*वर्धमान मंत्र*
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
…श्रुत-देव पूजन…
‘दोहा’
ओम् बीज नवकार का,
माँ सरसुति का जूम् ।
सुमरें ! हित मत-हंस आ,
बना हृदय मासूम ।।
सहारा सिर्फ़ तिहारा ।
हृदय से तभी पुकारा ।।
ज्वार बन चाले मोती ।
भक्ति धनवाँ न बपौती ।।
श्यार निश-त्याग अहारा ।
स्वर्ग सिर-मौर कतारा ।।
पुण्य कवि-राज न थोड़ा ।
उठ खड़ा निर्विष छोरा ।।
‘भाग के-शर जग चाला’ ।
समशरण आप उजाला ।।
द्वार इक साँचा थारा ।
हृदय से तभी पुकारा ।।
बेअसर माया काली ।
चुनर शश-तारों वाली ।।
बीच-निश, निश उजयाली ।
भूम बन्जर हरियाली ।।
‘निराकुल’ करने वाली ।
जाप माँ जूम् निराली ।।
क्यों न थम मृग के भाँती ।
जपूँ मैं भी दिन-राती ।।
‘दोहा’
विद्या सागर बन सकूँ,
कण्ठ विराजो आन ।
माँ मोरी, मेरा यही,
सिर्फ एक अरमान ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
माँ अपनों में बच्चे ।
माँ सपनों में बच्चे ।।
बच्चे माँ की बातों में ।
बच्चे माँ की आँखों में ।।
नयनन धारा बहती ।
चन्दन-बाला कहती ।।
बन्धन खुद मुँह की खाये ।
भगवन् चल-कर घर आये ।।
मति-मोरी मोटी हा ! ।
अर परिणति खोटी माँ ।।
क्या तुमसे छुप रह पाता ।
तुम अन्तर्याम ! विधाता ।।
भर क्षीर सिन्ध जल से ।
भेंटूँ कंचन कलशे ।।
इक नजर उठा कर लख लो ।
अपने अपनों में रख लो ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
माँ बच्चों से रूठी है ।
बात सरासर झूठी है ।।
जिस्म भले दो, बच्चे माँ ।
रहती दोंनो में इक जाँ ।।
नाग घड़े थे, काले दो ।
माला-पुष्प, निकाले जो ।।
होली रोज दिवाली है ।
जप ‘माँ-जूम्’ निराली है ।।
कर दिन-रात एक पढ़ते ।
‘पेपर’ देख होश उड़ते ।।
क्या तुमसे छुप रह पाई ।
तुम अन्तर्यामी माई ।।
घिस चन्दन, घट भर लाया ।
लिये सरल मन-वच-काया ।।
शरम आँख में भर दो माँ ।
दूजा और नहीं अरमाँ ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
संसारताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुन पुकार आती माँ जल्दी ।
रंगे, न चाहे चावल हल्दी ।।
आई धारा बहती बहती ।
मैं ना कहता, मैना कहती ।।
कामदेव सी कोढ़िन काया ।
‘कर्म निकाच’ समेटी माया ।।
भरी लबालब झोली खाली ।
महिमा, जप ‘जय-जूम्’ निराली ।।
रटूँ रात-दिन, जैसे तोता ।
यादें शेष, याद न होता ।।
कब तुमसे कुछ छुप रह पाता ।
इक अन्तर्यामी तुम माता ।।
शालि अखण्डित अक्षत लाया ।
भर श्रद्धा से मन-वच-काया ।।
जैसा भी मैं तेरा अपना ।
अपना लो बस, और न सपना ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
अक्षय पद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
बरसाती कृपा अपार ।
माँ देती छप्पर फाड़ ।।
इसमें किसको सन्देह ।
माँ रखती निस्पृह नेह ।।
झीनी-सी उड़ी अबीर ।
जा सरहद लाँघा चीर ।।
ले मन माफिक मासूम ।
रत द्रोपद जप ‘माँ-जूम्’ ।।
बस सुपनन पूरी आश ।
मोती अक्षर-विन्यास ।।
क्या छुपी आपसे बात ।
अन्तर्यामी विख्यात ।।
वन-नन्दन पुष्प पिटार ।
भेंटूँ ले दृग् जल-धार ।।
राखो या निवसो पास ।
माँ सिर्फ एक अरदास ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
कामबाण विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बच्चों से है माँ ।
बच्चे माँ की जाँ ।।
माँ बच्चों के साथ ।
ले हाथों में हाथ ।।
खुल्ला दरवाज़ा ।
पाँव लगा, गाजा ।।
मन नीली मासूम ।
जयतु जयतु माँ जूम् ।।
हाय ! जुबा फिसले ।
बोलूँ ‘कुछ’ निकले ।।
जानो व्यथा तमाम ।
हो जो अन्तर्याम ।।
निर्मित घृत गैय्या ।
भेंटूँ चरु मैय्या ।।
थामे रखना हाथ ।
यही एक फरियाद ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
माँ बच्चे का रिश्ता एक ।
कभी न जो रिसता अभिलेख ।।
अल्टा-पलटा लिये पुराण ।
माँ उपमा ना तीन जहान ।।
ग्वाल बाल गैय्यन रखवार ।
भगवन् कुन्द-कुन्द अवतार ।।
दे निर्ग्रन्थ हाथ में ग्रन्थ ।
