(३१)
ज्ञान घन, ज्ञान घन, ज्ञान घन,
ज्ञान घन हूँ मैं
हाय ! अब तक रहा अंधेरे में ।
क्यूॅं न उतरूॅं आज गहरे में ।।
‘के बस जानूॅं और देखूॅं मैं ।
ज्ञान घन हूँ मैं
माटी मोह की ।
परिपाटी द्रोह की ।।
क्यूॅं न उतार फेंकूॅं मैं
ज्ञान घन, ज्ञान घन, ज्ञान घन,
ज्ञान घन हूँ मैं
हाय ! अब तक रहा अंधेरे में ।
क्यूॅं न उतरूॅं आज गहरे में ।।
‘के बस जानूॅं और देखूॅं मैं ।
ज्ञान घन हूँ मैं
और क्या सिवाय ।
कागज का फूल काय ।।
हूॅं आती-जाती खुशबू मैं
ज्ञान घन, ज्ञान घन, ज्ञान घन,
ज्ञान घन हूँ मैं
हाय ! अब तक रहा अंधेरे में ।
क्यूॅं न उतरूॅं आज गहरे में ।।
‘के बस जानूॅं और देखूॅं मैं ।
ज्ञान घन हूँ मैं
(३२)
मैं पून हूँ, मैं पून हूँ, मैं पून हूॅं
मैं कम नहीं किसी से ।
मैं कम नहीं कहीं से ।।
मद से, प्रमाद से
कर्म कृत उपाध से
मैं शून हूँ
मैं पून हूँ, मैं पून हूँ, मैं पून हूॅं
ताव से, तनाव से
संक्लेश भाव से
मैं शून हूँ
मैं पून हूँ, मैं पून हूँ, मैं पून हूॅं
द्वेष और राग से
मृग दौड़ भाग से
मैं शून हूँ
मैं पून हूँ, मैं पून हूँ, मैं पून हूॅं
मैं कम नहीं किसी से ।
मैं कम नहीं कहीं से ।।
मैं पून हूँ, मैं पून हूँ, मैं पून हूॅं
(३३)
सच्चिदानन्द, सच्चिदानन्द,
सच्चिदानन्द
बस और बस, हूँ मैं सच्चिदानन्द
मुझमें नाहिं पर की गन्ध
जड़ से न मेरा संबंध
बस और बस, हूँ मैं सच्चिदानन्द
है अन्य जाति का द्वेष
भिन मुझसे मोह कलेश
हित राग प्रवेश न सन्ध
जड़ से न मेरा संबंध
बस और बस, हूँ मैं सच्चिदानन्द
क्रोधाद भाव परभाव
जानन एक मेरा स्वभाव
मैं चिन्मय मृणमय बन्ध
जड़ से न मेरा संबंध
बस और बस, हूँ मैं सच्चिदानन्द
(३४)
सहजानन्द स्वरूपी मैं
रूपी देह, अरूपी मैं
हल्का, भारी, कड़ा, नरम ।
रूखा, चिकना, शीत-गरम ।।
जड़ के धरम अरूपी मैं
सहजानन्द स्वरुपी मैं
नीला, पीला या अश्वेत ।
लाल वर्ण या वर्ण सुफेद ।।
पुद्-गल भेद, अरूपी मैं
सहजानन्द स्वरूपी मैं
रस कषायला या तीखा ।
कड़वा या खट्टा, मीठा ।।
तन परिणमन अरूपी मैं
सहजानन्द स्वरूपी मैं
शब्द भेद सा, रे, गा, मा ।
पा, धा, नि श्रुत नमो नमः ।।
जड़ पर्याय, अरूपी मैं
सहजानन्द स्वरूपी मैं
भेद गन्ध दो, पहला गन्ध ।
दूजा गन्ध भेद दुर्गन्ध ।।
पुद्-गल स्वांग अरूपी मैं
सहजानन्द स्वरूपी मैं
(३५)
भगवान् आत्मा हम
हम भगवान् आत्मा हैं
पाकर परिपाक करम
क्यों कर रोयें गायें
हम भगवान् आत्मा हैं
बोधी न जगा पायें
क्यूँ क्रोधी बन जायें
पाकर परिपाक करम
क्यों कर रोयें गायें
हम भगवान् आत्मा हैं
पानी न बचा पायें
क्यूँ मानी बन जायें
पाकर परिपाक करम
क्यों कर रोयें गायें
हम भगवान् आत्मा हैं
आगी न बुझा पायें
क्यूँ रागी बन जायें
पाकर परिपाक करम
क्यों कर रोयें गायें
हम भगवान् आत्मा हैं
अंखिया न खोल पायें
क्यूँ ठगिया बन जायें
पाकर परिपाक करम
