वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
तेरे चरणों की धूल मैं ।
हो खुश्बू तुम, फूल मैं ।
रख लिया जिन्होंने
सपने नजर में
अपने-जिगर में
गुरुवर तुम्हें
उनके क्या कहने ?
करे इन्तजार सुकून वहाँ
पा रहे बेशुमार वे सुकून यहाँ
दोनों जहाँ के है वे गहने ।
अंक है, वे महामना अकेले ही संपून है ।
रंक है, उनके बिना अलबेले भी शून है ।
लगते हर दिल में वे रहने ।
देखती मंजिले, राहें उनकी ।
रहम बरसे, उठते ही निगाहें उनकी ।
अपनों से हार, हार वे पहने ।
उनके क्या कहने ।।स्थापना।।
लौं जाते-से दीव बुझे ।
तले-अंधेरे दीव-मुझे ।
कर कुछ और करीब मुझे ।
चरणों में रख लो अपने ।
अपनों में रख लो अपने ।
सपने दे दीदार मुझे ।
कर भी दो निहाल मुझे ।
मेरे नाम से पुकार मुझे ।
एक मर्तबा निहार मुझे ।
कर भी दो निहाल मुझे ।।जलं।।
कोई लम्बी सी नहीं
दे जरा सी ही सही
इक मुस्कान दो
बस इतना सा कर एहसान दो
मेरे भगवान ओ !
न और सपना
न करना मना
मैं हूँ छोटा सा भक्त तेरा
मैं चाहता हूँ थोड़ा सा वक्त तेरा
न करना मना
रो पडूॅंगा वरना
मुरझाये गुल में
इस मुये दिल में
फूक नई जान दो
बस इतना सा कर एहसान दो
मेरे भगवान ओ !
लो अपना बना ।।चन्दनं।।
रब-सी, सब-की मदद इतनी
करता क्यूँ है
दे बता,
ए मेरे मन के देवता,
ले आँसू और के आँख अपनी
भरता क्यूँ है
दे खुशियों का आना
छप्पर फाड़ कर खुशी से
जा घर-द्वार हर किसी के
गम निकाल जिन्दगी से
नज़राना,
दे दुआओं का आना
सिवा तेरे
अय ! शिव मेरे,
न किसी और ने जाना
सब की खबर इतनी
रब-सी सबकी फिकर इतनी
करता क्यूँ है ।।अक्षतं।।
नारियल हाथों का अपने
लिये इसलिये आँखों में सपने
घूम फिर के सब दूर
ए ! आसमानी नूर
गगन जैन सूर !
घूम फिर के सब दूर
तेरे दरबार में
आया हूँ इस बार मैं
आसमां ने
दो जहां ने
परमात्मा ने,
मेरी माँ ने,
बताया मुझको
आँसु पोंछना
औरों के बारे में सोचना
है आया तुझको
दर्द सोखना
देते-देते हाथ न सकोचना
है आया तुझको ।
गाँठ बिन जोड़ना
ले बलाएँ तिनके तोड़ना,
है आया तुझको ।।पुष्पं।।
जिन्हें गुरुकुल मिल गया
उनकी जिन्दगी में
सुकुने गुल खिल गया
हल्के वे हो गये
सपने कल थे
अपने वे हो गये
‘हल-के’ वे हो गये
निस्तरंग ज़ल जैसे
जल में कमल जैसे
रहने लगे वे
उजले आईने से
दिखने लगे वे
