वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूजन”
जोड़ना मुझे, ‘तुझसे’ पक्का रिश्ता
‘दे-बता’ रस्ता ।
बता क्या ले चलना नजराना
आज सखि ! गुरु दर्शन को जाना
चाँद तारे आसमां से तोड़ ला जल्दी
जा कोहनूर गोरों से छोड़ ला जल्दी
बिछुड़े गुरु जी से
‘कि मिले गुरु जी से
गुजरने को इक जमाना
आज सखि ! गुरु दर्शन को जाना
मोतियों को मानस से बटोर ला जल्दी
जा मलयागिर का चन्दन घोर ला जल्दी
बाती गो-घृत में बोर ला जल्दी
स्वर्ग से अमृत, जा दौड़ ला जल्दी ।।स्थापना।।
चहचहाती चिड़ियों ने
भँवरों ने, तितलियों ने
और क्या ? यही तो कहा
हो करके इक जुबाँ
तुम हम
हैं जिस्म दो, इक दिलो-जाँ
जी गुरुजी
कहती जमीं
कहता यहीं आसमाँ
तुम हम
हैं जिस्म दो, इक दिलो-जाँ
मुस्कुराती कलियों ने
मयूरों ने, बदलियों ने
और क्या ? यही तो कहा
हो करके इक जुबाँ
डबडबाती अँखियों ने
यादों ने, हिचकियों ने
और क्या ? यही तो कहा
हो करके इक जुबाँ
जी गुरुजी ।।जलं।।
रात सपने में जो पड़गाया तुम्हें,
यानी कल मेरा घर याद न आया तुम्हें
तुम रखते जो माँ के जैसा मन
कर दो ना नाम मेरे आँगन
आज का पड़गाहन ।
वैसे तुम देते कम नहीं
और किसी की,
‘जि गुरु जी,
आपके जैसीं,
और किसी की,
परहित आँखें नम नहीं
‘जि गुरु जी,
वैसे तुम देते कम नहीं
हो शायद ही तुम्हें पता,
पहले तुम्हें जिमाऊॅं मैं,
बाद कौर मुख लाऊॅं मैं,
अय ! मेरे मन के देवता
हो शायद ही तुम्हें पता,
वैसे तुम जानते चेहरा पढ़ना
बरसाते रहते हो करुणा
रात दिन स्वार्थ बिन
दृग् लगा झिर भादों सावन ।।चन्दनं।।
‘के सूना सूना,
तुम्हारे बिना,
घर का मेरे, कोना-कोना ।।
आ भी जाओ ना,
झड़ के पेड़ों के पत्ते मुस्कुराये फिर से ।
तुम गये ‘कि ‘बस गये’ मुड़ के न आये फिर से ।।
आने लगा, काली दो रात बीच, एक दिन ।
सताने लगा, चिड़िया न तितली ये अकेलापन ।।
है होने को पूरा एक अरसा गुरुजी ।
हुई न सहजो दया की बरसा गुरुजी ।।
गंगा और जमुना ।
बन चले है ये मेरे नयना ।।
तुम्हें याद करे ।
घर का मेरे ।
कोना कोना,
आ भी जाओ ना ।।अक्षतं।।
हम बुलाते रहे
तुम न आये आँसू आते रहे
गैर, बेगाने न अजनबी
हैं हम तुम्हारे अपने ही,
झुके-झुके से ये मेरे नैन
यह जताते रहे
तुम न आये आँसू आते रहे
रुक-रुक के आते से वैन
हम तुम्हें बुलाते रहे
कम न थे श्रद्धा सुमन थे ढ़ेर मेरे साथ
कब न थे बने श्री फल, थे जुड़े ही मेरे हाथ
जो आना न था, न आते मेरे घर
