वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
बता क्या ले चलना नजराना
आज सखि ! गुरु दर्शन को जाना
चाँद तारे आसमां से तोड़ ला जल्दी
जा कोहनूर गोरों से छोड़ ला जल्दी
बिछुड़े गुरु जी से
‘कि मिले गुरु जी से
गुजरने को इक जमाना
आज सखि ! गुरु दर्शन को जाना
मोतियों को मानस से बटोर ला जल्दी
जा मलयागिर का चन्दन घोर ला जल्दी
आज सखि ! गुरु दर्शन को जाना
बाती गो-घृत में बोर ला जल्दी
स्वर्ग से अमृत, जा दौड़ ला जल्दी
आज सखि ! गुरु दर्शन को जाना ।।स्थापना।।
आ जरा घुल मिल लेते हैं
गुरु जी हमें,
निराकुल कर ही देते हैं
दिल गहरे किया अनुभूत भी
सिर्फ सुना ही नहीं,
हाथ अपने सफीने भक्तों के खेते हैं
निराकुल कर ही देते हैं
हवा ही नहीं,
उड़ी-उड़ी हवा ही नहीं,
सौ फीसदी बात ये आँखों देखी सही
सिर्फ हवा ही नहीं,
सभी उन्नीसे बीसे भी इनके चहेते हैं ।।जलं।।
अभी कोई बड़ा न हो गया
चल रहा घुटनों के बल,
खड़ा न हो गया
पहले जैसी ही, खबर लेते रहना
अभी कोई, संज्ञानी न हो गया
रट्टू तोता, बगला-भगत हूँ,
सद्ध्यानी न हो गया
पहले जैसी ही, खबर लेते रहना
अभी कोई, चांद न छू गया
हूॅं छौना, सहमा-सहमा,
शेरों की मांद न छू गया
पहले जैसी ही, खबर लेते रहना
इतनी कृपा करना
बस खबर लेते रहना
और दूजी न ख्वाहिश
‘जि गुरु जी, इक गुजारिश ।।चन्दनं।।
नीली-नीली ये अँखिंयाँ
सुरीली मीठी सी बतिंयाँ,
यही तो कहतीं आतीं नजर,
हूबहू चाँद से गुरुवर,
रास्ते नजर,
उतर आते जिगर,
हूबहू चाँद से गुरुवर,
हटाने पर,
हटती नहीं नजर,
घूँघर वाली ये अलकें,
पाँखुड़ी पद्मनी पलकें,
अधर छाई मुस्काँ न्यारीं,
बाँकी भ्रू ये मनहारीं,
यही तो कहतीं आतीं नजर,
हूबहू चाँद से गुरुवर ।।अक्षतं।।
हर किसी के बारे में सोचना
आँसू अजनबी के पोंछना
पाछी पवन सा धकाना, मंजिल की तरफ
औरों का ध्यान रखना, न अपना सिरफ
हुआ करती ईश्वर से सबकी मुलाकात नहीं
थमा के दिया
अय ! दिले-दरिया
बच्चों के अपराध सिर अपने लेना
निर्दाम नैय्या चलाकर के खेना
ये सबके बस की बात नहीं
मोती हर सीप के हाथ नहीं ।।पुष्पं।।
मयूर पंख की पीछी
भींगी भींगी दृग् तीजी
खुद सा मितव्ययी कमण्डल
बिलकुल माँ जैसा दिल
पोथी इक छोटी-मोटी
अनबुझ प्रभु भक्ति ज्योती
‘के टप-टप गिर पड़ते आँसू
मन आईने सा रखते
पर पीड़ा देख न सकते
टप-टप गिर पड़ते आँसू
बनती कोशिश हित साधूँ
करुँ नाम सार्थक साधू ।।नैवेद्यं।।
टिका, पा कृपा गुरु संसार ।
गुरु की महिमा अगम अपार ।
मिलता जा निर्झर दरिया ।
मिलती जा सागर नदिया ।।
कहो ? मिले सागर किससे ।
कुछ यूँ ही गुरु के किस्से ।।
गुरु की महिमा अपरम्पार ।
हुआ बीज से तरु तैयार ।
तरु से हुआ बीज अवतार ।।
कहो कौन पहले आया ।
कुछ यूँ ही गुरु की माया ।।
