‘नवग्रह विधान’
‘पूजन’
आया दर-दर भटक ।
तेरे चरणन निकट ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
सिवा तेरे न कोई हमारा ।
लें नवग्रह समेट अपनी माया ।
मुझे बस एक तेरा सहारा ।।
मेंटो मेंटो जी संकट हमारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकराः! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकराः! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकराः! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (इति सन्निधिकरणम्)
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया जल-क्षीर घट ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति-जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया घिस गन्ध घट ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया धाँ शालि सित ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया गुल सर्व-ऋत ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया चरु-चारु घृत ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया दीपक घिरत ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है,आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया दश गंध-घट ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया फल सर्व-ऋत ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये-फलं निर्वपामीति स्वाहा।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
तेरे चरणन निकट ।
लाया दिव द्रव्य अठ ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
*अरिष्ट निवारक नवार्घ*
कहे भक्तों का ताता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
चीर द्रोपदि बढ़ चाला ।
था तुहीं तो रखवाला ।।
आग पानी में बदली ।
कृपा तेरी है विरली ।।
मुझे ‘ग्रह-सूर’ सताये ।
तरेरे आँख, रुलाये ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।
छुपा क्या तुमसे स्वामी ।
नाम तुम अन्तर्जामी ।।
थाम लो मेरी छिंगरी ।
बना दो कृपया बिगड़ी ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-सूर’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं रवि-अरिष्ट निवारक श्री पद्म प्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
भक्त के वंश में रहते तुम ।
भक्त जो कहते, करते तुम ।।
लाज भक्तों की तुम रखते ।
भक्त दृग् नम न देख सकते ।।
घड़े थे नाग, हार निसरे ।
भक्त क्यों-कर तुमको विसरे ।।
पाँव लग खुल्ला दरवाजा ।
शील जयकार गगन गाजा ।
मुझे ‘ग्रह-सोम’ सताये है ।
खून के आँसु रुलाये है ।।
घनेरा स्याही अँधियारा ।
मुझे बस तुम्हारा सहारा ।
छुपा क्या तुमसे हे ! स्वामी ।
सर्वविद् तुम अन्तर्यामी ।।
नाथ इतनी कर दो करुणा ।
मुझे भी कृपया लो अपना ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-सोम’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं चन्द्र-अरिष्ट निवारक श्री चन्द्र प्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
कृपा बरसाते तुम ।
बुलाते, आते तुम ।।
भक्त तुमको प्यारे ।
तुम्हीं जग रखवाले ।।
स्वर्ग मेंढ़क कीना ।
बिना माँगे दीना ।।
शूल की सिंहासन ।
पतित कीने पावन ।।
सताये ‘ग्रह-मंगल’ ।
भरुँ सिसकी पल-पल ।।
घनेरा अँधियारा ।
आसरा इक थारा ।।
छुपाना क्या स्वामी ।
आप अन्तर्यामी ।।
चरण इक दे कोना ।
शरण में रख लो ना ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-भौम’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं भौम-अरिष्ट निवारक श्री वासु पूज्य जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
तुमसे भक्तों को आश ।
