वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘पूजन’
और भँवर भव आप किनारे ।
‘जहां’ अमावस, तुम ध्रुव तारे ।।
दुनिया धूप, आप तरु छाया ।
हृदय हृदय-से तभी पुकारे ।।
आओ, आओ, बाबा आओ ।
मन मन्दिर पावन कर जाओ ।।
कोई आप सिवाय न मेरा ।
कहाँ जाऊँगा मत ठुकराओ ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
छेद हुआ बटुये में मेरे ।
अर मँहगाई आँख तरेरे ।।
मैं बालक हूँ भोला भाला ।
दुनिया का दूनिया निराला ।।
सिवा-आप, खोजा जग-दोई ।
स्वारथ साध रहा हर कोई ।।
नयन कलश दो लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं दारिद्र निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
यूँ तो आते ही ना रिश्ते ।
आते सार्थ नाम पा रिसते ।।
एक सभी को पैसे प्यारे ।
सुबह सबेरे, साँझ-सकारे ।।
कैसे दो के चार बनाना ।
जाने खूब बखूब जमाना ।।
घिस चन्दन घट लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा-निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वैसे पढ़-लिख आये अच्छे ।
टिके मील पत्थर से बच्चे ।।
क्षितिज छू रहा आँखें मींचे ।
रँग-बदलू गिरगिट है पीछे ।।
कस्तूरी-मृग नाभि ठिकाना ।
मृग मरीचिका हाथ ठगाना ।।
दाने अक्षत लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं आजीविका-बाधा निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
रत्ती भर ना दोष हमारा ।
दाग लगा दामन में काला ।।
हाथ फँसा कपि घट देखा क्या ।
हँसे जोर से मार ठहाका ।।
कब समझेगा ये संसारा ।
शीश महल प्रतिबिम्ब हमारा ।।
पुष्प पिटारी लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करते रहते रोग परेशां ।
जाने पापोदय है कैसा ।।
मिटा रहा रेखाएँ पर कीं ।
बढ़ा रहा सल पे सल सर कीं ।।
रेख एक जब मिटा न पाया ।
रबर जगह पेन्सिल ले भाया ।।
मनहर चरु अर लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कह ‘भोदूॅं’ जन ताने मारें ।
माँ सरसुति ना कण्ठ पधारें ।।
मन जिसको अपना लेता है ।
वही छोड़ के चल देता है ।।
करे सैर जग जीव अकेला ।
उजड़े सुबह पंखिड़ा मेला ।।
घृत दीपाली लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रहता हावी जादू-टोना ।
माया नगरी कोना-कोना ।।
चश्मा नाक चढ़ा ही रहता ।
गुस्सा नाक धरा ही रहता ।।
नाक कटाये कर बेइमानी ।
सिर्फ कहे ‘जग’ राखो पानी ।।
नूप धूप घट लाया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं टुष्टविद्या निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खो चाली वो चीज़ हमारी ।
थी जो प्राणों से भी प्यारी ।।
भाग बैल कोल्हू सा हाँपे ।
डाल पैर दो दलदल नाँपे ।।
मुझे जमाना हाय ! जमा…ना ।
नागिन निज शिशु ग्रास बनाना ।।
फल परात ले आया भर के ।
करो ‘कि कुछ दुख भागे डर के ।।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देख बिछे राहों में काँटे ।
धी ‘शू-साईड’ जुड़ते नाते ।।
काँचुली सिर्फ उतारे नागा ।
खोद कटार रखे खुद छागा ।।
जल, चन्दन, चरु, अक्षत दाने ।
दीप, धूप, फल, पुष्प सुहाने ।।
लिये आपके द्वारे आया ।
छका न सके और अब माया ।।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*कल्याणक-अर्घ*
देर अभी प्रभु गर्भ न आये ।
झिर-लग गगन रतन वरषाये ।।
आये हम, दृग् खोलो अपने ।
प्रभु बोले माँ दिखला सपने ।।