गुरु की महिमा का नहिं पार ।।दीपं।।
इक अरज,
हूॅं नादाँ, खूब डरता हूँ
गल्तियाँ भी खूब करता हूँ
सिर बढ़ता ही जा रहा करज
होना है आप जैसा सहज,
जर्रा भी न पानी रखता हूँ
खूब मनमानी करता हूँ
सिर चढ़ के है बोल रहा कज
होना है आप जैसा सहज,
नाव रेता में खेता हूँ
ताव क्रेता विक्रेता हूँ
सिर करूँ रज यूँ भाँति गज
होना है आप जैसा सहज,
मिल जाये मुझे, ‘जि गुरु जी आपके
समाँ मलयज
चरणों की रज ।।धूपं।।
पाँखुरी पलकें हैं
घूँघरी अलकें हैं
फूल जैसी हँसी
श्वास में खुशबू वसी
चाहा ‘कि मुड़-मुड़ के देखना सबने
गुरु मूरत में, रंग वो हैं भरे रब ने
हिमालय माथा है
नम हृदय नाता है
फूल जैसी हँसी
नज़र माँ के जैसी
पुष्प चंपक नासा
झील दृग्-परिभाषा
गला आवर्त शंखी
फूल जैसी हँसी ।
गुलाब दूजी गदिंयाँ
लाजवंती बतिंयाँ
हूबहू बुद्धी हंसी
फूल जैसी हँसी
चाहा ‘कि मुड़-मुड़ के देखना सबने
गुरु मूरत में, रंग वो हैं भरे रब ने
चाहा ‘कि मुड़-मुड़ के देखना सबने ।।फलं।।
सब सन्तों से न्यारे हैं ।
ज्ञान सिन्धु दृग् तारे हैं ।।
माँ श्री मन्ति ‘पिता’ सपने ।
ना दश दिश् किस के अपने ।।
शरद पूर्णिमा शशि न्यारे ।
ग्राम सदलगा उजियारे ।।
जुवाँ मराठी रस रसिया ।
कन्नड़ जुवाँ हृदय वसिया ।।
पढ़े दूसरी ही कक्षा ।
खेल न को ! खेले अच्छा ।।
हाथ दाहिने दीनों के ।
साँझ नुरागी तीनों के ।।
भक्त देश-भूषण मुनि के ।
रहित द्वेष दूषण, गुणि से ।।
अंक खूब लेने वाले ।
रंक खूब देने वाले ।।
निर्ग्रन्थन निर्ग्रन्थ महा ।
आये गुण गण अन्त कहाँ ।।
मौन इस लिये लेता हूँ ।
ढ़ोक बस इन्हें देता हूँ ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
सभी के दिल में गुरु महाराज ।
करते राज ।।
चलते तुम ‘नौ-वधु’ से संभल ।
सो भेंटूँ जल
भेंटूँ चन्दन ।
भुलाया तुम ने वन-क्रन्दन ।
सो चलाते, तुम चालते सत्पथ ।
सो भेंटूँ अक्षत
भेंटूँ पहुप ।
तुम्हें सबसे भाली लागे चुप ।
बढ़ाते जाते न सिर करज ।
सो भेंटूँ नेवज,
भेंटूँ दीपक ।
न रुची स्वप्न भी तुम्हें धी-बक ।
साँझ साँझ तू ले नाप-डगर ।
सो भेंटूँ अगर ।
भेंटूँ फल ।
नापो, पाँव दो न तुम दल-दल ।
चाह सुदूर तुम स्वर्ग-पवर्ग ।
सो भेंटूँ अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
चाहे सबका भला ।
गुरु के सिवा, कहाँ वो कला ।।
जल गागर भेंटूँ गंध-गागर ।
धाँ-मुक्ताफल भेंटूँ फुलवा-हर ।
पकवाँ-अर भेंटूँ घी दिया भर ।
धूप सादर भेंटूँ फल पातर ।
होने आप सा विद्या-सागर ।
भेंटूँ अर्घ सजाकर ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
तरु ।
अपने लिए न खर्चें निध अपनी गुरु ।।
भेंटते जल,
संयम पल,
भेंट दीजे गुरु जी, ‘धी-भी’ सुगंध ।
गंध, भेंटते सुधाँ ।
कच्छपी विधा ।
भेंट दीजे गुरु जी, तुम्बी सा कूल ।
