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चौबीस तीर्थंकर विधान

30. खातेगाँव के मुनिसुव्रत-नाथ भगवान् पूजन विधान

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

 

खातेगाँव के मुनिसुव्रत-नाथ भगवान्
पूजन विधान

*समर्पण भावना*
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’

हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’

भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’

*विनय-पाठ*
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरब-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्‌घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साध-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साध-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साध-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
थिर-अथिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
‘रे खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रती उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘आ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, कण-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
नन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्-ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्-पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्-प्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रम-चर्य-घोर ।
मह-दुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि

मुनिसुव्रत नाथ भगवान् पूजन
बिगड़े काम बनाते हैं ।
बनता साथ निभाते हैं ।
बस अपनों में आते हैं ।
बाबा मुनिसुव्रत ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।
नैनन जल भर लाओ ‘रे ।
बनने भव्य निकट ।
पूजो मुनिसुव्रत ॥
दुनिया धूप, बाबा छाँव ।
मेरे बाबा खाते-गाँव ॥
प्रकटे रेवा तट ।
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्र
अत्र अवतर ! अवतर ! संवौषट् !
(इति आह्वाननम्)
अत्र तिष्ठ ! तिष्ठ ! ठ:! ठ: !
(इति स्थापनम्) !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् !
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, जल भर लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
पाने भव जल तट ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, चन्दन लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
हित मेंटन संकट ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, अक्षत लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
पाने पद अक्षत ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, फुल्वा लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
हरने भाव कपट ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, नेवज लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
हित मेंटन क्षुध्-गद ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, दीवा लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
हरने मोह-विकट ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, सुरभी लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
मेंटन कर्मन अठ ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, श्री फल लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
पाने शिव संपत ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥

आओ भक्ता आओ ‘रे ।
आओ, जल-फल लाओ ‘रे ॥
चरणन आन चढ़ाओ ‘रे ।
पाने गुण अर्हत् ॥
पूजो मुनिसुव्रत ।
दुनिया धूप, बाबा छाँव ॥
मेरे बाबा खाते-गाँव ।
प्रकटे रेवा तट ॥
जय हो मुनिसुव्रत ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

कल्याणक अर्घं
आओ ‘री आओ
सखि ! आओ ‘री आओ
प्रथम गर्भ कल्याण मनाओ
आओ ‘री आओ

करे कुबेर रतन की वरषा ।
कहे सुपन माँ हरषा हरषा ।
भाँत कुबेर रतन बरसाओ ॥
प्रथम गर्भ कल्याण मनाओ ।
आओ ‘री आओ
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्रावण-कृष्ण-द्वितीयायां
गर्भ-मंगल-मंडिताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

करे सुमेर न्हवन जल क्षीरा ।
ले सौधरम हरष दृग नीरा ।
शच-पत-से दृग सहस बनाओ ॥
दुतिय जन्म कल्याण मनाओ ।
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं वैशाख-कृष्ण-दशम्यां
जन्म-मंगल-मंडिताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

करें देव लौकान्त बढ़ाई ।
स्वर्ण-सुहाग नृभव व्रत भाई ।
सार्थ ‘सु-व्रत’ जय-नाद पठाओ ॥
तृतिय त्याग कल्याण मनाओ ।
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं वैशाख-कृष्ण-दशम्यां
तपो-मंगल-मंडिताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

सुलझा केश केशरी चमरी ।
कहे सजल-दृग चमरी हमरी ।
पर-हित दृग-जल बने झिराओ ॥
तुरिय ज्ञान कल्याण मनाओ ।
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं वैशाख-कृष्ण-नवम्यां
केवल-ज्ञान-प्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

अग्नि-देव सेवा में आये ।
पा नख-केश क्षीर हरषाये ।
पद मुनिसुव्रत लगन लगाओ ॥
और मोक्ष कल्याण मनाओ ।
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुन-कृष्ण-द्वादश्यां
मोक्ष-मंगल-मंडिताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

जयमाला
यह शिव, यह सुन्दर, यह सत् ।
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥

वेद पुराण कहे गीता ।
मैं न कहूँ कहती सीता ।
लाल धधकते अंगारे,
नील सरोवर में परिणत ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०१॥

