परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 14
कहता भक्तों का ताँता है ।
पत रखना तुमको आता है ।।
आँखों में तुम रखते पानी ।
सरगम मरहम तेरी वानी |।
जीवन में मेरे अंधियारा ।
हूँ मैं भी किस्मत का मारा ।।
क्या रहता छुप तुमसे स्वामी ।
तुम जगत् , जगत् अन्तर्यामी ॥स्थापना ॥
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
जब देखो मिलूॅं उबलता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
मैं भेंट रहा जल की गगरी ।।जलं।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
अपनों से रहूँ उलझता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
मैं भेंटूॅं गगरी गंध भरी ।।चंदन।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
लख और बढ़ाई जलता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
धाँ भेंटूॅं शालि परात निरी ।।अक्षतम्।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
रखता नैनी चंचलता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
गुल भेंटूॅं उपवन स्वर्ग-पुरी ।।पुष्पं।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
पीछे से प्रथम सफलता में ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
चरु भेंट रहा घृत अठपहरी ।।नैवेद्यं।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
फिर हाथ मलूॅं सिर धुनता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
मैं भेंटूॅं दीपक घृत गउ’ री ।।दीपं।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
सपनों में रहूँ बरषता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
घट भेंटूॅं धूप गंध विरली ।।धूपं।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
गिरगिट सा रंग बदलता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
फल भेंटूॅं वन-नन्दन मिसरी ।।फलं।।
हूँ वैसा ही ज्यों कल था मैं ।
विषधर सा जहर उगलता मैं ।।
लो थाम हमारी भी छिंगरी ।
मैं भेंटूॅं थाल दरब सबरी ।। अर्घं।।
दोहा=
हृदय लिख रखा वज्र से,
जिनने गुरु का नाम ।
गुरु विद्या वे नित उन्हें,
बारम्बार प्रणाम ॥
॥ जयमाला ॥
अगर सीखना गुरु भक्ति आ,
इनके चरणन बसना ।
गुरु बिन इनको पूर्ण हुआ सा,
कब भासे शिव सपना ॥
भोर हुआ कब गुरु बिन,गुरु बिन ,
कब होती है संध्या ।
परिणति जिस पल नाम नहीं ले,
गुरु का तिस पल बंध्या ॥
अंक गुरु हैं जग की सम्पद्,
शून्य भाँति है भाई ।
गुरु करुणा बिन लेख देख लो,
बना कौन शिव-राई |।
गुरु माता हैं,पिता हैं गुरु,
गुरु ही भाई बहना ।
गुरु करुणा बिन हुआ कहाँ कब,
उपसर्गों का सहना ॥
कर्णधार गुरु देव दया कर,
भव जल पार कराते ।
कुम्भकार सा ठोक पीट कर,
सबको पात्र बनाते ॥
तीन भुवन में मिलने हैं,
मुश्किल गुरु से वन माली ।
दुश्वारीं सहकर भी ढ़ेरों,
सहज करें रखवाली ॥
गुरु शशि देखो शिष्य कुमुदनी,
विकसाने निकले हैं ।
शिष्य कमल खातिर गुरु दिनकर,
देखो गगन चढ़े हैं ॥
गुरु सिन्धु आगे कब चलती,
शिष्य मीन मनमानी ।
अरे ! सिन्धु विज्ञात,मीन कब,
जी सकती बिन पानी ॥
कहें कहाँ तक गुरु सा,
उपकारक,ना त्रिभुवन कोई ।
पाकर जिनकी करुणा सेवक,
पाये निज निधि खोई ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
दोहा=
इस अस्थाई लोक में,
थाई इक गुरु नाम ।
गुरु करुणा बिन कब कहाँ,
किसे मिला शिवधाम ॥
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