तुम भक्तों के विश्वास ।।
तुम करते पूर्ण मुराद ।
तुम सुनते झट फरियाद ।।
नत अंजन सुत बजरंग ।
तुम भरते जीवन रंग ।।
पंछी जटायु पर सोन ।
तुम बिना सहाई कौन ।।
‘ग्रह-बुध’ ने छीना चैन ।
गीले कर जाता नैन ।।
फैला स्याही अँधियार ।
इक शरणा सिर्फ तिहार ।।
विद् सिन्धु-बिन्दु जल माप ।
इक अन्तर्यामी आप ।।
लो थाम हमारा हाथ ।
‘कर’-जोड़ विनय नत-माथ ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-बुद्ध’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं बुध-अरिष्ट निवारक श्री अष्ट जिनेन्द्रेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
इक दरद-मन्द तुम ।
छव शरद-चन्द गुम ॥
तुम तारणहारे ।
तुम पालन हारे ।।
स्यंदन ‘नौकारा’ ।
अंजन ‘भौ’-पारा ।।
वीर-द्वार चन्दन ।
क्षार-क्षार बंधन ।।
रुष्ट ‘ग्रह-वृहस्पत’ ।
फिर के खड़ी विपत् ।।
हुई रोशनी गुम ।
किरण-आश इक तुम ।।
पत राखो स्वामी ।
तुम अन्तर्यामी ।।
मुझे न ठुकराओ ।
कृपया अपनाओ ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘गुरु-ग्रीह’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं गुरु-अरिष्ट निवारक श्री अष्ट जिनेन्द्रेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
तुम भक्तों की रखते लाज ।
होते कभी न तुम नाराज ।।
आप हमारी माँ, हम-बाल ।
माँ रखती ही शिशु का ख्याल ।।
रातरि-जागर देव-विमान ।
पल सुमरण तुम दे सम्मान ।।
हो’शियार-जल रातरि त्याग ।
नुति पद तुम करके अनुराग ।।
मैं ‘ग्रह-शुक्र’ परेशाँ नाथ ।
झिर-लग नयनन जल बरसात ।।
बरपा चौ-तरफा अँधियार ।
मुझे सहारा सिर्फ तिहार ।।
अपराधी, या मैं निष्पाप ।
स्वामी अन्तर्यामी आप ।।
साधुन रख लो, दुष्ट निकाल ।
करो भक्त इक और निहाल ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-शुक्र’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं शुक्र-अरिष्ट निवारक श्री पुष्प दन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
भक्त तुम्हारा कभी न हारे ।
भले देर से बाजी मारे ।।
भले राह तूफान निरोधे ।
आसमान छू लेते पौधे ।।
पहली छोड़ मछरिया, देखा ।
धीवर पाँत सु’धीवर लेखा ।।
छोड़ो और छोड़ पल कागा ।
पुण्य सातिशय भिल्लक जागा ।।
रौब दिखाये ‘शनि-ग्रह’ अपना ।
आँख हमारी गंगा जमुना ।
अँधकार चहु-ओर घनेरा ।
सिर्फ सहारा मुझको तेरा ।।
व्यथा छुपी कब तुमसे स्वामी ।
कौन सिवा तुम अन्तर्यामी ।।
हाथ, हमारे-सिर रख दीजे ।
नाथ जरा सी करुणा कीजे ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘शनि-देव’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं शनि-अरिष्ट निवारक श्री मुनि सुव्रत नाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
तुम भक्त साथ सच रहता है ।
ईमान रगों में बहता है ।।
चूनर तुम भक्त टकें सितार ।
भू खड़े भक्त तुम गगन पार ।।
सिंह महावीर कहलाया है ।
कपि, नाग-नकुल जश पाया है ।।
बन चाला कुन्द-कुन्द ग्वाला ।
‘सुर-वर’ शूकर भोला भाला ।।
‘ग्रह-राहु’ राह में खड़ा आन ।
बन सके करे हा ! परेशान ।।
विरथा क्या कहूँ, व्यथा स्वामी ।
सर्वज्ञ आप अन्तर्यामी ।।
छाया घन-घोर अंधेरा है ।
बस एक भरोसा तेरा है ।।
ये टूट न पाये आश डोर ।
बस यही विनय है हाथ जोड़ ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-राहु’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं राहु-अरिष्ट निवारक श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
न्यारा जगत से तुम भक्त ।
अर तुम भक्त, किसका वक्त ।।
महिमा आपकी न्यारी ।
करुणा, दया अवतारी ।।
धन ! धन ! कूख महतारी ।
शचि भव एक अवतारी ।।
दुठ ‘ग्रह-केतु’ लहरे केत ।
