परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 190
कहाँ इन सा निराकुल पना ।
रहे सबको निराकुल बना ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
हाथ-थाम लो हहा तम घना ।। स्थापना।।
लिये जल से भरी गगरिया ।
स्वप्न कब से परी नगरिया ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
दो थमा भी विमुक्ति आँगना ।। जलं ।।
रस हाथों में चन्दन घिसा ।
बस बातों में चिन्मय-‘किसा’ ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
लो विहर वन विजन रोवना ।। चंदनं ।।
थाल अक्षत लिये हाथ में ।
थल अछत कब लगा हाथ में ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
पाऊँ ‘अब-तब-समय’ देशना ।। अक्षतम् ।।
लिये सुमन की पिटारी भरी ।
हुई सपन अविकारी घरी ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
कर सकूँ अब ‘कि मन्मथ मना ।। पुष्पं ।।
लिये व्यञ्जन गो घृत विरच ।
हो रहे व्यसनन सुकृत खरच ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
हो क्षुधा का सुदूर दीखना ।। नैवेद्यं ।।
लाये दीव थाल हाथ में ।
रखें सदीव काल हाथ में ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
हो सके तम-विमोह विसरना ।। दीपं ।।
धूप घट लिये अनूप हैं ।
कूप-मण्डूक, यद्यपि भूप हैं ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
भूले, दो सिखा दहाड़ना ।। धूपं ।।
लिये अनेक फल पके-पके ।
लगें हरेक पल थके-थके ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
धीर दो, कर सकें सामना ।। फलं ।।
लिये अरघ द्रव सभी मेलकर ।
जा रहा युँ हि नृभव खेलकर ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
पन अलस कर दो पन-दश फना ।। अर्घं ।।
==दोहा==
रोजगार की राह दी,
करघा-चरखा खोल ।
शशि-सुड़ोल-शारद तिन्हें,
नुति जय-कारा बोल ।।
॥ जयमाला ॥
हम बच्चों की जान ।
गुरु जी थारी मुस्कान ।।
जिससे गुल मुस्काना ।
सीखा शुक बतियाना ।।
पर तितली भरे उड़ान ।
गुरु जी थारी मुस्कान ।।
चीटीं मंजिल पाना ।
सीखी कोकिल गाना ।।
दे-भर अलि कण्ठी गान ।
गुरु जी थारी मुस्कान ।।
लौं अपर काम आना ।
सीखी गो गम खाना ।।
नौ भरे जगत् कल्याण ।
गुरु जी थारी मुस्कान ।।
करघा ताना-बाना ।
सीखा घर का खाना ।।
जिससे शिशु वृद्ध जवान ।
गुरु जी थारी मुस्कान ।।
हम बच्चों की जान ।
गुरु जी थारी मुस्कान ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
जिसने आत्म प्रदेश पे,
थापे श्री गुरु पाँव
चिन्ता कब छूती उसे,
छूता कहाँ तनाव ॥
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