ॐ नमः सिद्धम्
सभी मॉं भारती के उपासक
नमस्कार मुद्रा में
अपने दोनों हाथों को जोड़कर के
जिनके शासनकाल में हम सभी
सहजो-निराकुलता के साथ
भीतरी डूब का
आनन्द ले रहे हैं
उनके नाम से विश्व-विख्यात
वर्धमान मंत्र का सिमरन करते हैं
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
अहिंसा-मयी
करुणा-मयी
दया-मयी
क्षमा-मयी
ममता-क्षयी
समता-मयी
विश्व जैन धर्म की जय हो !
जय हो !
जय हो !
यथा नाम तथा गुण
‘आदि’ काल में
असि, मसि, कृषि,
विद्या, वाणिज्य और शिल्प
इन षट् कर्मों की शिक्षा देने वाले
ब्रह्म-ज्ञान से साक्षात्कार
स्वयं करने वाले
और औरों को भी
ब्रह्म-ज्ञान से साक्षात्कार कराने वाले
आदि ब्रह्मा
श्री वृषभ देव भगवान् की जय हो !
जय हो !
जय हो !
अहिंसा के पुजारी
दया, करुणा, क्षमा के धारी
परस्पर सामंजस्य बिठाने वाला
अनेकान्त सिद्धांत
प्रकाश में लाने वाले
और स्वयं प्रकाश में न आने वाले
चण्ड-कौशिक नाम
दूसरा ही काल मानियेगा जिसे
उस विषधर के दंश छोड़ते ही
जिनके पैर के अंगूठे से
रक्त की जगह
दुग्ध-धार निकल पड़ी थी
‘के इस तरह से
वसुधैव कुटुंबकम् की भावना से
जो ओतप्रोत थे
ऐसे श्री वीर
श्री अतिवीर
श्री सन्मति
श्री वर्धमान
श्री महावीर स्वामी
भगवान् की जय हो !
जय हो !
जय हो !
‘इण्डिया नहीं भारत बोलो’
ऐसा नारा देने वाले
दूर-दृष्टि रखने वाले
वर्तमान गोविन्द-गोपाल
गैय्या के कन्हैया
घर घर गोशाला खुलवाने के लिए
दृढ़ संकल्पित
प्रायश: मृत पड़े हथकरघा में,
नव प्राण फूॅंक करके
उसे पुनर्जीवित करने वाले
पश्चिमी हवा का रुख मोड़ने वाले
प्रतिभास्थली, प्रतिभा प्रतिक्षा
जैसी विद्यापीठ संस्थाओं को
मर्त्य भूमि पर अवतरित करने वाले
‘के सारे संसार में
कोई भूखा न सो चले
इसलिये दिन में सिर्फ एक बार ही
भोजन व पानी ग्रहण करने वाले
बड़े दयालु,
परम कृपालु
चींटी जैसे छोटे-छोटे जीवों की भी
रक्षा करने का
सिर्फ आजीवन दृढ़ प्रण ही
नहीं उठा रक्खा जिन्होंने
वरन् बनती कोशिश
उन्हें बचा सकें
इसलिए चार हाथ आगे की जमीन
देख-देख कर चलने वाले
दूर दूर से आने वाले दर्शनार्थियों की
यात्रा से होने वाली थकान मिटाने वाली,
एक अनूठी ही मुस्कान के धनी
सन्त शिरोमणी
श्रीमद् आचार्य देव
भगवन् श्री विद्या सागर जी
महाराज की जय हो !
जय हो !
जय हो !
समाज के लिये
एक वही व्यक्ति जगा सकता है
जो स्वयं जाग रहा हो
मखमली चादर अपने मुख लेकर
जो बन करके सो रहा है
उसका तो भगवान् ही मालिक है
किसे नहीं पता
दीपक जगाने के लिए
भले एक
पर जागता हुआ दीपक चाहिये कोई
जो स्वयं जगमगा रहो
ऐसे ही जिनकी अनबुझ ज्योति
चराचर जगती के लिए
प्रकाशित कर रही है
वह परम गुरुदेव हमारे
जिन्होंने सक्रिय सम्यक् दर्शन को
अध्यात्म ग्रंथों से
सार के रूप में निकल करके
जन-जन तक पहुंचाया है
और सिर्फ बात ही नहीं की
हमारे परम गुरुदेव ने
सक्रिय सम्यक् दर्शन की
बल्कि
रात-रात भर जागकर के
धर्म ध्यान के अंतर्गत
आने वाले
एक अनूठे, अद्भुत ध्यान
नाम है जिसका
अपाय-विचय धर्म-ध्यान
यदि हम पूछते हैं
‘के है क्या
यह अपाय-विचय धर्म-ध्यान ?
