव्रत, अमृषा वाद ।।
अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निःसंग,
छटा-नुव्रत तथा ।
समिति, ईर्ष्या,
आदान, निक्षेपण, भाषा, एषणा ।।
प्रतिष्ठापन,
उच्चार, प्रसवण, आदि क्षेपणा ।
गुप्ति मन, वाक्, तन,
हुआ जो इन सर्वासादन ।
अतिक्रमण सर्व धर्मों का,
जीवों का विराधन ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
दिन सम्बन्धी
हुये जो अतिचार, अनाचार भी ।
मानस, काय, वाक् कृत अनाभोग,
आभोग सभी ।।
दुश्चिन्तवन,
दुःस्वप्न, दुर्वचन, दुष्परिणाम ।
श्रुत-त्रिरत्न, सामायिक जिसका नाम ।।
समिति, गुप्ति, महाव्रत पञ्च
षट् जीव निकाय ।
क्रिया निर्घात,
कर्म आठ, प्रदोष दुख-प्रदाय ॥
छींक से, खासी से,
जंभाई से, अंग चलाचल से ।
निमेषुन्मेष, श्वासोच्छ्वास से,
दृग्-चलाचल से ।
असमाधि को छुआ,
हा ! दोष हुआ, जो आचार में ।
मेंटने उसे, लेता हूँ,
कायोत्सर्ग का आधार में ।।
जब तलक करता
अरिहन्त पर्युपासना ।
तब तलक विसारता
समस्त पाप वासना ।।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
करूँ,
निष्ठित करण वीर भक्ति का कायोत्सर्ग |
(कार्यात्सर्ग)
विश्व समस्त
जानते जो युगपत्, उन्हें प्रणाम ।
अकर्म !
कृत तीर्थ धर्म ! विद् मर्म !
एक निष्काम ।।
श्रीष !
यशस्वी ! तपस्वी !
धीर ! वीर ! दें शुभाशीष ।।
जलधि जन्म तीर,
पाते
सव्रत जो ध्याते ‘वीर’ ।
संयम-स्कंध,
व्रत-मूल,
सद्गुण सुगन्ध फूल ।
शील शाखाएँ,
समिति कलिकाएँ,
गुप्ति कोपल,
तप पत्तियाँ,
छाँव दया विहर पथ्यापत्तियाँ,
वर्धित जल नियम,
करे शुभम्, चरित द्रुम ।।
सम्यक् चारित्र आराधूँ,
चारित्र ‘कि पंचम साधूँ ।
हितु, सुखद, धन-बुध
शिवद, धर्म विरद ।
सखा करीब,
दया-नींव, रक्षक धर्म सदीव ।
धर्म संलीन मन,
करते देव उन्हें नमन ।
कार्योंसर्ग
श्री भक्ति वीरा-लोचना अनुरागता ।
आचार गुण मुलोत्तरा-तिचार
सभी त्यागता ॥
लोक प्रमाण,
थान अध्यवसाय असंख्यात में ।
कषाय, अक्ष, अशुभ जोग
रस, ऋध्दि, सात में ॥
संज्ञा, उन्मार्ग, रति, अरति
शोक, भय, हास से ।
लेश्या अशुभ,
मन, वचन, काय, दुष्प्रयास से ।।
संक्लेश रूप आर्त-रौद्र
विकथा परिणाम से ।
ग्लानि, जंभाई,
विषय अक्ष पञ्च अत्या-याम से ।।
स्वर, अक्षर, व्यञ्जन,
पद दिये मिला अन्यथा ।
उच्चारे शीघ्र,
स्वर-पञ्चम, ध्वनि मन्थर तथा ।।
अन्यथा सुने,
चुने अपरिपूर्ण, कहे झूठ हों ।
क्रिया-वश्यक-हीन
कोटि नव वो, झूठ-मूठ हों ॥
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।
करूँ,
चौबीस श्री तीर्थंकर भक्ति का कायोत्सर्ग |
(कार्यात्सर्ग)
वन्दना श्रीश चौबीस,
लोक शीश थित ऋषीश ।
धर लक्षण सहस्र-अष्ट,
जगज्-जाला विनष्ट ।
शशि दिनेश, सन्त वन्द्य,
वन्दना जिनेश नन्त ।
आदि सदीव वन्दना,
जित लोक दीव वन्दना ।
संभव श्रीश वन्दना,
ऋषि शीश अभिनन्दना ।
सुमति, कर्म-हन नमन
पद्म गन्धि सुमन ।
सुपार्श्व जेय अक्ष-पन,
चन्द्र-भा-शशि नमन ।
नमन पुष्प-दन्त-नन्त,
शीतल अभय वन्त ।
शील श्रेय श्री मन्त,
नमन वासु पूज्य अनन्त ।
दान्त विमल जै जयत,
नन्त जै जै यत पत ।
सद्धर्म धर्म केतु जै।,
जल जन्म शान्ति सेतु जै ।
नमन कुन्थ चक्र त्यक्त,
अरह चक्री विरक्त ।
मल्लि मदन मान हत,
वन्दना मुनि सुव्रत ।
नुति नमीश जोड़ हाथ,
कीजिये नेमि सनाथ ।
स्तुत फणीश पार्श्व नाथ,
‘सहजो’ सन्मति साथ ।
कायोत्सर्ग
चौ-बीस तीर्थक भक्ति का किया मैंने ।
चाहूँ निन्दन,
नौ सलंगर लगा अगर खेने ।।
सम्पन्न पञ्च कल्याण,
खान लख-संस्तुति गान ।
अतिशय चौ-तीस जुत,
देवेन्द्र बत्तीस नुत ।।
समेत अष्ट प्रातिहार्य,
‘रे घिरे ऋषीश आर्य ।
तलक वीर चौबीस,
निशि दीस विनत शीश ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ,रत्नन्नय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।
करके भक्ति,
सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर, तीर्थक ।
करूँ, समाधि
कायोत्सर्ग मेंटने कमी-अधिक ।।
कायोत्सर्गम्
नमः ऽनुयोग
प्रथम, करण वा द्रव्य, चरण ।
पठन ग्रन्थों का
संग निर्ग्रन्थों का, नुति जिनेशा ।
आत्म-भावना,
हित-गुणो-पासना मिले हमेशा ।।
आप ह्रदय मेरे,
मैं रहूँ, आप चरण घेरे ।
पद, अक्षर, मात्रा, अर्थ-हीन
जो कहा, हो क्षीण ।
कायोत्सर्ग श्री मन्
श्री भक्ति समाधी का किया मैंने ।
चाहूँ निन्दन,
नौ सलगंर, लगा अगर खेने ।।
रत्नत्रयी श्री मन् परमात्मा का ध्यां,
जिसका निशां ।
सन्त, समाधि वन्त,
नमन उन्हें नन्त हमेशा ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि-मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
ओम्…
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