पर उठा के नज़र, देख तो लेते पल इधर
जर्रा मुस्कुरा कर
हम तुम्हें बुलाते रहे ।।पुष्पं।।
रहने भी दो
हैं सब बातें बस तुम्हारी
तुम्हें हैं फिकर ही नहीं हमारी
जो होते हम, जरा भी कुछ तुम्हारे
तो रह पाते तुम
आये दिन
क्या आये बिन
घर पर हमारे
तुम्हें कुछ खबर ही नहीं हमारी
जो होते तुम, जरा भी कुछ हमारे
तो देख पाते तुम
ये मेरी आंखें नम ।
आज से तुमसे न बोलूँगा
भले अकेले में रो लूँगा
है ही नहीं तुम्हें मेरी फिकर
अच्छा कहो तो
कब से न आये हो तुम मेरे घर
होगा तुम्हें तो याद ही नहीं
अच्छा मैं ही देता हूँ दिला याद ‘कि अजी
होने को एक अरसा है
आलम था तब गर्मी का
और हो रही आज वरषा है
होने को एक बरस-सा है
आलम था तब ठण्डी का
और हो रही आखरी वर्षा है
होने को एक बरस सा है
मुझे न मनानी होली
न बनानी मुझे रंगोली
मुझे न मनानी राखी
पतंग न बनानी पाखी
न दीपावली मनानी
मुझे न रागिनी गानी
करेंगे ये कुटिया हमारी धन
‘जि गुरु जी आपके चरण
होगा मेरे लिये त्योहार वही दिन ।।नैवेद्यं।।
न जाओ दूर कहीं ।
आ पड़ग जाओ यहीं,
लगा मन्दिर से ही
हमारा घर भी
निहारो कभी
नदिया का जो किनारा ।
हाँ…हाँ…वहीं घर है हमारा ।।
कोई ज्यादा दूर भी नहीं ।
घनी पीपल की छैय्याँ ।
रहे द्वारे खड़ी गैय्या ।।
हाँ…’हाँ…बस आ गया यही ।
गुरु प्रतिक्षा लिखा द्वारे ।
हम चन्दन, तुम वीर हमारे ।।
गैर न कोई अजनबी ।
कितनी हो रही बरसा ।
ढ़ाया ही जा रहा कहर सा ।।
कितनी हो रही सर्दी ।
हद कोहरे ने कर दी ।।
कितनी हो रही गर्मी ।
लू आई खो कहीं नर्मी ।।
न जाओ दूर कहीं ।
आ पड़ग जाओ यहीं ।।दीपं।।
मैं खड़ा हूँ कब से,
जोड़ के ये अपने दोनों हाथ
अब तलक न हुई है,
‘जि गुरु जी, तुम किरपा बरसात
उठा भी दो इक नज़र,
बन चलो मेरे हमसफर,
‘के अब तो आँख भी मेरी,
है आई भर ।
वो शबरी अपने आँगन में,
झुक-झूम रही
अनचीनी, झीनी-झीनी,
उड़ा के गुलाल मचा धूम रही,
‘के आ गये है, होने से पहले शाम,
उसके अपने श्री राम,
अय ! मेरे अपने राम,
क्या तुम्हें बिलकुल भी न फिकर मेरी,
जो अब तलक ली नहीं खबर मेरी,
शंख ने सुर सलोने पाये,
जटायु ने पंख सोने पाये,
पाये रंग, तितलियों ने,
कलियों पे भृंग मड़राये,
वो चन्दना की मंजिल,
उसके कदम चूम रही
लो चन्दना अपने आँगन में,
झुक-झूम रही
‘के आ गये है, होने से पहले शाम,
उसके अपने वीर स्वाम ।।फलं।।
नजर,
कर दो नजर,
एक इधर,
मेरे गुरुवर !
है तन्हा तन्हा,
तुम्हारे बिना,
ये मेरा घर,
मेरे गुरुवर !
