वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
हाई-को ?
वाह तेरा क्या कहना… ।
हया-शर्मो-लाज गहना । के
हूबहू गुलाब तेरा ही चाँद है
मैं मानता हूँ
अय ! आसमाँ
पै बतला जरा
क्या मानता तू
कुछ कम न लाजबाब मेरा भी चाँद है
मिटाता अंधेरा,
नहीं तेरा ही चाँद है
प्रकटाता उजेला,
अजी मेरा भी चाँद है
दिन और रात,
न सिर्फ़ पूर्णिमा
अय ! आसमाँ
खिलाता प्रसून,
नहीं तेरा ही चाँद है
दिलाता सुकून,
अजी मेरा भी चाँद है
यूँ ही न कोई,
कहलाये मूरत क्षमा
अय ! आसमाँ
बिखराता शीतलता,
नहीं तेरा ही चाँद है
जग-त्राता, शीत…लता,
अजी मेरा भी चाँद है
देव जिस किसी से कब,
कहते नमो नमः
अय ! आसमाँ ।।स्थापना।।
करुणा-निधान हो
तुम्ही तो यहाँ एक
शरणा प्रधान हो
लुटाते प्रेम हो
तुम्हीं तो यहाँ एक
भिंटाते क्षेम हो
भक्त वत्सल हो
तुम्ही तो यहाँ एक
रिक्त छल-बल हो
तुम्हें न सुनाऊँ तो सुनाऊँ किसको ।
है और कौन मेरा, जो सुनाऊँ उसको ।
तुम्हें न सुनाऊँ तो सुनाऊँ किसको ।
दुखड़ा अपना
‘जि गुरु जी देखा सपना,
बतला दो मुझको ।।जलं।।
भ्रमर से तितली
यही,
कह रही,
मगर से मछली
गुरु जी मेरे हैं
सिर्फ और सिर्फ
गुरु जी मेरे हैं
बदली ये पगली
यही,
कह रही
बादल से बिजली
धातु की प्रतिमा ढ़ली
यही,
कह रही
हरेक प्रतिभा थली ।।चन्दनं।।
तुम सा साँचा, न कोई भी दूजा
स्वारथ सबने साधे
इक तुम्हीं हो,
तुम्हीं हो
जो हो, सीधे-सीधे
सब गोरे तन, मन के काले
इक तुम्हीं हो,
तुम्हीं हो
जो हो, भोले-भाले
ताने जमाने ने मारे
इक तुम्ही हो,
तुम्हीं हो
जो हो, जग से न्यारे
परखा है, जाँचा है, दुनिया में जा जा
तुम सा साँचा, न कोई भी दूजा ।।अक्षतं।।
जर्रा सा डाँट देते हैं
फेर सिर पर फिर हाथ देते हैं
फन आसमानी गुलदस्ते हैं
आप सच में अच्छे हैं
दिखा आँख देते हैं
झट पे बरसा आँख देते हैं
रिसते न कभी ऐसे रिश्ते हैं
आप सच में अच्छे हैं
दिल के सच्चे हैं
आप सच में अच्छे हैं
खींच कान देते हैं
तुरत दे मुस्कान देते हैं
इस, उस जमीं पे इक फरिश्ते हैं
आप सच में अच्छे हैं ।।पुष्पं।।
गुरुकुल के पल,
जो कहो, कैसे तो
नेत्र मां के सजल
स्वाती नक्षत्र जल
फूल जैसे कंवल
गुजरे गुरुकुल के पल
ऐसे न वैसे हो
आज की दुनिया में तुम पैसे हो
कभी किसी को दिया न धोखा तुमनें
कभी किसी को रोका न टोका तुमनें
कोई इसमें करिश्मा नहीं
लगता की तुम्हें चश्मा नहीं
ऐसे न वैसे हो
तुम अपने ही जैसे हो ।।नैवेद्यं।।
बड़े अनमोल
झाँकतीं कोकिल बगलें
सुन पीछे तोते पग लें
और उड़ जाते है पंख खोल
बड़े अनमोल, हैं तेरे बोल
चुटकियों में जीत जग लें
पग पल-पल प्रीत मग लें
पट देते है अंतरंग खोल
बडे अनमोल है तेरे बोल
झाँकतीं कोकिल बगलें
सुन पीछे तोते पग लें
और उड़ जाते है पंख खोल
बड़े अनमोल, हैं तेरे बोल
अमृत सरीखे
गुड़, घी से नीके
बड़े ही मीठे
हैं तेरे बोल
बड़े अनमोल ।।दीपं।।
खिल रहे वगैर भान क्या कंवल
मछली की क्या न जिन्दगानी जल
वगैर आपके ‘जि गुरुदेव जी
रह न पायेंगे कह रहे सही
चाँद बिन वजूद क्या चकोर का
वगैर घन झूमता है मोर क्या ?