क्यों कर रोयें गायें
हम भगवान् आत्मा हैं
(३६)
मुझमें नाहिं पर की गन्ध
मैं घन-पिण्ड चित् आनन्द
वैभव है मिरा न्यारा
मैं नभ बीच ध्रुव तारा
मुझसे भिन्न मोह कलेश
जात विभिन्न राग व द्वेष
जग विख्यात अविकारा
वैभव है मिरा न्यारा
शाश्वत ठिकाना शिव गाँव
दर्शन ज्ञान मोर स्वभाव
जीता मैं, करम हारा
वैभव है मिरा न्यारा
मुझमें नाहिं नाम निशान
लालच क्रोध, माया, मान
बहती ज्ञान सुध धारा
वैभव है मिरा न्यारा
(३७)
‘अहमिक्को खलु शुद्धो’ आ जपो मन
ले मनके धड़कन, आ जपो मन
‘अहमिक्को खलु शुद्धो’ आ जपो मन
कल छोड़ के मेला
पंछी उड़े अकेला
क्यूँ करना चादरा मैला
करके थारी म्हारी
रख नजर हाय ! काली
क्यूँ करना चादरा मैला
कल छोड़ के मेला
पंछी उड़े अकेला
क्यूँ करना चादरा मैला
करके खेंचा-तानी
हा ! करके मनमानी
करके जोरा जोरी
हा ! भरके तिजोरी
क्यूँ करना चादरा मैला
कल छोड़ के मेला
पंछी उड़े अकेला
क्यूँ करना चादरा मैला
(३८)
राग न करूँगा
द्वेष न करूँगा
अब मैं संक्लेश न करूँगा
मोहन निन्दा टूट चली मेरी ।
आँखन पाटी छूट चली मेरी ।।
प्रतिशोध न रखूँगा
अब मैं कोध न करूँगा
अनबुझ ज्योती हाथ लगी मेरे
समझ अनोखी हाथ लगी मेरे
राग न करूँगा
द्वेष न करूँगा
अब मैं संक्लेश न करूँगा
मोहन निन्दा टूट चली मेरी ।
आँखन पाटी छूट चली मेरी ।।
व्यामोह न रखूँगा
अब मैं लोभ न करूँगा
मुझे हो चली अपनी अनुभूति
भीतर धारा एक अमृत फूटी
राग न करूँगा
द्वेष न करूँगा
अब मैं संक्लेश न करूँगा
मोहन निन्दा टूट चली मेरी ।
आँखन पाटी छूट चली मेरी ।।
(३९)
शुद्ध बुद्ध मैं एक स्वभावी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
खुद को पर द्रव्यों का कहता
पर द्रव्यों को खुद का कहता
जाने धूल मोहनी हावी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
शुद्ध बुद्ध मैं एक स्वभावी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
भला बुरा न करने वाला
जब मैं केवल जाननहारा
छुऊँ न जाने क्यूँ बेताबी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
शुद्ध बुद्ध मैं एक स्वभावी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
ना मैं गोरा, ना मैं काला
ना मैं बाला, ना मैं छोरा
ना मैं मुग्धा, ना मेधावी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
शुद्ध बुद्ध मैं एक स्वभावी
रागी-द्वेषी नहीं विभावी
(४०)
काया माटी की
मुझसे भिन्न जाति की
काची है काया
वाँची जिनराया
चिच्चिन्मय स्वरुपी मैं
तन मृणमय अरूपी मैं
लाल न मैं नीला, पीला
सारी पुद्-गल की लीला
स्वाद न मुझमें अम्ल, मिरच
सब पुद्-गल का जमा खरच
कड़ा न मैं हल्का, भारी
पुद्-गल की लीला सारी
गन्ध न मुझमें दुर्गन्धा
जड़ विरचा गौरख धंधा
सुर सा, रे, गा, मा, भिन मैं
सांठ-गांठ पुद्-गल इनमें
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