तो आगम के
सार्थक नाम मोति-पन्ने
अपाय-विचय
धर्म-ध्यान को परिभाषित करते हैं
‘के दुख दूर हो चलें’
तुरन्त
हमारे मन में जिज्ञासा उठेगी
किसके दुख दूर हो चलें ?
तो भगवन्त
वर्तमान कुन्द-कुन्द
गुरुदेव श्री विद्या सागर जी
मुनिराज कहते हैं
स्वयं
अपनी खातिर
और अपने अपनों के हित में तो
खूब आँसू ढ़ोले हैं
सच,
निगोद
जो
नि अर्थात् निश्चित गोद है हमारी
जहां से आकर
फिर फिर के
वहीं पनाह लेनी है हमें
यदि जगत् में आकर के
जगत मतलब जागृत न रहे तो
सो
तब से अब तक
अगर हिसाब-किताब
लगाया जाये तो
समुन्दर ओछा पड़ जायेगा
हमारी आंखों का पानी
समुन्दर के किनारे उलांघ जायेगा
पर
औरों की खातिर
हाथ संकोच लिये हमनें
काश ! चार आँसू गिराये होते
तो जमीन पर गिरने से पहले ही
वह बेशकीमती मोती
बन चले होते
और हम भी
लोक के शिखर पर पहुंच कर
अव्याबाध परम निराकुल सुखिया
का अनुपान कर रहे होते
अस्तु
चलिये, पते की बात करते हैं
किसी पूजन में गूंथी गई
परम गुरुदेव की चतुर्थ कालीन चर्चा
चरितार्थ करतीं हुईं पंक्तियाँ
“हो अर्ध निशा का सन्नाटा,
वन में वनचारी चरते हों ।
तब शान्त-निराकुल मानस तुम,
तत्वों का चिन्तन करते हो ||”
यह हवाला देते हुए
मुझे कोई संदेह नहीं है
‘कि आचार्य भगवन्
जिस किसी रात
डूबा साधें,
और कोई अनमोल रतन
अपने साथ न लावें
सुनिये,
एक प्रसंग सुनाता हूँ
समय ठण्डी का था
आचार्य भगवन्त
अर्ध रात्रि में जागृत ही न हो चले थे
जागृति के साथ
प्रतिक्रमण कर के,
फिर सामायिक में
ऐसे तल्लीन हुए मानो
भगवान् बाहुबली खड्गासन मुद्रा में
खड़े हों
‘के अनायास ही भक्तों के मुख से
निकल पड़े
“प्रशांत रूपाय, दिगम्बराय
देवाधिदेव देवाय नमो जिनाय”
तदनंतर
स्तोत्र-राज श्री स्वयंभू जी
जिसमें समस्त तीर्थंकरों की
स्तुति है उसे करने के पश्चात्
प्रातः कालीन
आचार्य भक्ति करने के लिये
एक बड़े हॉल में आकर के
बैठ जाते हैं
चूँकि बाहर ठण्डी हवाएं
साँय-साँय कीं आवाज करतीं हुईं
जो चल रहीं थीं
इंतजार था
‘के थोड़ी सी धूप निकल आये
और सभी श्रमण जन
जंगल की ओर प्रस्थान करें
तभी
वैसे पहले भी कई बार सुन चुके थे
हम सभी मुनिराजों के कर्ण द्वार
जहां से रास्ता जाता है
सीधा हृदय तलक
यह मंत्र मुग्ध कर देने वाला संबोधन
‘के भावी भगवन्त
ओ ! वर्तमान कुन्द-कुन्द
आज अभी अभी मैंने
एक बड़ी ही ज़ायकेदार
अनूठी,
कुछ हटके ही स्वादिष्ट
रसोई पका कर तैयार की है
आप सभी के लिये
सुबह सुबह
माँ अपने लाड़ के को
स्वल्पाहार जो कराती है
चलो,
सुनिये ही देता हूँ
आज का नया चिन्तन
तब हम सभी मुनिराजों ने
अपने-अपने दोनों हाथ जोड़े
और अमृत पान करने के लिये
जैसे चकोर चन्द्रमा की तरफ देखता है
वैसे ही गुरुदेव का चन्द्र-मुख
अपलक निहारने लगे
अब दिश् विदिश् विख्यात
कुण्डल पुर के बड़े बाबा
उनके अनन्य भक्त
जो छोटे बाबा है
उनके मुख से
सार्थक नाम ‘अक्षर-बोल’ निकले
‘के
सुनो,
दुनिया का सबसे प्यारा
कुछ हटके अद्भूत ही न्यारा
शब्द है भारत
यदि आप पूछते है क्यों ?