है गुजर चला, एक अरसा तुम न आये ।
थी अजनबी आ गई, बरसा तुम न आये ।।
ले भी तो, लो खबर,
चिड़िया भी घर न, आई है तभी से ।
टूटे है तुम्हारे बिना, मेरे रिश्ते सभी से ।।
आँख आती है भर,
मुरझा चली है, मेरे आँगन की तुलसी ।
दस्तक न देती है, आके अब कोई भी खुशी ।।
है काँटों से भरा सफर ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
कृपा कर दो ऐसी ।
की चन्दना पे, वीर ने जैसी ।।
ले दृग्-जल आये ।
तेरी चरण-धूल मिल जाये ।
पाने चरणों की धूल तोर ।
लाये चन्दन घोर ।
ले आये धाँ न्यार ।
पाने चरणों की धूल तिहार ।
‘कि मिल जाये तेरी चरण धूल ।
भिटाऊँ फूल ।
चरु चढ़ाऊँ ।
‘कि धूलि कण तोेर चरण पाऊँ ।
तेरे चरणों की धूल पाने ।
लाये दीप सुहाने ।
‘कि सुगंध लाये ।
तेरी चरण धूल सिर आये ।
पाने चरणों की धूल थारी ।
लाये फल पिटारी ।
अर्घ्य भेंटूँ, ओ ! चरण धूल तोर ।
हो माथ मोर ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
तुम भी आना
‘घर’ चाँद-सूरज आते रोजाना ।
लिये दृग् नीरा मैं भी द्वारे खड़ा ।
गई पा, तीरा-मीरा,
गई पा, सोमा-धीरा,
गई पा, नीली-हीरा,
गई पा, सीता-तीरा,
गई हो, माटी-घड़ा,
गई पा, सीपी-नीरा,
गई पा, प्रभु-ऐरा,
गई पा, स्याही-पीरा,
लिये दृग् नीरा मैं भी द्वारे खड़ा ।
गई पा, मुक्ति-वीरा ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
कण्ठ कोकिल मिसरी ।
न पराई, मैं भी तुमरी ।
चन्दन, मीरा, शबरी कतार ।
लो मुझे बिठार ।
तोते नज़ूमी कहाये ।
हम तेरे ही, न पराये ।
मान बैठे क्यों मुझे पराया ।
गान भँवरा भाया ।
तितली पाई रंग ।
भेद-भाव क्यूँ हमारे संग ।
पतंग लागी जाके गगन ।
भींगे मेरे नयन ।
फूल मुस्कुरा चले ।
कभी चेहरा मेरा भी खिले ।
धूल चन्दन एक ।
कभी लो इस ओर भी देख ।
जग-मगाये सितारे ।
सुनो हम भी तो तुम्हारे ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
हरेक पन्ना-ए-जिन्दगी ।
पा जाये आप-बन्दगी ।।
भक्ति का रंग चढ़े ।
आश ले, लाये दृग्-बिन्दु बड़े ।
घट-चन्दन लाये ।।
भक्ति का रंग चढ़ाने आये ।
भक्ति के रंग में रँगने आये ।
धाँ साबुत लाये ।।
लाये द्यु-पुष्प सुहाने ।
भक्ति का रंग चढ़ा पाने ।
‘के रंग-भक्ति चढ़ सके ।
ले आश चरु रखे ।।
आया दिव्य संज्योत संग ।
रँगा लो भक्ति के रंग ।
भक्ति के रंग में रंग पाने आये ।
सुगंध लाये ।
भेंटूँ श्री फल ।
रॅंगने रंग-भक्ति पलक पल ।
पीछे लगा लो ।
‘मुझे अपने’ रंग-भक्ति रँगा लो ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
कभी, म्हारे भी, आओ द्वारे ।
हम भी, भक्त तिहारे ।।
मीरा पा गई तीर ।
आया द्वार में भी लिये नीर ।