कहती परिपाटी जैना ।
मैं न कहूँ कहती मैना ।
गलित कुष्ठ पति दुर्गंधित,
काया कंचन बढ़ पत-रत ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०२॥

कहें भक्त पुलकित रोमा ।
मैं न कहूँ कहती सोमा ।
घड़े नाग नागिन काले,
फूल माल बन चाले झट ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०३॥

कहे आँख सीली सीली ।
मैं न कहूँ कहती नीली ।
पाँव सुदूर, छाँव छू के,
खुले वज्र से कीलित पट ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०४॥

बढ़ा चीर गंगा धारा ।
जीता सत्य, असत् हारा ।
कहे सूर्य, शशि, ध्रुव तारा,
मैं न कहूँ कहती द्रोपद ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०५॥

कहे महकता वन चन्दन ।
मैं न कहूँ कहनी अंजन ।
ख्यात नाम सुत बज रंगी,
चूर चूर अविचल पर्वत ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०६॥

नभ, पाताल कहे धरती ।
मैं न कहूँ चन्दन कहती ।
टूक टूक दृढ़तर बंधन,
आन खड़े द्वारे सन्मत ॥
लाज बचाते, रखते पत ।
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०७॥

मैं भी इक दुखि-यारा हूँ ।
पूर्व कर्म कृत हारा हूँ ।
करो निराकुल, बना भगत,
म्हारे बाबा मुनिसुव्रत ॥०८॥

दोहा
भार तनिक मेरा प्रभो !,
बड़ा आप जल-यान ।
शिव वधु गाँव उतार दो,
मुनि-सुव्रत भगवान् ॥
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥

==विधान प्रारंभ==

अष्ट दलकमल पूजा
विधान की जय

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं*
भवि भक्त अमर ज्यों झुकते ।
मुकुटों के रतन दमकते ।।
कर जाते पाप किनारा ।
मुनिसुव्रत जिनने तारा ।।१।।
ॐ ह्रीं नरक तिर्यंच दुर्गति निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि-जिणाणं*
श्रुत-सुत कतार में आता ।
गाथा वह सुर-पति गाता ।।
मैं भी गा रहा तराने ।
जिन-के भक्तों में आने ।।२।।
ॐ ह्रीं छिद्रान्वेष दुर्मति निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि-जिणाणं*
नुत पाद पीठ बुध थारी ।
थुति तुम, हट सिर्फ हमारी ।।
जल पड़ी देख शशि छाया ।
बस शिशु ने कदम बढ़ाया ।।३।।
ॐ ह्रीं निस्वार्थ सहाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि-जिणाणं*
गुण इतने जितने तारे ।
गा, गुण तुम सुर-गुरु हारे ।।
जल मगर पौन तूफानी ।
तट कौन जोर-भुज प्राणी ।।४।।
ॐ ह्रीं जल जन्तु भय विमोचकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं*
पग उलट शक्ति लौटाये ।
तुम भक्ति परन्तु धकाये ।।
हित शिशु रक्षण जा भिड़ती ।
हिरनी सिंह से कब डरती ।।५।।
ॐ ह्रीं मनोवांछित फल प्रदाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ-बुद्धीणं*
यूँ तो कुछ मुझे न आये ।
मुखरी तुम भक्ति बनाये ।।
वन आम्र बौर-छा जाती ।
पिक बड़ा सुरीला गाती ।।६।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज-बुद्धीणं*
पल नाम तिहारा रटते ।
चिर संचित पाप विघटते ।।
इक सूर्य किरण से हारा ।
काला मावस अँधियारा ।।७।।
ॐ ह्रीं पाप फल विनाशकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदानु-सारीणं*
थुति यह होगी मन हारी ।
पा कृपा आप अविकारी ।।
जल-बिन्दु दल कमल पड़ के ।
लगती मोती से बढ़-के ।।८।।
ॐ ह्रीं संकट मोचनयाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

जल ले के, चन्दन ले के मैं ।
अक्षत लिये, सुमन ले के मैं ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, दो लगा किनारे ।।
ॐ ह्रीं अष्टदल कमल हृदयस्-थिताय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