तो चारित्र हिमालय
सदय हृदय
परम गुरुदेव
श्री ज्ञान सागर जी भगवान् ने
एक दिन
जैसे मैं आप लोगों को
परम तप स्वाध्याय से जोड़ रहा हूॅं
वैसे ही मेरे ऊपर भी
ममता-मयी
करुणा की झमा-झम
बरसात हुई थी
‘के परोपकारी
निरतिचार महा-व्रत धारी
भगवान् बोलते है
बेटा !
एक अनूठा शब्द है भारत
जिस शब्द में से पीछे का अक्षर हटाते ही
शब्द ‘भार’
वजनदारी का प्रतिनिधित्व कर रहा है
बीच का अक्षर हटाते ही
शब्द ‘भात’
प्रत्येक मन को मोहने की बात करता है
और प्रारंभ का अक्षर हटाते ही
शब्द ‘रत’
निःस्वार्थ गो-वत्स प्रीति का
परिचय देता है
और तो और
बस ‘प्रति’ शब्द रख लो
शब्द भारत के आगे
चमत्कृत हो जाओगे
ऐसा बेजोड़ अर्थ निकलेगा
हमारे पूर्वज,
हमारे बड़े-बुजुर्ग
फ़ी Fee फी
की बात नहीं करते थे
और ना ही फीकी बात करते थे
किससे छिपा है
पोथियों के पन्ने पन्ने पर तो छपा है
‘के दादी-नानी के नुस्खे
हाथ हाथ दूर कर देते हैं हमें दुख से
अच्छा चलो, देखते है जादू
शब्द भारत के आगे
शब्द प्रति रखते ही
एक नया शब्द अवतरित होता है
प्रति…भारत
बस अब
प्रति के साथ ‘भा’ पढ़ करके
‘रत’ को अलग से पढ़ना है
प्रतिभा… रत
और कौन नहीं चाहता है प्रतिभा
सुनो,
ऐसे ही भारत के लिए
विश्वगुरु नहीं कहते थे परदेशी
दुनिया की दाढ़ी
चेहरे पे झुर्रियां
आती होगी पीछे कभी
लेकिन हर-एक भारत वासी
माँ के पेट से ही
अपने पेट में दाढ़ी लिए जनमता है
इस विश्वगुरु भारत में
मन के लिये
मन भर का
मतलब चालीस किलोग्राम
समझ करके
पहले ही अपने सिर से उतार करके
एक खूँटी पर
बांध-बूॅंध कर टांग दिया जाता है
इस विश्वगुरु भारत में
भीतर की आवाज सुनी जाती है
दिमाग से नहीं
दिल से निर्णय लिये है
तभी
गैय्या के लिए मैय्या कहते हुए
कन्हैया
क्षितिज छोर तक ले जाते थे
हांकते हुए नहीं
आगे आगे
सुरीली बांसुरी बजाते हुए
पता है क्यों ?
