परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 18
जिनके आगे प्रखर प्रतापी,
सहस्र-रश्मि फीका पड़ता ।
ज्यादा कहाँ कला बस सोला,
चन्दा नव सीखा लगता ॥
जो गम्भीर सिन्धु से, भू से-
क्षमाशील, ऊँचे गिरि से ।
सुत गुरु ज्ञान, करें मण्ड़ित वे,
मुझे शीघ्र अरहत सिरि से॥ ॥ स्थापना ॥
जिनके विद्यालय में भाई,
कहाँ परीक्षा ली जाती ।
देना शिष्य अगर चाहे तो,
कहाँ मनाहीं की जाती ॥
मुनि गुरु कुन्द-कुन्द का बनने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु-विद्या सागर चरणों में,
नीर भेंट हट विनशाओ ॥जलं॥
अंक किसी को दिये न जाते,
अद्भुत इस विद्यालय में ।
अंक कमा सकते जरूर हम,
चाहे कोई भी वय में ॥
निरतिचार रत्नत्रय वरने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
चन्दन भेंट मुक्ति पाओ ॥चंदन॥
शिक्षा जिनके विद्यालय की,
रखना सदा नजर नीची ।
जागृत रहना होने वाले,
मरण नाम इक आवीची ॥
अदभुत सम रस सानी बनने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
भेंट शालि धॉं ध्यॉं पाओ ॥अक्षतम्॥
जिस विद्यालय बाँध पोटली,
खूँटी टाँग रखें मन को ।
कर पात्री बनने से पहले,
पायें पदयात्री पन को ॥
बिन वैशाखी कदम बढ़ाने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु-विद्या सागर चरणों में,
भेंट सुमन मद बिसराओ ॥ पुष्पं॥
संयम मंदिर कलश चढ़ाना,
जिस विद्यालय की शिक्षा ।
गुरु आज्ञा पालन करने से,
बड़ी ना कोई भी दीक्षा ॥
अपूर्व अमि स्वातम रस चखने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
भेंट भोग क्षुद् विनशाओ ॥ नैवेद्यं॥
सहजो ध्यान विपाक विचय इक,
जिस विद्यालय की थाती ।
सुख दुख में समता धरने से,
अच्छा ना कोई साथी ॥
कलियुग भव मानव धन करने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
भेंट दीप तम विनाशाओ ॥दीपं॥
हेत विशुद्धि णमोकार जप,
जिस विद्यालय बतलाया ।
विसम्वाद संवाद राह से,
आता, बच चेतन राया ॥
अबकि न ‘पुन’ वन निर्जन रोने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
भेंट धूप सन्मत पाओ ॥धूपं॥
तजना श्वान वृत्ति सिंह भजना,
जिस विद्यालय अपनाई ।
क्यों करना निन्दा, निन्दा से,
हो दुर्गति गाई माई ।।
पा पाने सुख सहज निराकुल,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
भेंट थाल फल शिव पाओ ॥फलं॥
सिखलाया जिनके विद्यालय,
तन मरता, कब मैं मरता ।
चिन्मय चिदानन्द मैं केवल,
कब किसका कर्त्ता धरता ।।
अपना भीतर विभव निरखने,
इनके विद्यालय आओ ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
भेंट अर्घ अघ विनसाओ ॥अर्घं॥
*दोहा*
आओ आओ मिल सभी,
लेते गुरु का नाम।
बीती बिन गुरु नाम वो,
सिर्फ नाम की शाम ॥
॥ जयमाला ॥
आप दूसरी ही कक्षा में,
पढ़े-लिखे हैं लगता है ।
दीन करुण क्रन्दन क्या सुनता,
थारा हृदय सिसकता है ॥
दौड़, होड़ छोड़ी तो छोड़ी,
छोड़ चुके तेरी-मेरी ।
चंचल मन की डोर हाथ में ,
रखते आप बना चेरी ॥
कब ग्रहीत व्रत तप में तेरे,
अतिचारों की सत्ता है ।
तुझे दिखें सारे जीवों में,
सिद्धों सी भगवत्ता है ॥
आप बिना सोचे समझे कब,
कदम बढ़ाते आगे हैं ।
पापन धन संपद अर्जन में,
सॉंची आप अभागे हैं ।
‘वस-प्रवचन’ माता की गोदी,
लगती तुम्हें सुहानी है।
तुम्हें ध्यान न रहता किस पल,
राधा-मुक्ति रिझानी है ॥
पहर-पहर जागृत रहने से,
तेरा नेह पुराना है ।
तुझे सिर्फ शुद्धातम के ही,
गाने हरदम गाना है ॥
सदा पलें निर्दोष मूल-गुण ,
यही भावना तुम स्वामी ।
गुरु आज्ञा पालन करने में,
रहे न भूल-चूक-खामी ॥
आप भक्त वत्सल यूँ ही ना,
यथा नाम गुण तथा अहा ।
आत्म कथा बिन तुम्हें सुहाती,
पाप वर्धिनी कथा कहाँ ॥
शीत घाम वर्षा दुश्वारी कहो,
तुमको कब खलती है ।
‘मिथ्या-मति’ लख परणति तेरी,
अपना मार्ग बदलती है ॥
तव साहित्य साधना अद्भुत ,
त्रिभुवन ना उसका सानी ।
भेद भेद-कर मेल कराती,
इक तेरी सुर’भी’ वाणी ॥
धन्य शिष्य दीक्षित, तुम दीक्षित-
शिष्यायें भी बड़भागी ।
तव निस्पृहता देख हुये जो ,
अम्बर आड़म्बर त्यागी ॥
कहूँ कहाँ तक कहाँ चॉंद तक,
शिशु का हाथ पहुंचता है।
तभी दूसरी ही कक्षा के ,
हो तुम कहना पड़ता है ।
॥जयमाला पूर्णार्घं॥
*दोहा*
गुरु कीर्तन नहिं कर सका,
धरण ज़ुबॉं जब नेक ।
गति ही तब मेरी कहाँ,
मैं शिशु छोटा एक ॥
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