परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 38
तर्ज- – “अगर तुम मिल जाओ,
जमाना छोड़ देंगें हम “
मात श्री मति जी बड़भागी,
जिन्होंने है इनको जाया ।
पिता मल्लप्पा जी धन-धन !
जिन्होंने पूनम शशि पाया ।।
विनय वैयावृत निरख-निरख,
ज्ञान गुरु भी रीझे इन पे ।
सिन्धु विद्या जी इन जैसी ,
लगाऊँ मैं लगाम मन पे ॥ स्थापना॥
विश्व कहता सब क्षण-भंगुर ,
इन्होंने मान तजा उसको ।
मोक्ष मुश्किल कहती दुनिया,
निजाश्रित जान भजा उसको ॥
जन्म यम जरा किनारे ये,
सहज भव जल तरने आये ।
नीर लेकर गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ जलं॥
चाहता जग शीतल चन्दन,
जैन आगम इनको भाया ।
लगें संयोगज जग को निज-
अरे ! इनको भासे माया ॥
अष्ट महतार दुलारे ये,
निराकुल सुख चखने आये ।
लिये चन्दन गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ चंदन॥
विश्व औरों को ठग कहता,
कह चले ठगिया यह खुद को ।
श्वान-सा जग निरखे, लाठी,
विपत् में ये पूरब कृत को ॥
आज सम-दर्शन द्वारे ये,
निराकु़ल पद वरने आये ।
लिये अक्षत गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥अक्षतम्॥
श्वान गफलत लख जग हँसता,
बोध सम्यक् इनने पाया ।
मदन बन्धन जग लगे मृदुल,
किन्तु इनका मन अकुलाया ॥
ब्रह्म नव बाढ़ पिटारे ये,
सहज मनसिज दलने आये ।
पुष्प लेकर गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ पुष्पं॥
अशन जीवन लख जगत् भजे,
व्यसन लख, राग तजा इनने ।
हानि-आमद मे जग विह्वल,
भाव सम-रसी भजा इनने ॥
वैद्य-शिशु निस्पृह न्यारे ये,
विनत क्षुध् गद हरने आये ।
लिये नेवज गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ नैवेद्यं॥
दैव लख अटल जगत् भिड़ता,
हाथ पे हाथ रखा इनने ।
ज्ञान धन मिले छुपाये जग,
मगर घर-घर बाँटा इनने ॥
बीच तम पाप उजाले ये ,
विभव अपना लखने आये ।
दीप लेकर गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ दीपं॥
मिटाता जग रेखा पर की,
बढ़ाई रेख निज इन्होंने।
जगत् कहता ” हूँ भगवन् मैं ”
आप तत्पर भगवन् होने ॥
चरित नभ एक सितारे ये,
पाप बल-दल दलने आये ।
धूप लेकर गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ धूपं॥
लगे निंदा पर की जग को,
सुलभ इनको निज की लगती ।
जगत् जीवन प्रमाद का घर,
मगर इनकी परिणति जगती ॥
जलज जग कीच निराले ये,
निराकुल घर बसने आये ।
लिये श्री फल गुरु चरणों में,
इन्हीं जैसा बनने आये ॥ फलं॥
बने जग कायर देख मरण,
पर खड़े ये बखतर पहने ।
कोसता जगत् अभागों को,
अश्रु लगते इनके बहने ॥
तुरिय कालीन नजारे ये,
खास अनुचर बनने आये।
अर्घ लेकर गुरु चरणों में,
इन्ही जैसा बनने आये ।। अर्घं।।
“दोहा”
जिनका भव-हर नाम है,
आज चरित-गिरि शीश ।
गुरुवर विद्या वे तिन्हें,
नम्र नमन निशि-दीस ॥
॥ जयमाला ॥
किया समर्पण मैंने स्वामिन् ,
तेरे चरणों में ।
आश यही ले, हो गणना,
तेरे आभरणों में ।।
प्रण करता, ना कभी शिकायत का,
अवसर दूँगा ।
तेरे अनुभव सहसा अपने ,
सिर माथे लूँगा ।
तुझ सा कुन्द-कुन्द का मुनि ,
दिखलाऊँगा बनके ।
ज्ञान ध्यान ‘कर’ कर विनशाऊँगा,
विकार मन के ॥
अब ना अपनी सखि बनाऊँगा ,
विकथाओं को ।
सुध-बुध धर तुम भाँति हराऊँगा,
विपदाओं को ॥
देना ना तुम अंक, अंक मैं ,
ले लूँगा तुम सा ।
सहज बनूँगा पर-निन्दा अवसर,
गूँगा तुम सा ॥
समता औषध अब होगी,
तुम सी अकसीर मुझे ।
अपनी पीड़ा सी होगी ,
दूजों की पीर मुझे ॥
प्रवचन माँ की गोद सहारा ,
मुझे अपर होगी ।
पल पल परिणति की अब तुम सी,
मुझे खबर होगी ॥
विसम्वाद विहँसाने रोकूँगा,
सम्वादों को ।
नाथ बनाऊँगा तुम सा ,
फौलाद इरादों को ॥
रोजनामचा रोज मिलाऊँगा,
तुम सा स्वामी ।
गज निमील-नाचरण भाँति ना,
लोपूँगा खामी ॥
इन इत्यादिक जो भी प्रण हो,
मन वो ले लेना ।
मगर जगह थोड़ी सी अपने ,
चरणन दे देना ।
॥जयमाला पूर्णार्घ॥
दोहा
दया धाम कीजे दया,
दया भाव उर धार ।
लीजे ‘कर’ निज करन में,
कलि चित् चपल अपार ।
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