फूल, भेंटते चरु ।
समता-तरु,
भेंट दीजे गुरु जी, बेत सी धिया ।
भेंटते दिया, धूप ।
सिंह स्वरूप,
भेंट दीजे गुरु जी, आप सा कल ।
फल, भेंटते अर्घ ।
भेंट दीजे गुरु जी, द्यु-अपवर्ग ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
ले आहट ।
‘कि चाले गुरु आगे दे मुस्कुराहट ।।
दृग् जल स्वीकार लो गुरु जी ।
नन्त-सुखी और कर लो चन्द सा ही ।
निर्ग्रन्थ ही और कर लो पन्थ-सही ।
सन्त-सुधी और कर लो सामन्त ‘भी’ ।
कन्त-मुक्ति और कर लो अन्त-मही ।
जल-फल स्वीकार लो गुरु जी ।
और कर दो मन्त्र मुट्ठी ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
बनाते पीठ ठोंकने योग ।
गुरु जी पीठ-ठोंक ।।
जल ही नहीं, भाव निर्मल लाये ।
गंध ही नहीं, सद्भाव छन्द लाये ।
सुधाँ ही नहीं, भाव त्रिसन्ध्या लाये ।
गुल ही नहीं, भाव मंजुल लाये ।
चरु ही नहीं, स्वभाव तरु लाये ।
दिया ही नहीं, भाव बढ़िया लाये ।
धूप ही नहीं, भाव अनूप लाये ।
फल ही नहीं, भाव निच्छल लाये ।
अर्घ ही नहीं, भाव अनर्घ लाये,
साथ आँसु भी आये ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
इतिहास ।
आ…गुरु-द्वार, लौटा न कोई निराश ।।
दृग् जल भेंटूँ मैं ।
अपनों से हारना जो आया तुम्हें ।
तरंग मन मारना आया तुम्हें ।
करता दुखी, दुख-और तुम्हें ।
हवा-पाछी जो बनना आया तुम्हें ।
बातों में मिश्री घोलना आया तुम्हें ।
नजर स्याही मेंटना आया तुम्हें ।
मर…हम बनना जो आया तुम्हें ।
बगैर ‘लेन’, देन जो आया तुम्हें ।
जल-फल भेंटूँ मैं ।
नजर-माँ देखना जो आया तुम्हें ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
हो किसी ने भी पुकारा ।
आ…आपने दिया सहारा ।।
खो सकूँ भाव-खिल पामर ।
जल गागर, मैं भेंटूँ चन्दन ।
खो सकूँ भाव तन राग-रंजन ।
खो सकूँ भाव ईर्ष्या भरे ।
धाँ साफ-सुथरे, मैं भेंटूँ पुष्प पिटारे ।
खो सकूँ भाव प्रमाद सारे ।
खो सकूँ भाव पाप समस्त ।
चरु प्रशस्त, मैं भेंटूँ दीवा-रतन ।
खो सकूँ भाव आवागमन ।
खो सकूँ भाव लहरी अंतरंग ।
सार्थ सुगंध, मैं भेंटूँ श्री फल ।
खो सकूँ भाव भक्षण-चुगल ।
खो सकूँ भाव मिथ्या प्रचार ।
मैं भेंटूँ अर्घ पिटार ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
पा आप पाँव-धूल ।
लगा, पा लिया भौ-सिन्ध-कूल ।।
दृग् जल लाया ।
पतझर मैं, सावन होने आया ।
कंस मैं, भाव-रावन खोने आया ।
हा ! पामर मैं, पावन होने आया ।
स्याह अपना, दामन धाने आया ।
लगा ताँते सा जामन, खोने आया ।
मैं पाहन, ‘जी’ माखन होने आया ।
बक मैं, वृष-माहन बोने आया ।
रंक मैं, शिव-राजन् होने आया ।
आप दया का भाजन होने आया ।
जल-फल लाया ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
मीरा जितना न श्याम ।
‘प्यारा’ मुझे तुम्हारा नाम ।।