एक अलग ही भीतरी ज्योति
रखती है गैय्या
जो जंगल से ऐसे ऐसे औषधीय
पौधे सेवन करके आती है
‘के वात, पित्त, कफ
अपने तेवर नहीं दिखला पाते हैं
हर-एक भारत वासी
इसी एक गैय्या के दम पर
काल को
छकाता रहता है
‘के ओ काल
काल आना
मतलब कल आना
मैं आज जाने वाला नहीं हूॅं
और तुम मुझे ले भी नहीं जा सकते हो
सुनो,
भीष्म पितामह जैसी
महान हस्तियों का गौरवशाली
इतिहास इसी भारत वसुन्धरा
के लिए प्राप्त है
जिन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था
इस विश्वगुरु भारत में
मंगल स्वरूपा, भगवती
बच्ची पराया धन होती है
और अतिथि देव होता है
स्वयं पानी पी लेगा
एक सच्चा भारतीय
पर मॉं भारती का
पानी उतरने नहीं देगा
कर्ज करके भी यहां
अतिथियों का मान सम्मान
किया जाता है
इस विश्वगुरु भारत में
आँखों में लाज
और बातों में लोच रहती है
यहां अपहरण करने वाला
पापी रावण भी
ऋषि सन्तों की साक्षी पूर्वक
यह प्रतिज्ञा करता है
‘के जो नारी मुझे नहीं चाहेगी
उसे मैं
जबरदस्ती छूने का
प्रयास नहीं करूंगा
इस विश्वगुरु भारत में
थोड़े से बड़े पेट के लोग रहते हैं
जिसमें सबके गुप्त-राज
गुप्प होते चले जाते है
लेकिन मजाल है किसी की भी
‘के मुख खुलवा ले कोई
हॉं ! हॉं !!
प्राण पखेरू भले उड़ जायें
उड़ जायें
पर प्रण न उड़ने दिया
मॉं भारती के सपूतों ने
कितने नाम गिना दूॅं
आसमान के तारे कम पड़ जायेंगे
इतने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं
हॉं ! हॉं ! !
जिनके बलिदान की बदौलत ही
हम सभी सहजो-श्वास ले पा रहे हैं
इस विश्वगुरु भारत में
चुगली खाना आता ही किसी को
हॉं ! हॉं ! !
गम्म खूब खा लेते हैं
अजीरण को नहीं मचाली है
पेट में जाकर के वह
इस विश्वगुरु भारत में
नाक पर गुस्से का भार कभी
सहा न किया गया
चश्मा तो बगलें झाँकता है
भीतर की आंखों से जो
देखते हैं यह मानस
सार्थक नाम
मानस सरोवर राजहंस
स-मॅंझधार होंगे कोई
पर भारतीय समझदार होते हैं
वैसे ज्यादा नहीं पढ़े रहते हैं
पर ढ़ाई अक्षर पढ़े है न सिर्फ खूब
वरन् बखूबी
वो भी
दूसरे ही गुरुकुल की
दूसरी ही कक्षा में
सो बड़ा ही मीठा शब्द है भारत
भा मतलब
आभा, प्रभा, तेज, कान्ति, चमक, नूर
और रत मतलब
निरत है जो इस जगमगाहट से
कोई भूतकाल की
अथवा
भविष्यफल की
वार्ता नहीं की जा रही है
वर्तमान समय में भी
जहां के रहवासियों के चेहरे से
ऐसा वैसा नहीं
आसमानी नूर
टप-टप टपकता है
इसलिये आचार्य श्री जी ने कहा
‘के परम पूज्यनीय गुरुदेव
श्री ज्ञान सागर जी
कहते थे
सिर्फ और सिर्फ
भारत ही बोलो
इण्डिया नहीं
यह इण्डिया शब्द तो
भारतीय शब्द कोशों में
है ही नहीं
कुछ-कुछ इंधिरा शब्द से
मिलता जुलता है
और बच्चा-बच्चा जानता है
भारत शब्द का अर्थ
भा…आभा
रोशनी का पर्यायवाची है
इसके लिए अंधेरा कह करके
मत संबोधित कीजिए
मेरा अनुरोध है
प्रत्येक
मॉं भारती के लाल से
वरना
हमारे ज्ञानी ध्यानी
ऋषि मुनियों का भारत
गारत में मिल जायेगा
तब बड़े बड़े महाराज लोगों ने
आचार्य भगवन् से कहा
स्वामिन् थोड़ा और प्रकाश डालिए
‘के शब्द इण्डिया
और क्या अर्थ देता है
तब भगवन् बोलते है
सुनो,
संस्कृत भाषा में
इन का अर्थ राजा होता है
स्वामी, अधिपति, होता है
उदाहरण के तौर पर
सचिन नाम ही ले लेते हैं
संधि तोड़ते ही
राज सामने आता है हमारे
सत् + इन
मतलब सत्य का स्वामी
सो शब्द इण्डिया
कुछ कुछ कहता है
‘के इन….दिया
मतलब स्वामी-पन
दे दिया है जिन्होंने
अपने हथियार
जमीन पर डाल दिये हैं
पहिन रक्खी हैं,
चूड़ियाँ हाथों में अपने
सिर उठाकर जीना तो
याद शेष है, जिन्हें
‘हर बोलो’ के मुखारविंद
अब क्या जश गायें
इस भारत भूमि के ?
