परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 194
जिन्हें निराकुलता से प्रीत ।
निराकुलता जिनका संगीत ।।
गुरु वे विद्या सिन्धु विनीत ।
पल सन्मृत्यु भिंटायें जीता ।। स्थापना ।।
भर लाये कलशों में नीर ।
सही न जाये अब भव-पीर ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
जमा न पग ले किल्विष रीत ।। जलं ।।
लिये झारिएँ चन्दन हाथ ।
हाथ थामिये चन्द…न रात ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
बने शिव-तलक रहिये मीत ।। चंदनं ।।
हाथ अछत के भरे परात ।
हाथ अछत अब करें प्रभात ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
हाथ थमा दें श्रुत नवनीत ।। अक्षतम् ।।
वरण-वरण के सुमन अनेक ।
सब साधा साधें अब एक ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
मदन न ले फिर मुफ्त खरीद ।। पुष्पं ।।
षट् रस मिश्रित घृत पकवान ।
हुआ बहुत क्षुध करे प्रयाण ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
रहूँ प्रपञ्चों से भयभीत ।। नैवेद्यं ।।
माला ले मणिमय घृत दीप ।
आने स्वातम-राम समीप ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
साँझ न ‘बन-के’ होय व्यतीत ।। दीपं ।।
अद्भुत धूप सुगंधित चूर ।
पद अनूप अब रहे न दूर ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
मन पापों से जाये रीत ।। धूपं ।।
लिये रसीले ऋतु फल साथ ।
रहें न गीले दृग्-दल नाथ ! ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
नापूँ कभी न पथ विपरीत ।। फलं ।।
लिये हाथ सब द्रव्य अनूप ।
लगे हाथ अब दिव्य स्वरूप ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
‘सिआ-राम’ मन गाये गीत ।। अर्घं ।।
==दोहा==
नव प्रभात हो चालता,
बीते दुख की रात ।
भले पलक आ बैठते,
गुरु गुण कीर्तन साथ ।।
।। जयमाला ।।
।। गुरुदेव लो सँभाल ।।
चली पश्चिमी हवा ।
ले चली संस्कृति उड़ा ।।
हा ! वक्त ले उछाल ।
गुरुदेव लो सँभाल ।।
नहीं कौन सवा-सेर ।
है निन्यानवे का फेर ।।
मकड़ी का सा जाल ।
गुरुदेव लो सँभाल ।।
दिखे न ओर-छोर ।
अँधकार चहु ओर ।।
पड़ा ‘दिया’ निढ़ाल ।
गुरुदेव लो सँभाल ।।
आँख बेजुवाने नम ।
आँख नौजवाने गम ।।
बेहाल हहा ! हाल ।
गुरुदेव लो सँभाल ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
चलते फिरते दौड़ते,
जो ले गुरु का नाम ।
विथले उसके माथ से,
आप-पाप-इल्जाम ।।
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