ए ! मुझे मीरा श्याम,
नीर भेंटूॅं, दो थमा मुकाम ।
चन्दन भेंटूॅं, दो भिंटा राम ।
सुधाँ भेंटूॅं, लो थाम, प्रणाम ।
पुष्प भेंटूॅं, दो विघटा काम ।
चरु भेंटूॅं, लो अंगुली थाम ।
दीप भेंटूॅं, दो सुलझा शाम ।
धूप भेंटूॅं, दो प्रीति खो नाम ।
फल भेंटूॅं, पा जाऊँ स्व-धाम ।
अर्घ भेंटूॅं, दो भक्ति ईनाम ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
ऐसे कैसे हैं ।
गुरु जी हार जाते, माँ के जैसे हैं ।
कर सकने, ये मन प्रांजल ।
दृग्-जल… मैं भेंटूॅं चन्दन ।
कर सकने, ये मन निरंजन ।
कर सकने, ये मन बालक-वत् ।
अक्षत…मैं भेंटूॅं गुल ।
कर सकने, ये मन निराकुल ।
कर सकने, ये मनवा काबू ।
चरु…मैं भेंटूॅं दीपिका ।
कर सकने, ये मन सीप-सखा ।
कर सकने, ये मन वशीभूत ।
धूप…मैं भेंटूॅं श्री फल ।
कर सकने, ये मन अविचल ।
कर सकने, ये मन सजग,
मैं भेंटूॅं अरघ ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
न मिली, छानी गली-गली ।
तुझ सी दरियादिली ।
मुझे, न छोड़ देना भँवर में ।
आया दृग् तर-बतर मैं ।
आया गंध ले कर मैं ।
लाया धाँ थाल भर मैं ।
लाया पुष्प ‘द्यु-तरु’ मैं ।
लाया सरस चरु मैं ।
लाया दीप घी-गिर मैं ।
लाया ‘सुंगध-अर’ मैं ।
आया लेके श्री फल मैं ।
लाया अर्घ ‘सा-दर’ मैं ।
मुझे, न छोड़ देना भँवर में ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
अपने रंग में रंगा लो ।
‘जि गुरु जी अपना लो ।।
बूरे-बुरे, सो आपके,
लो अपना,
लिये दृग् जल खड़े ।
बुरे-भले, सो आपके ।
साँचे-झूठे, सो आपके ।
खिले-गिरे, सो आपके ।
कारे भूरे, सो आपके ।
खाली-भरे, सो आपके ।
जले-हरे, सो आपके ।
पुरा-नये, सो आपके ।
आम-निरे, सो आपके ।
लो अपना, लिये जल-फल खड़े ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
दे गुरु-जी दो पनाह ।
नहीं एक, अनेक राह ।
भेंटूँ उदक नैन ।
आऊँ ‘कि पाँत, तिलक-जैन ।
आऊँ ‘कि पाँत, भंजन-हट ।
चन्दन घट…भेंटूँ अक्षत धान ।
आऊँ ‘कि पाँत, अक्षत-थान ।
आऊँ ‘कि पाँत, सुमन-धुन ।
सुमन चुन…भेंटूँ अमृत अन ।
आऊँ ‘कि पाँत, गत-अंजन ।
आऊँ ‘कि पाँत, अद्भुत-मोति ।
अमिट ज्योति…भेंटूँ अनूप धूप ।
आऊँ ‘कि पाँत, डूब-चिद्रूप ।
आऊँ ‘कि पाँत, हंस-मराल ।
श्रीफल थाल…भेंटूँ अनर्घ अर्घ ।।
आऊँ ‘कि पाँत, स्वर्ग-पवर्ग ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
ले लो शरण अपनी ।
‘के दुनिया अटवी-घनी ।
पूजा स्वप्न की मानते कहाँ ।
पूजा ‘घर’ की मानते कहाँ ।
पूजा रात की मानते कहाँ ।
पूजा जल्दी की मानते कहाँ ।
पूजा छोटी-सी मानते कहाँ ।
पूजा कराई मानते कहाँ ।
पूजा सराही मानते कहाँ ।
पूजा रस्ते की मानते कहाँ ।
पूजा भाव ‘जी मानते कहाँ ।
जल-फल लाया इसलिए पुनः ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