वगैर आपके ‘जि गुरुदेव जी
रह न पायेंगे कह रहे सही
सीप स्वाती बूँद बिना नाम का
दीप बाती शून कहाँ काम का
वगैर आपके ‘जि गुरुदेव जी
रह न पायेंगे कह रहे सही
दूर अपने आपसे करो नहीं
रह न पायेंगे कह रहे सही ।।धूपं।।
जन्नत नजारे तुम
जमीं चाँद-सितारे तुम
पूनम उजियारे तुम
हो सबसे प्यारे तुम
चल तीरथ सारे तुम
जग भर से न्यारे तुम
पूनम उजियारे तुम
हो सबसे प्यारे तुम
जन्नत नजारे तुम
जमीं चाँद-सितारे तुम
तितलियों का, गुलों का
कलियों का, बुलबुलों का
बादलों का मोरों का
कुल मिला के, यही कहना चित् चोरों का
पल पलक
पाते ही आप झलक
सितम, तम,मातम, गम
जा होते दूर कहीं गुम
ता रारा रारा रुम
शिवम् सत्यम् सुन्दरम् ।।फलं।।
मेरे ये नैन भ्रमर
तेरे फूल से चेहरे पर
फिदा हो चले
‘के ख़ुदा करे
ये सिलसिला यूँ ही,
‘जि गुरु जी
ये सिलसिला यूँ ही, कायम रहे उम्र-भर
अपने इस पावन रिश्ते को,
किसी की भी,
‘जि गुरु जी
अपने इस पावन रिश्ते को,
कभी, किसी की भी,
न लग चले नज़र
टक चलें सितार
लागें चाँद-चार
लहराती रहे यूँ ही, ये भक्ति चुनर ।।अर्घ्यं।।
*विधान प्रारंभ*
(१)
हाई-को ?
ढ़ाई अक्षर से,
बहुत अच्छे से रूबरू…गुरु ।।
तुम रो देते, सुन पर-पीर ।
सो भेंटूँ दृग्-नीर ।
भेंटूँ सो-गंध यह ।
तुमने छोड़ा ‘स…हारा’ कह ।
तुम रखते न नाक पे भार ।
सो भेंटूँ धाँ न्यार ।
भेंटूँ सौ पुष्प यह ।
तुमने छोड़ी ‘वास…ना’ कह ।
विद् तुम्हें, कहे क्या ‘दवा…खाना’ ।
भेंटूँ सो भोग नाना ।
भेंटूँ सौ दीप-पाँत ।
न याद, तुम्हें चुगली स्वाद ।
तुम्हें सदा दे दिखाई जो चिद्रूप ।
सो भेंटूँ धूप ।
भेंटूँ भेला ।
तुम्हें रिझाते रहते वेला-तेला ।
करते चर्चा आपकी देव स्वर्ग ।
सो भेंटूँ अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
कहते ही जै-गुरुदेव ।
हो चाले वजनी-जेब ।।
भेंटूँ दृग्-जल ।
कर सकने परिणाम सरल ।
कर सकने देर आत्म चिंतन ।
भेंटूँ चन्दन ।
भेंटूँ धाँ सविनय ।
कर सकने पुण्य संचय ।
कर सकने कभी मेरु न्हवन ।
भेंटूँ सुमन ।
भेंटूँ नेवज ।
कर सकने वश में क्षुध्-मरज ।
कर सकने जड़-जीव फरक ।
भेंटूँ दीपक ।
भेंटूँ सुगंध ।
कर सकने उजला अंतरंग ।
कर सकने सुलह पहल ।
मैं भेंटूँ श्री फल ।
भेंटूँ अरघ ।
कर सकने दूधिया रग-रग ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
प्रभु ने, गुरु को बनाया ।
शीशे में जो रूप-पाया ।।
आंखों में झिर जल लाये ।
सोया अपना भाग जगाने आये ।
रूठा अपना भाग माने आये ।
फूटा अपना भाग बनाने आये ।
थमा अपना भाग बढ़ाने आये ।
रोता अपना भाग हँसाने आये ।
फीका अपना भाग रंगाने आये ।
धीमा अपना भाग दौड़ाने आये ।
मैला अपना भाग धुलाने आये ।
खोया अपना भाग खोजने आये ।
हाथों में जल-फल लाये ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
छोड़ गुरु जी के पाँव ।
और कहीं न शिव-गाँव ।।
आंखों में झिर जल लाये ।
उतरवाने आये ।
सिर का बोझ
मन का भार
