वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
नाम सुपारस सबसे प्यारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
संकट मोचन नाम तुम्हारा ।
एक तुम्हारा साँचा द्वारा ।।
जय जयकारा, जय जयकारा ।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
बटुआ खाली ।
छिनी दिवाली ।।
छव रतनारी ।
जल की झारी ।।
छोडूँ धारा बारम्बारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।
ॐ ह्रीं दारिद्र निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मँहगी हल्दी ।
ब्याह न जल्दी ।।
स्वर्ण सुगन्धी ।
चन्दन कलशी ।।
छोड़ रहा हूँ अखण्ड धारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बाल अनूठे ।
धन्धे रूठे ।।
सुगन्ध फूटे ।
धाँ अनटूटे ।।
भेंट रहा हित दिव-शिव द्वारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।
ॐ ह्रीं आजीविका बाधा निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
कोट कचहरी ।
दाग चूनरी ।।
सुगन्ध विरली ।
द्यु प्रसून ‘री ।
भेंट हेत नित ब्रह्म विहारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हा ! बीमारी ।
पीड़ा भारी ।।
गो-घृत वाली ।
व्यञ्जन थाली ।।
भेंट हेत क्षुद् रोग निवारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हा ! मति मोटी ।
परिणति खोटी ।।
परात मोती ।
अखण्ड ज्योती ।।
भेंट हेत भीतर उजियारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हा ! जादू ‘री ।
मोहन धूली ।।
ऽगर, कस्तूरी ।
चन्दन चूरी ।।
भेंट हेत सिध रिध परिवारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं टुष्टविद्या निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हा ! खो चाली ।
चीज हमारी ।।
रत्न पिटारी ।
फल मनहारी ।।
भेंट हेत फल शिव सुख न्यारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
राह कँटीली ।
‘शू’-साइड धी ।।
जल गन्धादी ।
द्रव दृग्-गीली ।।
भेंट हेत भव जलधि किनारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=कल्याणक अर्घ=
सूनी गोदी ।
बहुरी मोरी ।।
स्वप्न बपौती ।
माँ दृग् मोती ।।
नहीं पराया, मैं भी थारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं भाद्रपद शुक्ल षष्ट्यां
गर्भ कल्याणक प्राप्ताय
अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहाय ।।
भव मानस सा ।
बक आदर्शा ।।
सुमेर जलसा ।
सुर अख सहसा ।।
नहीं पराया, मैं भी थारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठ शुक्ल द्वादश्म्यां
जन्म कल्याणक प्राप्ताय
मानस विकार निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दीक्षा सपना ।
सपने अपना ।।
केशर अँगना ।
क्षीर थिरकना ।।
नहीं पराया, मैं भी थारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठ शुक्ल द्वादश्म्यां
दीक्षा कल्याणक प्राप्ताय
सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दुकाँ न चाले ।
कर्जा शाले ।।
दुनिया वाले ।
दरिया न्यारे ।।
नहीं पराया, मैं भी थारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण षष्ट्यां
ज्ञान कल्याणक प्राप्ताय
व्यापार बाधा निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वैरी भाई ।
कलह सगाई ।।
वधु वर पाई ।
शिव हरषाई ।।
नहीं पराया, मैं भी थारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण सप्तम्यां
मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय
बन्धुजन-कृत बाधा निवारकाय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=विधान प्रारंभ=