है दमदार बात ।
‘गुरु पास’ न दाम की बात ।।
पाने सम्यक् दरश ।
जल से भर लाये कलश ।
लिये हाथों में मलय-रस ।
लाये अक्षत अक्षर जश ।
लिये कमल दल सहस ।
लाये व्यजन मिश्री षट्-रस ।
लाये दीपक न तले तमस् ।
लिये इतर सुगंध दश ।
लिये श्री फल छल विहँस ।
पाने सम्यक् दरश ।
लाये दरब अर्ध-षोडश ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
गुरु कुम्हार ! दें चोट ।
तो न भूले लगाना ओट ।
चढ़ाऊँ नैन नीर ।
आऊँ ‘कि पाँत चीरन चीर ।
आऊँ ‘कि पाँत निरतिचारी ।
चढ़ाऊँ गंध झारी ।
चढ़ाऊँ शालि-धान ।
आऊँ ‘कि पाँत दृढ़ श्रद्धान ।
आऊँ ‘कि पाँत ठाकुर शिव ।
चढ़ाऊँ गुल दिव ।
चढ़ाऊँ चरु घृत ।
आऊँ ‘कि पाँत भोजी अमृत ।
आऊँ ‘कि पाँत धिया मराल ।
चढ़ाऊँ दीप माल ।
चढ़ाऊँ दश गंध ।
आऊँ ‘कि पाँत सहजानंद ।
आऊँ ‘कि पाँत ज्ञान-केवल ।
चढ़ाऊँ भेले फल ।
चढ़ाऊँ अष्ट द्रव्य ।
आऊँ कि पाँत निकट भव्य ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
गुल तलक शाम ।
गुरु मुस्कान लें आठों याम ।।
भेंटूँ उदक ।
कर सकने, शिव-शव फरक ।
कर सकने, अपना अनुभवन ।
भेंटूँ चन्दन ।
भेंटूँ धाँ शाली ।
कर सकने, धिया-हंसी-मराली ।।
कर सकने, मान-गुमान गुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ नेवज ।
कर सकने, परिणाम सहज ।
कर सकने, दूर नाक ऐनक ।
भेंटूँ दीपक ।
भेंटूँ सुगंध ।
कर सकने, दो टूक कर्म-बंध ।
कर सकने, पर्दाफाश गहल ।
भेंटूँ श्री फल ।
भेंटूँ अरघ ।
कर सकने, ‘कर’ शिव सुरग ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
फीका पारस पत्थर ।
स्वयं-सा जो लें आप कर ।।
आये कलश लिये जल ।
अटकल…सुलझे ‘कि उलझन ।
आये कलश ले चन्दन ।
आये परात ले अक्षत ।
व्यूह-विपत्…सुलझे ‘कि प्रश्न-मन ।
आये परात ले सुमन ।
आये परात ले व्यज्जन ।
अड़चन…सुलझे ‘कि अनबन ।
आये प्रदीव ले रतन ।
आये धूप ले अनुपम ।
गुत्थी गम…सुलझे ‘कि पहेली कल ।
आये थाल ले श्री फल ।
आये थाल ले अरघ ।
सुलझे ‘कि मनवा मृग ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
गुरु जी से न पड़े कहना ।
कक्षा दूजी पढ़े ‘ना’ ।।
लाया कलशी जल ।
लो बना निर्मल,
‘जी श्यामल लो बना उजला ।
लाया चन्दन घुला ।
लाया धाँ सुगंध और ।
लो बना गौर,
‘जी श्यामल, लो बना शुक्ला ।
लाया द्यु-सुमन खिला ।
लाया घृत नैवेद ।
लो बना सुफेद,
‘जी श्यामल, लो बना दूधिया ।
लाया गो-घी का दिया ।
लाया धूप संस्कृत ।
लो बना सित,
‘जी श्यामल, लो बना उज्ज्वल ।
लाया संग श्री फल ।
लाया अर्घ नवल ।
‘जी श्यामल, लो बना धवल ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
थी अंधेरी ।
आ…जिन्दगी आपने की रोशन मेरी ।।
मैं चढ़ाऊँ चरणन तेरे ।
महावीर ! दृग्-नीर ।
