*मंगलाष्टक*
अरिहन्त देव इक जगन्नाथ ।
भगवन्त सिद्ध सर्वार्थ हाथ ।।
आचार्य अहिंसा धर्म सूर ।
उवझाय जैन सिद्धान्त तूर ।।
रत्नत्रय आराधक मुनिवर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
सर शचिपति नाया चरणों में ।
नख मिस शशि आया चरणों में ।।
हित वृद्धि सिन्धु प्रवचन चन्दा ।
मन-जन-सज्जन प्रद आनन्दा ।।
गुरु पञ्च परम सत्, शिव, सुन्दर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
शुचि सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरण ।
दातार मोक्ष करुणा-प्रवचन ।।
प्रथम, करणं, चरणं, द्रव्यम् ।
भव जखम जैन आगम मरहम ।।
जिन-मंदिर, जिन-प्रतिमा मनहर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
चौबीस तीर्थ-कर वीर अन्त ।
नव सिरि बलभद्र ग्रहस्थ-सन्त ।।
प्रति-नारायण नव-नारायण ।
द्वादश भरतादिक चक्री-गण ।।
ये पुरुष शलाका संज्ञा धर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
तप सर्वोषधी ऋद्धि-धारी ।
धारी बल-ऋद्धि बुद्धि-धारी ।।
अष्टांग महा निमित्त-ज्ञानी ।
धर-ज्ञान, ऋद्धि-चारण ध्यानी ।।
सप्तर्षि वंद्य त्रिभुवन गणधर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
आवास भवन, ज्योतिस्, व्यन्तर ।
वैमान, मेर, अकृतिम-मन्दर ।।
विजयार्ध, मानुषोत्तर-पहार ।
नन्दीश्वर, कुण्डल-वर, बछार ।।
कुल-अचल, जम्बु, शाल्मल-तरुवर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
कैलाश वृषभ सौ-टंच हेम ।
गिरनार भूमि निर्वाण नेम ।।
चम्पापुर वासु-पूज्य-स्वामी ।
सन्मत पावापुर शिव-गामी ।।
अर तीर्थंकर सम्मेद शिखर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल-हर ।।
गर्भावतार कल्याण पूज ।
जन्माभिषेक कल्याण दूज ।।
कल्याणक दीक्षा मान और ।
कल्याणक केवल-ज्ञान और ।।
निर्वाण नाम कल्याण अपर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल हर ।।
तलवार फूल, नागन माला ।
‘सहजो’ विष बने अमृत प्याला ।।
अरि मित्र बने, वशि-भूत देव ।
करते ही मन से धर्म सेव ।।
दातार रतन बर्षा अम्बर ।
मंगल-कर होंय, अमंगल हर ।।
*दोहा*
पढ़ें सुनें जे भाव से,
अष्टक मंगल-पाठ ।
‘सहज-निराकुल’ वे लगें,
भव-वैतरणी घाट ।।
*अभिषेक पाठ*
जिन-देव-देव ! पद-पद्म सेव ।
करते सदैव शत-इन्द्र देव ।।
जिन पाद-मूल थित विनत माथ ।
अभिषेक करूँगा सविध नाथ ।।
अथ पौर्वाह्णिक/मध्याह्निक/अपराह्णिक
देव वन्दनायां पूर्वा चार्या नुक्रमेण
सकल कर्म क्षयार्थं
भाव पूजा वन्दना स्तव समेतं श्री-पंच-महा-गुरु-भक्ति
पुरस्सरं कायोत्सर्गं करोम्यहम् ।।
( २७ श्वासोच्छवास पूर्वक नौ बार णमोकार मंत्र का ध्यान करें )
सुर असुर साथ परिकर आएँ ।
कृतिमा-किरतिम जिन-प्रतिमाएँ ।।
अभिषेक करें पूजन अर्चन ।
मैं पुष्पांजली करूँ अर्पण ।।
( यह पढ़कर अभिषेक-थाल में पुष्पांजलि क्षेपण कर अभिषेक की प्रतिज्ञा करें )
ॐ ह्रीं अभिषेक-प्रतिज्ञायां
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
मैं उठा प्रतिज्ञा अभि-सेचन ।
अक्षर श्री-कार करूँ लेखन ।।
करने यह मानव जन्म धन्य ।
बन भक्त आपका इक अनन्य ।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकार लेखनं करोमि ।।
रत्नों से जिसके पार्श्व खचित ।
श्री पीठ सिंहासन स्वर्ण रचित ।।
संपादित जिनभि-षेक करने ।
संस्थापित करूँ हाथ अपने ।।
ॐ ह्रीं श्री स्नपन-पीठ
स्थापनं करोमि ।।
युत झारी, दर्पण, कलश, चॅंंवर ।
ठोना, पंखा, ध्वज और छतर ।।
श्री पीठ, सहित वादित्र गान ।
जिन-प्रतिमा करूँ विराजमान ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मा-तीर्था-धिनाथ
भगवन् निह (पाण्डुक-शिला)
स्नपन-पीठे तिष्ठ! तिष्ठ!