विश्वास, आश ।
निज भक्त पास ।।
करते निवास ।
भगवन् सुपास ।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
रिध सकल सिद्ध ।
जिन निकल सिद्ध ।।
जिन चल प्रसिद्ध ।
जिन कल प्रसिद्ध ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ
अक्षर असिआ उसा नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अर्हन् जिनेश ।
कृत-कृत-अशेष ।।
श्रमणोपदेश ।
मंगल विशेष ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः
अक्षर चतुर्विध मंगलाय नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केवल विभूत |
कृत-शेष झूठ ।।
‘जिनवाण’ पूत ।
उत्तम अनूठ ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अक्षर चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अवगम अपार ।
पुरुषार्थ पार ।।
‘साधो’-विचार ।
जग शरण चार ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अक्षर चतुर्विध शरणाय नमः
दक्षिण-दिशि अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।।
दृग् नन्त ज्ञान ।
अपने समान ।।
धन ! सुख निधान ।
अर वीर्य वान ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अक्षर सुपार्श्व जिनेन्द्राय नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुल, नाद, गीत ।
तर विहर दीठ ।।
छत, चँवर, पीठ ।
भा-वृत पुनीत ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अक्षर सुपार्श्व जिनेन्द्राय नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।
बल ऊर्ध्व रेत ।
धन ! रक्त श्वेत ।।
तन रिक्त श्वेद ।
लाखन समेत ।।
सन्-हनन, वाण ।
शुभ संस्थान ।।
सुरभित, न म्लान ।
तन रूप वान ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अक्षर सुपार्श्व जिनेन्द्राय नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिध-रिध अशेष ।
अपगत निमेष ।।
थिर नखरु केश ।
गत भय-कलेश ।।
गत-क्षुधा-छाय ।
मुख चार माय ।।
इक सुभिख ‘पाय’ ।
आकाश भाय ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अक्षर सुपार्श्व जिनेन्द्राय नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘आदर्श’ ‘पन्थ’ ।
पथ-पद्य ‘नन्द’ ।।
‘सुर’ ‘ऋत’ समन्त ।
झिर जल सुगन्ध ।।
मंगल, सुभाष ।
मैत्री वताश ।।
अन दिश्-अकाश ।
वृष-वृत प्रकाश ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अक्षर सुपार्श्व जिनेन्द्राय नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम वलय पूजन विधान की जय
*अनन्त चतुष्टय*
अरि दर्श हन्त ।
दर्शन अनन्त ।।
हित दर्श-नन्त ।
वन्दन जिनन्द ।।१।।
ॐ ह्रीं अनन्त-दर्शन मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अरि ज्ञान चूर ।
अर ज्ञान सूर ।।
हित ज्ञान पूर ।
नुति मान दूर ।।२।।
ॐ ह्रीं अनन्त-ज्ञान मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हत मोह पाश ।
सुख नन्त राश ।।
रख मोख आश ।
वन्दन सुपास ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्त सुख मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हत अन्तराय ।
बल नन्त पाय ।।
हित जित-कषाय ।
नुति सिर नवाय ।।४।।
ॐ ह्रीं अनन्त वीर्य मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दृग् नन्त ज्ञान ।
अपने समान ।।
धन ! सुख निधान ।
अर वीर्य वान ।।
ॐ ह्रीं अनन्त-चतुष्टय मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वितीय वलय पूजन विधान की जय
अष्ट-प्रातिहार्य
उद्यान नन्द ।
विरली सुगन्ध ।।
झिर गुल अमन्द ।