निरंजन ! चन्दन ।
अविकारी ! धाँ शाली ।
मंशा-पून ! प्रसून ।
कृपा-निधाँ ! पकवाँ ।
आशुतोष ! संज्योत ।
सिद्ध मन्त्र ! सुगंध ।
अविकल ! श्री फल ।
कलि-‘रघ’ अरघ ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
सुना, तुम्हें भौ पार लगाना भाये ।
शरण आये ।।
लाया भेंट में, दृग्-जल यह ।
पाने नई सुबह ।
दो उड़ा पतंग म्हारी ।
अपना लो गंध झारी ।
स्वीकार थाल धाँ न्यारे ।
डाल झोली दो चाँद-तारे ।
न अकेले ही अश्रु भी आये ।
भेंटने प्रसूँ लाये ।
चरु लाया ।
न अकेले आया, गला भी भर आया ।
कुछ और करीब आने ।
लाये प्रदीव चढ़ाने ।
भेंटूॅं सुगंध ख्यात ।
लग चाले ‘कि जन्नत हाथ ।
पाने आपकी प्रीत ।
श्री फल लाये, आये विनीत ।
भेंटूॅं अर्घ, ‘जि छोटे बाबा जी ।
चिर-स्वप्न बा बाजी ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
फीकी ‘काम गो’ आपके आगे ।
देती न बिना माँगे ।
लिये दृग् जल करूँ वन्दना ।
पाये ‘कि छू बन्ध ना ।
पाये ‘कि छू द्वन्द ना ।
पाये ‘कि छू रंज ना ।
पाये ‘कि छू ग्रंथ ना ।
पाये ‘कि छू दम्भ ना ।
पाये ‘कि छू तन्द्र ना ।
पाये ‘कि छू विघ्न ना ।
पाये ‘कि छू दर्प ना ।
लिये जल-फल करूँ वन्दना ।
पाये ‘कि छू छल-छिद्र ना ।।अर्घ्यं।।
(२३)
छुये चैन, चित् बेचैन ।
गुरु मीठे सुन दो वैन ।।
भेंटूँ जल दृग् ।
न उठाऊँ कॉलर, पानी पे लिख ।
न मचाऊँ पुन: ‘ कि रुदन-वन ।
भेंटूँ चन्दन ।
धाँ भेंटूँ ।
पीस के रात-रात ‘कि न पारे समेटूँ ।
न रक्खे जाऊँ अंक पहले शून ।
भेंटूँ प्रसून ।
भिटाऊॅं चरू ।
मुट्ठी मुटकी न निकालता फिरूँ ।
सीप मैं, पल-स्वाती, न अलसाऊँ ।
दीप चढ़ाऊँ ।
भेंटूँ सुगंध ।
हवा कपूर न जोड़ दूँ संबंध ।
न निकल चलें पल, मथते जल ।
भेंटूँ फल ।
भेंटूँ अरघ ।
न हो कोल्हू बैल सा नापना जग ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
गुरु की पाई क्या छाया ।
आपो-आप बिलाई माया ।।
दृग्-जल लाये ।
आये, गहल वानरी ‘कि बिलाये ।
आये, ‘कि शश गहल बिलाये ।
चन्दन लाये ।
अक्षत लाये ।
आये, ‘कि मृग-गफलत बिलाये ।
आये, ‘कि भूल-सारमेय बिलाये ।
फूल लाये ।
घी-पकवां लाये ।
आये, ‘कि ध्यान बक सा बिलाये ।
आये, ‘कि धिया मंथरा सी बिलावे ।
दिया लाये ।
धूप लाये ।
आये, ‘कि कूप-मण्डूक धी बिलाये ।
आये, गहल-नाहरी ‘कि बिलाये ।
श्री फल लाये ।
ये अरघ लाये ।
आये, गहल-उरग ‘कि बिलाये ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
हाँ…शिव-गाँव भी है ।
गुरु-छाँव में, क्या, क्या नहीं है ।।
क्षेपते जल-धार ।
हुये सँजोंये स्वप्न साकार ।
‘कि सँजोंये स्वप्न छुये खम् ।
भेंट चन्दन, दृग्-नम ।
भेंटते ‘कि धाँ परात ।
लागे स्वप्न सँजोंये हाथ ।
‘कि सँजोंये स्वप्न पास ही बिलकुल ।
भेंटू गुल ।
भेंटते चरु घी ।