षोडश दलकमल पूजा
विधान की जय

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो संभिण्ण-सोदाराणं*
थव दूर, न जिसमें खामी ।
तव कथा व्यथाहर स्वामी ।।
नभ दूर दिवाकर पाते ।
खिल कमल सरोवर जाते ।।९।।
ॐ ह्रीं अरिष्ट ग्रह निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं-बुद्धाणं*
है इसमें अचरज कैसा ।
करते तुम अपने जैसा ।।
जो सुनता सेवक विनती ।
सेठों में उसकी गिनती ।।१०।।
ॐ ह्रीं दारिद्रय निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय-बुद्धाणं*
दृग् देख तुम्हें क्या आते ।
फिर कहीं चैन जा पाते ।।
जल क्षीर सिन्धु से नाता ।
तब नीर सिन्धु कब भाता ।।११।।
ॐ ह्रीं तुष्टि पुष्टि करणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय-बुद्धाणं*
थे उतने ही बड़भागी ।
परमाणु प्रशान्त विरागी ।।
बस देह आप रच जाये ।
तुम भाँत न तभी दिखाये ।।१२।।
ॐ ह्रीं मनकाम रूप प्रदाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु-मदीणं*
इक सत् शिव सुन्दर नीका ।
मुख मुख वह आप सरीखा ।।
शशि लगे कहाँ तुम आगे ।
हतप्रभ ज्यों सूरज जागे ।।१३।।
ॐ ह्रीं स्व शरीर रक्षकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल-मदीणं*
पूरन शशि भा-से न्यारे ।
गुण तुम लाँघें जग सारे ॥
है तेरा जिसे सहारा ।
फिर कौन रोकने वाला ।।१४।।
ॐ ह्रीं भूत प्रेतादि भय निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वियाणं*
ले चितवन रम्भा आई ।
चित चुरा कहाँ तुम पाई ।।
झंझा प्रलयी डग भरता ।
जग डिगे, मेर कब डिगता ।।१५।।
ॐ ह्रीं रंगाँगन रक्षणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चोद्दस-पुव्वियाणं*
निर्धूम तेल बिन बाती ।
पवमान बुझा नहिं पाती ।।
गुम जगत् तीन अँधियारे ।
तुम दीप अखण्ड निराले ।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्य-वशीकरणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्टंग-महा-निमित्त-कुसलाणं*
नहिं हाथ राहु के लगते ।
अस्ताचल राह न तकते ।।
जग-दीप्त भा न घन रोके ।
ऐसे तुम सूर्य अनोखे ।।१७।।
ॐ ह्रीं मन्द कषाय करणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं*
नित्योदित, मेघ न झापे ।
जग तिमिर रास्ता नापे ।।
आँखें नहिं राहु दिखाता ।
मुख चन्दर आप विधाता ।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रोध उन्मूलन समर्थाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जा-हराणं*
सूरज क्यों आंखें खोले ।
क्यों चॉंद रात भर डोले ।।
जब तुमने किया उजाला ।
घर नाज, व्यथा घन काला ।।१९।।
ॐ ह्रीं मन कालुष्य निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं*
मति मरालता के किस्से ।
तुम और न आये हिस्से ।।
जो तेज रत्न की थाती ।
कब काँच मण्डली पाती ।।२०।।
ॐ ह्रीं व्यापार वृद्धि बाधा निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण-समणाणं*
है गया व्यर्थ न भटकना ।
दृग् हुआ आप पर टिकना ।।
दर तेरे जब से आया ।
चित् चुरा न कोई पाया ।।२१।।
ॐ ह्रीं सौभाग्य साधकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं*
भव मात्र एक अवतारी ।
नहिं और आप महतारी ।।
दिश् दिश् तारे अनगिनती ।
सूरज एक पूरव जनती ।।२२।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी-विसाणं*
युग-पुरुष ! पन्थ-शिव नेता ।
ऊरध-रेता ! दृग् जेता ।।
मृत्युंजय एक तुम्हीं हो ।
शत्रुंजय नेक तुम्हीं हो ।।२३।।
ॐ ह्रीं जिन दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठि-विसाणं*
तुम नन्त ! आद्य ! व्यय-रीते ।
हरि-हर ! तीजे दृग् तीते ।।
ईश्वर ! योगीश्वर नामी ।
जगदीश्वर ! अन्तर्यामी ।।२४।।
ॐ ह्रीं आजिविका बाधा निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