जय जय जिनन्द ।।१।।
ॐ ह्रीं पुष्प-वृष्टि मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुर दूर-दूर ।
इक-तार, तूर ।।
जग तीन नूर ।
जय जय हुजूर ।।२।।
ॐ ह्रीं देवदुन्दुभि मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रद दिव प्रसाद ।
प्रद शिव समाध ।।
ओंकार नाद ।
पूरण मुराद ।।३।।
ॐ ह्रीं दिव्य-ध्वनि मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तर तरु अशोक ।
सिर-मौर लोक ।।
हित सुरग मोख ।
शत सतत ढ़ोक ।।४।।
ॐ ह्रीं वृक्ष अशोक मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
झालर विचित्र ।
शशि तीन चित्र ।।
चल अधर छत्र ।
छव दृग् पवित्र ।।५।।
ॐ ह्रीं छत्र-त्रय मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव महापौर ।
चउ-साठ चौंर ।।
शशि लेख, गौर ।
चित्-चोर और ।।६।।
ॐ ह्रीं चामर मण्डित
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक तीन भौन ।
सिंह पीठ सोन ।।
मण खचित कोन ।
विस्मित न कौन ।।७।।
ॐ ह्रीं सिंहासन मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भव सात लेख ।
भा-वलय देख ।।
संप्रीत एक ।
जागृत विवेक ।।८।।
ॐ ह्रीं भामण्डल मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुल, नाद, गीत ।
तर विहर दीठ ।।
छत, चँवर, पीठ ।
भा-वृत पुनीत ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-प्रातिहार्य मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तृतीय वलय पूजन विधान की जय
*जन्मातिशय*
‘गिर’, श्वास जोर ।
भट-कोटि तोर ।।
गत ओर-छोर ।
बल तोर ड़ोर ।।१।।
ॐ ह्रीं संबल मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करुणा निकेत ।
दृग् नम समेत ।।
रग रक्त श्वेत ।
माहन्त केत ।।२।।
ॐ ह्रीं सित शोणित मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भीतर सुकून ।
खोया जुनून ।।
खौले न खून ।
श्रम-बिन्दु शून ।।३।।
ॐ ह्रीं हीन पसीन गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ध्वज, शंख, झार ।
स्वस्तिक कतार ।।
आखर हजार ।
शुभ लखन न्यार ।।४।।
ॐ ह्रीं ‘लाखन’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गत देह काँच ।
वज वृष नराच ।।
संहनन उवाच ।
जिन देव साँच ।।५।।
ॐ ह्रीं धन ! संहनन मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हित मित अमोल ।
घृत अमृत घोल ।।
संस्कृत अलोल ।
ऋत आप बोल ।।६।।
ॐ ह्रीं बोल अमोल मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दूजा जहान ।
सामुद पुराण ।।
चतु-रस ‘समान’ ।
अर संस्थान ।।७।।
ॐ ह्रीं छटा संस्थाँ मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चन्दन कपूर ।
मद चूर-चूर ।।
सौ गन्ध ‘सूर’ ।
स्व गन्ध भूर ।।८।।
ॐ ह्रीं सौरभ गौरव मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
महिमा अपार ।
पुन कोटि न्यार ।।
छक दिव अहार ।
विरहित निहार ।।९।।
ॐ ह्रीं निर्मल गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शशि नूर दाग ।
भा सूर आग ।।
कालिख चिराग ।
छव आप भाग ।।१०।।
ॐ ह्रीं सुन्दर, तन मन्दर मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बल ऊर्ध्व रेत ।
धन ! रक्त श्वेत ।
तन रिक्त श्वेद ।
लाखन समेत ।।
सन्-हनन, वाण ।
शुभ संस्थान ।।
सुरभित, न म्लान ।
तन रूप वान ।।
ॐ ह्रीं दश-जन्मातिशय मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्थ वलय पूजन विधान की जय
*केवल-ज्ञानातिशय*
सिध हाथ-हाथ ।
रिध चार-साठ ।।
भीतर-समाध ।
अन्तर् अगाध ।।१।।