‘कि सँजोंये स्वप्न, संपूर्ण सभी ।
सँजोंये स्वप्न, हुये करीब ।
भेंटते घृत-दीव ।
भेंटूँ सुगंध-घट ।
सँजोंये स्वप्न ‘कि हकीकत ।
सँजोंये स्वप्न पाये बल ।
भेंटते ही ऋत-फल ।
भेंटते अर्घ सम्पूर्ण ।
सँजोंये स्वप्न आज पूर्ण ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
त्राहि माम् करे नाक में दम म्हारी,
ये धारी-मारी ।
आये, दृग् जल लाये चढ़ाने ।
भौ-सिन्धु तीर पाने ।
गवाने न्याय-काने ।
जमाने ताने-बाने ।
अत्त पे अत्त ढ़ाने ।
‘औ’ न चुगली खाने ।
राज हंसों में आने ।
तराने आत्म-गाने ।
सारे जहाँ में छाने ।
जी खुल्लापन लाने ।
आये, जल-फल लाये चढ़ाने ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
गुरु बोलते तब,
‘के खामोश हो चालते सब
अहो ! अन्तर्यामी ।
आये शरणा स्वामी ।
ले झारी नीर, मेंटिये पीर ।
ले झारी गंध, मेंटिये बंध ।
ले शाली धान, रखिये ध्यान ।
ले पुष्प माल, होने निहाल ।
ले चरु-नेक, रिझाने एक ।
ले घृत-ज्योती, बिठाने गोटी ।
ले धूप घट, पाने सुलट ।
ले मृदु-फल, खोने गहल ।
ले अर्घ परात, बनाने बात ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
आईजो मेरे भगवन् ।
पधारिजो मंदिर-मन ।।
दे दीजे दुआ संबल ।
सागर पा जाये ‘कि जल ।
लीजे बोल दो बोल ।
हो अमोल ‘कि चन्दन घोल ।
दे दीजे एक मुस्कान ।
हों निहाल ‘कि शालि-धान ।
ले लीजे आप शरण ।
नाम सार्थ-पाये सुमन ।
दे दीजे पाँव-रज ।
छाये सुर्ख़िंयों में ‘कि नेवज ।
दे दीजें एक झलक ।
हो दीपक और बनक ।
डाल दो एक नजर
जाये तर, धूप-इतर ।
अपना चेला लीजे बना ।
भेला ‘कि छुये गगना ।
बढ़ा लो डग इसी ओर ।
अरघ हो शिर-मौर ।।अर्घ्यं।।
=जयमाला=
क्या तुझे मिल सका है
अय ! चाँद
चाँद तुझसे भी शीतल
मुझे मिल चला है
तिल भर भी दाग जिसमें नहीं
शान्त सर-मानस विरला है
है उठता कभी झाग जिसमें नहीं
माथ गिर उदय भान निकला है
तिल तुस भी आग जिसमें नहीं
तिल भर भी दाग जिसमें नहीं
शान्त सर-मानस विरला है
है उठता कभी झाग जिसमें नहीं
अंग अंग चन्दन श्रृंखला है
लिपटे पै नाग जिसमें नहीं
तिल भर भी दाग जिसमें नहीं
शान्त सर-मानस विरला है
है उठता कभी झाग जिसमें नहीं
हाई-को ?
है कोहनूर का मोल ।
पै मुस्काने-गुरु अमोल ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
*दोहा*
आओ करते आरती,
ले दीपों की थाल ।
स्वर्ग मोक्ष रथ सारथी,
गुरुवर दीन दयाल ।।१।।
तरुतल ठाड़े आन के,
बादल बिजुरी देख ।
सन्त दिवाकर ज्ञान के,
जिन शासन अभिलेख ।।२।।
शिशिर तुसारी रातरी
गुजर चली चौराह ।
पाणि-पातरी यातरी,
मुनिवर शाहन शाह ।।३।।
चढ़ पर्वत ग्रीषम समै,
खड़े सामने सूर ।
चरण शरण तिनके हमें,
कलि जग मंशा पूर ।।४।।
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