फूले न समाएँ खुशी में
उनकी जिन्दगी में
सुकुने गुल खिल गया
जिन्हें गुरुकुल मिल गया
निष्फिकर हो गये
जब से गुरुवर हम सफर हो गये
वे निष्फिकर हो गये ।।नैवेद्यं।।
लिया करो न कुछ दिया करो
नजर उठा लिया करो
चरण छुवा लिया करो
पढ़ स्वस्ति दिया करो
बस जर्रा मुस्करा दिया करो
लिया करो न कुछ दिया करो
अय ! मेरे गुरुवर
पल भर
बोल ही लिया करो तुम मुझसे,
मैं आता हूँ बड़ी दूर से
चलकर,
पल भर ।।दीपं।।
मुस्कान तुम्हारी
वाणि निशि तम हारी
छाँव छतर निराली
इक नजर तुम्हारी
हुई अभी है कहाँ हमारी
पूरी तरह
अय ! शरण बेवजह
तुम भले कहो
उठो
चलो उठो
तुम भले कहो
पै ऐसे कैसे उठे
अभी तो हम आये हैं
नैन भर के तुम्हें
देख भी न पाये हैं
भगवन् मेरे अहो
तुम भले कहो
उठो
चलो उठो
तुम भले कहो ।।धूपं।।
खुशियों से हुई सगाई
एक मुस्कान क्या पाई
रीझे रुठे ताले
ए ! पीछी वाले
तेरी पड़ते ही परछाई
रोगों की हुई विदाई
बाल-वैद्य निराले
ए ! पीछी वाले
तुमने नजर क्या उठाई
जहाँ में रोशनी छाई
छटे बादल काले
ए ! पीछी वाले
वंशी प्रेम क्या बजाई
सारी दुनिया भागी आई
तेरे पीछे
अंखिंयाँ मीचे
जग अंधेरा, ए ! उजाले
हरने वाले दिल के छाले ।।फलं।।
छू आसमाँ रहा हूँ
आज मैं जहाँ हूँ
सब तेरी है जादूगरी
मैंने पकड़ी
तेरी छिगरी
जब से
तब से
उड़ी पतंग मेरी
सब तेरी, है जादूगरी
छत्र-छाया
नीचे आया
जब से,
तब से
सबरी जिन्दगी मेरी,
सब तेरी, है जादूगरी,
रक्खा मैंने
तुम्हें मन में
जब से,
तब से
तरी पन्डुबी मेरी,
सब तेरी, है जादूगरी ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
सुन बलाएँ आप टारते ।
आये, ‘जि पुकारते ।
‘नागिन’ तारे ।
दृग् जल लिये हम भी खड़े द्वारे ।
लाये हम भी चन्दन घिस ।
जश चन्दन दिश्-दिश् ।
सिंहासन की शूल ।
मैं भी लाया धाँ शालि अमूल ।
दिव्य पुष्प लिये मैं भी द्वारे आया ।
चीर बढ़ाया ।
मेंढक देव विमान ।
लाये हम भी पकवान ।
लिये ‘दीये’ मैं भी आया द्वार ।
किया नागों का हार ।
पाँव लगे कि खुले पट ।
खेऊं मैं भी धूप घट |।
अंगारे बन चले जल ।
मैं भी लाया श्री फल ।
काग’ज पन्ने ।
अरघ लाया मैं भी अघ हनने ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
दे ‘हर-बच्चे-चेहरे’ दें मुस्कान ।
गुरु भगवान् ।।
स्वीकार पीले धाँ ।
