परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 36
जिन्हें मूल-गुण ऐसे प्यारे,
जैसे मछली को पानी ।
शिशु को माँ,चकोर को चन्दा,
सूरज कमल,कीर्ति ज्ञानी ॥
गुरु विद्या सागर चरणों में,
सादर शीश झुकाता हूँ ।
सहज निराकुल बनूँ आप सा,
यही भावना भाता हूँ ।। स्थापना।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
उत्तम क्षमा अमृत चखते ।
दूध उफन ना जाये फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
हा ! खरगोश भाँति पै मैंने,
देख व्याध मूँदे नयना ।
नीर लिये आया चरणों में,
जागूँ तुम सा दिन रैना ।। जलं।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
सम्यक् दर्श अमृत चखते ।
चिड़िया चुग ना जाये फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
मैं मेंढक सा किन्तु आ चला,
देख नाग जल से धरणी ।
लिये चर्चने चरणन चन्दन,
हेतु एक कथनी करनी ।। चंदन।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
सम्यक्-चरित अमृत चखते ।
मेघ विघट ना जाये फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
यम मयूर लख सर्प भाँति पर,
आँख रखा चन्दन वन है ।
अक्षत लाया हो मन वैसा,
जैसा सुमन आप मन है ।।अक्षतम्।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
उत्तम ब्रह्म अमृत चखते ।
पन्छी उड़ ना जाये फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
काल सींह लख लेकिन मृग सा,
लखा मार्ग कस्तूरी भो ।
लाया पुष्प ,कलेवा दीजे,
हो शिव मार्ग जरूरी जो ।।पुष्पं।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
नित संतोषामृत चखते ।
बिजली चमक ना जाये फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
पर लख काल बधिक पंछी से,
तरु तज कदम जाल कीने ।
चरु लाया चरणन तुम, तुम सा,
चढ़ने लगूँ मोक्ष जीने ।। नैवेद्यं।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
सम्यक् ज्ञान अमृत चखते ।
बुद बुद खो ना जाये फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
निरख काल मारक पर अज सा,
भूम कृपाण खोद लीना ।
ले अभिलाष दीप लाया हूँ,
हो मिथ्या-तम छव छीना ।। दीपं।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
तप समिचीन अमृत चखते ।
चूक जाय ना गाड़ी फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
लेकिन यम विडाल लख मैंने,
मूषक सा बिल विसराया ।
लाया धूप आप सा होवे,
सिर मेरे गुरु का साया ।।धूपं।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
उत्तम त्याग अमृत चखते ।
ताश महल ना विनशे फिर से,
साध भाँत जागृत रहते ॥
पर लख संकट शतुर्मुर्ग सा,
गर्त शीश कीना अपना ।
फल लाया श्री कुन्द-कुन्द गुरु,
चरित रहे ना अब सपना ।।फलं।।
सहज निराकुल पंक्ति विराजे,
उत्तम सत्य अमृत चखते ।
जल रेखा ना विहॅंसे पुनि आ,
साध भाँत जागृत रहते ॥
निरख काल धीवर हा ! झष सा,
सतह ऊपरी वास किया ।
लाया अर्घ आप सा गुरु का,
बने खास ये दास जिया ।।अर्घं।।
“दोहा”
ज्ञान सिन्धु गुरु का रहे,
सर जिनके आशीष ।
सन्त शिरोमणि वे तिन्हें,
नम्र नमन निशिदीस ॥
॥ जयमाला ॥
‘धरा’ अवतरण शरद पूर्ण दिन
श्रीमति माँ नन्दन ।
सुत गुरु ज्ञान, सूरि विद्या का,
शत शत अभिनंदन ।।
जिनने पिता मलप्पा का,
आँगन शोभित कीना ।
सबसे सुन्दर बालक का,
जिनने खिताब छीना ॥
जिन्होंने कीना सदलगा,
ग्राम माटि चन्दन ।
सुत गुरु ज्ञान, सूरि विद्या का,
शत शत अभिनंदन ।।
जिन पे ना थी शाला में किस,
शिक्षक की छाया ।
हुये जवाँ जैसे ही कब,
उलझा पाई माया ।
मुनि बन जिनसे सुना गया ना,
मूक प्राणि क्रन्दन ।
सुत गुरु ज्ञान, सूरि विद्या का,
शत शत अभिनंदन ।।
अपने सी ही विरची बहु मुनि,
मूरत जिन्होंने ।
बालाएँ आ खड़ीं चरण में,
सति साधवि होंने ।।
त्रिभुवन सुमन न किसने-जिनका,
किया चरण वन्दन ॥
सुत गुरु ज्ञान, सूरि विद्या का,
शत शत अभिनंदन ।।
मूकमाटि कृति जिनकी अद्भुत,
जिन श्रुत अनुगामी ।
जिन करुणा से बनी दयोदय,
करुणा आसामी ॥
मनहर दर्श मात्र जिनका,
विनशाये भव बन्धन ।
सुत गुरु ज्ञान सूरि विद्या का,
शत शत अभिनंदन ।।
तीर्थक्षेत्र से जिन्हें नेह है,
अपनों के जैसा ।
जितना बने धरो संयम कलि,
जिनका सन्देशा ॥
कहूँ कहाँ तक जिनका निर्मल,
चरित अगम धन ! धन ।
सुत गुरु ज्ञान सूरि विद्या का,
शत शत अभिनंदन ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
करूँ प्रार्थना आपसे,
विद्या सागर वीर ।
करुणा कर जागृति दिला,
रखना लाज अखीर ॥
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