सूनी पड़ी गोद बहुरानी ।
ज्योति मोति झिर ज्यों नभ पानी ।।
आओ मेरा काम बनाओ ।
कहाँ जाऊँगा मत ठुकराओ ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़-कृष्ण-द्वितीयायां
गर्भ कल्याणक प्राप्ताय
अकुटुम्ब-बाधा निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शचि शिशु-गोद प्रथम दुलराया ।
नाम सार्थ ‘दृग्-सहस’ बनाया ।।
शगुन गर्भ कल्याणक जलसा ।
न्हवन कराया भर भर कलशा ।।
पुण्य जोड़ भव मानस पाया ।
बगुला रुचा, हंस ना भाया ।।
आओ मेरा काम बनाओ ।
कहाँ जाऊँगा मत ठुकराओ ।।
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-नवम्यां
जन्म कल्याणक प्राप्ताय
मानस विकार निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देख, नृत्य-नीलांजन जागे ।
विषय-भोग विष-जैसे लागे ।।
बैठ पालकी आये वन में ।
हुये सलोञ्च दिगम्बर छिन में ।।
भाव खूब दीक्षा के होते ।
मन ही मन सपने से खोते ।।
आओ मेरा काम बनाओ ।
कहाँ जाऊँगा मत ठुकराओ ।।
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-नवम्यां
दीक्षा-कल्याणक प्राप्ताय
सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घात-घातिया ध्यान कटारी ।
हुये अनन्त चतुष्टय धारी ।।
लगा सम-शरण नाम-नुरुपा ।
बैठे सिंह-मृग, अहि-मंडूका ।।
धका-धका भी चले ना गाड़ी ।
नजर खा चुकी दुकां हमारी ।।
आओ मेरा काम बनाओ ।
कहाँ जाऊँगा मत ठुकराओ ।।
ॐ ह्रीं फागुन-कृष्ण-एकादश्यां
ज्ञान-कल्याणक प्राप्ताय
व्यापार बाधा निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नाम शुक्ल ध्यानाग्नि जला के ।
शेष अघात कर्म झुलसा के ।।
समय-मात्र भू-सिद्ध पधारे ।
लगा रहा जग जय जयकारे ।।
हाय ! वैर अपनों ने साधा ।
खड़ी एक फिर दूजी बाधा ।।
आओ मेरा काम बनाओ ।
कहाँ जाऊँगा मत ठुकराओ ।।
ॐ ह्रीं माघ-कृष्ण-चतुर्दश्यां
मोक्ष-कल्याणक प्राप्ताय
बन्धुजन-कृत बाधा निवारकाय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘विधान अर्घ्यावली’
असि, मसि, कृषि षट्-कर्म प्रणेता ।
चउ-विध-संघ आद-ऋषि नेता ।।
हमें अकेली शरण तिहारी ।
आ संपूरो आश हमारी ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
*बीजाक्षर सहित मूल नवार्घ*
नमस्कार अरिहन्त जिनेशा ।
नमस्कार जिन-सिद्ध अशेषा ।।
नुति-आचार्य, प्रनुति उवज्ञाया ।
साधु प्रनुत युत-मन-वच-काया ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ
अक्षर असिआ उसा नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मंगल प्रथम देव अरिहन्ता ।
द्वितिय सु-मंगल सिद्ध अनंता ।।
मंगल तृतिय साध-मत-हंसा ।
अंतिम मंगल धर्म-अहिंसा ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः
अक्षर चतुर्विध मंगलाय नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
उत्तम प्रथम देव अरिहन्ता ।
द्वितिय सु-उत्तम सिद्ध अनंता ।।
उत्तम तृतिय साध-मत-हंसा ।
अंतिम उत्तम धर्म-अहिंसा ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अक्षर चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शरणा प्रथम देव अरिहन्ता ।
द्वितिय सु-शरणा सिद्ध अनंता ।।
शरणा तृतिय साध-मत-हंसा ।
अंतिम शरणा धर्म-अहिंसा ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अक्षर चतुर्विध शरणाय नमः
दक्षिण-दिशि अर्घं निर्वापमिति स्वाहा ।।