ओ ! माहन्त महात्मा ।
दो ‘नन्त-रमा’ ।
हो ‘ही’ खातमा ।
ओ ! भावी परमात्मा ।
ओ ! मूरत दया क्षमा ! ।
दो दिखा आत्मा ।
दो रंग जमा ।
ओ ! सूर्य जैन आस्माँ ।
ओ ! जोड़ पुण्य जमा ! ।
दो गुमाँ गुमा ।
दो हटा अज्ञान अमा ।
ओ ! ‘पूर्ण-माँ’,
ओ ! रहनुमा ।
भाग्य दो चमचमा ।
दो जीत थमा ।
ओ ! परीत उपमा ।
ओ ! रट ओम् नमः ।
दो छुवा आसमाँ ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
छिड़कें भक्तों पे जान ।
‘गुरु’ रुठें तो जायें मान ।
लाये दृग् जल संग ।
आत्मबल के रंग दो रंग ।
सु-मरण के, समकित के रंग दो रंग
लाये चन्दन, अक्षत संग ।
मरहम के निरंजन के रंग दो रंग ।
लाये कुसुम, व्यंजन संगसंग ।
‘आई-अख’ के ढ़ाई-अक्षर के रंग दो रंग ।
लाये दीपक, अगर संग ।
मिश्री फल के, धी सजग के रंग दो रंग ।
लाये श्रीफल, अरघ संग ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
किया बाँसुरी, बाँस ।
हूॅं मैं भी खड़ा पांवन पास ।
गुल फल ।
स्वीकार दृग् जल ।
दो थमा दौड़ ।
ओ सन्त शिर-मौर ।
ओ ! निर्ग्रन्थ बेजोड़ ।
दो लगा छोर ।
दो थमा ध्यां गौर ।
ओ ! समन्त-भद्रौर ।
ओ ! सन्त गणन-पोर ।
लो थाम डोर ।
त्राहि माम् ! होड़ ।
ओ ! भदन्त चित् चोर ।
ओ ! ‘नन्त-सिन्धु’ छोर,
दो ‘नन्त’ जोड़ ।
दो मिंटा शोर ।
ओ ! पन्थ भुक्ति दोर ।
ओ ! पन्थ मुक्ति दोर ।
दो भिंटा भोर ।
लो कर विभोर ।
ओ ! माहन्त और ।
दृग् जल
स्वीकार गुल फल ।।अर्घं।।
(५)
हाई-को ?
भिजाये बिना, ‘भक्त आसमां’ ।
गुरु को चैन कहाँ ।
अपने सा बना लो
गुण क्रेता ।
ऊर्ध्व रेता ।
मन विजेता ।
अक्ष जेता ।
स्व-अध्येता ।
‘भी’ प्रणेता ।
‘जी’ निकेता ।
दया-केता ।
शिव नेता ।
दृग् जल अपना लो ।।अर्घं।।
(६)
हाई-को ?
बना बिगड़ी ।
आपने की मुझपे करुणा बड़ी ।।
आया ले दृग् जल मैं ।
पाद-मूल में, रख लो हमें ।
चरणन में, रख लो हमें ।
आया ले चन्दन मैं ।
आया ले तण्डुल मैं ।
गुरु-कुल में, रख लो हमें ।
रिश्ते-खून में, रख लो हमें ।
आया ले प्रसून मैं ।
आया ले चरु घी मैं ।
सती-सुधी मैं, रख लो हमें ।
कृपा गोद में, रख लो हमें ।
आया ले संज्योत मैं ।
आया ले अगर मैं ।
‘के नजर में, रख लो हमें ।
ओट आंचल में, रख लो हमें ।
आया ले श्रीफल मैं ।
आया ले अरघ मैं ।
अपने खेमे में, रख लो हमें ।।अर्घं।।
(७)
हाई-को ?
