परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 37
तर्ज- —– अगर तुम मिल जाओ, जमाना छोड़ देंगें हम ।
ज्ञान सागर, शाला के ये,
अपर लालो गहर जानो ।
लखा क्या श्रृद्धा से इनको,
लगी समकित मुहर मानो ॥
आज जब मन चंचल रहता,
बाँध रक्खा मन इनहोंने ।
सूरि श्री विद्यासागर जी,
सहज आया तुम सा होने ।। स्थापना।।
कभी कथनी करनी में तुम,
जरा अन्तर ना पाओगे |
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
जगत् ये राम-बाण औषध,
रोग त्रय हरना तो बोलो ।।
चला चल प्रासुक ले मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो ।।जलं।।
वृक्ष ये इन्हें खिला पत्थर,
हमेशा फल ही पाओगे ।
दर्श तो रहा दूर इनका ,
नाम भी लो तर जाओगे ।
दिव्य मलयागिरी चन्दन ये,
भवातप नशना तो बोलो ॥
चला अन चन्दन ले मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो।। चंदन।।
विनय लख इन दरिया की तुम,
भाँति झरने मिल जाओगे ||
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
कलश मादर्वता अमरित के,
मान, वसु हरना तो बोलो ||
चला कण अक्षत ले मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो ।। अक्षतम्।।
पुष्प सुरभित ये देख इन्हें
भ्रमर जैसे मड़राओगे ।
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
मत्त मनमथ मद मर्दक ये,
मदन मद मथना तो बोलो ॥
चला ले दिव्य पुष्प मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो ।। पुष्पं।।
इन्हें लख जग जल बीच कमल,
इन्हीं के होते जाओगे ।
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
अहा ! मृग-तृष्णा अभिजित ये,
लोभ गर हरना तो बोलो |
चला नैवेद्य लिये मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो |। नैवेद्यं।।
देख निर्धूम दीप इनको,
अँधेरा पाप नशाओगे ॥
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
दूर पापातप सूरज ये,
मोह तम हरना तो बोलो ॥
चला घृत प्रदीप ले मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो ।। दीपं।।
हंस सी देख बुद्धि इनकी,
सभी उलझन सुलझाओगे ।।
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
अमल ध्यानानल में इनके,
कर्म दल दलना तो बोलो ॥
चला ले नूप धूप मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो ।। धूपं।।
धवल चारित शश ये इनको,
निरख कलि शिव पथ पाओगे ॥
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
मुक्ति जल यान अनाहत ये,
मुक्ति वधु वरना तो बोलो ॥
चला फल सरस लिये भजने ,
चलो चलना तो सँग हो लो।।फलं।।
सिन्धु ये दोष मगर लेकिन,
खोजते ही रह जाओगे |
दर्श तो रहा दूर इनका,
नाम भी लो तर जाओगे ।
एक पारस पत्थर जग ये,
स्वर्ण बन चलना तो बोलो ॥
चला ले अर्घ थाल मैं तो,
चलो चलना तो सँग हो लो ।। अर्घं।।
।।जयमाला।।
“दोहा”
जिनकी इक इक श्वास पे,
ज्ञान सिन्धु अधिकार ।
श्री गुरु वे विद्या तिन्हें ,
वन्दन बारम्बार ।
इति हास नाम ।
सदलगा ग्राम ।।
जन्मा-भिराम ।
शशि कला धाम ।।
पद-पद्म लाल ।
घुँघराल बाल ।।
मन मोह चाल ।
शिशु मत मराल ।।
दृग् नीर नन्त ।
पर पीर हन्त ।।
इक दरद मन्द ।
‘इक साध’ वन्त ।।
साँझन तमाम ।
सुमरण सुदाम ।।
दीखा मुकाम ।
गीता प्रणाम ।।
श्री मन्त नन्द ।
वैराग वन्त ।।
शिख ज्ञान सिन्ध ।
शिरमण मुनिन्द ।।
पर निन्द दूर ।
मंशा प्रपूर ।।
जिन धर्म सूर ।
शिव सुख अदूर ।।
गुरु कुन्द-कुन्द ।
गुरुकुल सुगंध ।।
वच अमृत इन्द ।
कल जुग गुविन्द ।।
धारा विराग ।
अजमेर भाग ।।
भीतर चिराग ।
अठ-पहर जाग ।।
इति हास नाम ।
सदलगा ग्राम ।।
जन्मा-भिराम ।
शशि कला धाम
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
*दोहा*
करुणा कर गुरुदेव जी,
कर लीजे विश्वास ।
शायद इम-तीहान में,
उतरे खरा ‘यि-दास’ ॥
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