इक अनन्त दर्शन अधिकारी ।
आप अनंत ज्ञान अवतारी ।।
नन्त-वीर्य चरणों में खेले ।
सुख-अनन्त भर्तार अकेले ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अक्षर आदि जिनेन्द्राय नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तर अशोक ‘तर’ आप विराजे ।
स्वर्ण सिंहासन दुन्दुभि बाजे ।।
छत्र चँवर बरसा पुष्पों की ।
भामण्डल धुनि-दिव्य-अनोखी ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अक्षर आदि जिनेन्द्राय नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।
रूप नूप-संहनन-संस्थाना ।
वचन ‘दूज’ लाखन बलवाना ।।
सुरभित ‘तन’ निर्मल निस्वेदा ।
अतिशय जनमत रुधिर सुफेदा ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अक्षर आदि जिनेन्द्राय नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थिर नख-केश, सर्व विद्येशा ।
सुभिख, गमन-नभ, तुम अनिमेषा ।।
अभय, अभुक्त्य, कहाँ परछाई ।
गत-उपसर्ग, चतुर्मुख भाई ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अक्षर आदि जिनेन्द्राय नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सुर’ ‘ऋत’ पथ-निष्कण्ट, सुभाषा ।
मेघ-अमल-नभ, ‘अन’ वाताशा ।।
मैत्री, धर्म-चक्र, जल-गन्धा ।
दर्पण-भूम-पद्म आनन्दा ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अक्षर आदि जिनेन्द्राय नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम वलय पूजन विधान की जय
*अनन्त चतुष्टय*
कर्म दर्शनावरणी एका ।
हुआ चार खाने चित्-लेखा ।।
पूजन दर्शन-नन्त रचाऊॅं ।
मैं भी तुम जैसा बन जाऊॅं ।।१।।
ॐ ह्रीं अनन्त-दर्शन मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्ञानावरणी कर्म नशाया ।
ज्ञान अनन्त आप प्रकटाया ।।
पूजा ज्ञान अनन्त रचाऊॅं ।
मैं भी तुम जैसा बन जाऊॅं ।।२।।
ॐ ह्रीं अनन्त-ज्ञान मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मोह पीठ दिखला-कर भागा ।
हाथ नन्त सुख सहसा लगा ।।
सुख अनन्त जय-माल रचाऊॅं ।
मैं भी तुम जैसा बन जाऊॅं ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्त सुख मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अन्तराय यम के घर छोड़ा ।
आया वीरज अनन्त दौड़ा ।।
नन्त-वीर्य गुण माल रचाऊॅं ।
मैं भी तुम जैसा बन जाऊॅं ।।४।।
ॐ ह्रीं अनन्त वीर्य मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अनन्त दर्शन, ज्ञान अनन्ता ।
धर-सुख अनन्त वीरज वन्ता ।।
जल प्रासुक ले चन्दन झारी ।
अखण्ड अक्षत, पुष्प पिटारी ।।
घृत पकवान, दीप गो-घी के ।
धूप अनूप थाल फल नीके ।।
मिला सभी को अर्घ बनाया ।
भेंटूँ मेंटूँ ठगनी माया ।।
दोहा-
दर्शन, वीरज, ज्ञान, सुख,
नन्त चतुष्टय वान ।
हम सबके बाबा बड़े,
आदिनाथ भगवान् ।।
ॐ ह्रीं अनन्त-चतुष्टय मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वितीय वलय पूजन विधान की जय
*अष्ट प्रातिहार्य*
पर्श आप चरणों का पाके ।
सार्थक नाम अशोक बना-के ।।
बात गगन से मुँह लग करता ।
नयन ‘न’ किसका मन अपहरता ।।१।।
ॐ ह्रीं वृक्ष अशोक मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आ बैठे क्या माँ मरु नन्दा ।
रत्न सिंहासन स्वर्ण सुगन्धा ।।
ऊपर अंगुल चार विराजे ।
विनत खड़े राजे-महाराजे ।।२।।