आये सूरज किरण ।
छूने आप रज-चरण ।।
हम कोर दृग् भिंजो जल चढ़ायें ।
‘के हाथी आदि, गहल बिलायें ।
पाप बंधन ‘के विनश जायें ।
हम घोर सुगन्ध रस चढ़ायें ।
हम परोर धाँन शाली चढ़ायें ।
बेतालीं ‘के कालीं शक्तियाँ बिलायें ।
‘के शिकवे गिले बिलायें ।
हम बेजोड़ पुष्प खिले-खुले चढ़ायें ।
हम बोर गाय गिर घी में भोग चढ़ायें ।
‘के क्षुधाआदि रोग बिलायें ।
सभी के सभी ‘के मद आठों ही बिलायें ।
हम अमोल रत्न दिया घृत चढ़ायें ।
हम कुछ न्योर दश-गंध धूप चढ़ायें ।
हा ! हहा ! ‘के बहुरूप बिलायें ।
‘के अमिट माथे की सल बिलायें ।
हम जोड़ हाथ अपने श्रीफल चढ़ायें ।
हद तोड़ हम साथ द्रव्य एक सात चढ़ायें ।
हाथ हाथ ‘के दुश्वारीं पाँत बिलायें ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
मैं थाती सन्तों की ।
ये गुनगुनाये शब्द सन्तोषी ।।
आये दृग् सजल ।
लाये द्रव सकल पाँवन ।
गन्धोदक पाने आँगन ।
कर पाने आप सा मन ।
मनाने भांति तुम सावन ।
लगाने किनार इक मदन ।
मिटाने चिर क्षुधा वेदन ।
विनशाने धी श्री वाहन ।
छू पाने आनन्द गगन ।
रिझाने द्यु-शिव राधन ।
आने पंक्त-भक्त माहन ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
पास श्री गुरु के-बल ।
‘लेख विधि’ फेर-बदल ।।
देते आवाज सवाली ।
झोली भर दो खाली ।
मनाऊॅं अब‘के दिवाली ।
पाऊँ पदवी दिव न्यारी ।
मारूँ मन तरंग कारी ।
मिटे जड़ क्षुध् बीमारी ।
चुनर होवे सितारी ।
कालिमा खोवे सारी ।
ब्याहने मुक्ति नारी ।
आपनो विरद निहारी ।
दरब लो अपना म्हारी ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
आप का निरा…कुल है ।।
और कौन निराकुल है ।
फल, द्वन्द चाहा न जिन्होंने ।
भेंटूँ जल-गंध उन्हीं सा होने ।
भेंटूँ सुधाँ-पुष्प उन्हीं सा होने ।
दुध्याँ, रस चाहा न जिन्होंने ।
‘जि तू, बुरा चाहा न जिन्होंने,
भेंटूँ चरु, दिया उन्हीं सा होने ।
भेंटूँ धूप, फल उन्हीं सा होने ।
‘रे कुप्, छल चाहा न जिन्होंने ।
वाह ! गरब चाहा न जिन्होंने,
भेंटूँ अरघ उन्हीं सा होने ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
झाँकें बगलें ।
‘बदमाशियाँ’ देख गुरु भग-लें ।
सौधर्म वाला उदक न मिला ।
चन्दन ‘वाला’ चन्दन न मिला ।
हरेक दाना अक्षत न मिला ।
मेंढक वाला सुमन न मिला ।
मीरा सा स्वर-व्यंजन न मिला ।
गो-घृत वाला दीपक न मिला ।
निराला घट सुगंध न मिला ।
दक्षिण वाला श्री फल न मिला ।
सोने सुहाग अरघ न मिला ।
लो यही अपना, न और सपना ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
पा गये रंग तितली-‘पर’ ।
श्याम ! हम भ्रमर ।
दो दया की कर बरसा ।
जल निर्मल कंचन सा ।
लाया चन्दन ‘चंदन’-सा ।
कण-कण धाँ मोती जैसा ।
मैं लाया पुष्प मेंढ़क सा ।
चरु मिश्रित ये षट् रसा ।
दीप विहर तम निशा ।
धूप महके दिशा दिशा ।
मैं लाया फल शबरी सा ।
अर्घ अनर्घ ‘आप’ जैसा ।
दो दया की कर बरसा ।।अर्घं।।
(१३)
हाई-को ?