टूटे हहा ! धीरज सेत ।।
नागिन-नाग ‘नागन-स्वाम’ ।
स्वर्ण-सुहाग कोढ़िन चाम ।।
मानस रात अँधियारी ।
जुगनू शरण इक थारी ।।
जाने आप-बीति-तमाम ।
हैं ही आप अन्तर्याम ।।
अँगुली थाम लो म्हारी ।
दुनिया ‘स्वा-रथी’ भारी ।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-केतु’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं केतु-अरिष्ट निवारक श्री मल्लि नाथ पार्श्वनाथ जिनाभ्यां अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
‘जयमाला’
‘दोहा’-
अगर अँधेरा मेंटना,
तो लाठी दो फेंक ।
हृदय भक्ति भगवत् ‘दिया’,
बालो पल दो एक ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
सूर्य अरिष्ट निवारण-हारा ।।
पद्मप्रभ भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
चन्द्रप्रभु भगवान् का ।
चन्द्र अरिष्ट निवारण-हारा
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
भौम अरिष्ट निवारण-हारा ।।
वासु-पूज्य भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
अष्ट-इष्ट भगवान् का ।
बुद्ध अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
गुरू अरिष्ट निवारण-हारा ।।
अष्ट-इष्ट भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
पुष्प-दन्त भगवान् का ।
शुक्र अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
शनी अरिष्ट निवारण-हारा ।।
मुनि-सुव्रत भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
नेमि-नाथ भगवान् का ।
राहु अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
केतु अरिष्ट निवारण-हारा ।।
मल्ल-पार्श्व भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
चौबीसों भगवान् का ।
सर्व अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
‘दोहा’-
बाल वैद्य इक साध लो,
खो चालेगी पीर ।
गड्डे इक इक फुट किये,
कब निकला ‘मिठ’ नीर ।।
ॐ ह्रीं सर्व अरिष्ट निवारक श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
‘विधान-प्रारंभ’
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
बढ़े दुख ले गति दूनी ।
गोद बहुरानी सूनी ।।
सुबह से संध्या होती ।
ढुला आँखों के मोती ।।
‘जमा…ना’ ताने मारे ।
भटकता द्वारे-द्वारे ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।1।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्बत्-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
टूट चाले हैं सपने ।
रूठ चाले हैं अपने ।।
राह अटकायें रोड़े ।
रहें उखड़े-से थोड़े ।।
केकड़ा-रीत रिझायें ।
खींच नीचे कुछ लायें ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।2।।
ॐ ह्रीं बन्धुजन-कृत-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
ढ़ेर राहों में काँटे ।
घेर ‘शू-साईड’ नाते ।।
मुझे अब और न जीना ।
सब्र ने जबाब दीना ।।
पट्टि मन उलट पढ़ाये ।
डाल बैठे कटवाये ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।3।।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
मूठ रज-मोहन माया ।
पिशाची काली छाया ।।
ऊपरी बाधा हावी ।
जिन्द-जिद्दी मायावी ।
दिनाई आद बलाएँ ।
नजरिया स्याही, हायें ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।4।।
ॐ ह्रीं टुष्टविद्या-व्यन्तरादि-कृत-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
नौजवाँ घर में बैठे ।
मील-पत्थर सर टेके ।।
सिर्फ बस राम भरोसे ।
शाम होती सुबहो से ।।
सुबह से होती संध्या ।
गूँथ सेहरा सुत बंध्या ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।5।।
ॐ ह्रीं आजीविका-विरहित-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