ॐ ह्रीं सिंहासन मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इन्द्रों में जो इंद्र बड़े हैं ।
दस-दस-दस दो इंद्र खड़े हैं ।।
चँवर ढुरायें चौसठ मिल-के ।
सभी लिए अरमाँ मंजिल-के ।।३।।
ॐ ह्रीं चामर मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दशों दिशाओं में दे फेरी ।
गाये तेरी कीरत भेरी ।।
यहाँ विराजे धर्मराज हैं ।
तारक भव जल इक जहाज हैं ।।४।।
ॐ ह्रीं देवदुन्दुभि मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
छतर तीन गुम्बद के जैसे ।
झालर, रत्न न ऐसे वैसे ।।
जगत् तीन ईश्वर विख्याता ।
गाथा इतर-उतर-शशि गाता ।।५।।
ॐ ह्रीं छत्र-त्रय मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देव-नाग-नर किस्मत जागी ।
सुरभित दिव्य पुष्प झिर लागी ।।
पाँखुड़ि ऊपर डण्ठल नीचे ।
बरवश लोगों का मन खींचे।।६।।
ॐ ह्रीं पुष्प-वृष्टि मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हाथ-हाथ भवि सिखा रहा है ।
सात-सात भव दिखा रहा है ।।
तेज कोटि सूरज भामण्डल ।
अभिजित छवि चंद्रमा सुमंगल ।।७।।
ॐ ह्रीं भामण्ड़ल मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
छह-छह घड़ी साँझ धुनि खिरती ।
अम्बर लाभ उठाये धरती ।।
मारग भुक्ति लगें जन सारे ।
मारग मुक्ति लगें मन न्यारे ।।८।।
ॐ ह्रीं दिव्य-ध्वनि मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वृक्ष अशोक-सिंहासन-चामर ।
भेरी-छत्र-तीन युत झालर ।।
भामण्डल वाणी कल्याणी ।
अविरल पुष्प-वृष्टि लासानी।।
जल, चन्दन ले अक्षत शाली ।
गुल, चरु, दीप, धूप, फल-थाली ।।
उठा हाथ में, रख फिर माथे ।
सादर सविनय तुम्हें चढ़ाते ।।
दोहा-
चँवर, भा-वलय, पीठ, तर,
छतर, तूर्य, ध्वनिवान ।
हम सबके बाबा बड़े,
आदिनाथ भगवान् ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-प्रातिहार्य मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तृतीय वलय पूजन विधान की जय
*जन्मातिशय*
दो नेत्रों से कब छकता है ।
इन्द्र हजार नेत्र रचता है ।।
सत् शिव सुन्दर रूप सलोना ।
और न, देखा-कोना कोना ।।१।।
ॐ ह्रीं सुन्दर, तन मन्दर मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चन्दन बाग कहाँ टिक पाये ।
नन्दन बाग जहाँ शरमाये ।।
निस्सन्देह स्वयं के जैसी ।
देह सुगन्धित कहीं न ऐसी ।।२।।
ॐ ह्रीं सौरभ गौरव मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नहीं पराये अपने ने भी ।
देखा कभी न सपने में भी ।।
माथे को छू सका पसीना ।
‘जहां’ अंँगूठी आप नगीना ।।३।।
ॐ ह्रीं हीन पसीन गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बात न बस उड़ती आई है ।
सोलह आने सच्चाई है ।।
भस्मसात हो जाता भोजन ।
नाम न निशाँ निहार अहो जन ।।४।।
ॐ ह्रीं निर्मल गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करें न मन की, जुबाँ सँभालें ।
कभी न मुख अपशब्द निकालें ।।
कर्ण-पुटों में घोलें मिसरी ।
बोलें आहा ! जैसे मुरली ।।५।।
ॐ ह्रीं बोल अमोल मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तोल तुला मर्यादा बाहर ।
लगें न आगे हाथी, नाहर ।।
अतुलनीय बल रखने वाले ।
‘जहां’ ‘अमा’ तुम ‘पून-उजाले’ ।।६।।
ॐ ह्रीं संबल मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देख ‘पीर-पर’ दिल रोता है ।
दूध समान रुधिर होता है ।।
प्रीत भाँत गो-वत्स समाई ।
