परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 28
मेरे मन के देवता ।
जरा इतना दे बता ॥
तेरा बनना है मुझे ।
कैसे रिझाऊँ तुझे।।स्थापना।।
निर्मल नीर कहे जग शायद,
आप हृदय से परिचित ना ।
निर्मल वह, अंतरंग जिसका,
दिश्-दश कहीं संकुचित ना ।।
मुट्ठी मात्र हृदय में अपने,
रखा आपने जग सारा ।
दिग्-दिगन्त तब गूँजा जय-जय,
विद्यासागर जयकारा ।।
।। जलं।।
जगत् कह रहा चन्दन शीतल,
लगता सुनी न गुरु वाणी ।
शीतल हृदय वही की जिसने,
आत्म-सात जिनवर वाणी ।।
जिन आज्ञा प्रतिकूल बोलने,
जुबाँ आप कब मचले है ।
रुतवा देख इतर मत परणत,
कहाँ आपकी फिसले है ।। चंदन।।
अक्षत धवल कहे जग शायद,
परिचित ना तव चर्या से ।
धवल वही पग रुकें न जिसके,
बढ़ते चालें दरिया से ।।
मठाधीश पदवी पा पाने,
रञ्च न तुम अकुलाये हो ।
ले साबुन कागा उजार तुम,
कब गुरु ज्ञान लजाये हो ।। अक्षतम्।।
सुन्दर-पुष्प, कहे जग शायद,
तुम मुस्कान न देखी है ।
सुन्दर वह जिसने कर नेकी,
जा दरिया में फेंकी है ।
जन हित ढ़ेर प्रकल्प आपके,
मनु झिलझिल झिलमिल तारे ।
स्वयं कहे अवतार दया तुम,
तुम्हीं एक तारणहारे ।।पुष्पं।।
नेवज मधुर कहे जग शायद,
आप गुणों से अनजाना |
मधुर वही चुगली खाना तज,
जिसने भजा गम्म खाना ।।
समझ दवा खाने को तुमने,
दबा-दबा ना खाया है ।
तभी अंगुलिंयों पर भोगों ने,
पलक न तुम्हें नचाया है ।।नैवेद्यं।।
दीपक, दीप्त कहे जग शायद,
आप ज्ञान धन देखा ना ।
खूब जानते, कहे मा…न क्या ?
मान साथ रहती माँ ना ।।
झुकते गये और और यूँ,
नाम किया सार्थक अपना ।
विद्यासागर बनो आप कल,
जैन-अजैन एक सपना ।। दीपं।।
सुरभित धूप कहे जब शायद,
परिचित नहीं आप तप से ।
सुरभित वही नज़र न फेरे,
जो नवकार मन्त्र जप से ।।
जुबाँ न सिर्फ अंगुलियों पर भी,
मन्त्र महा नर्तन करता ।
सम्यक्-दर्शन पा जाता वो,
जो तेरे दर्शन करता ।।धूपं।।
फल को सरस कहे जग शायद,
भींगा ना तुम करुणा से ।
सरस वही लख पर दुख जिसके,
दृग् बन चालें झरना से ।।
आप हृदय करुणा से भीगा
निकाला तभी दयोदय है
आप दया गाने गाने में,
पीछे कब भाग्योदय है।।फलं।।
जल जैसे निर्मल हो तुम ओ !
सुरभित हो चन्दन जैसे ।
दिव्य घवल अक्षत जैसे तुम,
मंजुल गुल नन्दन जैसे ।।
चरु से चारु, ज्योति ज्योतिर्मय,
धूप-नूप तुम फल मीठे ।
तदपि चढ़ाता सभी द्रव्य ये,
चरण आप नयनन तीते ।।अर्घं।।
दोहा=
दूर जुबाँ, मन भी छुआ,
जिसने गुरु का नाम ।
लाख बिगड़ता काम भी,
बनता पहले शाम ।।
॥ जयमाला ॥
ग्राम सदलगा अवतारी जै ।
जन्म शरद निशि उजयारी जै ।।
जै गुण-आगर संकटहारी ।
जै निर्दोष महा व्रत धारी ॥
सकल विघ्न-विध्वंसक जै जै ।
मत्त मदन मद मर्दक जै जै ।।
जै जै श्री मति मात दुलारे ।
जै जै शिष्य ज्ञान गुरु न्यारे ।।
जगत भगत-वत्सल जै,जै जै ।
भव-जल बीच कमल जै,जै जै ।।
जै जै,जै किल्विष-मति रीते ।
जै जै,जै मति-मराल तीते ॥
तीर्थोधारक जै जै,जै जै ।
पाप-विदारक जै जै,जै जै ।।
जै जै, जै जै ऋषि-मुनि-स्वामी ।
जै जै,जै जै अन्तर्-यामी ॥
दीन-बन्धु जै,जै जै,जै जै ।
कृपा-सिन्धु जै,जै जै,जै जै ।।
जै जै,जै जै,जै सुखकारी ।
जै जै,जै जै,जै दुखहारी ॥
शिव-कर जै जै,जै जै,जै जै ।
भव-हर जै जै,जै जै,जै जै ।।
जै जै,जै जै,जै जै,ज्ञानी ।
जै जै,जै जै,जै जै,ध्यानी ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
दोहा=
इस तन में गुरुदेव जी,
जब तक नर्तन प्राण ।
यूँ ही मैं करता रहूँ,
निशि-दिन तव गुण गान॥
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