परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 185
वही जो सबसे प्यारे ।
वही जो जग से न्यारे ।।
कौन वह बतला भी दो ।
छोटे बाबा हमारे ।। स्थापना।।
इन्हें गुस्सा न आता ।
छू न अभिमान पाता ।।
नीर लाये स्वीकारो ।
पीर का टूटे ताँता ।।जलं ।।
इन्हें हर कोई प्यारा ।
दी खुला शांति धारा ।।
लिये चन्दन स्वीकारो ।
दो विघट देह-कारा ।। चंदनं ।।
इन्हें गोशाला प्यारी ।
बाल हर बाला प्यारी ।।
लिये अक्षत स्वीकारो ।
हर विहर लो दुश्वारी ।। अक्षतम् ।।
सदा रहते मुस्काते ।
गीत करुणा के गाते ।।
पुष्प लाये स्वीकारो ।
जोड़ सुख से दो नाते ।। पुष्पं ।।
काम ये आते सबके ।
फरिश्ते भेजे रब के ।।
लिये व्यंजन स्वीकारो ।
क्षुधा पीड़ित हम कब के ।। नैवेद्यं ।।
इन्हें प्यारा हथकरघा ।
बोझ दें विघटा सर का ।।
लिये दीवा स्वीकारो ।
दिखा मारग दो घर का ।।दीपं ।।
अंधेरे में उजियाले ।
तिरे मेरे रखवाले ।।
धूप लाये स्वीकारो ।
मग न रोकें पग छाले ।। धूपं ।।
बेंत सी लोच समाई ।
सेतु सी सोच समाई ।।
लिये श्रीफल स्वीकारो ।
थमा दो शिव ठकुराई ।।फलं ।।
पाप हर लेते सारे ।
सुलट दें भाग सितारे ।।
अरघ लाये स्वीकारो ।
लगा दो नाव किनारे ।। अर्घं।।
==दोहा ==
छोटी-मोटी बात ना,
गुरु जी का गुणगान ।
नभ छू पाता कौन है,
भरते सभी उड़ान ॥
।।जयमाला ।।
विद्यासागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
पूर्ण-मासी शरद वो निशी ।
पाई माँ श्रीमति ने खुशी ।।
मल्लप्पा जी का कहना ही क्या ।
बन्द होटों से फूटे हँसी ।।
विद्या सागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
दूज चाँद से बढ़ने लगे ।
बीज बन, पौध चढ़ने लगे ।।
माटी हा ! बनना इनको घड़ा ।
पाठशाला जा पढ़ने लगे ।।
विद्यासागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
देशभूषण जी साधक महा ।
एक दिन जाके इनने वहाँ ।।
बांस हा ! बनना जो बांसुरी ।
दे दीजे व्रत ब्रमचर कहा ।।
विद्या सागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
ज्ञानसागर जी ज्ञानी बड़े ।
ये जा चरणों में उनके खड़े ।।
पत्थर हा ! बनना जो ईश्वर ।
फेंके कपड़े जो तन थे चढ़े ।।
विद्यासागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
पाके आ देखो जरा,
श्री गुरु की मुस्कान ।
लग जायेंगे हाथ वे,
हैं जे जे अरमान ॥
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