परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 19
मरणा-वीची क्षण ।
शरण जिन्हें सुमरण ।।
सु-मरण हेतु शरण ।
वे गुरु-देव चरण ।।
जयकारा गुरु-देव का…
जय जय गुरु-देव ।।स्थापना ।।
क्षमा करो गुरुदेव समय न,
निज आतम को दिया कभी ।
वरण आज-तक मरण समाधि-
हन्त ! ना मैंने किया कभी ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।जलं।।
हन्त ! हन्त ! मैंने सुपात्र को,
दान दिया पर मद करके ।
कीना नित स्वाध्याय किन्तु हा !
समझा ना सुध-बुध धरके ।
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। चंदन।।
रटा नाम तेरा तोते सा,
लेकिन हृदय न पधराया ।
क्या ये कीना शून्य भावना-
किरिया ने कब फल पाया ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। अक्षतम्।।
की मैंने पर की निन्दा हा !
आत्म प्रशंसा की मैंने ।
खेल खेल में हा ! व्यसनों से ,
प्रीत जोड़ लीनी मैंने ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। पुष्पं।।
जान बूझ-कर के मैंने हा !
छुप-छुप के अपराध किया ।
हा ! अपराध कराया मैंने,
अपराधी का साथ दिया ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।नैवेद्यं।।
कामातुर हो मैंने नैना,
हा ! पर नारी से जोड़े ।
किये भले सत्कृत अंगुली पे ,
गिन लो बस उतने थोड़े ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। दीपं।।
हिंसा में आनन्द मना हा !
रौद्र ध्यान मन भाया है ।
आरत में नित परिणति व्यापी ,
विषयन मन भरमाया है ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।धूपं।।
हा ! हा ! की काला बाजारी ,
धंधा विसुध कहाँ मेरा ।
हाय ! बनाया मकड़ी जैसा ,
पञ्च सभी पापन घेरा ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।फलं।।
जीवन निकल गया यूँ ही कब,
अष्ट-मूल-गुण अपनाये ।
सुदूर संयम, समकित के भी,
मैंने ना गाने गाये ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।अर्घं।।
*दोहा*
सपने में भी दिख चले,
शगुन मानना मित्र ।
ये पालें कलि-काल में,
काल-चतुर्थ चरित्र ।।
॥ जयमाला ॥
गुरु विद्या रखवाया जिनने,
श्री गुरु तप मंदिर कलशा ।
किमि, इमि गुरु विद्या से इक दिन,
ज्ञान सिन्धु बोले सहसा ||
भईं इन्द्रियाँ शिथिल श्वास अब,
शुद्ध नहीं आवे मेरी ।
लगता त्रिभुवन जयी मृत्यु अब,
आ इक टक मुझको हेरी ॥
सो तुम ही अब प्रमाण मुझको,
सन्मृत्यु चाहूँ तुमसे ।
बिखरें संयम नियम पूर्व ही,
जाना मैं चाहूँ जग से |
पर कैसे समझाऊँगा मैं,
आप ज्ञान सागर स्वामी ।
मैं शिव मग हूँ, नया खिलाड़ी,
आप पुराने आसामी ॥
रे ! ऐसा मत सोच सयाने !
अन्त समय सुध-बुध खोती ।
बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी की ,
परिणति तब कागा धोती ॥
अस्तु ! सुनो भो ! क्षपक कहाँ तुम,
अन्तक नगर निवासी हो ।
तुम तो हो चैतन्य स्वरूपी,
अजर-अमर अविनाशी हो ॥
मृत्यु समय ना डरना मृत्यु ,
चाबी है नूतन तन की ।
एक अकेली देने वाली,
जिन-गुण-सम्पद्-धन की ॥
अरे ! आप अरिहन्त सिद्ध की,
रटना एक लगाओ जी ।
विसर शयन,भज आतम अपनी,
दिवि निज सेज उठाओ जी ॥
इमि गुरु ज्ञान-सिन्धु सुध-बुध-धर,
निरत हुये निज लखने में ।
बख्तर पहने सुभट भॉंत अरि,
अन्तक राह निरखने में ।।
भासा अन्तिम-पल बैठे-उठ,
‘सहजो’ स्वर्ग-सिधार गये ।
विद्या को जाते जाते भी,
अनुभव सौंप अपार गये ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
श्रमण-ज्ञान-गुरु सा नहीं,
त्रिभुवन-माहीं अन्य ।
पा मृत्यु पे जय-सिरी,
नर-भव कीना धन्य ॥
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