दुनिया जो ‘मुट्ठी-दिल’ आई ।।७।।
ॐ ह्रीं सित शोणित मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
होते प्रकट जनमते तत्क्षण ।
एक हजार आठ शुभ लक्षण ।।
शंख, चक्र, स्वस्तिक, ध्वज, झारी ।
और और मन-नयनन-हारी ।।८।।
ॐ ह्रीं ‘लाखन’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जुदा-मृदा से हुआ विरचना ।
अंगोपांग प्रमाणिक रचना ।।
सम चतु रस्र संस्थां न्यारा ।
पुनि-पुनि धरा न तुम अवतारा ।।९।।
ॐ ह्रीं छटा संस्थाँ मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करता केलि आप जुग चरणन ।
वज्र वृषभ नाराचिक संहनन ।।
सहिष्णुता तुम छुये हिमाला ।
‘वधु-शिव’ तभी पिनाई माला ।।१०।।
ॐ ह्रीं धन ! संहनन मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देह सुगन्धित, सुन्दर रूपा ।
बल अतुल्य, संस्थान अनूपा ।।
श्वेद-निहार न, श्वेत-रुधिर-कण ।
संहनन छठा, वचन शुभ लक्षण ।।
जल, चन्दन, कण धान अनूठे ।
गुल, चरु, दीप, धूप, फल मीठे ।।
अर्घ बना भेंटूँ तुम चरणन ।
भेंटो पाद पद्म तुम सु’मरण’ ।।
दोहा-
अतिशय दश जे जन्म के,
तीर्थंकर पहचान ।
हम सबके बाबा बड़े,
आदिनाथ भगवान् ।।
ॐ ह्रीं दशजन्मातिशय मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्थ वलय पूजन विधान की जय
*केवल ज्ञानातिशय*
केवल ज्ञान प्रकटता जैसे ।
रहें केश-नख जैसे वैसे ।।
सिद्धि के समुख रुख थाती है ।
वृद्धि केश-नख रुक जाती है ।।१।।
ॐ ह्रीं नग केश-नख गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केवल ज्ञान हुआ क्या साथी ।
खो टिमकार पलक-जुग जाती ।।
देख रहे थे नासा देखें ।
आती-जाती श्वांसा देखें ।।२।।
ॐ ह्रीं झलक अपलक गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केवल ज्ञान हुआ जैसे-ही ।
अँगुल चार अधर वैसे-ही ।।
दृढ़ निमित्त सम दर्शन न्यारा ।
गगन-गमन देखे जग सारा ।।३।।
ॐ ह्रीं ‘गगन-चरन’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केवल ज्ञान झलक क्या पाते ।
जुड़ते विद्या समस्त नाते ।।
ज्ञान तलस्-पर्शी रखते हैं ।
युगपत् तीन जगत् लखते हैं ।।४।।
ॐ ह्रीं ‘विद्यालय’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लागी केवल ज्ञान अमृत झिर ।
कवलाहार नहीं होता फिर ।।
माना औदारिक तन खाता ।
परमौदारिक तन अब नाता ।।५।।
ॐ ह्रीं अन अनशन गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पूर्ण ज्ञान फिर विघ्न न होते ।
‘धर-उपसर्ग’ अन्ततः रोते ।।
केवल ज्ञान हाथ क्या आया ।
मन्त्र-मूठ छू मन्तर माया ।।६।।
ॐ ह्रीं हन विघन गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
परिणति केवल ज्ञान सुमरती ।
काया-छाया अहा ! न पड़ती ।।
देता तेज न और दिखाई ।
पड़े, पड़े क्यों-कर परछाई ।।७।।
ॐ ह्रीं छाया माया गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नव इतिहास पुरातन कहता ।
सौ योजन तक सुभिक्ष रहता ।।
मति किल्विष आगे तुम हारी ।
दुम दाबे मारी-बीमारी ।।८।।
ॐ ह्रीं इक सुभिख गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सदय हृदय इतना क्या कहना ।
आँखें सीलीं-सीलीं गहना ।।
केवल नाम न दीन दयाला ।
मने दिवाली, टले दिवाला ।।९।।
ॐ ह्रीं ‘मा-हन्त’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केवल ज्ञान समय जिस जागे ।
दिशा चार मुख दिखने लागे ।।