जितने बौर-आम ।
तुम्हें उतने बार प्रणाम ।।
दृग् जल लाये ।
दृग् जल सा हितौर बहने आये ।
चन्दन सा शीतल बनने आये ।
चन्दन, अक्षत लाये ।
अक्षत सा अब न जन्मने आये ।
पुष्प सा बीच काँटे रहना आये ।
पुष्प, व्यंजन लाये ।
‘कि व्यंजन सा मन हरना आये ।
‘कि दीप सा पर-हित जलना आये ।
दीप, धूप लाये ।
‘कि धूप सा महकते मिटना आये ।
श्री फल सा हाथों को करना आये ।
श्री फल, अर्घ लाये ।
‘कि अर्घ सा मिल-जुलके रहना आये ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
श्री ऋषि ‘केश’ छोड़ ।
होती न कहीं वक्रता और ।
लाये कंचन नीर ।
अबकी चीर सकने चीर ।
कमाने भाँत चन्दन जश ।
लाये चन्दन रस ।
लाये अक्षत दाने ।
पदवी शिव शाश्वत पाने ।
वासना, वास…ना कह पाने ।
लाये पुष्प सुहाने ।
लाये नैवेद्य घी का ।
होने सहज आप सरीखा ।
कर करने रत्न-करण्ड ।
लाये ज्योत अखण्ड ।
लाये और सुगन्ध ।
हो छूमन्तर, ‘के अन्तर्द्वन्द ।
कर्म बन्धन करने ढ़ीले ।
लाये श्रीफल रसीले ।
लाये द्रव्य समस्त ।
और रहने न अस्त-व्यस्त ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
हंस से मोती चुनना ।
श्री ‘गुरु को है आता’ सुन’ना ।।
फूटे सुगन्धी वो नीर लाये ।
होने गंभीर आये ।
सोने सुगंध आये ।
फूटे सुगंधी वो गंध लाये,
फूटे सुगन्धी वो धान लाये,
पाने मुस्कान आये ।
फूटे सुगन्धी वो गुल लाये,
होने मंजुल आये ।
फूटे सुगन्धी वो चरु लाये,
खोने गुरूर आये ।
फूटे सुगन्धी घी दीप लाये,
आने समीप आये ।
फूटे सुगन्धी वो धूप लाये,
होने अनूप आये ।
फूटे सुगन्धी वो फल लाये,
खोने गहल आये ।
फूटे सुगन्धी वो अर्घ लाये,
होने अनर्घ आये ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
यूँ ही न आये भागा जग ।
हो तुम कुछ अलग ।
जल-गंध लाये हैं, स्वीकार लो ।
मुस्कुरा-एक बार दो ।
दृग् उठा एक बार दो ।
सुधाँ, पुष्प लाये हैं, स्वीकार लो ।
चित् बिठा एक बार लो ।
उतार पाप भार दो ।
चरु दीप लाये हैं, स्वीकार लो ।
कर लो ‘मैंनेु’ बात दो ।
सर पे रख हाथ दो ।
धूप फल लाये हैं, स्वीकार तो ।
सितारे झोली डाल दो ।
रिझा द्यु-शिव-नार दो ।
अर्घ्य लाये हैं, स्वीकार लो ।
उतार दूजे पार दो ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
सिवाय थारे ।
रहा न अब कुछ भी, पास म्हारे ।
भेंटूँ जल, ए ! एक सहारे,
कष्ट मेंटो हमारे ।
पाप मेंटो हमारे ।
भेंटूँ चन्दन ए ! पुण्य-द्वारे ।
भेंटूँ धान, भो ! भौ-जल किनारे ।
दुर्ध्यान मेंटो हमारे ।
दोष मेंटो हमारे ।
भेंटूँ पुष्प ए ! तारण-हारे ।