‘के यह वही भारत देश है
हवाओं में लहर खाता
जहाँ का एक प्रचलित गीत
‘के
“बुन्देले ‘हर बोलो’ के मुख,
हमनें सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो,
झाँसी वाली रानी थी”
यह वह भारत देश है
जहाँ अपने नवजात शिशु को
अपनी पीठ पर बांधकर
नंगी तलवार खींच कर
एक अबला नारी
रण चण्डी का रूप
धारण करके
आततायी नर-मुण्डों के
ढ़ेर लगाती हुई
देश की जनता के लिये
जागृति भरने के लिये
स्वतंत्रता की बलि वेदी पर
न्यौछावर हो चली
वह सिंह के जैसा दहाड़ने वाला
भारत
आज विदेशी वस्तुओं का
आयात कर रहा है
लेकिन जाने क्यूॅं भूल चला है
‘के विदेशी वस्तुओं में
वो मेहनत के पसीने की
खुशबू कहाँ ?
जो महात्मा गांधी के
आश्रम में
खुले गृह-उद्योग में रहती थी
वह महात्मा गाँधी के द्वारा
जपा महा-मन्तर रूप अनवरत जप
दूसरा ही अन्तरंग तप
‘के रघुपति राघव राजा राम’
पतित पावन सीताराम
वाह
कहाँ वह स्वर्णिम कल
और कहाँ यह दूसरा ही द्वार यम
आज
सिर्फ चन्द चांदी के
सिक्कों की खनखनाहट सुनाई देती है
हहा ! नशे में धुत्त है
भारतीय नव-जवान आज
मेहनत-कश इंसान
धीरे-धीरे खोखला हो चला है
आज दूध महँगा
शराब सस्ती लग रही है लोगों को
सारी तनख्वा
तन के लिये ही चढ़ जाती है आज
शरम आती है यह कहते हुए
‘के पौरुष से सहित
पुरुष का परिवार
सरकार पाल रही है आज
भगवान् कब हटेगा
यह इण्डिया नाम कलंक
इस भारत के माथे से
बड़ा अफ़सोस होता है
‘के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट
राजाधिराज
महाराज भरत
जिनके नाम पर
इस देश का नाम भारत पड़ा है
भारत मतलब चक्रवर्ती भरत का
उदा-हरण के तौर पर
वंश रघु का, राघव
वंश यदु का, यादव
जनक की पुत्री, जानकी
बिलकुल वैसे ही
दीर्घ हो चली मात्रा
यदि कोई पूछता है, किसका भारत ?