भर लाया जल-चन्दन झारी ।
धान-शालि-सित, पुष्प पिटारी ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करुँ यजन, दुख मैंटो सारे ।।
ॐ ह्रीं षोडशदल-कमल
हृदयस्-थिताय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

“चतुर्विंशतिदल कमल पूजा’
विधान की जय”

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग-तवाणं*
तुम शुद्ध, बुद्ध, अविकारी |
शम-कर, शंकर, त्रिपुरारी ।।
शिव-पाथ-विधात निरीहा ।
पुरु ! पुरुषोत्तम नर-सिंहा ।।२५।।
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष निरोधकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त-तवाणं*
बीड़ा सिर पीड़ा हारी ।
भू-भूषण ढ़ोक हमारी ।।
जय थारी त्रिभुवन-स्वामी ।
जिन गुण सम्पद् आसामी ।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्ध शिरः पीडा शामकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त-तवाणं*
मुख तलक भरा गुण खीसा ।
तुम जगत जगत् निशि-दीसा ।।
चुन लिये दोष दुनिया ने ।
नहिं कहा और ने मॉं ने ।।२७।।
ॐ ह्रीं शत्रु उन्मूलन समर्थाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महा-तवाणं*
पुण्योदय अशोक आया ।
आ बैठे तर तरु छाया ।।
तब दिखा दृश्य इक विरला ।
रवि बीच श्याम घन निकला ।।२८।।
ॐ ह्रीं आक्रन्दन शोक परिहारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-तवाणं*
सिंहासन बड़ा सलोना ।
मणि-मण्डित कोना कोना ।।
तन बनक कनक अनमोला ।
गिर उदय-उदित रवि-भोला ।।२९।।
ॐ ह्रीं नेत्र पीडा विनाशकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुणाणं*
ले चॅंवर खड़े दिवि-वासी ।
भा-देह स्वर्ण आभा सी ।।
तट मेर झिरे-सा झरना ।
होता भा-चाँद उछलना ।।३०।।
ॐ ह्रीं रिद्धि-सिद्धि प्रदायकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर-परक्-कमाणं*
आताप भास्कर हरते ।
मिस छत्र सेव शशि करते ।।
डोले लर-झालर होले ।
जग-तीन ईश इक बोले ।।३१।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुण-वंभ-यारिणं*
बहरी करती दिश् भेरी ।
गाती विरदावली तेरी ।।
सद्-धर्म राज जय जय हो ।
वह धर्म अहिंसा-मय जो ।।३२।।
ॐ ह्रीं सत्पथ प्रदर्शकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमो-सहि-पत्ताणं*
सुर-परिकर हरषा-हरषा ।
करता पुष्पों की वरषा ।।
जल-गन्ध मन्द अर पवना ।
लग पंक्ति झिरे तव वचना ।।३३।।
ॐ ह्रीं समस्त ज्वर रोग शामकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लो-सहि-पत्ताणं*
भा-उपमा जेय विशाला ।
भा-मण्डल आप निराला ।।
रवि कोटिक तेज समाया ।
छवि सौम्य सोम, है माया ।।३४।।
ॐ ह्रीं गर्भ संरक्षकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लो-सहि-पत्ताणं*
शिव, स्वर्ग दिलाती पल में ।
संबोध कराती पल में ।।
सब भाष परिणमन वाली ।
थारी धुनि खास निराली ।।३५।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि अनावृष्टि निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पो-सहि-पत्ताणं*