भर सिन्धु-क्षीर जल हरष हरष ।
संस्थापित करता स्वर्ण कलश ।।
अभिषेक करे सौधर्म आन ।
अभिषेक करूँ ‘स्व-धर्म’ मान ।।
ॐ ह्रीं चतु:कोणेषु
स्वस्तये चतु:कलश
स्थापनं करोमि ।।
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प-दिव्य ।
चरु, दीप, धूप, फल अष्ट द्रव्य ।।
भेंटू जिन संस्थित न्हवन पीठ ।
अनिमेष टिका तुम चरण दीठ ।।
ॐ ह्रीं स्नपन-पीठ-स्थित जिनाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
उर-गद-गद, रोमांचित शरीर ।
हित जन्म-मरण संसार तीर ।।
प्रासुक जल भर कर, घट-कंचन ।
कर रहा नाथ तुम अभि-सिंचन ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं
वं मं हं सं तं पं वं वं
मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं
झं झं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं
द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय
नमोऽर्हते भगवते श्रीमते
पवित्रतर जलेन
जिन-मभिषेच-यामि स्वाहा ।।
आनन्द समिश्रित नयन-सजल ।
ले उत्तम-उत्तम तीरथ-जल ।।
जिन-आदि-आदि जिन-वीर-अन्त ।
अभिषेक करूँ कर नमन-नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि-वीरान्तान्
जलेन स्नपयाम: ।।
( यह पढ़ते हुए कलश से 108 बार धारा प्रतिमाजी पर करें )
देने में सुख-शिव, प्राप्त लेख ।
अभिषेक बूँद पर्याप्त एक ।।
सौधर्म करे नित-प्रति विमान ।
अभिषेक करूँ हित-आत्म ठान ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं
वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं हं झं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सः झं वं हः यः सः क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्षः क्ष्वीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रों ह्रौं ह्रं ह्रः ह्रीं द्रां द्रीं नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठः ठः इति बृहच्छांति मन्त्रेणाभिषेकं करोमि ।।
ॐ ह्रीं श्री-मन्तं भगवन्तं कृपा-वन्तं श्री-वृषभादि-महावीरान्त-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परम-देवं आद्यानां आद्ये मध्यलोके भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे …प्रदेशे … नाम्निनगरे … मन्दिरे (मण्डपे) …… वीर-निर्वाण-संवत्सरे मासाना-मुत्तमे मासे …. पक्षे … तिथौ …. वासरे मुन्यार्यिका-श्रावक-श्राविकाणां सकल-कर्म-क्षयार्थं जलेनाभि-षिंच-याम:।।
(यह पढ़कर चारों कोनों में रखे हुए चार कलशों से अभिषेक करें)
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प दिव्य ।
चरु, दीप, धूप, फल अष्ट-द्रव्य ।।
भेंटू जिन आदि अखीर वीर ।
सन्मृत्यु पा सकूँ ‘चीर’ चीर ।।
ॐ ह्रीं अभिषे-कान्ते
वृषभादि वीरान्तेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिन-सकल विश्व में शांति करें ।
जिन-निकल विश्व में शांति करें ।।
नित शान्ति करें जिन-कल जग में ।
सुख-शांति करें ध्वनि-पल जग में ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
*बृहद-शांति-धारा*
ओम् ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं
वं मं हं सं तं पं
