(१२१)
मुश्किल कहाँ
आज्ञा देना
बस जिह्वा के लिए उठा कर के
तलवे से मारना है
सुनो तो
लेकिन उठती हुई मन की तरंग मारना है
आज्ञा पालना
मुश्किल कहा
सच
आ…सान बड़ा
‘दे…ना’
आज्ञा पालना
मुश्किल जरा
(१२२)
रहती ततूरी
तब जरूरी छाया
हमारे सिर पर किसी की छाया है
तो इसका मतलब है
किसी ने अपने आपको
जरूर झुलसाया है
‘छाहरी कर चला,
‘वृक्ष’
धूप में झुलस चला’
माँ, महात्मा, परमात्मा का
कोई जबाब नहीं है
सच !
दरख्त मार वक्त खाते
खा धूप
छाया खिलाते
(१२३)
मन को अपने
झिड़की ही मत खिलाते रहना
दूध का धुला है कौन यहाँ ?
हम यदि पूछते हैं
‘कि कोई खोट बगैर दुनिया में चलता है
तो खुरबखुद कहता है सोना
बस अक्षर दूर दूर पढ़ने हैं
सो…ना
बहुत कुछ इग्नोर करना पड़ता है
तब रिसता रिश्ता जमता है
सच,
‘गुणों के बीच
एकाध दोष
तिल जैसा अजीज’
(१२४)
रे मन
क्या पागलपन है ये
‘के सभी चाहिये
और अभी अभी के चाहिये
वक्त, समय जिसे ‘काल’ भी कहते हैं
वह
खुदबखुद कह रहा है
आज नहीं काल मिलेगा
और
‘दे…खो…ना
झर चली
कर अंगुली
कली न खिली’
(१२५)
जुड़ने मंजिल से
न जोर जबरदस्ती
और न ही करते हुए मस्ती
बल्कि एक बार आ
आकर के करते हैं मेहनत दिल से
फुट फुट किये गड्डों ने नहीं
पानी एक ही जगह
फटाफट किये गड्डे ने दिया
सच
‘तैराक बना
बनूँ गोताखोर
सो दिखे अपूर्व’
(१२६)
यदि यह पूछा जाये
‘के इस और उस दुनिया के अन्दर
सबसे सुन्दर कौन है ?
तो और किसी के जवाब देने से पहले
शब्द सुन्दर खुद-ब-खुद ही बोल पड़ता है
‘के सुन…दरद मन्द जो है
वो इस दुनिया में सबसे सुन्दर है
सच
दरियादिली इस दुनिया में
किस दिल पर न करती जादू मन्तर है
(१२७)
हर सवाल का जबाब नहीं दिया जाता है
कभी कभी जवाब न देना भी
लाज़वाब रहता है
सुनते हैं जवाब देना
वक्त के लिये भी खूब ही नहीं
बखूबी आता है
चूंकि जिसने सबा…लात उठा ली
अब वो क्या क्या नहीं कर सकता है
उसे जवाब तो चाहिए ही नहीं है
सवाल पे सवाल खड़े करने है उसे तो
(१२८)
नहले पे दहला मारना किसे नहीं आता है
पर शब्द ही कह रहा है
दिल दहल जाता है सामने वाले का
पल पहले जो दोस्त था
वह अब व्यस्त हो चला
इक्के की तलाश में
वो भी ऐसे वैसे नहीं
तुरुप के इक्के की तलाश में
सही चोरी छुपके
सुनो तो,
नहले ही बने रहो ना
अय ! मेरे मन
आ नहलाते हैं प्रेम रूप जल से
अपने दोस्त के लिये
ताकि उसे याद बनी रहे हर क्षण
(१२९)
गुस्सा अंधकार, प्रेम रोशनी हैं
जहाँ प्रकाश होगा, वहाँ अँधेरा
आस-पास जगह न बना सकेगा
गुस्सा कह रहा है
प्रेम की किरणें अभी निकलने से रहीं
प्रेम का निर्झर सूखा पड़ा है अभी
तभी तो क्रोध की ज्वाला भभक रही है
ध्यान रखना जब जब उबलना हुआ है
जलने के बाद
बचने वाली राख भी हाथ न लगी
पानी उड़ चला है सारा
धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता
बचा है कुछ हाथ में तो बस अफ़सोस
(१३०)
अपनी मूँछ कटाकर
हम पूंछ के पीछे पड़े हैं आज
जाने कल तांव किसपे देंगे
अगर करने लगा कोई
हमसे तीन दो पांच
(१३१)
जब कभी
मेरा यह अपना मन
कुछ गंदा-संदा सोचता है
तो मैं ज़र्रा सा जोर देकर के
‘के मन के कानों तलक
मेरी आवाज पहुँच चले
यह मन्त्र जाप जपता हूॅं
‘के
Topic-change
Topic-change
Topic-change
और आ जाता है
अपने आपे में मेरा अपना मन
थैंक्स भगवन्
(१३२)
सुनो तो
छोटे-मोटे की बात नहीं कर रहा हूॅं
सार्थक नाम
गज…रे का धागा
गज मतलब हाथी
हां ! हां ! ऐसा गज…रे का धागा
गेंदे के फूलों से भरा जाता है
गुलाब तो बीच बीच में कहीं
एकाध लगाये जाते हैं
गुलाब रहने दीजिये ना औरों के लिए
आईये हम गेंदे बनकर के ही
खुशबू फैलायें
और भगवान् का काम आसान बनायें
(१३३)
घड़ी के
सैकण्ड और मिनिट का काँटा
नम्बर बारह से
पलक झपाते ही गुजर चला है
न कि नम्बर एक की तरफ
भागता आ रहा है
और घण्टे का काँटा
पल पहले जहाँ था
क्या वहीं है ?
नहीं,
हमें देखने में नहीं आ रहा है
लेकिन खिसकता है वह भी
मतलब सीधा सीधा है
जितनी तेजी से मुश्किल आ रही है
उतनी ही जल्दी जा रही है
छोटी-मोटी मुश्किलें सैकेण्ड के काँटे जैसी हैं
थोड़ी मोटी मुश्किलें मिनिट के काँटे जैसी हैं
ओ’री मोटी मुश्किलें घण्टे के काँटे जैसी हैं
बस जर्रा साहस रक्खो
टिक कोई नहीं रहा है
भाई फुर्सत किसे है
इस मारा-मारी के जमाने में
(१३४)
मैं जिस किसी की बात
अपने छोटे से इस दिल पे ले लेता हूँ
और जब ढ़ोते-ढ़ोते उसे
मेरा दिल हॉपी भरने लगता है
तो चोरी-छुपके रो लेता हूँ
मैं जिस किसी की बात
अपने छोटे से इस दिल पे ले लेता हूँ
(१३५)
मैंने अपने घुटने
जमीन से टेक रक्खे हैं
और अरमान हैं मेरे,
आसमान छूने के करते हैं
(१३६)
ये बाल जिन्हें केश भी कहते हैं
मैं इन्हें हप्ते-हप्ते कटाता तो हूँ
‘के सर का सरके कुछ बोझ
पर बढ़ता सा बोझ कुछ ना कुछ रोज
मैं रंग बिरंगे चश्मे के केश बढ़ाता जो हूँ
(१३७)
मैं चाहे जब
जिस किसी से कहते हुये मिल जाता हूँ
न सिर्फ सपने में ही
वरन् हकीकत में भी
‘के मेरा सर भारी हो रहा है
पर नीचे सर से उतारता ही नहीं
गाँठे
मन में लगीं खोलता भी नहीं
(१३८)
मैं इसका कितना ? क्या ? अफ़सोस करूॅं
‘के मुझे अपनों ने ठगा है
सच
मछलियों की जमात में
कौन किसका सगा है
(१३९)
मेरा सर गर्व से ऊँचा उठ सके
ये हो, तो हो कैसे
मैं अपनी नाक पर रक्खा
गुस्से का बोझ हटाता जो नहीं हूँ
मेरा सर गर्व से ऊँचा उठ सके
ये हो, तो हो कैसे
(१४०)
खुलें तो खुलें कैसे
मेरे अपने मन की गाँठें
गाँठ सरकफूॅंद वाली
मैं देता कब हूँ
खुलें तो खुलें कैसे
मेरे अपने मन की गाँठें
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