ॐ ह्रीं ‘विद्यालय’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कब पलक हाँफ ।
बिन पलक झाँप ।।
इक झलक आप ।
अन्तक विलाप ।।२।।
ॐ ह्रीं झलक अपलक गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अवगम अशेष ।
बढ़ते न केश ।।
थिर नख प्रदेश ।
अतिशय विशेष ।।३।।
ॐ ह्रीं नग केश-नख गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धन ! साध एक ।
हंसी विवेक ।।
अहिराज भेक ।
समशरण लेख ।।४।।
ॐ ह्रीं ‘मा-हन्त’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक ज्ञान वन्त ।
संकट न संध ।।
मिट चला द्वन्द ।
सत् मात्र वृन्द ।।५।।
ॐ ह्रीं ‘हन विघन’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अब कहाँ टूट ।
अमि झिर अटूट ।।
फिर घूट-घूट ।
जल-पान झूठ ।।६।।
ॐ ह्रीं अन अनशन गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निस्पृह सनेह ।
तेजस्व देह ।।
छाया न गेह ।
भा’रत विदेह ।।७।।
ॐ ह्रीं छाया माया गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक चित्त-चोर ।
शिव स्वर्ग मोड़ ।।
भवि ! पुण्य जोड़ ।
मुख चार ओर ।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुख प्रतिभा गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ईति न रेख ।
भीति न एक ।।
योजन सतेक ।
इक सुभिख लेख ।।९।।
ॐ ह्रीं इक सुभिख गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करुणा अपार ।
पा ज्ञान न्यार ।।
अं-गुलिन चार ।
उठ, नभ विहार ।।१०।।
ॐ ह्रीं ‘गगन-चरन’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिध-रिध अशेष ।
अपगत निमेष ।।
थिर नखरु केश ।
गत भय-कलेश ।।
गत-क्षुधा-छाय ।
मुख चार माय ।।
इक सुभिख ‘पाय’ ।
आकाश भाय ।।
ॐ ह्रीं दश केवल-ज्ञानातिशय मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पंंमम वलय पूजन विधान की जय
*देव-कृतातिशय*
अपहर गुमान ।
सुर कृत महान ।।
दर्पण समान ।
वसुधा विधान ।।१।।
ॐ ह्रीं फर्श आदर्श गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गत विगत धूल ।
पथ विगत शूल ।।
सुर कृत अमूल ।
हित चरित चूल ।।२।।
ॐ ह्रीं ‘मा-रग’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दल अर हजार ।
गुल पद्म न्यार ।।
सुर विरचकार ।
अवसर विहार ।।३।।
ॐ ह्रीं पद पद्म गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मिल धरा-व्योम ।
परिणत सुसौम ।।
ले पुलक रोम ।
बस जपे ओम् ।।४।।
ॐ ह्रीं साध आह्लाद गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हित सार्थ शाम ।
सुर सार्थ नाम ।।
आ थमे स्वाम ।
इह धाम-धाम ।।५।।
ॐ ह्रीं स्वर सुर गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तर झूल दून ।
पत-झड़न शून ।।
ऋत-ऋत प्रसून ।
फल सफल पून ।।६।।
ॐ ह्रीं ऋत-ऋत गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
झिर लग फुहार ।
अर गन्धदार ।।
मन हरणहार ।
सुर-गण प्रभार ।।७।।
ॐ ह्रीं मोहक गन्धोदक गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मांगलिक आठ ।
गन्धर्व पाठ ।।
वैभव विराट ।
वैतरण घाट ।।८।।
ॐ ह्रीं वस मंगल गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिध बिन प्रयास ।
अध-मगध भाष ।।
मागध प्रयास ।
गुण शगुन राश ।।९।।
ॐ ह्रीं भाष अध-मागध गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिश् विगत ‘धूम’ ।
सम शरद् झूम ।।
लो जगत घूम ।
ऐसी न धूम ।।१०।।
ॐ ह्रीं ‘दिशा’ गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शारद् अभास ।
निर्मल अकाश ।।
घन यम प्रवास ।
सुर गण प्रयास ।।११।।