महिमा ग्रन्थन दान अचिन्त्य ।।
कैसे उड़, नभ छुये पतंग ।
मन में उठती रहे तरंग ।।
छुप कब रहता तुमसे राज ।
सिर तुम अन्तर्यामी ताज ।।
सोन दीपिका, ज्योत कपूर ।
बालूँ अक्षर जिसका नूर ।।
लो निहार भी ना इक बार ।
पलक बिछाये कण्ठ हमार ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बच्चों के वश में रहती माँ ।
बच्चे जो कहते, करती माँ ।।
पाताल ‘कहे’ अम्बर धरती ।
हित बच्चे, माँ जीती मरती ।।
बन चाले अंगारे पानी ।
‘माँ-जूम्’ जपा सीता रानी ।।
चउ-दिश जयकार शील गूँजा ।
मिल देवों ने आकर पूजा ।।
पढ़ने में लगे न मन मेरा ।
मन सीख चला मेरा-तेरा ।।
कुछ भी कब तुमसे छुप रहता ।
जग अन्तर्याम तुम्हें कहता ।।
नव कोटि विशुध मन-वच-काया ।
आया, दश-गन्ध धूप लाया ।।
‘मन’ अखर पलट पाये अपने ।
बस, बड़े न कोई अर सपने ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
अष्ट कर्म दहनाय
धूप निर्वपामीति स्वाहा ।।
अँखिंयों के तारे ।
दुनिया से न्यारे ।।
माँ को बच्चे अपने ।
प्यारे माफिक सपने ।।
मन रँग भक्ति रँगा ।
रट ‘माँ-जूम्’ लगा ।।
दुखिया कुटिया दमकी ।
बुढ़िया लुटिया चमकी ।।
भूलों पे भूलें ।
ऊपर से भूलें ।।
क्या पता नहीं तुम को ।
अन्तर्यामी तुम हो ।।
मुक्ता-फल वाली ।
भेंटूँ फल थाली ।।
रोशन कर दो दुनिया ।
हाथों में थमा ‘दिया’ ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘जय माँ जूम्’ जपते जाप ।
बिगड़े काम बनते आप ।।
सरसुति माँ कृपा न्यारी ।
जय जय जयतु माँ थारी ।।
गुरु श्रुत-देव पद अनुराग ।
मरणासन्न नागिन नाग ।।
अध इक लोक अधिशासी ।
रिध अणिमाद गुण राशी ।।
रहती ‘पढ़ा-ई’ से भीत ।
हारा, यदि न पाया जीत ।।
होगी हाय ! बदनामी ।
हो हि तुम अन्तर्यामी ।।
आने पाँत विद्वत वर्ग ।
भेंटूँ आप चरणन अर्घ ।।
अपना लो मुझे माई ।
भव मानव विथा जाई ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विधान -प्रारंभ*
श्रुति भा-रती बताती है ।
सति भारतीय गाती है ।।
नुति भारती न ऐसी वैसी ।
प्रतिभा-रती बनाती है ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री प्रथमं भारती नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बना काम, ‘संस्कृति गाई ।
लिया नाम सरसुति माई ।।
सरसुति नाम न ऐसा-वैसा ।
सुर-गति धाम-मुकति दाई ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री द्वितीयं च सरस्वती नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दय संपदा हाथ होती ।
भय आपदा हाथ खोती ।।
जय शारदा न ऐसी-वैसी ।
पय ‘आप’ क्या ? हाथ ज्योति ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री तृतीयं शारदा देवी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कृति-वंश नामिनी करती ।
श्रुत-अंश नाम ही धरती ।।
नुति हंसगामिनी अपने सी ।
मति-हंस स्वाम भी करती ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री चतुर्थं हंस-गामिनी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नन्दन बाग भाग लिखता ।
चन्दन नाग ‘भाग’ दिखता ।।
वन्दन माँ विदुषा अपने सा
चन्द न राग-दाग टिकता ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री पंचम विदुषां माता नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जाग भी’तरी जो देवे ।
राग ‘ही’ स्वरी खो देवे ।।
वागीश्वरी प्रनुति अपने सी ।
भाग धी-वरी नौ खेवे ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री षष्ठं वागीश्वरी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थारी-मारी हरती है ।
दृग् अविकारी करती है ।।
प्रनुति कुमारी अपने जैसी ।
व’सुधा न्यारी धरती है ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री कुमारी सप्तमं नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करनी-भरनी हर लेती ।
तट-वैतरणी धर देती ।।
ब्रह्म-चारिणी नुति अपने सी ।