मीरा दी लगा-पार ।
लिये गन्ध मैं भी आया द्वार ।
मीरा पा गई सुधा ।
आया द्वार मैं भी लिये सुधाँ ।
मीरा पा गई कूल ।
आया द्वार मैं भी लिये फूल ।
मीरा पा गई स्वर ।
लिये चरु मैं भी आया दर ।
खम् मीरा ने छू लिया ।
आया द्वार में भी लिये दीया ।
मीरा पा गई डूब ।
आया द्वार मैं भी लिये धूप ।
मीरा पा गई साहिल ।
आया द्वार मैं भी ले फल ।
मीरा पा गई मग ।
आया द्वार मैं भी ले अरघ ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
कभी ऐसा हो ।
हुआ, आप-आहार कहाँ, पता हो ।।
दृग् जल भेंट चढ़ाते ।
रीझो हम तुम्हें मनाते ।
त्राहि माम् ! क्यों हमें भुलाते ।
लो जोड़ ‘ना’ बेजोड़ नाते ।
आ भी जाओ ‘ना’ क्यों रुलाते ।
तुम सिर्फ हो मुझे भाते ।
सुना, माटी घड़ा बनाते ।
जग धूप आप औ’ छाते ।
बिन माँग तुमसे पाते
जल-फल भेंट चढ़ाते,
झुक झूम नाचते गाते ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
पानी कहां दृग्… हो सके जो भिंगोना ।
आ भी जाओ ना ।।
ले दृग् जल मैं भी आया द्वार ।
किया चन्दना उद्धार ।
उतारा मीरा का भार ।
शबरी लिया उबार ।
मेंढ़क गया पा-पार ।
सुनी नीली की पुकार ।
दिया कोण्डेश ‘भी’ सार ।
जटायु लिया निहार ।
पा गया श्वान ओंकार ।
अखीर पाने संथार ।
ले जल-फल मैं भी आया द्वार ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
जग वाले तो समझे,
समझूँ मैं,
‘जि आ जाओ ना ।
घट जल लाया मिट्टी के ।
सपने सँजों मुक्ति के ।
सपने सँजों क्षेम के ।
घड़े गंध लाया प्रेम के ।
धाँ लाया श्रद्धा के ।
सपने सँजों स्वर्ण सुगंधा के ।
सपने सँजों शिव गाँव के ।
पुष्प लाया भाव के ।
व्यंजन लाया स्नेह के ।
सपने सँजों विदेह के ।
सपने सँजों प्रज्ञा के ।
थाल दीप लाया श्रद्धा के ।
घट धूप लाया श्रद्धा के ।
सपने सँजों सद्ध्याँ के ।
सपनें सँजों मुनि मुद्रा के ।
फल लाया श्रद्धा के ।
द्रव्य लाया श्रृद्धा के ।
सपने सँजों जिन दीक्षा के ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
रूठे, झूठे भी तुम, मेरा टूटना,
‘होगा’ झूठ ना ।
चढ़ाऊँ नीर ।
‘कि तुम्हें मना पाऊँ ए मेरे वीर ।
‘कि कभी चन्दन सा पुण्य समेंटूँ ।
चन्दन भेंटूँ ।
भेंटूँ धाँ शाली ।
राखी गई खाली, न जाये दीवाली ।
बरसाओगे कृपा ‘कि कभी तो तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
चरु चढ़ाऊँ ।
सिर्फ सपने में ‘कि तुम्हें न पाऊँ ।
पा सके मोती-आप कि घर सीप ।
भिटाऊँ दीप ।
धूप लाया ।
लो अपना, तुम्हारा ही मैं, न पराया ।
‘कि कभी घर मेरे भी लगे मेला ।
भिटाऊँ भेला ।
बनाये रखना कृपा ।
मेरा न और तुम सिवा ।।अर्घं।।
(१०)
हाई-को ?
