परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 42
शीश रहे आशीष आपका,
यही भावना है स्वामी ।
दास रहूँ निशि-दीस आपका,
यही भावना है स्वामी ॥
दूर कभी ना जाना मुझसे,
बन आदर्श निकट रहना ।
कालिख बैठी कहाँ-कहाँ छुप,
कृपया उसे प्रकट करना।।स्थापना।।
हूँ मैं इक चैतन्य स्वाभावी,
ज्ञान-दर्श ताना वाना ।
पग स्वभाव विपरीत बढ़ा के,
लगा हुआ आना जाना ॥
मिटे हमारा आना जाना,
यही भावना है स्वामी ।
दुनिया गाये कीरत गाना,
नहीं भावना है स्वामी।। जलं।।
सिद्ध शिला अधिशासी सारे,
कल के खास सखा मेरे ।
भाग्य भरोसे बैठ हाय ! मैं-
लगा रहा भव-भव फेरे ।
सार्थक नाम पुरुष कर पाऊँ,
यही भावना है स्वामी ।
ठगूँ एक के दश कर लाऊँ,
नहीं भावना है स्वामी ।। चन्दनं ।।
साथ कौन था आया जग में,
साथ कौन जाने वाला।
पर मैंने पुर-परिजन सबसे,
नेह प्रगाढ़ विरच डाला ।।
राग लकीर बढ़ चले मेरी,
यही भावना है स्वामी ।
भाग लकीर बड़ चले मेरी,
नहीं भावना है स्वामी ।। अक्षतं।।
काषायिक भावों से वैसे,
दूर-दूर तक नाता ना ।
छोड़ काँचुली आता जब तब,
जहर छोड़ना आता ना |।
जहर उगलना छोड़ सकूँ मैं ।
यही भावना है स्वामी ।
मुहर मोति मण जोड़ सकूँ मैं,
नहीं भावना है स्वामी ।। पुष्पं।।
दामन मेरे दाग न कोई,
मैं विशुद्ध मुनि मन जैसा ।
वश प्रमाद कब जान सका हा !
शिव राधा आनन कैसा ॥
कसूँ कमर वरने शिव राधा,
यही भावना है स्वामी ।
बनूँ करम दलने पग-बाधा
नहीं भावना है स्वामी ।। नैवेद्यं।।
कहाँ गलूँ, मैं कहाँ जलूँ मैं,
हूँ मैं अखण्ड अविनाशी ।
मृत्यु समय अपनाकर छल हा,
बना चतुर्गत प्रत्याशी ॥
पल मरणावीची हो सुमरण,
यही भावना है स्वामी ।
चल चल कह, बढ़ चालें दुख क्षण,
नहीं भावना है स्वामी ।। दीपं।।
हूँ स्वतंत्र कब मुझको कोई,
बन्धन में रख पाया है ।
हा! गफलत वश लेकिन मैंने ,
दुःख में समय बिताया है ॥
रसिक बन सकूँ परमातम का,
यही भावना है स्वामी ।
रसिक बन सकूँ पर आतम का,
नहीं भावना है स्वामी ।। धूपं।।
रोगों की है पहुँच देह तक,
मुझे कहाँ ये छू सकते ।
विसर आत्म बल नैन हमारे,
रहें न बिन औषध तकते ।।
रह कर देह विदेह बन सकूँ,
यही भावना है स्वामी ।
जग भर सनेह पात्र बन सकूँ,
नहीं भावना है स्वामी ।। फलं।।
रहना चाहूँ सहज-निराकुल,
जीवन भर रह सकता हूँ ।
विसर ज्ञान-दर्शन स्वभाव निज,
पल-पल हाय ! विलखता हूँ ॥
डूब सकूँ आनन्द भीतरी,
यही भावना है स्वामी ।
डूब चले सानन्द भीति ‘री,
नहीं भावना है स्वामी ।। अर्घ्यं।।
“दोहा”
लगा रखी मन अश्व पे,
जिनने सुदृढ़ लगाम ।
श्री गुरु विद्या वे तिन्हें ,
पल-पल नम्र प्रणाम ।।
“जयमाला”
शरणा अद्भुत जय जय ।
इक करुणा बुत जय जय ।।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
जय जय, जयतु जयतु जय जय ।।
छव शारद शश पूरण ।
व्रत सूरिन् दिश-भूषण ।।
जन-जन संस्तुत जय जय ।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
शरणा अद्भुत जय जय ।
इक करुणा बुत जय जय ।।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
जय जय, जयतु जयतु जय जय ।।
शिक्षा गुरु ज्ञान शरण ।
दीक्षा गुरु ज्ञान चरण ।।
श्रुत-सुत विश्रुत जय जय ।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
शरणा अद्भुत जय जय ।
इक करुणा बुत जय जय ।।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
जय जय, जयतु जयतु जय जय ।।
इक नाम सूरि विद्या ।
विश्वास ठौर श्रृद्धा ।।
क्या कहें बहुत जय जय ।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
शरणा अद्भुत जय जय ।
इक करुणा बुत जय जय ।।
मल्लप्पा सुत जय जय ।
जय जय, जयतु जयतु जय जय ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
तव चरणन सविनय खड़ा,
हाथ जोड़ नत शीश ।
अपने अपनों में मुझे,
दीजे जगह ऋषीश ||
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