ॐ ह्रीं मगन गगन गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अनबन समाप्त ।
पर्याप्त प्राप्त ।।
सानिध्य आप्त ।
सौहार्द व्याप्त ।।१२।।
ॐ ह्रीं ‘मै-त्र’ ‘गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पवमान मन्द ।
अद्भुत सुगन्ध ।।
प्रद निरानन्द ।
सुर गण प्रबन्ध ।।१३।।
ॐ ह्रीं ह-वा…वा-ह गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आरे हजार ।
चाले अगार ।।
वृष चक न्यार ।
सुर लग कतार ।।१४।।
ॐ ह्रीं अग्र धर्मचक्र गुण मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘आदर्श’ ‘पन्थ’ ।
पथ-पद्य ‘नन्द’ ।।
‘सुर’ ‘ऋत’ समन्त ।
झिर जल सुगन्ध ।।
मंगल, सुभाष ।
मैत्री, वताश ।।
अन दिश्-अकाश ।
वृष-वृत प्रकाश ।।
ॐ ह्रीं चतुर्दश देव-कृतातिशय मण्डिताय
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला लघु चालीसा
=दोहा=
कलजुग प्रभु भक्ति सिवा,
और न मुक्ति जहाज ।
आ भगवत रँग में रँगें,
छोड़ भवद अर-काज ।।
आँखों में पानी रखते ।
तुम पीड़ा और समझते ।।
कोई, पूरण-मंशा तुम ।
जग दोई मत-हंसा तुम ।।१।।
बिन कारण मंगल कर्त्ता ।
तुम सर्व अमंगल हर्ता ।।
त्राता ! प्रद रिद्धी-सिद्धी ।
वर दाता सुख समृद्धी ।।२।।
आ जाते भक्त बुलाते ।
दिल-माँ से कुछ-कुछ नाते ।।
आँखों में पानी रखते ।
तुम पीड़ा और समझते ।।३।।
झिर अश्रु न सीता पाये ।
तुम दौड़े-दौड़े आये ।।
बदली सरवर में आगी ।
जय जय सत परणत जागी ।।४।।
झिर अश्रु न सोमा पाये ।
तुम दौड़े-दौड़े आये ।।
घट जोड़ा नागन काला ।
निकला लर-फूल, निकाला ।।५।।
झिर अश्रु न नीली पाये ।
तुम दौड़े-दौड़े आये ।।
लग पाँव खुला दरवाजा ।
जयकार शील सत गाजा ।।६।।
झिर अश्रु न द्रोपद पाये ।
तुम दौड़े-दौड़े आये ।।
चीर सती आखर ओढ़ा ।
माथे-दुठ पानी छोड़ा ।।७।।
झिर अश्रु न अञ्जन पाये ।
तुम दौड़े-दौड़े आये ।।
बिखरे शिल-टूक, जहाना ।
बजरंग बने हनुमाना ।।८।।
झिर अश्रु न चन्दन पाये ।
तुम दौड़े-दौड़े आये ।।
गंधोदक त्रिशलानंदन ।
‘रे टूकन-टूकन बन्धन ।।९।।
तुम सहज निरा’कुल के हो ।
तुमरी जय जय जय जै हो ।।
आ जाते भक्त बुलाते ।
दिल-माँ से कुछ-कुछ नाते ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=दोहा=
एक विनन्ति बस यही,
तुम चरणों में देव ।
सदा यूँहि करता रहूँ,
तुम चरणों की सेव ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
जिनेन्द्रम् सुपारस, जिनेन्द्रम् सुपारस ।
सदा यूँहि बरसाते रहना कृपा बस ।।
लिये दीप आया शरण में तुम्हारी ।
तुम्हीं से लगी है लगन ये हमारी ।।
अबै लौं निभाई, निभा देना आगे ।
कभी भी ना टूटें, यें भक्ति के धागे ।।
लगी धार रत्नों की किसने न देखा ।
लगे हाथ सोला सुपन माय लेखा ।।
जिनेन्द्रम् सुपारस, जिनेन्द्रम् सुपारस ।
सदा यूँहि बरसाते रहना कृपा बस ।।
भवातार शचि-देवि झोली दरश पा ।
मनी मेर दीवाली-होली परश पा ।।
जिनेन्द्रम् सुपारस, जिनेन्द्रम् सुपारस ।
सदा यूँहि बरसाते रहना कृपा बस ।।
दिया छोड़ घर-बार कानन पधारे ।
किया हाथ कच-लुञ्च, झट पट उतारे ।।
जिनेन्द्रम् सुपारस, जिनेन्द्रम् सुपारस ।
सदा यूँहि बरसाते रहना कृपा बस ।।
समोशर्ण लागा, बने भक्त देवा ।
खड़े हाथ जोड़े, सभी हेत सेवा ।।
जिनेन्द्रम् सुपारस, जिनेन्द्रम् सुपारस ।
सदा यूँहि बरसाते रहना कृपा बस ।।
जरा ध्यान अग्नि, करम अबकि सारे ।
लगा इक समय पुर-‘निराकुल’ पधारे ।।
जिनेन्द्रम् सुपारस, जिनेन्द्रम् सुपारस ।
सदा यूँहि बरसाते रहना कृपा बस ।।
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