मान का चश्मा
काम का भूत
उतरवाने आये,
क्षुधा का नशा
मोह का रंग
राग का दाग
छल का ताज
कुप् का बुखार उतरवाने आये ।
हाथों में जल-फल लाये ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
नभ दीखते ही दीखते ।
तरु जो गुरु सींचते ।।
आप श्री चरणों में भेंटूँ ।
दृग्-हर ! दृग्-समन्दर ।
भौ-तरी ! गंध-गगरी ।
कृपाल ! थाल धाँ शाल ।
सुरम ! कुसुम-द्रुम ।
नीरज ! थाल नेवज ।
शरण ! दीप रतन ।
माहन ! सुगंध अन ।
करुण ! फल तरुन ।
अनघ ! दिव्य-अरघ ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
माँ कभी नहीं भूलती ।
करें बच्चे ही ये गलती ।।
अद्वितिय, दृग् तृतिय पाने ।
जल लिये चढ़ाने ।
भेंटें गंध दिवाने ।
भेंटूॅं धाँ शालि दाने ।
भेंटूॅं पुष्प सुहाने ।
भेंटूॅं थाल-मखाने ।
भेंटूॅं दीप चौ-खाने ।
भेंटूॅं सुगंध माने ।
भेंटूॅं फल पिछाने ।
भेंटूॅं अर्घ, तराने ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
पाँवों के पास वाला कोना ।
दे अजि दो मुझको ‘ना’ ।।
भेंटूॅं दृग्-जल ।
रह सकने गौ…रव सा उज्ज्वल ।
रह सकने बिन मनोरंजन ।
भेंटूॅं चन्दन ।
भेंटूॅं अक्षत ।
रह सकने शिव-सुन्दर-सत ।
रह सकने आप-आप मगन ।
भेंटूॅं सुमन ।
भेंटूॅं नेवज ।
रह सकने बिन नह्वन-गज ।
रह सकने निजातम करीब ।
भेंटूॅं प्रदीव ।
भेंटूॅं सुगंध ।
रह सकने बन गृहस्थ सन्त ।
रह सकने जल भिन्न कमल ।
भेंटूॅं श्री फल ।
भेंटूॅं अर्घ ये ।
रह सकने कीच बीच स्वर्ण से ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
यही विनय ।
आ पधारिजो सूनी वेदी हृदय ।।
नीर-घट भेंटते गन्ध-घट ।
विकट त्राहि माम् ‘जि संकट ।
थाल धाँ शाल, भेंटते पुष्प थाल ।
त्राहि माम् कथा हा ! पुष्प-डाल ।
चरु-थाल, भेंटते दीव-माल ।
त्राहि माम् हहा ! पञ्चम-काल
भेंटते धूप-घट ।
विकट त्राहि माम् ‘ही’-कंटक ।
फल थाल,भेंटते द्रव्य माल ।
त्राहि माम् जगत् मकड़ जाल ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
गुरु जी थारी ही दया ।
जीवन ‘कि नया पा गया ।।
कोई श्रद्धानी न आप सा ।
सो भेंटूँ जल कलशा ।
भेंटूँ चन्दन घिसा ।
और स्वाभिमानी न आप सा ।
गुण निधानी न आप सा ।
सो भेंटूँ धाँ हर्षा-हर्षा ।
करूँ पुष्प बरसा ।
जिताक्ष प्राणी न आप सा ।
औ’ पातृ-पाणी न आप सा ।
सो भेंटूँ चरु सरसा ।
भेंटूँ दीप दृग्-लसा ।
कोई संज्ञानी न आप सा ।
कोई सद्ध्यानी न आप सा ।
सो भेंटूँ धूप आदर्शा ।
भेंटूँ ‘फल’-प्रशंसा ।
शीतल पानी न आप सा ।
और वरदानी न आप सा ।
सो भेंटूँ अर्घ स्वर्ग ला ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
ली एकलव्य की सुन ।
लो गुरु जी मुझे भी चुन ।।
भेंटूँ दृग्-नीर ।
बनाऊँ तेरी, बने मेरी तस्वीर ।
सुनूँ, क्या चाहे कहना ‘हट’
भेंटूँ चन्दन घट ।
भेंटूँ धाँ खुशबूदार ।
भिड़ अपनों से जाऊँ हार ।
लग सके ‘कि हाथ हुनर द्रुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ रसोई ।
