परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 229
मन्नत पूरी करने वाले ।
जन्नत दूरी हरने वाले ।।
दिल नजदीक निवसने वाले ।
भर दो जीवन में उजियाले ॥ स्थापना ॥
सारे संकट हरने वाले ।
पथ निष्कष्टक करने वाले ॥
अपहरने वाले दुश्वारी ।
स्वीकारो लाये जल-झारी ॥ जलं ॥
सभी बला अपहरने वाले ।
सभी कला ढ़िग करने वाले ॥
नेह विहरने वाले माया ।
स्वीकारो घट-चंदन लाया ॥ चंदनं ॥
धिक् तकदीर बदलने वाले ।
लख पर-पीर विलखने वाले ।।
करने वाले थिर-पद धारी ।
स्वीकारो अक्षत मनहारी ॥ अक्षतम् ॥
बाधा-विघन टालने वाले ।
बन माँ-पिता पालने वाले ।।
लाने वाले क्षण-दीवाली ।
स्वीकारो गुल सुरभित थाली ॥ पुष्पं ॥
पीड़ा रोग-भगाने वाले ।
हियरा ज्योत जगाने वाले ।।
विहँसाने वाले कुतसित ध्याँ ।
स्वीकारो निर्मित घृत पकवाँ ॥ नैवेद्यं ॥
तम मातम गम हरने वाले ।
परमातम सम करने वाले ॥
एक बनाने वाले धी वाँ ।
स्वीकारो लाये घृत दीवा ॥ दीपं ॥
भक्त ‘भौत’ कुछ देने वाले ।
मुफ्त पोत शिव खेने वाले ॥
करने वाले स्वयं सरीखे ।
स्वीकारो घट-सुगंध नीके ॥ धूपं ॥
सब दुख-दरद मेंटने वाले ।
शिव-सुख सुरग भेंटने वाले ।।
विहँसाने वाले अंधियारे ।
स्वीकारो फल-सरस पिटारे ॥ फलं ॥
आपत्तियाँ हटाने वाले ।
संपत्तियाँ भिंटाने वाले ॥
खोने-वाले नीर बिलोना ।
स्वीकारो अर-अरघ सलोना ॥ अर्घं ॥
==दोहा==
स्वर्ग किसी को शिव दिया,
मैं भी आया द्वार ।
कर दीजे गुरुदेव जी,
मेरा बेड़ा पार ॥
॥ जयमाला ॥
जय गुरुदेव तिहारी ।
जय जय जय गुरुदेव तिहारी ॥
तुमने अहा !,
दी जो बना,
तकदीर हमारी ॥
जय गुरुदेव तिहारी,
जय जय जय गुरुदेव तिहारी ।।
हा पतित थे,
पद दलित थे,
हा ! हहा ! हा ! हम ।
लेते न तुम,
बन ‘कि हमदम,
सिर जो मेरे सितम ॥
बनने का घट,
जाता विघट,
सपना मेरा ।
करूँ अदा,
मैं किस तरह,
शुक्रिया तेरा ॥
जय गुरुदेव तिहारी,
जय जय जय गुरुदेव तिहारी ।
था भटक रहा,
दर-दर की हा !
ठोकरे खाता ।
था सोचता,
क्या पता,
जो न आपको पाता ॥
बनने का वट,
जाता विघट,
सपना मेरा ।
करूँ अदा,
मैं किस तरह ,
शुक्रिया तेरा ॥
जय गुरुदेव तिहारी,
जय जय जय गुरुदेव तिहारी ।
था किसी काम का नहीं,
भार था जीवन ।
तेरी नहीं,
जो पाता नेही, संजीवन ।।
बनने का पट,
जाता विघट,
सपना मेरा ।
करूँ अदा,
मैं किस तरह,
शुक्रिया तेरा ॥
जय गुरुदेव तिहारी,
जय जय जय गुरुदेव तिहारी ।
जय गुरुदेव तिहारी,
जय जय जय गुरुदेव तिहारी ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
अन्त अन्त में आपसे,
यही विनय गुरुदेव ।
उलझा-उलझा सा मेरा,
दीजे सुलझा दैव ॥
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