परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 29
माँ श्री मन्त आँख का तारा ।
जय जय कारा जय जय कारा ।।
नील गगन में एक सितारा ।
शरद् पूर्णिमा दिन अवतारा ।। स्थापना।।
जानूँ भगवन् तुम वैरागी,
लेन-देन ना रुचे तुम्हें ।
किन्तु आप सुमरण से मिलता,
आप-आप जो रुचे हमें ।।
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।।जलं।।
जानूँ भगवन् उतना मिलता,
जितना मिलना लिखा हमें ।
मिला मगर उससे भी ज्यादा,
जब जब इक टक लखा तुम्हें ।।
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।।चंदन।।
जानूॅं प्रभु ! याचक से लघु ना,
जग कोई भी दिखा हमें ।
किन्तु बिना माँगे पाया सब,
जब मन मंदिर रखा तुम्हें ।।
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।। अक्षतम्।।
समय न आया जब तक भगवन्,
दिखा काज ना हुआ हमें ।
काज राज ना रहने पाया,
खुली गाँठ जब छुआ तुम्हें ।।
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो।।पुष्पं।।
पर दुखड़ा सुन हँसने वाला,
कौन नहीं जग मिला हमें ।
तुम्हें सुनाऊँ चूँकि किसी से,
शिकवा तुम्हें न गिला तुम्हें ।।
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो।। नैवेद्यं।।
अन्तर्यामी तुम्हें पता सब,
विथा बताऊँ कष्ट तुम्हें ।
जी हलका सा हो कहने से,
लगता मिला अभीष्ट हमें ॥
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।।दीपं।।
खूब जानता करना होगा,
हनन कर्म ‘वस’ निजी हमें ।
पर साहस हो चाले दुगना,
युद्ध निरत लख अजी तुम्हें ॥
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।।धूपं।।
जानूॅं स्वामिन् मुक्ति-राधिका,
बिन वैशाखी वरे हमें ।
बल वैशाखी तजने का पर,
मिले नगन लख अरे ! तुम्हें ।
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।।फलं।।
पता देवता पद अनर्घ निज,
निज में निज से प्राप्त हमें ।
हुआ किन्तु विश्वास देखकर,
समिति-गुप्ति संव्याप्त तुम्हें ॥
मनोकामना पूरण हो तुम,
लाज भक्त की रखते हो ।
कहे न और किसी से क्यूँ जग,
तुम सपने में दिखते हो ।।अर्घं।।
“दोहा”
जिनने न्यौछावर किया,
सब गुरु चरण सहर्ष ।
तिन गुरु विद्या सिन्धु के,
सविनय चरणस्-पर्श ।
॥ जयमाला ॥
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।
मुखड़ा चाँद उमरिया वाली,
सबके मन को भाया ।।
ग्राम सदलगा की माटी को,
धन्य किया है जिसने ।
शरद पूर्णिमा की शुभ निशि में,
जन्म लिया है जिसने ॥
पिता मलप्पा माँ श्री मति का,
जिसने भाग जगाया ।
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।।
जिसने शिक्षा लीनी कक्षा,
आठ मराठी शाला ।
विद्यालय में कहाँ कोई भी,
जिस सी प्रतिभा वाला ॥
देख स्वारथी दुनिया जिसके,
उर वैराग्य समाया ।
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।।
सूरि देश भूषण से जिसने,
प्रतिमा ब्रम चर लीनी ।
शिक्षा दीक्षा हेतु ज्ञान गुरु,
चरणन दृष्टि दीनी ॥
अखर अखर गुरु कुन्द कुन्द का,
चेतन कर दिखलाया ।
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।
संघ बनाया गुरुकुल जैसा,
गुरु आज्ञा सिर धारी ॥
बिना विराधन इक साधन में,
अपनी साँझ गुजारी ।।
महा काव्य इक मूक-माटी इन,
जिन शासन प्रति छाया ।
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।
जनहित भाग्योदय सर्वोदय,
ढ़ेर प्रकल्प सजोंये ।
जीर्ण-शीर्ण जिन मंदिर, माला
मेरु सरीखे गोये ।।
कहूँ कहाँ तक जिन गुण का कब,
आता अन्त दिखाया ।
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।।
गुरुकुल ज्ञान प्रवेश चाह ले,
इक ब्रमचारी आया ।
मुखड़ा चाँद उमरिया वाली,
सबके मन को भाया ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
करूँ प्रार्थना आपसे,
मुकुलित कर जुग हाथ ।
अपने सी समीचीनता,
देना मुझको नाथ ॥
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