दे प्रदक्षिणा नमन अनन्ता ।
जय निर्ग्रन्था, जय अरिहन्ता ।।१०।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुख प्रतिभा गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केश न बढ़ते नख, अनिमेषा ।
गगन-गमन, विद्या सर्वेशा ।।
कवलाहा-रुपसर्ग न छाया ।
सुभिख दया मुख दिश-चउ माया ।।
जल, चन्दन ले अछत अनोखे ।
गुल, चरु, दीप, धूप, फल चोखे ।।
चरण चढ़ाऊँ, भावन भाऊँ ।
जा शिव तुम-सा लौट न आऊँ ।।
दोहा-
अतिशय केवल ज्ञान के,
गिर समकित सौपान ।
हम सबके बाबा बड़े,
आदिनाथ भगवान् ।।
ॐ ह्रीं दश केवल-ज्ञानातिशय मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पंचम वलय पूजन विधान की जय
*देवकृत अतिशय*
देख कौन जो चाहे दें खो ।
निर्मल सभी दिशाएँ देखो ।।
माया लगती जादू टोना ।
देव खिलाड़ी, प्रकृति खिलौना ।।१।।
ॐ ह्रीं ‘दिशा’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बादल ‘बिन’ आताप भान है ।
स्वच्छ विनिर्मल आसमान है ।।
धर्म अहिंसा ध्वज फहराते ।
पात-परिंदे आते-जाते ।।२।।
ॐ ह्रीं मगन गगन गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जात-वैर खोकर सब प्राणी ।
घाट-एक पीते हैं पानी ।।
मैत्री भाव परस्पर राखें ।
स्वप्न न कभी दिखाते आँखें ।।३।।
ॐ ह्रीं ‘मै-त्र’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अर्ध-मागधी भाषा न्यारी ।
सहज समझ लेते नर-नारी ।।
अर्थ बाबरा भी चुन लेता ।
बहरा भी जिसको सुन लेता ।।४।।
ॐ ह्रीं भाष अध-मागध गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आ सहसा ऋत-ऋत फल जाते ।
ऋत-ऋत फूल सहज खिल जाते ।।
झुक-झुक झूमे डाली-डाली ।
चारों ओर दिखे हरियाली ।।५।।
ॐ ह्रीं ऋत-ऋत गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिसके आगे मौन नगाड़ा ।
गूँजे दिश्-दिश् जय जयकारा ।।
मूँद न रखते कर्ण दुवारे ।
कान लगाकर सुनते सारे ।।६।।
ॐ ह्रीं स्वर सुर गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कुछ न देव बदले में लेते ।
भू दर्पण समान कर देते ।।
थके धरण गा विरदावलिंंयाँ ।
अलकापुर इक लगतीं गलिंयाँ ।।७।।
ॐ ह्रीं फर्श आदर्श गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बड़ी सुगन्धित झीनीं-झीनीं ।
पानी की बूँदें अनचीनीं ।।
‘झाँप-नैन’, कर ऊपर माथा ।
प्रमुदित सुमन हरेक दिखाता ।।८।।
ॐ ह्रीं मोहक गन्धोदक गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पद्म पचीस शतक दो ऊपर ।
देव विरचते आकर भू-पर ।।
उपमा निकर बनाता झूठा ।
पल-विहार परिदृश्य अनूठा ।।९।।
ॐ ह्रीं पद पद्म गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जुड़े हर्ष से अतीव नेहा ।
देह रहें, पर जीव विदेहा ।।
सुबह-साँझ या पल-दो-पहरी ।
डूब समेत आत्म सर गहरी ।।१०।।
ॐ ह्रीं साध आह्लाद गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मृग-मन ! जाओ भी थम कहती ।
मन्द सुगन्धित मारुत बहती ।।
दौड़ भाग ने कहो दिया क्या ?।
दौड़ भागने जन्म लिया क्या ?।।११।।
ॐ ह्रीं ह-वा…वा-ह गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुर-तिय मंगल द्रव्य सँभालें ।
थिरक-थिरक सुर नटिंयाँ चालें ।।
झालर, घंटा, ढ़ोल बजाता ।
दल गंधर्व पढ़े जय गाथा ।।१२।।
ॐ ह्रीं वस मंगल गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दर्श मात्र वारे न्यारे हैं ।