विकसित पंकज भी फीका ।
नख नख-शिख चॉंद सरीखा ।।
पग-तल तुम अपने रखते ।
आ सुर-गण कमल विरचते ।।३६।।
ॐ ह्रीं बान्धव बाधा निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्वो-सहि-पत्ताणं*
अनुरूप नाम सम-शरणा ।
सिंह बैठा समीप हिरणा ।।
वैभव अनमोल तिहारा ।
कब रवि-सा चमके तारा ।।३७।।
ॐ ह्रीं वैभव वर्धन समर्थाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो मण-बलीणं*
मद झरता झरने जैसा ।
रव करता भ्रमर परेशां ।।
हाथी ऐसा उत्पाती ।
आगे तुम जप गो भाँती ।।३८।।
ॐ ह्रीं कामानल उपशामकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वच-बलीणं*
गज छीन मोति भर खोवा ।
दी बढ़ा भूमि की शोभा ।।
सिंह ऐसा आये बढ़ता ।
कुछ भक्त न आप बिगड़ता ।।३९।।
ॐ ह्रीं श्वान वृत्ति विधूताय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय-बलीणं*
पवमान-प्रलय साथी है ।
जग भखने मुँह बाती है ।।
लपटें छूती नभ, दावा ।
क्या जल तुम नाम अलावा ।।४०।।
ॐ ह्रीं राग आग परिदाहनाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीर-सवीणं*
छाई अँखियन लाली है ।
कोकिला देह काली है ।।
ऐसा फन सांप प्रहारा ।
निष्फल जप नाम तिहारा ।।४१।।
ॐ ह्रीं विष विषय रति हरणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सप्पि-सवीणं*
भर रहे अश्व हुंकारें ।
गजराज जहाँ चिंघाड़ें ।।
अभिजेय शत्रु हा ! सेना ।
गुम नाम सिर्फ तुम लेना ।।४२।।
ॐ ह्रीं रणाँगन रक्षणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुर-सवीणं*
हत गज भाले नाखूनी ।
दरिया बह चाला खूनी ।।
अरि तरे जिसे ले वेगा ।
बस जीत नाम तुम देगा ।।४३।।
ॐ ह्रीं कर्मारि विध्वंसकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमिय-सवीणं*
अठपहर जन्तु-जल जागी ।
लागी वड़वा हा ! आगी ।।
हो बीच भँवर भी नैय्या ।
तट जप तुम नाम जपैय्या ।।४४।।
ॐ ह्रीं संसार सागर तारणाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीण-महा-णसाणं*
हा ! जाँलेवा बीमारी ।
मारी दुख-देवा भारी ।।
लेते तुम नाम दवाई ।।
ले अपने-आप विदाई ।।४५।।
ॐह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढ-माणाणं*
आपाद-कण्ठ तन सारा ।
जकड़ा दृढ़-सॉंकल द्वारा ।।
तुम नाम ‘निराकुल’ पढ़ते ।
बन्धन खुद ही खुल पड़ते ।।४६।।
ॐ भव बन्धन विमोचकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्व सिद्धा-यदणाणं*
गज, सिंह, दव, विषधर काला ।
वड़वा, गद, रण, गृह-कारा ।।
भय कैसा ? क्या डरना है ।
जप आप नाम शरणा है ।।४७।।
ॐ ह्रीं भय सप्तक विनाशकाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वसाहूणं*
यह वरण-वरण गुल चुनके ।
तैयार माल-गुण बुनके ।।
जो इसे कण्ठ धारेगा ।
निष्कण्ट शिव पधारेगा ।।४८।।
ॐ ह्रीं निरा’कुल प्रदाय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