भेंटूँ नैवेद्य ए ! सूर्य न्यारे ।
रोग मेंटो हमारे ।
अंधेरे मेंटो हमारे ।
भेंटूँ दीप, ‘भी’ ध्रुव तारे ! ।
भेंटूँ धूप ए ! नूप-नजारे ।
कर्म मेंटो हमारे ।
दुक्ख मेंटो हमारे ।
भेंटूँ फल ए ! सौख्य पिटारे ।
भेंटूँ अर्घ ए ! भगवन् म्हारे ।
अघ मेंटो हमारे ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
तुम्हारा भाता साथ ।
तुम करो या ना करो बात ।
अय ! मेरे आराध्य परम ।
रहे कुछ ऐसा तेरा रहमो-करम
धन्य कर सकूँ जनम ।
‘के गुम कर सकूँ गम ।
मैं पा सकूँ दृग्-नम ।
‘के तोड़ सकूॅं जड़ भरम ।
रख सकूँ आंख धरम ।
‘के ले सकूॅं टक्कर यम ।
भगा सकूॅं मोहन तम ।
‘के बन सकूॅं मैं मर…हम ।
भेंटूँ द्रव्य राश दश दो कम ।
‘के पा सकूॅं शिव-शरम ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
आ हृदय में पधारो ।
‘आमंत्रण’ मेरा स्वीकारो ।
मेरे विधाता ।
सजल भेंटूँ नीर ।
तीर से,
अनन्त से, दो जोड़ नाता ।
गन्ध भेंटूँ शालि धान ।
सुद्-ध्यान से, कूल से दो जोड़ नाता ।
फुलवा भेंटूँ चरु ।
प्रभु से, पोत से दो जोड़ नाता ।
ज्योत भेंटूँ धूप ।
डूब से, हल से दो जोड़ नाता ।
फल, भेंटूँ अर्घ ।
स्वर्ग से, अपवर्ग से दो जोड़ नाता ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
गुरु जी तुम्हें ।
हद से गुज़र के चाहता हूँ मैं ।
धारें भिंटाईं ।
तुम्हें पढ़ना जो आँखें मेरी आईं ।
पढ़ना आया अच्छे से आँखें तुम्हें ।
भेंटूँ गंध तुम्हें ।
भेंटूँ धाँ ढेरीं ।
तुम्हें पढ़ना जो आईं आँखें मेरीं ।
आँखें जो खूब पढ़ लेते हो तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ नेवज ।
तुम्हें आया जो पढ़ना दृग् सहज ।
पढ़ लिया जो तुमने ‘अख’ लिखा ।
भेंटूँ दीपिका ।
भेंटूँ सुगंधी ।
तुमने आँखें जो हमारीं पढ़ लीं ।
दृग् पढ़ना जो तुम्हें बड़ा सरल ।
भेंटूँ श्री फल ।
अरघ भेंटूँ ।
पुण्य आप सेवा ‘कि फिर समेटूँ ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
गुरुजी ! कलि-बिछे काँटे बहुत ही ।
ले लो गोदी ।
दो लगा किनारे ।
भेंटूॅं जल, ओ ! तारणहारे ।
भेंटूॅं गन्ध, ओ ! एक सहारे ।
भेंटूॅं शालि धान , ओ ! पालन हारे ।
भेंटूॅं पुष्प, ओ ! भाग-पिटारे ।
भेंटूॅं चरु, ओ ! तीरथ सारे ।
भेंटूॅं दीप, ओ ! भगवन् म्हारे ।
भेंटूॅं धूप, ओ ! सौम्य अहा ‘रे ।
भेंटूॅं फल, ओ ! सौख्य-सितारे ।
भेंटूॅं अर्घ्य, ओ ! दिव्य नजारे ।
डूबी पनडुबी, दो लगा किनारे ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
समझो थोड़ी ।
तेरे लिये ही मैंने दुनिया छोड़ी ।
ए दयालु ! ए कृपालु !