आँख में गंगा पानी ।
ना चले धंधा-पानी ।।
वहीं पर साँझ दिखाऊँ
बैल-तेली कहलाऊँ ।।
माल बिकता है थोड़ा ।
कर्ज का दौड़े घोड़ा ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।6।।
ॐ ह्रीं व्यापार वृद्धि विरहित-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
हाथ ना ठहरें पैसे ।
दल कमल जल-कण जैसे ।।
बनी रहती है तंगी ।
गरीबी अत्त-फिरंगी ।।
चढ़ चली ‘तन’ख्वा’ तन को ।
क्या खिलाऊँ परि-जन को ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।7।।
ॐ ह्रीं दारिद्र-संबंधित-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
मानसिक परिणति खोटी ।
बुद्धि ऊपर से मोटी
सोचती उल्टा-सीधा ।
श्वान मल माल-मलीदा ।।
धर्म के पाठ पढ़ाएँ ।
लौट घर बुद्ध आएँ ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।8।।
ॐ ह्रीं मानसिक विकार-संबंधित-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
पाप ‘जाने’ क्या पिछले ।
जुबां फिसले ही फिसले ।।
राह ‘छी’ गोल बोलना ।
चाह भी तोल बोलना ।।
छोड़ आता दुर्गन्धा ।
बोल आता हूँ गन्दा ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।9।।
ॐ ह्रीं वाचनिक विकार-संबंधित-उपद्रवनिवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
कहा दश-विध मुण्डन है ।
काय इक अभिनन्दन है ।।
पाप काया रुचि बढ़ती ।
हाँप मन पल्ले पड़ती ।।
हाथ आना भी क्या था ।
हाथ ‘आना’ भी ना था ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।10।।
ॐ ह्रीं कायिक विकार-संबंधित-उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
कण्ठ सरसुति ना ठहरें ।
सिन्धु मन उठतीं लहरें ।।
रटूँ, रटता ज्यों तोता ।
पलक झपके सब खोता ।।
‘जमा…ना’ हँसी उड़ाये ।
मार ताने न लजाये ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।11।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
रोग जाँ-लेवा पीछे ।
कहें, रहिये दृग् मींचे ।।
दर्द रह रह के उठता ।
चैन सुख करार लुटता ।।
फट, फिर पट सीने की ।
आश छोड़ी जीने की ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।12।।
ॐ ह्रीं पित्त-कफ-वात विकृत रोगादि कृत उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
चोर शातिर दिमाग है ।
न छोड़ा इक सुराख है ।।
चीज थी कीमत वाली ।
छिनी मानो दीवाली ।।
हो गया पागल-सा मैं ।
मुझे आ कोई थामे ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।13।।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग-संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
बड़ा अपराध, न जबकि ।
गिरा नजरों से सबकी ।।
किन्तु न समझे कोई ।
रहा समझा जग-दोई ।।
नाक रख रंगीं चश्मा ।
देखता जगत् करिश्मा ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।14।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति-संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
बड़ी महंगी है हल्दी ।
हाथ पीले कब जल्दी ।।
उलझतीं जातीं साँके ।
कर्म दिखलाते आँखें ।।
गुण मिलाये न मिलते ।
पोत लग ‘तीर’ फिसलते ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।15।।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा-संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
हाथ हथकड़िंयाँ आईं ।
बेड़िंयाँ पैंय्या पाईं ।।
साँकले मोटी मोटी ।
देह जकड़ी नख-चोटी ।।
धूप भी मिले न खाने ।
भूप के बन्दी-खाने ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।16।।
ॐ ह्रीं श्रृंखला-संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
फट पड़े मेघा काले ।
मूसला-धारा वाले ।।