“पूर्णार्घं”
जल पावन, वावन चन्दन ले ।
अक्षत अछत, सुमन मोहन ले ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, टक दो जश तारे ।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशति दल कमल
हृदयस्-थिताय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

“महा-अर्घं”
जल मीठा लें चन्दन नीका ।
तण्डुल, गुल-कुल आप सरीखा ।।
चरु ले, दीप-धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, हित शिरपुर द्वारे ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-चत्वारिंशद्-दलकमल
हृदयस्-थिताय
श्री मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय
महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

:: जाप्य ::
।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं
श्री मुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकराय नमः ।।

==जयमाला==

खातेगाँव के मुनिसुव्रत नाथ भगवान् का
लघु चालीसा
साढ़े पाँच कोटि-सन्यासी ।
माँ रेवा-तट शिव अधिशासी ॥
यहीं नदी से निकलीं प्रतिमा ।
अतिशय मंडित जिनकी महिमा ॥ ०१ ॥
गाँव-गाँव प्रभु-दर्श-तृषातुर ।
पाँव-पाँव ले जाने आतुर ॥
पर-प्रभु-तीन, गाँव कई सारे ।
लड़-भिड़-कर आखिर जब हारे ॥ ०२ ॥
किया सभी ने एक फैसला ।
रख गाड़ी में इन्हें दो चला ॥
बिन सवार, नन्दी ले जाके ।
गाँव रुकेंगे, जिस भी आके ॥ ०३ ॥
वहाँ बनेगा मन्दिर न्यारा ।
होगा तीर्थ धाम-वह प्यारा ॥
तीनों प्रतिमाएँ चल दीनीं ।
केशर बरसे झींनी-झींनी ॥ ०४ ॥
गाड़ी इक नेमावर ठहरी ।
गूँज-उठी जय-हो सुर लहरी ॥
देव-देव परमेश्वर जिसमें ।
बाबा आदि जिनेश्वर जिसमें ॥ ०५ ॥
और गाड़ियाँ दो बढ़ चालीं ।
और-और दिश् में मुड़ चालीं ॥
खाते-गाँव रुकी इक आके ।
दूजी ठहरी, हरदा जाके ॥ ०६ ॥
कच्छप चिह्न बड़ा मन-हारी ।
खाते-गाँव धन्य नर-नारी ॥
अश्रु-खुशी-के पा दृग् भींजे ।
मुनि-सुव्रत-जिन जिन-पे रीझे ॥ ०७ ॥
सहज-निराकुल, भोले-भाले ।
श्रावक हरदा बड़े निराले ॥
रीझे जिन-पे शान्ति-जिनेशा ।
रहें न जिन-के भक्त परेशाँ ॥ ०८ ॥
रहे लगा भक्तों का ताँता ।
उर-दयाल ये आप बताता ॥
यहाँ माँगना नहीं जरूरी ।
मनो कामना होती पूरी ॥ ०९ ॥
गिनें…गिने जा सकें सितारे ।
दिखे न पे जश-आप किनारे ॥
बना हाथ सो श्री फल अपने ।
लूँ विराम, संपूरो सपने ॥ १० ॥
दोहा
सभी तीन जिन-बिम्ब ये,
अपने जैसे एक ।
अश्रु किसी की आँख में,
अब तक सके न देख ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )

‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्‌
मुख कमल-वासिनी
पापात्‌-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्‌-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्‌) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्‌
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्‌-निधि-करणे
मम सन्‌-निधि-करणे
मम सन्‌-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*शांति पाठ*
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्श्री शांति-भक्ति कायोत्सर्गम् ,
करोम्यहम्
(९ बार णमोकार )
*चौपाई*
दर्शन मात्र मेंटता दुखड़ा ।
भाँत चन्द्रमा सुन्दर मुखड़ा ।।
नासा टिके नैन मनहारी ।
करें वन्दना नाथ ! तुम्हारी ।।
आप चक्रधर-पञ्चम नामी ।
वन्द्य इन्द्र शत, अन्तर्-यामी ।।
प्रभो शान्ति-जिन करके करुणा ।
करो शान्ति ! जश निरखो अपना ।।
छत्र, सिंहासन, वृक्ष-अशोका ।
धुनि, दुन्दुभि, दल-चँवर अनोखा ।।
भा-मण्डल झिर-पुष्प-अनूठी ।
प्रातिहार्य-वसु आप विभूती ।।
अर्चित-जगत् ! शान्ति करतारी ।
ढ़ोक करो स्वीकार हमारी ।।
प्राण-भूत, सत्, जीव समस्ता ।
पायें परिणति शान्त प्रशस्ता ।।
देवों में जो देव बड़े हैं ।
चरणों में हित सेव खड़े हैं ।।
हंस-वंश वे जग उजियारे ।
करें शान्ति मण्डित जग सारे ।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर
जल छोड़ना चाहिए)
शान्ति कीजिये गाँव-गाँव में ।
विश्व लीजिये पाँव-छाँव में ।।
डूब ‘साध-जन’ उतरें गहरे ।
लहर लहर-पचरंगा लहरे ।।
नृप धार्मिक बलशाली होवे ।
विकृति-प्रकृति मनमानी खोवे ।।
धर्म-चक्र-जिन सौख्य प्रदाता ।
रहे प्रवाहित यूँ हि विधाता ।।
द्रव्य सुमंगल-कारी होवे ।
क्षेत्र अमंगल-हारी होवे ।।
होवे काल सुमंगल-कारी ।
होवें भाव अमंगल-हारी ।।
कर्मन-घात घात मद सारा ।
सहजो सिद्ध रिद्ध परिवारा ।।
आदि आदि अर्हन् चौबीसा ।
शान्ति प्रदान करें निशि दीसा ।।
*दोहा*
किया शान्ति जिन भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
पाँच सभी कल्याणक धारी ।
आठ प्राति-हारज मन-हारी ।।
अतिशय तीस चार मण्डित हैं ।
अर बत्तीस इन्द्र वन्दित हैं ।।
चौ-विध संघ नखत मानिन्दा ।
राम श्याम चक्री, प्रभु ! चन्दा ।।
‘निलय-विनय’ अन-गिनत गभीरा ।
आद-आद जिन अंतिम वीरा ।।
अर्चन-पूजन-वन्दन करता ।
उनका मैं अभिनन्दन करता ।।
पीड़ा-दुक्ख-दरद-भय खोवे ।
मेरे कर्मों का क्षय होवे ।।
रत्नत्रय का मुझे लाभ हो ।
मेरी ‘गति-पंचम-उपाध’ हो ।।
मृत्यु-महोत्सव मना सकूँ मैं ।
जिन-गुण-सम्पद् कमा सकूँ मैं ।।
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्
श्री समाधि-भक्ति कायोत्सर्गम्
करोम्यहम्
(९बार णमोकार )
*चौपाई*
सदा शास्त्र अभ्यास करूँ मैं ।
सन्त समीप निवास करूँ मैं ।।
मौन धरूँ क्यूँ, गुणी दिखाये ।
गौण करूँ, यूँ दोष-पराये ।।
भावन-आत्म तत्व, नम-नयना ।
हित-मित रखूँ मधुरतम वयना ।।
जब तक राधा-मुक्ति रिझाऊँ ।
इन्हें जन्म जन्मान्तर पाऊँ ।।
तारण हारे…शरण सहारे ।
हृदय हमारे…चरण तुम्हारे ।।
चरण तुम्हारे…हृदय हमारा ।
रहे, तलक जब भव-जल-धारा ।।
स्वर-अक्षर पद मात्रा गलती ।
हुईं, चाहते बिन अनगिनती ।।
हो अपराध क्षमा यह मेरा ।
‘जैसा भी’ मैं अपना तेरा ।।
*दोहा*
किया समाधी, भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम्यक्-चारित, ताना-बाना ।।
रूप अनूप ध्यान परमातम ।
बुद्ध-विशुद्ध ज्ञान धर आतम ।।
पूजन नित वन्दन करता हूँ ।
अर्चन अभिनन्दन करता हूँ ।।
क्षय होवें दुख संकट सारे ।
क्षय हो जावें कर्म हमारे ।।
मुझे लाभ रत्नत्रय होवे ।
सुगति गमन, भय-सप्तक खोवे ।।
पाऊँ मरण-समाधी स्वामी ।
बनूँ रतन जिन-गुण आसामी ।।
‘पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्’
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र
पढ़ना चाहिए )
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
क्रिपा निराकुल आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)

आरती

आरतिया, आरतिया…
मुनि-सुव्रत भगवान की ।
करुणा-दया निधान की ।।
आरतिया, आरतिया…

सुत सुमित्र जग-पाल की ।
माँ सोमा के लाल की ।।
प्रथम गर्भ कल्यान की ।
मुनि-सुव्रत भगवान की ।।

आरतिया, आरतिया …
करुणा-दया निधान की ।।
आरतिया, आरतिया …

राजगृही अवतार की ।
हरि कुल राज-कुमार की ।।
द्वितिय जन्म कल्याण की ।
मुनि-सुव्रत भगवान की ।।

आरतिया, आरतिया …
करुणा-दया निधान की ।।
आरतिया, आरतिया …

दशमी वदि वैशाख की ।
भींजी तीजी आँख की ।।
तृतिय त्याग कल्याण की ।
मुनि-सुव्रत भगवान की ।।

आरतिया, आरतिया …
करुणा-दया निधान की ।।
आरतिया, आरतिया …

सार्थ नाम सम-शर्ण की ।
‘कूर्म’ विभूषित चर्ण की ।।
तुरिय ज्ञान कल्याण की ।
मुनि-सुव्रत भगवान की ।।

आरतिया, आरतिया …
करुणा-दया निधान की ।।
आरतिया, आरतिया …

कृष्ण द्वादशी फाग की ।
शिव-राधा बढ़-भाग की ।।
‘सहज-निराकुल’ थान की ।
मुनि-सुव्रत भगवान की ।।

आरतिया, आरतिया …
करुणा-दया निधान की ।।
आरतिया, आरतिया …

 

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