परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 20
बोलो मिल के सभी…जय विद्यासागर
गुण रत्नाकर ।
ज्ञान प्रभाकर ।
कल शिव नागर ।
श्रावक श्रेष्ठी सुधी…
बोलो मिल के सभी…जय विद्यासागर ।। स्थापना |।
जो नग्न दिगम्बर रहते ।
सहते परिषह कब कहते ।।
जिनकी मुस्कान हमेशा ।
अपहरती कष्ट कलेशा ॥
समकित निमित्त जो जग में ।
गुरु ज्ञान समाहित रग में ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।।जलं।।
मति कब विकथा सँग होती ।
परिणति जिनकी कब सोती ।।
कब क्रोध विजय श्री पाता ।
हर व्रति से जिनका नाता ॥
जन जिन सा बनना चाहें ।
जिन बिन आसाँ कब राहें ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।।चंदन।।
जो कब भित्ति से टिकते ।
इन थान कहाँ हैं रुकते ।।
गुरु भक्त नहीं जग जिन सा ।
अरि दल जिन बिन कब विनशा ।।
मद पास कहाँ आते हैं ।
जिन का जश सुर गाते हैं ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।।अक्षतम्।।
कब काम काम से जिनको ।
श्रुत बाग रमाते मन को ।।
निज-रूप जिन्हें बस भाये ।
कब क्यों गफलत भरमाये ॥
शशि जिनके आगे फीका ।
यति ‘जगत’ न जिन सा दीखा ।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।।पुष्पं।।
जो संयम शीर्ष कहाते ।
गंगा नित ज्ञान बहाते ।।
सुन ना सकते क्रन्दन जो ।
गुरु ज्ञान सिन्धु नन्दन जो ॥
चलते कब ले वैशाखी ।
मति कब प्रमाद सँग राखी ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।। नैवेद्यं।।
आते जो कब बातों में ।
रखते जादू हाथों में ।।
जिन भॉंत न समरस सानी ।
अमृत जिन की मृदु वाणी ॥
किनके ना त्रिभुवन साथी ।
जिन गुण सम्पद् जिन थाती ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।।दीपं।।
है तेज भानु सा जिनमें ।
कम किससे समता धन से ।।
कृति मूकमाटी जग न्यारी ।
मूरत जिनकी मनहारी ॥
कब अघ से नेह करें जो ।
कब श्रुत संदेह करें जो ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।।धूपं।।
जिनका जो नाम उचरते ।
कब भूत-प्रेत से डरते ।।
पद जिनके छुएँ बलाएँ ।
जिनको लख विघ्न विलाएँ ॥
बाधाएँ दें कब पीड़ा ।
अहि जिन तन करते क्रीड़ा ।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।। फलं।।
जो है आदर्श हमारे ।
जिनको ग्रहीत व्रत प्यारे ।।
जिनसे जिन शासन शोभा ।
की जिनने मद से तौबा ॥
अनुचर बनने हम तरसें ।
जिनके युग चरणा परसें ।।
श्री विद्या गुरु के चरणा ।
कलि भव जल तारण तरणा ।। अर्घं।।
*दोहा*
कर दो बस इतनी कृपा,
ओ मुनियों के नाथ ।
मरण समाधी हो मिरा,
सिर पे रख दो हाथ ।।
॥ जयमाला ॥
भाग सदलगा के जागे ।
मल्लप्पा जी बड़भागे ॥
माई श्री मंती नन्दा ।
शारद निशि पूनम चन्दा ।।
माथ हिमालय परिभाषा ।
कच घुँघराले, शुक नासा ॥
नील झील अँखिंयाँ प्यारीं ।
तुतलातीं बतिंयाँ न्यारीं ॥
नया एक इतिवृत गढ़ने ।
चले पाठशाला पढ़ने ।।
भोग न इन्हें रिझा पाये ।
सूरि देशभूषण भाये।।
प्रतिमा सप्त ब्रह्मचारी ।
साक्ष ‘देव-गोम्मट’ धारी ।।
ज्ञान लगन ने दिखलाया ।
द्वारा ज्ञान श्रमण राया ।।
‘पुन’ अजमेर बड़ा भारी ।
जिन दीक्षा की तैयारी ॥
फिरी बिनौली गली-गली ।
खिली भविक मन कली-कली ।।
विद्या-सागर जयकारे ।
छेड़ें नागर-जन सारे ।।
भर भावन उर गुण गाऊँ ।
सहज निराकुल बन पाऊँ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
बोल परिंदे ले किया,
श्री गुरु तुम गुणगान ।
भूलों कीं दे दीजिए,
माफी गुरु भगवान् ।।
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