भक्त लो बना हमें ।
चन्दन सा ही, भोला-भाला मैं ।।
ओ ! मुझ चन्दन वीर, दो लगा तीर ।
ओ ! मुझ-शबरी-राम, दो रॅंग शाम ।
ओ ! मुझ मीरा गुपाल, दो जान डाल ।
ओ ! मुझ आश विश्वास, दो लौटा श्वास ।
ओ ! मुझ भक्त भगवान्, भेंटो सद् ध्यान ।
ओ मुझ दास साहेब, मेंटों कुटेव ।
ओ ! मुझ दृग् ज्योत, भेंटो द्यु-शिव पोत ।
ओ ! मुझ श्रद्धा आधार, सुनो पुकार ।
समेत दृग् जल,
भेंटूॅं जल-फल ।
ओ ! मुझ बालक मात, लो थाम हाथ ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
देवता ! ।
तुझे मनाना, क्या करना होगा दे-बता ।।
तुम्हें कि पाऊँ मना ।
लाया ‘दृग् जल, लीजो अपना ।
लाया चन्दन, भाँत चन्दना ।
लाया अक्षत, सार्थ लखना ।
लाया सुमन, वन नन्दना ।
लाया नैवेद्य, प्रिय रसना ।
लाया दीपक, जड़ित रत्ना ।
लाया सुगन्ध, मन-हरणा ।
लाया श्रीफल, हाथों का बना ।
लाया अरघ, थाल सुवर्णा ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
पधारो म्हारे आँगना ।
गुरु जी है और माँग-ना ।।
दो धरा सर-भार धरा ।
मैं जल चन्दन ले द्वार खड़ा ।
सुना, सुनते दुखड़ा ।
पतंग दिया आसमाँ चढ़ा ।
मैं शालि-धान पुष्प ले द्वार खड़ा ।
बाँस अब चित् रहा चुरा ।
नजूमियों में तोता निरा ।
मैं चरु-दीया ले द्वार खड़ा ।
दिया माटी को बना घड़ा ।
हंस दूसरी कक्षा पढ़ा ।
मैं धूप श्री फल ले द्वार खड़ा ।
टूट फिर के पानी जुड़ा ।
मेंढक भाग स्वर्ग जड़ा ।
मैं भी द्रव्य सभी ले द्वार खड़ा ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
भीजें अभी भी मोर नयना ।
झुक झूमें चन्दना ।
जल चढ़ाऊँ,
छाँव तेरी ‘कि सर अपने पाऊँ ।
तेरी छाँव हो सके मोरी ।
‘कि भेंटूँ सुगन्ध घोरी ।
धाँ लाया चढ़ाने ।
सर अपने तेरी छाँव पाने ।
पाने छतर-छाँव तेरी ।
चढ़ाऊँ ये पुष्प ढ़ेरी ।
आया व्यञ्जन कुछ खास ले ।
पैय्या-छैय्या आश ले ।
‘कि छाँव-तेरी, मेरी हो सके आली ।
भेंटूँ दीवाली ।
भेंटूँ धूप इतर ।
आश ले तेरी छाया-छतर ।
मेरी अपनी हो सके तेरी छाया ।
श्रीफल लाया ।
भेंटूँ अरघ ।
तेरी छाँव सिवा क्या मोक्ष सुरग ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
अजि न रूठें ।
कटी पतंग लोग जम के लूटें ।।
लाया उदक,
‘के भाँत जटायु, पाऊँ गन्धोदक ।
पाऊँ द्वारापेक्षण, भाँत चन्दन ।
लाया चन्दन ।
लाया अक्षत ।
पाऊँ पद-शाश्वत भाँत हनुमत् ।
‘के पा जाऊँ सु-मन भाँत श्रमण ।
लाया सुमन ।
लाया व्यंजन ।
होऊँ निरन्जन, ‘के भाँत अंजन ।
पा पाऊँ दिन एक ठिया, भाँत नदिया ।
लाया ‘दिया’ ।
लाया सुगंध ।
पाऊँ धीर अमन्द ‘के भाँत सिन्ध ।
होने सफल, भाँत ज्ञानी सकल ।
लाया श्रीफल ।
लाया अरघ ।
होने सजग भाँत जगत् जगत ।। अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
न कुटिया ही,
कर धन्य दो कभी, ये दुखिया भी ।।
जो सजल ने था भेंटा कभी ।
दृग् जल वही ।
भेंटूँ चन्दन वही ।
जो चन्दन ने था भेंटा कभी ।
जो शबरी ने थी भेंटी कभी ।
शीलि धान वही ।
भेंटूँ कुसुम वही ।
जो कुटुम ने था भेंटा कभी ।
जो अञ्जन ने था भेंटा कभी ।
व्यंजन वही ।
भेंटूँ दीपक वही ।
जो मेंढक ने था भेंटा कभी
जो कोण्डेश ने थी भेंटी कभी ।
सुगंध वही ।
भेंटूँ श्रीफल वही ।
जो नील-नल ने भेंटा कभी ।
पति-सुरग ने भेंटा कभी ।
भेंटूँ अरघ वही ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
और क्या, तेरा नाम ही तो गिनें ।
आ जा धड़कनें ।।
भेंटूँ जल दृग् सजल, आश ले,
‘के मिटें फासले ।
समझ पाओ ‘के तुम हमें ।
भेंटूँ मलयज मैं ।
गुरु जी, भेंटूँ धान अनूठी ।
माँ देर रहे न रूठी ।
शायद मान जाओ अबकी तुम ।
मैं भेंटूँ कुसुम ।
मैं फिर के भेंटूँ नेवज ।
बनाये पुण्य कारज ।
आसमान आशा से टिका ।
जगाऊँ फिर दीपिका ।
धूप भेंटूँ ।
दृग् पायें आँसू-खुशी ‘के पुण्य समेटूँ ।
भेंटूँ श्री फल हाथ दोई,
‘के जागे किस्मत सोई ।
कुटिया मेरी चुन लो ।
मुझ दुखिया की भी सुन लो ।।अर्घं।।
(१७)
हाई-को ?
