परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 21
सदलगा सन्त ।
नन्द श्री-मन्त ।।
सुत ज्ञान सिन्ध ।
वन्दन अनन्त ।।स्थापना।।
विनिर्मल नीर ।
ले सिन्धु क्षीर ।।
आचरण हेत ।
आ…चरण भेंट ।। जलं।।
निराली गंध |
झारी सुगंध ।।
श्रद्धा समेत |
भेंट दृग् ! हेत ।।चंदन।।
थाल रतनार ।
सुरभित अपार ॥
सद्ध्यान हेत ।
धॉं शालि भेंट ।।अक्षतम्।।
सुमन वन-नंद ।
सुगंध अमन्द ।।
ब्रह्म-चर हेत ।
नम्र उर भेंट ।।पुष्पं।।
‘छै: तीन’ योग ।
‘पाँच छै’ भोग ।।
झिर अमृत हेत ।
चरु अमृत भेंट ।।नैवेद्यं।।
गुम कोहनूर ।
जुदा ही नूर ।।
ऋत ज्योत हेत ।
घृत ज्योत भेंट ।।दीपं।।
नूप सिर-मोर ।
धूप-घट और ।।
सुगंधी हेत ।
सुगंधी भेंट ।।धूपं।।
सुवर्ण परात ।
फल भाँत-भाँत ।।
महा फल हेत ।
अहा ! फल भेंट ।। फलं।।
मिला कर आठ ।
द्रव्य, श्रुत-पाठ ।।
शिव स्वर्ग हेत ।
दिव अर्घ भेंट ।। ।। अर्घं।।
“दोहा”
हो सकता “पर” के बिना,
पंछी भरे उड़ान ।
पर बगैर गुरु-देव के,
खर-विषाण कल्याण ॥
॥ जयमाला ॥
ग्राम सदलगा की माटी है बड़भागी ।
जो गुरु सँग खाई,खेलि,सोई,जागी ॥
शरद पूर्णिमा को गुरु जिस पर रीझे थे ।
मानो उसके सुकृत आज मिल सीझे थे ॥
जिस पर खिसक-खिसक गुरु ने चलना सीखा ।
जिसके खेल-खिलौने आगे शशि फीका ॥
गर्मी में गुरु जिस पर ही सो जाते थे ।
जिसकी खुशबू पा बारिस मुस्काते थे ।।
गुरु जिस पे जाते थे दौड़ पाठ शाला ।
जिसका काला तिलक नजर हरने वाला ॥
जिससे निस्पृह क्षमा गुरु ने है सीखी ।
भले उपद्रव आये कब परिणति चीखी ॥
गुरु ने जिस से मृदुता की शिक्षा लीनी ।
आत्म-प्रशंसा कभी न पर-निंदा कीनी ॥
सीखा जिससे बिना लिये सब कुछ देना ।
सहज रिझा लेना त्रिभुवन बन कर मैना ॥
धन्य-धन्य जिस पे वैराग्य बीज पनपे ।
बोझ लगा तिल-तुस भी रखना इस तन पे ॥
इमि माटी, माटी-साथी का क्या कहना ।
सारी उम्र मुझे बस तिन चरणन रहना ॥
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
*दोहा*
गुरु छाया में मिल गई,
त्रिभुवन जिसे पनाह ।
हाथ स्वर्ग शिव आ गया,
अब उसको क्या चाह ॥
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