भक्ता-मर-स्तोत्र ६३
सुन, आदि आपने तारा है ।
मैंने भी तुम्हें पुकारा है ।।१।।
सुर रचे, भले थुति तुम मनहर ।
मैं भी कहता कुछ तुतलाकर ।।२।।
तुम गाथा लाज छोड़ गाता ।
शशि जल पकडूँ, शिशु में आता ।।३।।
सुर-गुरु हारे, तुम गुण गाकर ।
सच ! पार कहाँ, भुज-बल सागर ।।४।।
पर पड़ी भक्ति तेरी पीछे ।
शिशु नेह पाश-सिंह मृग खींचे ।।५।।
वरवश करती तुम भक्ति मुखर ।
लख बौर, कूक पिक मधुर अपर ।।६।।
थुति आप विनाशे पाप ताप ।
लख रवि, तम भागे आप-आप ।।७।।
थव होगा नव, तुम प्रभाव बल ।
दल कमल बिन्दु जल मुक्ताफल ।।८।।
थव दूर कथा तव वृथा विहर ।
रवि ऊपर, कमल खिलें भूपर ।।९।।
तुम कर लेते अपने जैसा ।
आश्रित ही रखे, धनिक कैसा ।।१०।।
कोई न रुचे तुम दीदा रख ।
जल क्षार चाह किस मीठा चख ।।११।।
तुम तन परमाणु रहे विरले ।
सुंदर तुम भाँत न और मिले ।।१२।।
मुख कहाँ आप मन सुमन हार ।
शशि छवि पलाश दिवि भागदार ।।१३।।
विचरें स्वछन्द गुण आप नाथ ।
ले रोक कौन, सिर आप हाथ ।।१४।।
कर सकीं न तिय, तुम विचलित मन ।
कब ड़िगा मेरु पा प्रलय पवन ।।१५।।
निर्धूम तुम अंधेरा न तले ।
इक जगत् जगत, दीपक विरले ।।१६।।
कब अस्त, ग्रस्त कब राहु मेह ।
सूरज अपूर्व, विस्मय न गेह ।।१७।।
बादल न राहु हतप्रभ प्रताप ।
शशि अद्वितीय मुख कमल आप ।।१८।।
हो तुम तो, रवि शशि क्यों आते ।
पक खड़ी फसल क्यों घन गाते ।।१९।।
जग और न तुम सा भेद ज्ञान ।
द्युति काँच साँच कब मणि समान ।।२०।।
दर-दर भटकन ने दिया आप ।
क्या दिया, चुरा चित् लिया आप ।।२१।।
माँ खूब, आप सुत जग दपूर्व ।
दिश्-दिश् तारक, रवि गर्भ पूर्व ।।२२।।
तम विहर भास्कर नर नाहर ।
मृत्युंजय पद प्रद शिवनागर ।।२३।।
अव्यय ! अचिन्त्य ! विभु ! आद्य ! एक ।
हरि ! हर ! ब्रह्मा ! ईश्वर ! अनेक ।।२४।।
बुध वन्द्य बुद्ध, शमकर शंकर ।
नर-सींह विधाता पथ शिव कर ।।२५।।
भू आभूषण भुवि दरद हरण ।
जै जगदीश्वर ! भव जलधि तरण ।।२६।।
गुण पास आ गये आप दौड़ ।
बद औरों ने जो रखे ओड़ ।।२७।।
तर तरु अशोक तन तुम कंचन ।
घन निकट प्रकट रवि तिमिर हरण ।।२८।।
मणि सिंहासन तन कनक वरण ।
गिरि उदय उदित रवि लिये किरण ।।२९।।
तुम वर्ण स्वर्ण सित चारु चॅंवर ।
तट मेर झिरे निर्झर झर-झर ।।३०।।
शशि तीन छतर हर रवि प्रताप ।
ढुल झालर कहे जगेश आप ।।३१।।
जन संगम हित दे जग फेरी ।
जयघोष अहिंसा तुम भेरी ।।३२।।
बरसात पुष्प, जल, मन्द पवन ।
गिरते से नभ तुम दिव्य वचन ।।३३।।
भा-मण्डल हर उपमा गुमान ।
द्युति कोटि भान छव शश समान ।।३४।।
प्रद स्वर्ग मोक्ष, जन कल्याणी ।
शिशु वृद्ध गम्य तेरी वाणी ।।३५।।
शशि नख, सहस्र दल चरण विमल ।
रखते तुम, रचते देव कमल ।।३६।।
समशरण अलौकिक तव वैभव ।
रवि भाँत न ग्रहगण सर्व विभव ।।३७।।
अलि कुपित झिरे मद का झरना ।
तुम भक्त यथा गज क्या डरना ।।३८।।
गज कुम्भ चीर छीने रतना ।
तुम भक्त यथा सिंह क्या डरना ।।३९।।
बल वायु जगत चाहे भखना ।
तुम भक्त यथा दव क्या डरना ।।४०।।
दृग् शोणित, कुपित, उठाय फणा ।
तुम भक्त यथा अहि क्या डरना ।।४१।।
नित् लगा मारना या मरना ।
तुम भक्त यथा रण क्या डरना ।।४२।।
गज रक्त सरित चाहे तरना ।
तुम भक्त यथा अरि क्या डरना ।।४३।।
मुख फैलाये जलचर अपना ।
तुम भक्त यथा जल क्या डरना ।।४४।।
जॉं-लेवा, देवा कष्ट घना ।
तुम भक्त यथा रुज् क्या डरना ।।४५।।
तन, मार-श्रृंखला रक्त सना ।
तुम भक्त यथा पल क्या डरना ।।४६।।
इमि और-और यम अवतरणा ।
तुम भक्त वृथा भय क्या डरना ।।४७।।
वश भक्ति रचित गुण आप माल ।
जे धरें कण्ठ बस वे निहाल ।।४८।।
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