हाथ सु-मरणी कर देती ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री अष्टमं ब्रह्मचारिणी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भुवन-भुवन इक त्राता है ।
स्व अनुभवन प्रदाता है ।
नमन जगन्माता अपने सा ।
भव भव-भ्रमन मिटाता है ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री नवमं च जगन्माता नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सद्-गुण धनी बनाती है ।
अव-गुण खनी बिलाती है ।।
प्रनुति ब्राह्मिणी अपने जैसी ।
निध-गुण जिनी भिंटाती है ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री दशमं ब्राह्मिणी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आनी-जानी विनशाती ।
ज्ञानी-ध्यानी-पन थाती ।।
नुति ब्रह्माणी अपने जैसी ।
मुक्ति दिवानी बन जाती ।।११।।
ॐ ह्रीं श्री एकादशं तु ब्रह्माणी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दुखदा भव-बन्धन हारी ।
सुखदा दिव-नन्दन क्यारी ।।
माँ वरदा वन्दन अपने सा ।
रुखदा शिव-स्यन्दन न्यारी ।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री द्वादशं वरदा नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मन-मानी अवनत होती ।
अनजानी प्रकटत ज्योती ।।
माँ वाणी नुत अपने जैसी ।
धन ! पानी परणत मोती ।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री वाणी त्रयोदशं नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
स्वर्ण सुवासा कर देती ।
सुमरण श्वासा भर देती ।।
वन्दन माँ भाषा अपने सा ।
‘पूरन-आशा’ वर देती ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री भाषा चैव चतुर्दशं नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘भी’ तर तेजस्वी करती ।
‘ही’ हर ओजस्वी करती ।।
नुत माँ श्रुत देवी अपने सी ।
‘पय चिन्मय’ सेवी करती ।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री पंचदशं श्रुत देवी नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मन्त्र प्रणव धारा कर्ता ।
समन्त भव कारा हर्ता ।।
‘माँ गो’ जयकारा अपने सा ।
अनन्त अवतारा वरदा ।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री षोडशं गौ नाम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
…जयमाला लघु चालीसा…
‘दोहा’
मेरा अपना तुम सिवा,
यहाँ न कोई और I
जब-जब दूँ, आवाज मैं,
आ जाना माँ दौड़ ।।
माँ बच्चों को चुनती ।
माँ बच्चों की सुनती ।।
माँ दिल रखे अनोखा ।
दिल रखती बच्चों का ।।१।।
बच्चे का दुख देखें ।
भर आतीं माँ आँखें ।।
बच्चे की गुस्ताखी ।
माँ दे देती माफी ।।२।।
बदली सिंहासन में ।
सुनते शूली छिन में ।।
‘माँ-जूम’ लगा रटना ।
ऐसी अनगिन घटना ।।३।।
बजरंगी बन चाला ।
हनुमत भोला-भाला ।।
शिल थर-थर कँप चाली ।
हतप्रभ माया काली ।।४।।
मेंढ़क पाँखुड़ि दाबे ।
क्या गजब स्वर्ग जावे ।।
पर-सोन जटायू के ।
मुनि गन्धोदक छूके ।।५।।
छोड़ी मछली पहली ।
पदवी धी’वर विरली ।।
नृप-भिल्ल भाग जागा ।
परित्याग मांस कागा ।।६।।
नुति-पद अटूट श्रद्धा ।
‘नभगाम-रिध’ समृद्धा ।।
सब पाप माफ, विरला ।
भव श्वान स्वर्ग अगला ।।७।।
कृत कर्म पूर्व मेरे ।
आ खड़े मुझे घेरे ।।
नम आँखें कर जाते ।
इम आँखें दिखलाते ।।८।।
मैं पढ़ने में काचा ।
दिल का वैसे साँचा ।।
क्या छुपा आपसे माँ ।
तुम अन्तर्याम यहाँ ।।९।।
भर लाया आँखों को ।
रख माथे हाथों को ।।
बस कर लो मत हंसा ।
पहली, अगली मंशा ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुत-देवाय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
‘सहज-निराकुल’ लो बना,
बेजोड़ी निज-भाँत ।
‘माँ-मोरी’ है और ना,
अरज यही नत माथ ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
‘दोहा’
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
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