वं-वं मं-मं हं-हं सं-सं
तं-तं पं-पं झं-झं
झ्वीं-झ्वीं क्ष्वीं-क्ष्वीं
द्रां-द्रां द्रीं-द्रीं द्रावय-द्रावय
नमोर्-हते भ-गवते श्री-मते
ॐ ह्रीं क्रौं
अस्माकम् पापम्
खण्डय खण्डय
जहि-जहि दह-दह
पच-पच पाचय-पाचय
ॐ नमो अर्हन् झं झ्वीं क्ष्वीं
हं सं झं वं ह्व: पः हः
क्षां क्षीं क्षूं
क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्षः क्ष्वीं
ह्रां ह्रीं ह्रूं
ह्रें ह्रैं ह्रों ह्रौं ह्रं ह्रः
द्रां द्रीं द्रावय द्रावय
नमोर्-हते भ-गवते
श्रीमते ठः ठः
अस्माकम्
श्री-रस्तु, वृद्धि-रस्तु,
तुष्टि-रस्तु, पुष्टि-रस्तु,
शान्ति-रस्तु, कान्ति-रस्तु,
कल्याण-मस्तु स्वाहा ।
एवं अस्माकम्
कार्य-सिद्-ध्यर्थम्
सर्व-विघ्न निवा-रणार्थम्
श्री-मद् भ-गव-दर्हत्
सर्-व(ग्)-ज्ञ परमेष्ठि
परम-पवि(त्)-त्राय नमो नम:
अस्माकम् श्री शान्ति-भट्टारक पाद-पद्म(प्)-प्रसादात्
सद्-धर्म(श्) श्री-बलायु
रारोग्-यैश्वर्-याभि वृद्धि-रस्तु
सद्-धर्म(स्) स्व-शिष्य
पर-शिष्य-वर्गा: प्र-सी-दन्तु नः ।
ओम् श्री वृ-षभादय:
श्री-वर्द्धमान-पर्यन्-ताश्
चतुर्-विंशत्-यर्-हन्तो
भ-गवन्त: सर्-व(ग्)-ज्ञा:
परम-मांगल्य नाम-धेया:
अस्माकम् इहा-मुत्र च
सिद्धिम् तन-वन्तु
सद्-धर्म कार्येषु
इहा-मुत्र च सिद्धिम्
प्र-यच्-छन्तु न: ।
ॐ नमोर्-हते भ-गवते
श्री-मते श्रीमत्-पार्श्व
तीर्-थंकराय
श्री-मद्-रत्-न(त्)-त्रय-रूपाय
दिव्य-तेजो-मूर्-तये
प्रभा-मण्डल-मण्डिताय
द्वादश-गण-सहिताय
अनन्त-चतुष्टय-सहिताय
समव-सरण
के-वल(ग्)-ज्ञान-लक्ष्मी शोभिताय
अष्टा-दश दोष-रहिताय
षट्-चत्वा-रिंशद्-गुण-संयुक्-ताय
परमेष्ठि-परम-पवि(त्)-त्राय
सम्यग्-ज्ञानाय
स्वयं-भुवे
सिद्-धाय, बुद्-धाय,
प-रमात्मने
परम-सुखा-य
त्रै-लोक्य-महि-ताय
अनन्त-संसार
चक्र(प्)-प्र-मर्-दनाय
अनन्त-ज्ञान-दर्शन-
वीर्य-सुखास्-पदा-य
त्रै-लोक्य वशंकराय
सत्य(ग्)-ज्ञानाय
सत्य(ब्)-ब्रह्मणे
उपसर्ग-विनाशनाय
घाति-कर्म(क्) क्षयंकराय
अ-जराय, अ-भवाय
अस्माकम्…. व्याधिम् घ्नन्तु,
व्याधिम् घ्नन्तु,
व्याधिम् घ्नन्तु ।
श्री-जिनाभि-षेक
पूजन(प्)-प्रसादात्
अस्माकम्
सर्व दोष-रोग-शोक
भय-पीडा-विनाशनम् भवतु ।
ओम् नमोर्-हते भ-गवते
प्र(क्)-क्षी-णाशेष दोष-कल्-मषाय
दिव्य-तेजो-मूर्तये
श्री-शान्ति-नाथाय शान्ति-कराय
सर्व-विघ्न(प्) प्र-णा-शनाय सर्व-रोगाप-मृत्यु-विना-शनाय
सर्व-पर-कृत(क्) क्षुद्रो-प(द्)द्रव
विना-शनाय
सर्वा-रिष्ट-शान्ति-कराय
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:
अ सि आ उसा नम:
मम सर्व-विघ्न-शान्तिम् कुरु कुरु
तुष्टिम्-पुष्टिम् च कुरु-कुरु स्वाहा ।
मम कामम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
रति-कामम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
बलि-कामम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
क्रोधम् पापम् वैरम् च
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