पा सकने ‘कि वस्तु अपनी खोई ।
मकड़ी सा न बुनूँ ‘कि जाला ।
भेंटूँ दीपों की माला ।
भेंटूँ सुगंधी ।
पाने अपूर्व पुण्य जुगल बंधी ।
देख और न जल-भुन जाऊँ ।
श्री फल चढाऊँ ।
भेंटूँ अरघ ।
समझ सकूँ ‘कि क्या कहे सा ‘जग’ ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
हल क्या देते हैं ।
श्री गुरु जी कर हल्का देते हैं ।।
बरसे कृपा तिहार ।
लाये ‘कि हम अटूट धार ।
लाये ‘कि घट चन्दन घोर ।
बरसे कृपा तोर ।
बरसे कृपा निराली ।
लाये थाली ‘कि धान शाली ।
लाये ‘कि चुन-चुन कुसुम ।
बरसे कृपा तुम ।
बरसे कृपा तुमरी ।
लाये चरु दृग्-मन-हरी ।
लाये दीप कतार न्यारी ।
बरसे कृपा तुम्हारी ।
बरसे कृपा तिरी ।
लाये सुगंध सुगंधी-निरी ।
लाये ‘कि फल हटके थोड़ी ।
बरसे कृपा तोरी,
बरसे कृपा तेरी,
लाये ‘कि अर्घ लगा के ढ़ेरी ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
की प्रीति लौटा देते श्री-मुनी ।
कर-के कई गुनी ।।
ले दृष्टि इक अभिलाष ।
उदक ले आया पास ।
चन्दन ले आया पास ।
ले गुणधन अभिलाष ।
ले भक्ति नौधा अभिलाष,
शालि धाँ ले आया पास ।
सुमन ले आया पास ।
ले सु-मरण अभिलाष ।
ले पाँव-रज अभिलाष,
नेवज ले आया पास ।
संज्योति ले आया पास ।
ले स्वानुभूति अभिलाष ।
ले गन्धोदक अभिलाष ।
सुगंध लें आया पास ।
श्री फल ले आया पास ।
ले मुक्ति फल अभिलाष ।
ले ‘भौ-अनघ’ अभिलाष ।
अरघ ले आया पास ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
गुरुवर ‘जी’ बेचैन ।
तर देखे क्या पर-नैन ।।
धार की,
‘पानी’
मथता न रहूँ ‘कि इस बार भी ।
गंध चढ़ाऊॅं ।
‘चन्दन’ राख हित ‘कि न जलाऊँ ।
धां भेंटी ।
‘साल’ न ले लील काल ‘कि फिर के यूँ ही ।
पद्म चढ़ाऊँ ।
‘पुष्प’ खम् ‘कि चुनता न रह जाऊँ ।
षट्रस भेंटूॅं ।
‘व्यंजन’ स्वर रटूॅं न भाँति मिट्टू ।
लौं बालूॅं ।
‘दीप’ तले ‘कि अबकी न अंधेरा पालूॅं ।
सुगंध छोडूॅं ।
‘कस्तूरी’ हेत ‘कि न मृग सा दौडूॅं ।
भेला चढ़ाऊँ ।
‘ना’रियल न रहूँ ‘गिरी’ कहाऊँ ।
अर्घ चढ़ाऊँ ।
अनर्घ्य पदवी भू आठवीं पाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
आ बचें जाने से नीचे ।
लग पीछी वालों के पीछे ।।
आये रँगने भक्ति रंग में ।
लाये जल संग में ।
गंध चढ़ाऊँ ।
रंग भक्त तुम्हारे ‘कि रॅंग पाऊँ ।
अपने रंग भक्ति रॅंगा लो मुझे ।
धाँ भेंटूँ तुझे ।
लो रॅंगा रंग-भक्ति अपने तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
करने रंग-भक्ति अभिनन्दन ।
भेंटूँ व्यंजन ।
रंग-भक्ति जो तुमने रँगा लिया ।
सो भेंटूँ दीया ।
लो रॅंगा रंग भक्ति-आप गुरु जी ।
भेंटूँ सुगंधी ।
रँगा लो भक्ति रंग अपने पल ।
भेंटूँ श्री फल ।
भक्ति रंग ‘कि समाये रग-रग ।
भेंटूँ अरघ ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
छोड़ सागर विद्या ।
और सागर हैं खारे पता ।।
दृग् जल करूँ अर्पण,
‘कि पखार पाऊँ चरण ।
‘कि निखार पाऊँ ऽऽचरण ।
‘कि उजाल पाऊँ ऽऽचरण ।
‘कि संभाल पाऊँ ऽऽचरण ।