तो भरत का
वह चक्रेश भरत
जिनके पास अपूर्व ९ निधियाँ थीं
अनमोल १४ रत्न थे
छह खण्ड का साम्राज्य था
96 हजार सह धर्मिणियाँ थी
बाहुबली जैसे तपस्वी भ्राता
जो एक बर्ष तक
प्रतिमा योग लगा कर
अविचल खड़े रहे
सुनते हैं
सांपों ने वामियां बना लीं
बेल वृक्ष समझ कर तन पर चढ़ चलीं
पत्थर जानकर
वन्य जानवर
खाज-खुजली मिटाने लगे
बाह्मी लिपि सिद्ध-हस्त
ब्राह्मी नाम और
साक्षात् सत्यं शिवम् सुन्दरम् रूप
अक्षर ज्ञान विदुषी
सुन्दरी नाम
ब्रह्मचारिणी बहनें
युग नायक आदि ब्रह्मा
भगवान् रिषभ देव
तीर्थंकर
पुण्य के धारी जिनके पिता
और एक भवातारी जगज्-जननी
माँ मरुदेवी जैसी माता
यह सारा का सारा गौरव
अपने देश का
भारत नाम लेते ही
आँखों के सामने झूलने लगता है
गर्व के सिर ऊँचा उठ चलता है
अपनी कॉलर उठाने का
मन करने लगता है
एक बार लगता है
‘के जमीन पर खड़े-खड़े ही
पंजों के बल
बस उठना है
और आ चलेगा छूने में आसमान
‘के चाँद सितारे
मेरी चुनर में टक चलेंगे
चूँकि हमारे आदर्श थक कर
थम कर मील के पत्थर से अपना सिर
टिका कर न टिक चले थे
और न ही हम टिकेंगे
मंजिल पर पहुंच करके ही हम
लेंगे दम
और यदि पुरानी यादों पर
धूल जम चली हो
नई वारदात
आंखों में आकर झूल चली हो
तो भी कोई बात नहीं
बिलकुल इसी नाम का एक और
व्यक्तित्व
राजा राम का भाई भरत
ग्रहस्थ सन्तों में
किसी का नाम उभर कर आता है
तो वह यही है
संसार रूपी जल में रहकर के भी
कमल जैसे भिन्न बना रहा जो
भाई राजा राम की चरण पादुका
सिंहासन पर विराजमान कर के
देह में रहते हुए भी विदेह बना रहा
कोई घर में वैरागी था
तो यही है वह भरत
और यदि यह भी
स्मृति पटल से ओझल हो चला है
तो महाराज दुष्यंत
और शकुन्तला के पुत्र
कुमार भरत
कॉन्वेन्ट स्कूलों की बात
नहीं कर रहा हूँ
जहाँ से ऐवी बच्चे निकलते हैं
ABCD पढ़ कर के
जो अप टू डेट होने के नाम पर
अपने बड़े-बुजुर्गों को
आउट ऑफ डेट कह करके
हेट करने लगते हैं
मैं सरस्वती शिशु मन्दिरों की
बात कर रहा हूँ
जहाँ प्रारंभ अक्षर
अ-अपनापन का सिखाते हैं
और अंतिम अक्षर
ज्ञ…ज्ञानी का पढ़ाते ही
ज्ञानी ध्यानी बना देते हैं
उन विद्यालयों के बैचों पर
इस कुमार भरत की
एक अद्भुत हुनर
‘के
प्रकाश में आ चले
सिंह के साथ एक चित्र
उकेरा गया है
यह प्रसंग
उस समय का है
जब बालक भरत अपनी माँ के साथ
गुरु भगवन् के आश्रम में रहते थे
तब सिंह ही सवारी करके
यह बालक भरत
सिंह का मुँख खोल करके
उसके मुँख में अपने हाथ डाल करके
पैने नुकीले दॉंतों पर
अपनी नाज़ुक सी अंगुलियां
फेरता हुआ
गिनती सीखता है
ऐसा वैसा नहीं है
भारत का इतिहास पढ़िये तो
और सिर्फ न पढ़िये ही
भेड़ों के बीच पले पुसे सिंह बच्चे के
माफिक
एक दहाड़ भी मारिये
सीधा सीधा सहजो-निराकुल
मतलब है
नये इतिहास गढ़िये भी
और आचार्य भगवंत गुरुदेव
श्री विद्यासागर जी का
ये जो एक सपना है
वह सिर्फ सपना ही न रहे
हो सके हम सभी का अपना
ऐसी खोना वाले बाबा
आदि ब्रह्मा ऋषभ नाथ जी से
मेरी हार्दिक प्रार्थना है
ओम्
चलिये,
चलते चलते
जिनकी छप्पर फाड़कर
किरपा बरसती रही है
मेरे ऊपर सदा सर्वदा
उन मेरी अपनी मॉं
के लिए स्मरण रूप
अविस्मरणीय
पुष्पांजलि क्षेपण करते हैं
आईये
‘सरसुति-मंत्र’
का पारायण करते हैं
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
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