परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 22
बेटा माँ का कैसा हो ।
विद्या-सागर जैसा हो |।
क्यों लगते ऐसे नारे ।
हो ही तुम जग से न्यारे।।स्थापना।।
छुप-छुप कर अपराध आज तक,
करता आया हूँ ।
रहे चोर दाढ़ी में तिनका,
डरता आया हूँ ॥
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। जलं।।
दान चतुर्विध, संघ चतुर्विध,
दिया खूब माना ।
पुण्य सातिशय गुमा गुमाँ वश,
हाथ कहाँ ‘आना’ ।।
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। चंदन।।
श्वान भाँत ये दृग् तलाशकर,
मल ले आते हैं ।
बक पीछे चल भव मानस पल,
विरथा जाते हैं ।।
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।।अक्षतम्।।
झूठ बोलना माना मैंने ,
समझा बुरा अहो ।
विपत् देख सिर अपने, बोला-
कितना खरा कहो ।
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।।पुष्पं।।
चुगली खाता, खूब मचाता,
दो की चार कहूँ ।
औ-गुण मिश्रित दो गुण अपने,
बीच बजार कहूँ ।।
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। नैवेद्यं।।
चीज पराई होवे मेरी,
रहूँ ताँक में मैं ।
भले हूर ना दिखी अंगना,
निरत झॉंकने में ॥
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। दीपं।।
मन की भूख मिटाने का,
कीना प्रयास थोथा ।
अपना ना जो उसे रिझा हा !
रहा काग धोता ।।
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। धूपं।।
स्व-अध्याय न खोला, डगगम,
व्रत-मग ज्यों दोला ।
कब अमरित ‘बोला’ वाणी में,
जब-तब, विष घोला ॥
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। फलं।।
काँधे रख औरों के दागूँ ,
हाय ! दुनाली मैं ।
बन के दूजा हाथ बजा ही,
आता ताली मैं ।।
सजग आप सा बनूँ ,हृदय यह,
भावन भाता है ।
सुनते, तुम्हें न मरणावीची,
यम ठग पाता है ।। अर्घं।।
“दोहा”
गुरुवर मेरे साथ में,
रहना तब दिन रात ।
काल ‘काल’ जब अन्त पा,
आये दल बल साथ ।।
।। जयमाला ।।
रहे हमारे सिर पर गुरुवर,
सदा हाथ तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥
घर कुटुम्ब परिवार मोह ना,
मुझको तड़फावे ।
विष समान विषयों की याद न,
रह रह के आवे ।
सिर्फ जुवाँ पे मेरी गुरुवर,
नाम रहे तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥
एक-एक करके पापों के,
सब चिट्ठे खोलूँ ।
किये गये सत्कृत से कमती,
या ज्यादा तोलूँ ॥
करने पापन निंदा गर्हा,
आश्रय लूँ तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥
तन मरता, मरता ना चेतन,
हर दम ध्यान रहे ।
मैं नहिं तन, मैं चिदानन्द चेतन,
नित भान रहे ।
प्रवचन सुनूँ समाधी इक सम्राट,
त्रिजग तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर ,
आये जब मेरा ॥
ध्यान रखूँ है अन्य सहायक,
करना सब मुझको ।
दोषी मैं, निर्दोषी भी, दूँ-
दोष जगत् किसको ॥
याद रखूँ मैं सूत्र ‘अप्प दीवो भव’,
नित तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥
चिंतन, पीडा का ना हो,
मैं रहूँ गुप्तियों में ।
अवगाहूँ जिनवर प्रदत्त
अनमोल सूक्तियों में ।।
बिन वैशाखी चलने सा,
आदर्श धरूँ तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥
सिर्फ मौन ना रहूँ, चपल मन,
चंचलता खोवे ।
होवे कृश न देह मात्र कृश,
कषाय भी होवे ।।
रूठ भले जाये जग नहिं,
छूटे दामन तेरा ॥
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥
गुरुवर आप प्रमाण मिरे,
हित में जो सो करना ।
अन्त समाधि मरण करा-कर,
दुख से सुख धरना ।
मैं तो बस पद रज पाने बनता,
अनुचर तेरा ।
जागृत रहूँ समाधि अवसर,
आये जब मेरा ।।
‘दोहा’
अपने सिर-मस्तक रहे,
जब गुरुवर का हाथ ।
बनने से तब आप ही,
रहे कौन सी बात ॥
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