हवा से उघरे सर हैं ।
तैरने निकले घर हैं ।।
बाढ़ ऐसी है आई ।
मचाये हहा ! तबाही ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।17।।
ॐ ह्रीं अति वृष्टि कृत उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
मेघ की तानाशाही,
मची जल त्राही-त्राही ।।
झाँक पाताल रहा है ।
फट चली धरा हहा ! है ।।
नाम अब शेष हरी का ।
नाम अवशेष हरी का ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।18।।
ॐ ह्रीं दुर्भिक्ष उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
खूब कृषकों से जश लें ।
लहर लहरातीं फसलें ।।
पाँत लग खड़ीं बलाएँ ।
हिमानी तेज हवाएँ ।।
हाय ! पड़ चाला पाला ।
लगा फिर हाथ दिवाला ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।19।।
ॐ ह्रीं शीत-पवन-संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
सभी मद आठों हावी ।
छुये जब-तब बेताबी ।।
जाति ना कुनवा ऊँचा ।।
ऋद्धि, बल, तप न पूजा ।।
नाहिं सुन्दर न ज्ञानी ।
बनूँ, जाने क्यूँ मानी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।20।।
ॐ ह्रीं अष्ट मद भ्रमित मति उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
फँसा गोरख-धंधे में ।
मान-माया फन्दे में ।।
बाद पछताना पड़ता ।
क्रोध मन-भर के करता ।।
लोभ का नहीं ठिकाना ।
हुआ कब मन भर पाना ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।21।।
ॐ ह्रीं चौ कषाय भ्रमित मति उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
स्वप्न मति-मानस हंसा ।
बचूँ, हो जाती हिंसा ।।
झूठ बेबाक बोलते ।
नैन बस रहें डोलते ।।
करूँ सपने भी चोरी ।
मुड़ी से रखूँ तिजोड़ी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।22।।
ॐ ह्रीं पञ्ज पाप भ्रमित मति उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
अचेतन कृत उपसर्गा ।
कृतिक चेतन उपसर्गा ।।
पलट मुड़ पीछे आएँ ।
विघ्न दैवीय सताएँ ।।
विपद् आकस्मिक भारी ।
सिर चढ़े हा ! दुश्वारी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।23।।
ॐ ह्रीं समस्त उपसर्ग संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
जीव-धारी विष वाले ।
हाय ! मनसूबे काले ।।
लिखित वज्जर सा टोंचें ।
नुकीली पैंनीं चोंचें ।।
दाढ़ अर दहाड़ दूजी ।
गगन दहला जा गूँजी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।24।।
ॐ ह्रीं चंचु तुण्ड दाढ़ विष दन्तादि कृत उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
गहल गज परश रिझाये ।
गहल रस मीन लुभाये ।।
कान गफलत अरि नवरा ।
घ्राण गफलत हा ! भँवरा ।।
अक्ष वशिभूत पतंगे ।
मौत-मुँह, वैसे चंगे ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।25।।
ॐ ह्रीं पञ्च इन्द्रिय भ्रमित मति उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
लपट छूने नभ मचले ।
लगे मानो जग निगले ।।
न जल से बुझने वाली ।
आग-अँगार कराली ।।
दवानल, बड़वा, जठरा ।
हहा ! कामानल गहरा ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।26।।
ॐ ह्रीं नाना अनल संबंधित उपद्रव निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे भक्तों का ताँता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।
निकलना चाहूँ घर से ।
बोझ न उतरे सर से ।।
व्यथा भव मनुज गवाऊँ ।
फेंक मणि काग उड़ाऊँ ।।
भूल अपनी ही हमरी ।
फँसा खुद जाले मकरी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।27।।
ॐ ह्रीं सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*नव(ग्)-ग्रह मंत्र*
ॐ ह्रीम् श्री पद्-म(प्)-प्रभवे
ॐ ह्रीम् श्री चन्-द(प्)-प्रभवे