अग्नि-वायु-भयम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-शत्रु-विघ्नम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्वोप-सर्गम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-विघ्नम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व राज्य-भयम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-चौर-दुष्ट-भयम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-सर्प-वृश्चिक-सिंहादि भयम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व(ग्) ग्रह-भयम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-दोषम्, व्याधिम्, डामरम् च
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-पर-मंत्रम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्वात्म-घातम्, पर-घातम् च
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-शूल-रोगम्,
कुक्षि-रोगम्, अक्षि-रोगम्,
शिरो-रोगम्, ज्वर-रोगम् च
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-नर-मारिम्
छिन्धि छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-गजाश्व-गो-महिष-अज-मारिम् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व शस्य-धान्य-वृक्ष-लता
गुल्म-पत्र-पुष्प-फल-मारिम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-राष्ट्र-मारिम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व(क्)-क्रूर-वेताल
शाकिनी-डाकिनी-भयानि
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व वे-दनीयम्
छिन्धि-छिन्धि-भिन्धि-भिन्धि !
सर्व मो-हनीयम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्-वा-पस्-मारिम्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि भिन्धि !
अस्माकम् अशुभ-कर्म
जनित-दुःखानि
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
दुष्ट-जन-कृतान् मंत्र-तंत्र
दृष्टि-मुष्टि-छल-छिद्र-दोषान्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-दुष्ट-देव-दानव
वीर-नर-नाहर
सिंह-योगिनी-कृत-दोषान्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व अष्ट-कुली-नाग
जनित-विष-भयानि
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्वस्-थावर-जंगम
वृश्चिक-सर्पादि-कृत-दोषान्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
सर्व-सिं-हाष्टा-पदादि
कृत-दोषान्
छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि !
पर-शत्रु-कृत-मारणोच्-चाटन-
वि(द्)-द्वेषण-मोहन
वशी-कर-णादि दोषान्
छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि !
ॐ ह्रीं अस्-मभ्यम् चक्र-विक्रम-सत्त्व-तेजो-बल-
शौर्य-वीर्य-शान्ती: पूरय पूरय !
सर्व-जीवा-नन्दनम् कुरु-कुरु !
सर्व जना-नन्दनम् कुरु-कुरु !
सर्व भव्या-नंदनम् कुरु-कुरु !
सर्व गोकुला-नन्दनम् कुरु-कुरु !
सर्व राजा-नन्दनम् कुरु-कुरु !
सर्व(ग्)-ग्राम-नगर खेट-कर्वट-मटंब
पत्-तन(द्)-द्रोणमुख
संवाहना-नन्दनम् कुरु-कुरु !
सर्वा-नंदनम् कुरु-कुरु स्वाहा !
यत्-सुखम् त्रिषु लोके-षु(व्),
व्या-धि(व्)-व्यसन-वर्-जितम् ।
अ-भयं क्षेम-मारोग्यम्,
स्वस्ति-रस्तु विधी-यते ।।
श्री-शान्ति-रस्तु… तथास्तु !
शिव-मस्तु… तथास्तु !
जयोस्तु… तथास्तु !
नित्य-मारोग्य-मस्तु… तथास्तु !
अस्माकम् पुष्टि-रस्तु… तथास्तु !