ले अपना तू ।
मैं जल, चन्दन भेंटूँ ।
दो भेंट खुश्बू ।
‘के न ले उबाल खूँ ।
भेंटूँ अक्षत, दिव-प्रसूँ ।
दो भेंट सुकूँ ।
‘के जुड़ा रहूँ भू ।
भेंटूँ चरु, थिर लौं अरु ।
होऊँ हूबहू ।
‘के हों कर्म धू-धू ।
भेंटूँ अगरु, ऋत फल तरु ।
दो धरा वसु ।
‘के दो पोंछ आँसू ।
मैं अर्घ्य भेंट करूॅं ।
ए दयालु ! ए कृपालु ! ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
खुद सरीखे, अनोखे ।
बाबा छोटे ! खुदा जमीं के ।
करुणा कीजो ।
आये, उदक लाये अपना लीजो ।
आये, चन्दन लाये, तनना छीजो ।
आये, धाँ लाये, काम अगना छीजो ।
आये, सुमन लाये, श्रमणा कीजो ।
आये, व्यञ्जन लाये, भखना छीजो ।
आये दीपक लाये, डिगना छीजो ।
आये, सुगंध लाये, भ्रमना छीजो ।
आये, श्रीफल लाये, मरणा छीजो ।
आये, अरघ लाये, शरणा लीजो ।
कृपया करुणा कीजो ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
साँच कहते ।
‘दिल में मेरे सिर्फ’ आप रहते ।
भेंटूँ दृग् जल तुम्हें ।
बाला चन्दन, भाव-भर मैं ।
ग्वाला कोण्डेश, भाव-भर मैं,
भेंटूँ चन्दन अक्षत तुम्हें ।
अधिप शत, भाव-भर मैं ।
अंकवाँ शून, भाव-भर मैं ।
भेंटूँ प्रसून, व्यञ्जन तुम्हें ।
सुधी अंजन, भाव-भर मैं ।
भक्त मेढ़क, भाव-भर मैं ।
भेंटूँ दीपक, सुगन्ध तुम्हें ।।दीपं।।
इन्द्र मानिन्द, भाव-भर मैं ।
नैन सजल, भाव-भर मैं ।
भेंटूँ श्रीफल, अरघ तुम्हें ।
हंस-सजग, भाव-भर मैं ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
सुनते, आप सुनते दुखड़ा ।
सो सम्मुख खड़ा ।
कण्टक जी विघटा दीजिए संकट ।
‘जल-घट’, भेंट में लाये, ‘गन्ध-घट’ ।
‘शाली धान’ भेंट में लाये, ‘पुष्प चुन’ ।
अज्ञान जी विघटा दीजिए ‘औ गुण’ ।
‘पकवान’ भेंट में लाये, ‘दीप घृत’ ।
धिक् ध्यान जी विघटा दीजिए पाप अनृत ।
‘धूप-घट’ भेंट में लाये ‘ऋतु-फल’ ।
धिक् हट, जी विघटा दीजिए छल बल ।
अर्घ ही न अर्पण ।
करूँ, अपना भी समर्पण ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
‘वाह’ गजब ! ।
था नया-नया, ‘दिया’ दे दिया सब ।
भींगे दृग्-द्वय ।
तुमने मुझे जो दे दिया समय ।
तुमने मुझे जो दे दी शरण ।
चन्दन भेंटूँ शालि धाँ ।
तुमने मुझे सेवा का मौका दिया ।
तुमने मुझे, जो दिया ‘नौ-जनम ।
कुसुम भेंटूँ नेवज ।
तुमने मुझे जो दी चरण रज ।
तुमने मुझे जो दिया गंधोदक ।
दीपक भेंटूँ सुगंधी ।
तुमने मुझे दी ये जो दूजी खुशी ।
तुमने मुझे दिये स्वर्णिम पल ।
श्री फल भेंटूँ अरघ ।
तुमने मुझे ये जो लिया समझ ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
तेरे नाम से जाने हमें जहां ।
दे दो ये वरदाँ ।
नीर, भेंटते हम ।
विघटे तम-मातम-गम ।
विघटे यम-जरा जनम ।
गन्ध भेंटते हम ।
सुधॉं भेंटते हम ।
आना-जाना हो जाये खतम ।
ढ़ाये और न ‘मार’ सितम ।
पुष्प भेंटते हम ।
चरु भेंटते हम ।
क्षुधा हो जाये सम पुष्प खम् ।
‘के मरहम, हो मरहम
दीप भेंटते हम ।
धूप भेंटते हम ।
विघटे भव भव भरम ।
पर-हित हो सके दृग् नम ।
फल भेंटते हम ।
अर्घ्य भेंटते हम ।
लगे कि हाथ ‘शिव-शरम’ ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
खोजती फिरें, नजरें जो किसी को ।
तो हो तुम्हीं वो ।
ले लो अपनी शरण ।
दृग् सजल मुझे भगवन् ।
लिपटें हैं नाग चन्दन ।
सिर्फ नाम अक्षत कण ।
साथ काँटों के हैं सुमन ।
अत्त ढाये है क्षुध्-वेदन ।
तले दीप तम सघन ।
धूप धूम्र भरे गगन ।
बस ऋत फल चमन ।
ले लो अपनी शरण ।।
लिये द्रव्य आया चरण ।।अर्घ्यं।।
*जयमाला*
हाई-को ?