ॐ ह्रीम् श्री पू(ज्)-ज्य(प्)-प्रभवे
नमो नमः नमो नमः
ॐ ह्रीम् श्री शान्ति नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री आदि नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री सुविधि नाथाय
नमो नमः नमो नमः
ॐ ह्रीम् मुनि-सु(व्)-व्रत नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री नेमि नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री पार्श्व नाथाय
नमो नमः नमो नमः
मे नव(ग्)-ग्रह शान्-त्यर्-थम्
ते नव(ग्)-ग्रह शान्-त्यर्-थम्
ते मे नव(ग्)-ग्रह शान्-त्यर्-थम्
ओम् शान्ति
शान्ति ओम् शान्ति
( नव बार )
*जयमाला*
==दोहा==
स्वाति बिन्दु चातक चखे,
भखे या ‘कि अंगार ।
सिर अपना ‘सिरि-फल’ नहीं,
चढ़ा दिया हर-द्वार ।।
माँ के जैसे भगवान् ।
रखते भक्तों का ध्यान ।।
रस्ते में काँटे देख ।
लें उठा गोद, अभिलेख ।।१।।
जुग आद ब्रह्म जिन आद ।
जय भक्त हितैष उपाध ।।
आ जाते सुन आवाज ।
अख-अजित अजित जिन राज ।।२।।
जप शम-भव संभव नाम ।
बन चाले बिगड़े काम ।।
राखी पत भक्त सदैव ।
जय अभिनन्दन जिन देव ।।३।।
जय सुमति सुमति दातार ।
तट भक्त पोत, पतवार ।।
भगतन सहाय शिर-मौर ।
जय पद्म पद्म प्रभ और ।।४।।
जय जयतु सुपार्श्व जिनन्द ।
बढ़ मढ़ पारस जश वन्त ।।
गुण शून भक्त तुम अंक ।
जय चन्द्र चन्द्र निकलंक ।।५।।
जय पुष्प दन्त नुति नन्त ।
भवि भक्तन भद्र समन्त ।।
कर्तार भक्त कल्याण ।
जय शीतल शीतल वाण ।।६।।
जय श्रेयस श्रेयस पाथ ।
भवि भक्तन भाग विधात ।।
जयकार धरा-नभ गूँज ।
शशि दूज तनय वसु-पूज ।।७।।
जय विमल विमल परिणाम ।
पत राखत भक्तन शाम ।।
दातार किमिच्छिक दान ।
जय नन्त नन्त गुण वान् ।।८।।
जय धर्म धुरन्धर धीर ।
हरतार भक्त भव-पीर ।।
ऋत-शीत गुनगुनी धूप ।
जय शान्त प्रशान्त अनूप ।।९।।
जय कुन्थ कुन्थ कल सिद्ध ।
सुन धुन भवि हृदय विशुद्ध ।।
दिवि शिविका ‘नव’ भव सिन्ध ।
जय अर अर्हत शत-इन्द ।।१०।।
जय मल्ल दल्ल शल तीन ।
सम-दृष्टि-भक्त ‘धनि-दीन’ ।।
तुम भक्त समेत निहाल ।
जय गुणि मुनि सुव्रत पाल ।।११।।
जय जय नम नम दृग् कोर ।
भवि भक्त व्यूह दुख तोड़ ।।
बिन कारण तारणहार ।
जय नेम क्षेम करतार ।।१२।।
जय पारस नाथ, अनाथ ।
सुख रेख उकेरें हाथ ।।
प्रद भक्तन हंस विवेक ।
जय सन्मत सन्मत एक ।।१३।।
माँ के जैसे भगवान् ।
रखते भक्तों का ध्यान ।।
शिशु ठोकर लागी दीख ।
‘माँ-सहजो’ पड़ती चीख ।।१४।।
==दोहा==
यूँ-हि भक्ति प्रभु आपकी,
रहे निभाती साथ ।
‘सहज-निरा-कुल’ बन सकूँ,
विनय जोड़ जुग हाथ ।।
*आरती*
आरती तीर्थंकर चौबीस ।
उतारें ग्रह-अरिष्ट निशिदीस ।।
मान के भुवन-भुवन इक ईश ।
प्रफुल्लित रोम-रोम नत शीश ।।
उतारें ग्रह-अरिष्ट निशिदीस ।।
आरती तीर्थंकर चौबीस ।
लिये ‘ग्रह-सूर’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-सोम’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-भौम’ साथ परिवार ।
चला आता साँचे दरबार ।।
बना बाती-कपूर मणि-दीव ।
करे आरति रख भक्ति अतीव ।।
लिये ‘ग्रह-बुद्ध’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-गुरू’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-शुक्र’ साथ परिवार ।
चला आता साँचे दरबार ।।
बना बाती-कपूर मणि-दीव ।
करे आरति रख भक्ति अतीव ।।
लिये ‘ग्रह-शनी’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-राहु’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-केतु’ साथ परिवार ।
चला आता साँचे दरबार ।।
बना बाती-कपूर मणि-दीव ।
करे आरति रख भक्ति अतीव ।।
मान के भुवन-भुवन इक ईश ।
प्रफुल्लित रोम-रोम नत शीश ।।
आरती तीर्थंकर चौबीस ।
उताऊँ मैं भी, हित आशीष ।
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