‘कि संवार पाऊँ ऽऽचरण ।
‘कि प्रक्षाल पाऊँ चरण ।
‘कि सुधार पाऊँ ऽऽचरण ।
‘कि उतार पाऊँ ऽऽचरण ।
‘कि निहार पाऊँ चरण ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
गरल वाले ।
‘और सागर’ विद्या सरल न्यारे ।
पाऊँ ‘कि रज चरण ।
कम् गंगज करूँ अर्पण ।
मलयज करूँ अर्पण ।
धाँ विरज करूँ अर्पण ।
विटपज करूँ अर्पण ।। ।
घी नेवज करूँ अर्पण ।
करूँ दीप स्रज अर्पण ।
चन्दनज करूँ अर्पण ।
पादपज करूँ अर्पण ।
द्रव्य पुञ्ज करूँ अर्पण ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
सिन्धु ने गिनी-चुनी ।
दीं विद्या सिन्धु ने नन्त-धुनी ।।
भक्त-मंजिल !
भेंटूँ सलिल ।
चरणों में आपके भेंटूँ चन्दन ।
पाप भंजन !
पत-राखत !
भेंटूँ अक्षत ।
चरणों में आपके भेंटूँ प्रसून ।
मन्नत पून !
बालक वैद्य !
भेंटूँ नैवेद्य ।
चरणों में आपके भेंटूँ प्रदीप ।
रतन द्वीप !
मंगल कर !
भेंटूँ अगर ।
चरणों में आपके भेंटूँ श्रीफल ।
भक्त वत्सल !
कल्प विरख !
चरणों में आपके भेंटूँ अरघ ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
सिर्फ इन्दु के सिन्धु ।
विद्या-सिन्धु न किन-के बन्धु ।।
पाने निजात्म एक झलक ।
आये, लाये उदक ।
करने गुण अभिनन्दन ।
आये, लाये चन्दन ।
होना सहज ओ निराकुल ।
आये, लाये तण्डुल ।
बने जीवन कि कल्प-द्रुम ।
आये, लाये कुसुम ।
जगा सकने धी-भी समझ ।
आये, लाये नेवज ।
पाने भौ मानौ वैभवशाली ।
आये, लाये दीवाली ।
हो सकें वायु से ‘कि निसंग ।
आये, लाये सुगंध ।
पायें ‘कि छाँव आप आँचल ।
आये, लाये श्री फल ।
पाने तीसरी-भीतरी ‘अख’ ।
आये, लाये अरघ ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
डराते, और सिन्धु ।
पै विद्या-सिन्धु डर भगाते ।
दृग्-जल करूँ अर्पण ।
‘कि आप सा छुऊँ गगन ।
‘कि आप सा रहूँ मगन ।
‘कि आप सा खोऊँ भ्रमण ।
‘कि आप सा होऊँ सुमन ।
‘कि आप सा रोऊँ न वन ।
‘कि आप सा रमूँ सदन ।
‘कि आप सँभालूँ-रण ।
‘कि आप सा मैं पाऊँ वन ।
‘कि आप सा होऊँ दर्पण ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
गुरु जी, देते आसमाँ छुवा,
जमीं न छुड़ा, वाह… ।
करुणा कीजे ।
जल, नैन सजल, अपना लीजे ।
सवन्दन, ये चन्दन, अपना लीजे ।
ये धाँ, धाँ-कटोरे की, अपना लीजे ।
शत-दल, यह कमल, अपना कीजे ।
नीके, ये व्यंजन घी के, अपना लीजे ।
दीये, ये अनछुये, अपना लीजे ।
जर्रा सी, ये सुगंधी, अपना लीजे ।
दिव-थल, ये फल, अपना लीजे ।
दरब, ये सरब, अपना लीजे ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
बस, अंगुली श्री गुरु पकड़ी ।
‘कि बनी बिगड़ी ।।
मैं दृग् जल चढ़ाऊँ ।
भारी मनवा, बना ‘कि हल्का पाऊँ ।
उलझा मन, बना उजला पाऊँ ।
पामर मन, बना पावन पाऊँ ।
गुमानी मन, बना सद्ध्यानी पाऊँ ।
आलसी मन, बना साहसी पाऊँ ।
औगुनी मन, बना ‘स्व-धनी पाऊँ ।
चाकर मन, बना ठाकुर पाऊँ ।
चपल मन, बना निश्छल पाऊँ ।
विकल मन, बना सहज पाऊँ ।
