परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 34
चाँद में दाग है ।
भान में आग है ।।
छोटे बाबा सा कोई नहीं ।
चन्दन लिपटाये नाग है ।।स्थापना।।
खुद वशीभूत मार्ग-शिव सुनकर,
सहज उसे था अपनाना ।
लग कतार हो चले सिद्ध सुन,
था स्वातम में रम जाना ।।
पर स्वछन्द वृत्ति अपनाकर,
भव भव नाक कटाई है ।
लाया जल, दृग् सजल बनाने,
सुध अपनी अब आई है ।। जलं।।
था अच्छा रिपु प्रहार सहकर,
मधुर रसीले फल देना ।
सार्थक नामा ‘क्षमा’ पृथ्वी-सा,
बदल खनन कृत जल देना ।।
शत्रु प्रहार देखकर मैंने,
सिर लहु धार बहाई है ।
चन्दन लाया हेत केत शिव,
सुध अपनी अब आई है ।।चंदन।।
था अच्छा सम्पद पा करके,
मेघ भाँत बरसा आना ।
क्यों करना मद सत्य सनातन,
लगा यहाँ आना जाना ॥
पर मैंने परिणति जड़ धन पा,
रह रह कर गर्वाई है ।
लाया अक्षत, हित अक्षत पद,
सुध अपनी अब आई है ।।अक्षतं।।
स्वस्थ्य कहाँ हूँ था अच्छा यह,
दावत मन्मथ ठुकराना ।
चेहरे देख मदन अतिथि के,
उससे आँख मिलाना ना ।।
लेकिन मनमथ प्रणय गीत सुन,
कीनी जगत्-हँसाई है ।
लिये सुमन हित तिय चितवन जित,
सुध अपनी अब आई है ।।पुष्पं।।
तिष्णा मृग मरीचिका दूजी,
था अच्छा जय-श्री पाना ।
रही निकट निज निज कस्तूरी,
देर भला क्या थम जाना ॥
किंतु महक आते ही मैंने,
बेसुध दौड़ लगाई है ।
लिये चारु चरु हेत केत दिव,
सुध अपनी अब आई है ।।नैवेद्यं।।
था अच्छा श्रुत दीप जला कर,
गर्त पाप बच बच चलना ।
हुआ बहुत छल श्रुत से अबकी,
हृदय धार अरि दल दलना ॥
श्रुत अनबुझ पा प्रदीप मैंने,
औरन राह दिखाई है ।
लाया ज्योती,हित मण मोती,
सुध अपनी अब आई है ।। दीपं।।
था अच्छा आये विपाक तब,
सिसक-सिसक कर रोना ना ।
है अमूल्य परिणाम हमारे,
नाहक इनको खोना ना ।।
दी दस्तक क्या फल विपाक हा !
पाप बुद्धि अपनाई है ।
लिये गंध-दश हित सुगंध कृत,
सुध अपनी अब आई है ।।धूपं।।
खुला मोक्ष का द्वार भले ना,
किन्तु बन्द था कब रस्ता ।
जागे तभी सबेरा जग में,
रिसने वाला हर रिश्ता ।।
पर मैंने लख सुबह सदा ही,
बन-बन आँख लगाई है ।
लाया ऋत-ऋत फल हित समकित,
सुध अपनी अब आई है ।।फलं।।
नर तन पा आवीचीमरण पल,
था अच्छा जागृत रहना ।
कर्म चोर चहु ओर भला था,
गुप्तिन त्रय आवृत रहना ।।
किन्तु समय संग्राम पूर्व सी,
पुनः पृष्ठ दिखलाई है ।
लिये अर्घ, हित पद अनर्घ सित,
सुध अपनी अब आई है ।।अर्घं।।
“दोहा”
सुर सुर-तिय सँग आरती,
जिनकी करते रोज ।
प्रणमूँ श्री गुरु-देव के,
भव-हर चरण सरोज ॥
।। जयमाला ।।
अनुपमेय गुरुदेव आप आगे,
हर उपमा झूठी है ।
आप भाँति मूरत जग क्योंकि,
कोई कहाँ अनूठी है ॥
सुर तरु बिन याँचे नहीं देता,
तुम देते हो सो बढ़के ।
नाव न केवट निस्पृह खेता,
तुम खेते हो सो बढ़के ॥
अनुपमेय गुरुदेव आप आगे,
हर उपमा झूठी है ।
आप भाँति मूरत जग क्योंकि,
कोई कहाँ अनूठी है ॥
शशि कुमलाये दल सहस्र पर,
तुमने कब छीनीं खुशिंयाँ ॥
रवि उपजा जाये आतप पर,
दीं तुमने कब ना खुशिंयाँ ।।
अनुपमेय गुरुदेव आप आगे,
हर उपमा झूठी है ॥
आप भाँति मूरत जग क्योंकि,
कोई कहाँ अनूठी है ॥
दीपक तले अंधेरा देखा,
तम गुस्सा पी लेते तुम ।
सागर विष गागर दूजी हा,
विष निन्दा से रीते तुम ।।
अनुपमेय गुरुदेव आप आगे,
हर उपमा झूठी है ।
आप भाँति मूरत जग क्योंकि,
कोई कहाँ अनूठी है ॥
नभ राहू-केतू निवास हा,
कब तुम परि-ग्रह गृह स्वामी ॥
ढ़ेर पत्थरों का पर्वत हा,
कहाँ आप गुण गृह नामी ।
अनुपमेय गुरुदेव आप आगे,
हर उपमा झूठी है ॥
आप भाँति मूरत जग क्योंकि,
कोई कहाँ अनूठी है ॥
कहूँ कहाँ तक नहीं आपका,
सानी त्रिभुवन में कोई
करुणा कर सहाय बन चलिये,
खोजूँ निज वस्तु खोई ।।
अनुपमेय गुरुदेव आप आगे,
हर उपमा झूठी है ।
आप भाँति मूरत जग क्योंकि,
कोई कहाँ अनूठी है ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
सजल नयन तुम चरण में,
शीश झुकाकर नाथ ।
विनती करता आप से,
ले चलना शिव साथ ॥
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