बिन तुम्हारे ।
गुजरते दिन से छिन हमारे ।
जल्दी-जल्दी में, भूले जल ।
स्वीकारो नैन सजल ।
स्वीकारो सेवा-नुबन्ध ।
जल्दी-जल्दी में, भूले गन्ध ।
जल्दी-जल्दी में, भूले धाँ ।
स्वीकारो सु-मरण संध्या ।
स्वीकारो जन्नते-सुकूँ ।
जल्दी-जल्दी में, भूले प्रसूँ ।
जल्दी-जल्दी में, भूले चरु ।
स्वीकारो सुकृत खुश्बू ।
स्वीकारो मराल-हिया ।
जल्दी-जल्दी में, भूले दीया ।
जल्दी-जल्दी में, भूले धूप ।
स्वीकारो भीतर डूब ।
स्वीकारो स्वर्णिम कल ।
जल्दी-जल्दी में, भूले फल ।
जल्दी-जल्दी में, भूले अर्घ ।
स्वीकारो चाह-पवर्ग ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
कृपा हो जाये गुरुवर ।
पलकें बिछाये घर ।
दृग्-जल लाये ।
नाता तुमसे जोड़ने चले आये ।
तेरा मेरा ‘कि जुड़ बन्धन जाये ।
चन्दन लाये ।
धाँ पीले भाये,
दृग्-सीले लाये तुम्हें मनाने आये ।
पाती-कुंकुम, कुसुम लाये ।
मिलन तोर, मोर अरमाँ,
लाये और पकवाँ ।
प्रदीव लाये ।
आ-पाने कुछ और करीब आये ।
‘कि तुमसे जुड़ रिश्ता अटूट जाये ।
धूप लाये ।
भेले लाये ।
‘कि तुमसे मिलना हो अकेले जाये ।
‘कि मेरी ओर तुम लो बढ़ा डग
लाये अरघ ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
हो कृपा, मुदे ही नहीं ।
दृग् खुले भी, जाऊँ तुम्हें पा ।।
रहती आँख भरी, बारी अब हमरी
जल गगरी, गन्ध निरी
धाँ गठरी, पुष्प लरी
चरु पूरी, लौं विरली
कस्तूरी, फल मिसरी
भेंटूँ द्रव शबरी
रहती आँख भरी
लाज रखी शबरी,
बारी अब हमरी
सुन के आ रहा हूँ
आप सुनते हैं,
इसलिये सुना रहा हूँ
दुखड़ा अपना,
बस, आप सुन लीजिये,
मेरा न और सपना ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
तेरी खुशी में, है खुशी मेरी ।
है तू जिन्दगी मेरी ।।
पाये शबरी ने राम ।
हिस्से मेरे आँसू त्राहि माम् ।
शबरी सब-ही गई पा ।
यहाँ भी दृष्टि दो उठा ।
चाँदी शबरी की सोना ।
झोरी मोरी खाली देखो ना ।
टके शबरी चुनर तारे ।
नम नैन हमारे ।
शबरी फाड़ छप्पर मिला ।
क्या कोई मुझसे गिला ।
शबरी उड़ी पतंग ।
बुहारूँ मैं भी अन्तरंग ।
शबरी फूली न समाई ।
नींद भी मुझे न आई ।
शबरी आई सुर्ख़ियों में ।
मैं अभी भी दुखियों में ।
पुण्य कमाने आया ।
‘शबरी’ द्रव्य भिंटाने लाया ।।अर्घं।।
(२१)
हाई-को ?