एक हजार आठ आरे हैं ।।
उत्पथ बढ़ते हृदय पलटता ।
आगे धर्म-चक्र वह चलता ।।१३।।
ॐ ह्रीं अग्र धर्मचक्र गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कंकर-पत्थर धूल नहीं है ।
दूर-दूर इक शूल नहीं है ।।
नंगे पैर चले आते सब ।
लगता घर-बाहर जाते कब ।।१४।।
ॐ ह्रीं ‘मा-रग’ गुण मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिशा विमल, निर्मल आकाशा ।
मैत्री, अर्ध-मागधी भाषा ।।
ऋत-ऋत फल, नभ जय जय कारा ।
भू दर्पण, गन्धोदक धारा ।।
रचना कमल, सहर्षित जगती ।
मारुत मन्द, सुगन्धित फबती ।।
द्रव्य अपूरब मंगल वसु वा ।
धर्म चक्र, निष्कंटक वसुधा ।।
सागर-क्षीर-नीर, अर-चन्दन ।
धान-अखण्डित, गुल वन-नन्दन ।।
दीप-धूप चरु श्री-फल चोखा ।
भेंटूँ हित सुख-आत्म अनोखा ।।
दोहा-
अतिशय चौदह देव कृत,
जैनी हरिक गुमान ।
हम सबके बाबा बड़े,
आदिनाथ भगवान् ।।
ॐ ह्रीं चतुर्दश देवकृतातिशय मण्डिताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला-‘लघु चालीसा’
दोहा-
जा कछु…आ मन भीतरी,
छोड़ी होगी छाप ।
जुबां-जुबां नर्तन करें,
तभी ‘आदि-जय’ जाप ।।
कहे खुद भक्तों का ताॅंता ।
एक थारा-द्वारा साॅंचा ।।
भक्त के होते हैं आँसू ।
भिंजोता अपनी आँखें तू ।।१।।
आग बदली है सरवर में ।
नाग बदले हैं गुल-लर में ।।
कृपा तेरी ही तो बरसी ।
‘जहाँ’ दे ढ़ोक तभी फरसी ।।२।।
कहे खुद भक्तों का ताॅंता ।
एक थारा-द्वारा साॅंचा ।।
भक्त के होते हैं आँसू ।
भिंजोता अपनी आँखें तू ।।३।।
चीर अक्षत कतार पाया ।
नीर अँखियन किनार आया ।।
शूल सिंहासन बन चाली ।
फूल श्रृद्धा लेकर खाली ।।४।।
कहे खुद भक्तों का ताॅंता ।
एक थारा-द्वारा साॅंचा ।।
भक्त के होते हैं आँसू ।
भिंजोता अपनी आँखें तू ।।५।।
बाल बजरंग टूक शिल्ला ।।
पावॅं लग, दरवाजा खुल्ला ।
शील जयकार गगन गूॅंजा ।
कौन बिन तुम सहाय दूजा ।।६।।
कहे खुद भक्तों का ताॅंता ।
एक थारा-द्वारा साॅंचा ।।
भक्त के होते हैं आँसू ।
भिंजोता अपनी आँखें तू ।।७।।
पाॅंखुड़ी मुँह दाबे आया ।
जन्म मेंढ़क विमान पाया ।।
ख्याल तुम रखते हो देखा ।
ग्वाल मुनि कुन्द-कुन्द लेखा ।।८।।
कहे खुद भक्तों का ताॅंता ।
एक थारा-द्वारा साॅंचा ।।
भक्त के होते हैं आँसू ।
भिंजोता अपनी आँखें तू ।।९।।
विरद चर्चित ही तुम जग में ।
नया क्या मन से दूॅं लिख में ।।
‘निराकुल’ कर लो अपने-सा ।
मैल हाथों का धन-पैसा ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दोहा-
लोग बड़े, रख लें भले,
बड़े-बड़े अरमान ।
मरण-समाधी का मुझे,
दे दो बस वरदान ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
सपना नाता ।
अपना माता ।।
बरसे रतन, रतन बरसाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
गिरि मरु-नन्दा ।
स्वर्ण सुगन्धा ।।
सहस नयन से नयन बनाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
सागर क्षीरम् ।
कच मण नीलम ।।
नाद आद-जय गगन पठाओ ।।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
अर समशरणा ।
केशर हिरणा ।।
दृग्-नम श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
दिव से आगे ।
जा शिव लागे ।।
‘सहज-निराकुल शीश नवाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
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