समृद्धि-रस्तु… तथास्तु !
कल्याण-मस्तु… तथास्तु !
सुख-मस्तु… तथास्तु !
अभि-वृद्धि-रस्तु… तथास्तु !
दीर्घायु-रस्तु… तथास्तु !
कुल-गोत्र-धनानि
सदा सन्तु … तथास्तु !
सद्-धर्म(श्)-श्री
बलायु-रारोग्-यैश्वर्-याभि
वृद्धि-रस्तु… तथास्तु !
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं
असि आ उसा
अनाहत विद्यायै
णमो अरिहंताणम्
ह्रौं सर्व शान्तिम् कुरु कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञा-न(ज्)-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-सं-भवे
वं-वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम्
जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम्
लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा विवाये वा
रणंगणे वा रायंगणे वा
थम्भणे वा मोहणे वा
सव्व पाण भूद जीव सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
आयुर्-वल्ली विलासं,
सकल-सुख-फलैर्-
द्राघ-यि(त्)त्वा(श्) श्व-नल्पम् ।
धीरम् वीरम् गभीरम्
निरुपम-मुप-नयत्वा,
तनो(त्)-त्वच्छ-कीर्तिम् ।
सिद्धिम् वृद्धिम् समृद्धिम्,
प्रथ-यतु तरणिस्-
फूर्य-दुच्चै: प्रतापम् ।
कान्तिम् शान्तिम् समाधिम्
वित-रतु जगता-
मुत्-तमा शान्ति-धारा ।।
सम्-पूज-कानाम्
प्रति-पाल-कानाम्, यतीन्द्र-सामान्य-तपो-धना-नाम् ।
दे-श(स्)-स्य राष्ट्र(स्)-स्य
पुर(स्)-स्य राज्ञ:,
करोतु शान्तिम् भगवान् जिनेन्द्र: ।
करोतु शान्तिम् भगवान् जिनेन्द्र: ।
करोतु शान्तिम् भगवान् जिनेन्द्र: ।
विद्यासागर विश्व-वंद्य श्रमणं,
भक्त्या सदा संस्तुवे ।
सर्वोच्चं यमिनं विनम्य परमं
सर्वार्थ सिद्धि(प्) प्रदं ।।
ज्ञान(ध्)-ध्यान तपो-भिरक्त मुनिपं
वि(श्)-श्व(स्)-स्य वि(श्)-श्वा(श्)-श्रयं
साकारं श्रमणं विशाल हृदयं
सत्यं शिवम् सुंदरम्,
सत्यं शिवम् सुंदरम ।
*इति वृहत्-शांतिधारा*
*समर्पण भावना*
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
संस्पर्श सुखद कोमल प्रशस्त ।
ले चन्द्र किरण सम स्वच्छ वस्त्र ।।
करता परि-मार्जन जल-कण का ।
कर पुन-पुन वन्दन चरणन का ।।
ॐ ह्रीं अमलांशुकेन
जिन-बिम्ब मार्जनं करोमि ।।
अभिषेक किया, मन-वच-काया ।
जो रही टूट, वो जिन-राया ।।
हो टूक-टूक,’कर’ भावन कर ।
पधराता तुम्हें सिंहासन पर ।।
ओं ह्रीं वेदिकायां सिंहासने
जिनबिम्बं स्थापयामि ।।
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प-दिव्य ।
चरु, दीप, धूप, फल अष्ट-द्रव्य ।।
भेंटूॅं, दुख-जन्म मिटाने को ।
जिन-गुण-सम्पद् प्रकटाने को ।।
ओं ह्रीं सिंहासन-स्थित जिनाय नमः
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।।
(नीचे लिखा श्लोक पढ़कर
गन्धोदक ग्रहण करें)
*दोहा*
पुनि-पुनि करके वन्दना,
विनय भाव के साथ ।
जिन गंधोदक धारता,
लोचन अपने माथ ।।
*विनय-पाठ*
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरव-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साधु-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
धिर अधिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
दे… खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रति उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘अ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं आचार्य श्रीविद्यासागरादि-
त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
नन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित्त-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रह्मचर्य-घोर ।
महदुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि
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