मैं जल-फल चढ़ाऊँ । ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
विद्या सागर सरीखे ।
कहाँ और सागर मीठे ।।
लिये जल दे रहा ढ़ोक ।
त्राहि माम् हा ! स्वार्थी लोक ।
लें चन्दन दे रहा ढ़ोक ।
त्राहि माम् हा ! माखी लोभ ।
ले अक्षत दे रहा ढ़ोक ।
त्राहि माम् हा ! नोंक-झोंक ।
ले पुष्प देऊँ ढ़ोक ।
त्राहि माम् पड़ा पीछे हा ! क्षोभ ।
ले चरु देऊँ ढ़ोक ।
त्राहि माम् क्षुध् हा ! जाँ-लेवा रोग ।
ले दीप देऊँ ढ़ोक ।
त्राहि माम् हा ! दृग्-तरेरे क्रोध ।
ले धूप देऊँ ढ़ोक ।
त्राहि माम् सिर चढ़ा हा ! बोझ ।
ले फल देऊँ ढ़ोक ।
त्राहि माम् रहा छल हा ! मोष ।
ले अर्घ देऊँ ढ़ोक ।
त्राहि माम् खींचे नीचे हा ! शोक ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
सिन्धु बेकार ही ।
विद्या सिन्धु तर रहे तार-भी ।
होने गभीर ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, नीर ।
स्वर्ण सुगंध !
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, गंध ।
हेतु कल्याण ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, धान ।
‘धूल, अमूल’ ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, फूल ।
रोध क्षुध्-रोग ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, भोग ।
पाने संबोधि ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं ज्योति ।
‘रूप-अनूप’ ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, धूप ।
नव-नवल ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, फल ।
प्रद-पवर्ग ! ।
आपके चरणों में चढ़ाऊॅं, अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
करिश्मा ।
और कहीं न देखी क्षमा, आपके समां ।
सविनय भेंट ।
भरे जल से, चारु-चारु कलशे ।
गिरि मलय-सार, खुशबू दार ।
शाली-धाँ वाली, अति सुन्दर थाली ।
सबन-मन-हारी, सुमन-थारी ।
अमृत सरीखे, घी के चरु नीके ।
बिखेरती उजाला, दीपों की माला ।
बड़े सुनहरे, ये धूप के घडे़ ।
भाँत-भाँत, मौसमी-फल-परात ।
न्यारे-न्यारे द्रव्य ये, सारे के सारे ।
सविनय भेंट ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
कारे किनारे ।
सिन्धु विद्या पै बहि-रन्तर न्यारे ।
लिये सजल आँख मैं ।
लिये चन्दन पात्र में ।
लिये अक्षत साथ में ।
लिये द्यु-जल-जात मैं ।
लिये दृग्-भात ‘भात’ मैं ।
लिये गो घृत बाति मैं ।
लिये सुगंध ख्यात मैं ।
लिये श्री फल हाथ में ।
लिये दृग् जल आद मैं ।
स्वीकारिये तारिये हमें ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
सुनते आप जगत् की,
सुन चला आया ‘तुरत-ही ।
आया द्वारे मैं तिहारे ।
ले दृग्-जल तुम्हें मनाने ।
चन्दन ले तेरे गाने तराने ।
ले धाँ शालि अक्षत न्यारे ।
पुष्प लिये दिव्य पुष्प पिटारे ।
नेवज ले पाने किनारे ।
ले ज्योत, ए ! पोत-सहारे ।
ले धूप ए ! नूप नजारे ।
ले फल ए ! तीरथ सारे ।
ले अर्घ ए ! तारण हारे ।।अर्घं।।
(२७)
हाई-को ?