न भुला देना हमें ।
न जी पाऊंगा, तुम बिना मैं ।।
न्यारे हो तुम तिहु-जग से ।
पूजूँ सो जल-दृग् से ।
चन्दन सो भेंटें हम ।
जग भर से न्यारे तुम ।
तुम हो जग से न्यारे ।
भेंटूँ सो धाँ-शालि पिटारे ।
मैं तभी पूजूँ ले कुसुम ।
हो जग से न्यारे तुम ।
तुम हो न्यारे जग भर से ।
पूजूँ सो घी चरु से ।
है लिये, घी दिये ।
जग से न्यारे तुम इसीलिये ।
हित चिद्रूप ।
तुम जग से न्यारे सो भेंटूँ धूप ।
सारे जग से तुम न्यार ।
भेंटूँ सो फल दृग्-हार ।
तभी पूजूँ मैं अरघ से ।
तुम न्यारे हो जग से ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
कभी हो यूँ भी, आप विधी लें ।
और याद आऊँ मैं ।।
आंखों में झिर-जल लाये ।
अपने बारे-न्यारे कराने आये ।
दुख-दर्दों से पीछा छुड़ाने आये ।
नासूर बने जख्म भराने आये ।
मद-मदन मिट्टी-मिलाने आये ।
रोग क्षुधा को विदा दिलाने आये ।
तम मोह से मोह छुड़ाने आये ।
अष्ट-कर्मों को धूल चटाने आये ।
पैर आठवीं जमीं जमाने आये ।
पवर्ग सुख स्वर्ग रिझाने आये ।
हाथों में जल-फल लाये ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
इस भक्त का भी ।
रख लेना ‘गुरु जी’ ध्यान कभी ।
लाया जल चढ़ाने ।
आया दिल की दूरी मिटाने ।
समीप चरणन, रहने आया ।
चन्दन लाया ।
लाया धाँ, दो मिटा फासले ।
पद अक्षत आश ले ।
दूरियाँ मिट जायें ।
यही भाव ले पुष्प चढ़ायें ।
चढ़ाऊँ व्यञ्जन खास ।
आने तुम्हारे ‘कि कुछ और पास ।।
कुछ और करीब आने आये हैं ।
दीपक लाये हैं ।
हूं मैं धूप खे रहा ।
साथ ले चलो ‘कि जा रहे हो जहाँ ।
ये अन्तराय कर्म ‘कि जाये टल ।
चढ़ाऊँ फल ।
भेंटूँ अरघ ।
विरह सहा जाये न और अब ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
किसी का साया, रहता मेरे साथ ।
थाम के हाथ ।।
जल चढ़ाऊँ,
तेरी कृपा यूँ ही ‘कि आगे भी पाऊँ ।
तेरी कृपा ‘कि पाने का हुआ मन ।
लाया चन्दन ।।
लाया धाँ शालि अक्षत दाने ।
तेरी किरपा पाने ।
तेरी किरपा ‘कि बरष जाये ।
आये, ये पुष्प लाये ।
लाया व्यंजन घी ।
तेरी कृपा बनी रहे ‘कि यूँ ही ।
तेरी कृपा यूँ ही बरषे सदीव ।
‘कि भेदूँ दीव ।
न यूँ ही मैं खे रहा हूँ धूप ।
तेरी कृपा अनूप ।
तेरी कृपा ‘कि जाये बरष ।
लाये फल सरस ।
अर्घ लाया ।
‘कि तेरी-कृपा बरसे, विहँसे माया ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
रुलाती
तेरी याद,
याद मेरी, क्या तुझे भी आती ।।
धूलि चरण पाने तुमरी ।
जल कलशी ।
केशर घुरी ।
अक्षत ढ़ेरी ।
पुष्प पाँखुरी ।
चरु घी निरी ।
लौं अनबुझी ।
धूप सुधरी ।
फल मिसरी ।
मैं भेंट रहा हूॅं द्रव्य सबरी ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
भले सबके तुम ।
सिर्फोर-सिर्फ तुमरे हम ।।
ओ ! अपना लो,
दृग्-जल धार, आये चश्मा उतार ।
रज मलय, आये साथ विनय ।