था चाहता, हूँ चाहता ।
मैं चाहूँगा भी, तूम्हें यूँ ही ।
आप ने सिर, रख दिया जो,
हाथ सब कुछ हाथ आया ।
हाथ आया स्वर्ण तो आया,
सुहागा साथ लाया ॥
माँगते ही पूर्ण करता,
कल्प तरु मानस पिपासा ।
रत्न चिन्ता मणी सुनते,
पूर्ण करता मनभि-लाषा ॥
काम धेनू ! औषधी-अकसीर !
विद्या ! उपल-पारस ।
पलट देते पलक में,
किससे छुपा दुर्भाग्य पाँसा ॥
दे सभी ये रहे सब कुछ,
किन्तु बढ़के आप इनसे ।
आप ने निज सा बनाया,
समर्पण जिसने दिखाया ॥
स्वार्थ रञ्जित जगत मूसल,
पलटता निज दिख रहा है ।
कौन नहिं कर अनसुनी,
अन्तर् ध्वनि हा ! बिक रहा है ।
चल हवाएँ पश्चिमी,
कुछ रहीं यूँ , कर ओट भी तो ॥
दीप मानवता पलक भी,
हृदय किसके टिक रहा है ।
नखत नभ कलि काल,
केवल आप रत्न प्रदीप अद्भुत ॥
हृदय जिस बिन लोभ लालच,
हित प्रकृति का है समाया ।
है स्वयं मझधार में,
दुनिया सलंगर नाव खेती ।
खिसक बल घुटने रही,
ताना-कसी को हवा देती ॥
परिणति यह वानरी सी,
जल न आये नाक जब तक ।
शिशु धरे सिर उसे पैरों तले,
रख लख काल लेती ॥
खीचनें में टाँग जब इक,
दूसरे की यूँ लगे सब ।
पार करने दूसरों को,
आपने काँधे उठाया ।
।।जयमाला पूर्णार्घ्यं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।
कब दुठ से भी बोले तीखे ।
श्री गुरु ने राग द्वेष जीते ।
दृग् करुणा, क्षमा, दया तीते ।
गुरुदेव देवता धरती के ।।
ले चलें, पार दूसरे खेव ।
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।१।।
जग सिन्धु दूसरे खारे हैं ।
बिन कारण एक सहारे हैं ।।
परिणाम बाल वत् न्यारे हैं ।
गुरु भगवन् जगह उतारें हैं ।।
इन्हीं के दृग् बस जमुना रेव ।
ले चलें, पार दूसरे खेव ।
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।२।।
चलते फिरते तीरथ गुरुजी ।
दिश् दश विहरे कीरत गुरुजी ।।
मां ममता की मूरत गुरुजी ।
सहजो शिव सत् सुन्दर गुरुजी ।।
सुख निरा-कुल साधन स्वय-मेव ।
इन्हीं के दृग् बस जमुना रेव ।
ले चलें, पार दूसरे खेव ।
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।३।।
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