बदमाशियाँ छू कर दें ।
गुरु जी जादू कर दें ।
दो लगा उस पार बेड़ा ।
जल ये मेरा स्वीकार करो ।
चन्दन ये स्वीकार मेरा ।
दो कर सुखी घनेरा ।
दो जगा साँझ बेरा ।
थाल अक्षत स्वीकार मेरा ।
पिटार पुष्प स्वीकार मेरा ।
कर दो मदन-मार चेरा ।
दो प्रकटा स्वा-नुभौ सबेरा ।
चरु स्वीकार मेरा ।
दीप यह स्वीकार मेरा ।
दो मिटा मोह अंधेरा ।
दो तोड़ कर्मों का घेरा ।
घट-धूप स्वीकार मेरा ।
श्री फल स्वीकार मेरा ।
मोक्ष में करा दो बसेरा ।
दो मेंट भव-भव का फेरा
अर्घ स्वीकार मेरा ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
है कोई, जहां दोई,
बेनजीर, तो गुरु तस्वीर ।
न और सपना ।
लो बना, खुद-सा
दृग् जल ये अपना ।
वर्षा करुणा ।
तुम्हीं शरणा ।
सूर्य किरणा ।
दया झिरना ।
औ’ जनम ना ।
‘भी’ आभरणा ।
काठ तरणा ।
पार गणना
लो बना, खुद-सा ।।अर्घ्यं।।
।। जयमाला ।।
हाई-को ?
कलि कम न समशरण ।
गुरु जी के चरण ।
मिलती शक्ति हमें,
आ-पल रमें, गुरु भक्ति में ।
।। विद्यासागर नदिया-धार ।।
कब माँगी इक ‘पाई’ है ।
हर-जन प्यास बुझाई है ।।
पर हित आतुर, तारण हार ।
विद्यासागर नदिया-धार ।।
डुबकी एक लगाई है ।
‘मन की’ हुई सफाई है ।।
चूनर जगमग चाँद सितार ।
विद्यासागर नदिया-धार ।।
सत् संगत वरदाई है ।
ऊरध-रेत, बधाई है ।।
शंकर कंकर निर्मद न्यार ।
विद्यासागर नदिया-धार ।।
हाई-को ?
करना तेरी तारीफ,
सूरज को दिखाना दीप
मेरी भावना
कभी, छूटे पल भी,
तेरी छाँव ना
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
ले के ज्योती हाथों में ।
ले के मोती हाथों में ।।
मिल के आरतिया कीजे ।
धन भव मानव कर लीजे ।।
नरक पतन भयभीत मुनी ।
मीत जगत् त्रय प्रीत गुणी ।।
देख दीन बरसे करुणा,
भाव क्षमा अविनीत जनी ।
गदगद बोल हृदय भींजे ।
मिल के आरतिया कीजे ।।१।।
घन गर्जन, तरुतल ठाड़े ।
चतुपथ आन खड़े जाड़े ।।
सूर सामना चढ़ पर्वत,
जब लू लपट विकट चाले ।।
पुलकन रोम, ताल दीजे ।
मिल के आरतिया कीजे ।।२।।
सार्थ श्रमण मन श्रम रीता ।
रग रग झंकृत स्वर गीता ।।
साध धनी समता, मौनी,
हित सु…मरण, लोचन तीजे ।
ले के ज्योती हाथों में ।
ले के मोती हाथों में ।।
मिल के आरतिया कीजे ।
धन भव मानव कर लीजे ।।३।।
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