सित अक्षत, आये जी गद-गद ।
पुष्प सभृंग, आये संग उमंग ।
चरु परात, आये विश्वास साथ ।
दीपिका माल, आये ले मन बाल ।
दशेक गंधा, आये समेत श्रद्धा ।
परात फल, आये नैन सजल ।
ओ ! अपना लो,
लिये दरब, आये दृग् डब-डब ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
अब न रहा नया ।
हुआ पुराना, दो बरसा दया ।।
भेंटूँ उदक ।
द्वारे अपने पाऊँ कि गन्धोदक ।
स्वप्न छोड़ भी करूँ कभी दर्शन ।
भेंटूँ चन्दन ।
भेंटूँ धाँ-शाली ।
यूँ ही ‘कि रोज मने मेरी दीवाली ।
पुकारो ‘कि मुझे भी नाम से तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ नेवज ।
‘कि पाऊँ यूँ ही रोज चरण-रज ।
जो चढ़े तुम्हें मोती वो मैं बनूँ सीप ।
भेंटूँ दीप ।
भेंटूँ सुगंध ।
जोड़ने अटूट ‘माँ-वत्स’ संबंध ।
‘कि जपूँ तुम्हारा नाम मैं पल-पल ।
भेंटूँ फल ।
भेंटूँ अरघ ।
पखारूँ रोज कि यूँही आप पग ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
काफी है,
यूँ तो घर में मेरे, तेरा आना बाकी है
रात था देखा सपने में ।
पड़गा रहा मैं तुम्हें ।
अर्जी गुरु जी ।
पाये चरण धूलि, कभी, घर भी ।
राहों पे टिकी नजर ।
आ जाईये लेने खबर ।
क्यों आपने न आना चुना ।
मौसम जाके आ गया पुनः ।
मीरा दी तीरा लगा ।
नहीं पराया मैं भी आपका ।
कर दो ना नाम मेरे आँगन ।
आज का पड़गाहन ।
निहाल कर दो कभी ।
आहार ले-के, ये हाथ भी ।।
झरते आँखों से बोल ।
रिश्ता गुरु शिष्य अमोल ।
जाऊँगा मैं तो सुना के ।
न आज ही, कल भी आ के ।।अर्घ्यं।।
।।जयमाला।।
गुरुदेव,
चाहूँगा तुम्हें सदैव,
पल-पल-पलक-पलक
हाँ ! मरते दम तलक,
करता रहूँगा यूँ हि सेव ।
भक्तों के जाते हो, घर जाते रहना ।
एक ख्वाब बस,
रात ख्वाबों में आते रहना ।।
झलक इक निहार, कर पूरे सपने देना ।
एक ख्वाब बस,
रख चरणों में अपने लेना ।।
सुना, दूर अपनों की,
सुनते हो गैरों की ।
एक ख्वाब बस
दे देना, रज अपने पैरों की ।।
हाई-को ?
दीजिये वर ।
रख शबरी-सी पाऊँ,’कि सबर ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
।।मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।१।।
जोर की बरसा मुसलधार ।
बूँद बाणों सा करे प्रहार ।।
गरजती बिजली सींह दहाड़ ।
सहज सहते तरु-मूल विराज ।।
पुण्य में अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ॥२।।
चले, कर साँय-साँय पवमान ।
राख जल हरे-भरे खलिहान ।।
तब खड़े जो चौराहे आन ।
मिल गये तारण-तरण जहाज ॥
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।३।।
दूर तरु, नाम निशान न छाह ।
धरा उगले अंगारी दाह ।।
तब धरी जिनने पर्वत राह ।
ढ़ोक, सुन ली मेरी आवाज ।।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।४।।
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