परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 176
फब रहे हैं गीत पल के ।
कब रहे हैं मीत कल के ।।
वर्तमाँ-वर्द्धमाँ,
कुल मिला के निराकुल ये ।। स्थापना।।
इन्हें छूँ न पाये गुमाँ ।
यदपि छू ये रहे आसमाँ ।।
लिये है जल, छना निर्मल ।
लो खुद सा बना रहनुमा ।। जलं।।
इन्हें गुस्सा नहीं आता ।
यदपि सब ही आता-जाता ।।
लिये मलयज, सहज गत-रज ।
बना नीरज लो विधाता ।। चंदनं ।।
इन्हें ईर्ष्या नहीं भाती ।
यदपि छद्मस्थता थाती ।।
लिये अक्षत, समाँ नक्षत ।
मुकति पढ़ ले प्रणय पाती ।। अक्षतम् ।।
गहल इनसे दूर रहती ।
यदपि रहते इसी धरती ।।
सुमन लाये, चुन सजाये ।
समाँ कर लो नदी बहती ।। पुष्पं ।।
इन्हें लालच लोभ नाहीं ।
यदपि रहे नृलोक माहीं ।।
लिये व्यंजन, वरन-वरन ।
लो बना स्वात्म अवगाही ।। नैवेद्यं।।
इन्हें भाती न मनमानी ।
यदपि भू मर्त्य के प्राणी ।।
लिये दीवा, जला घी का ।
लो स्वयं सा बना ध्यानी ।। दीपं ।।
इन्हें चुगली नहीं रुचती ।
यदपि भौ-जल में ही किस्ती ।।
धूप लाये, मन लुभाये ।
मनवा दे, भुला अबकि मस्ती ।। धूपं ।।
कभी धोका न ये देते ।
यदपि नौका स्वयं खेते ।।
लिये ऋतु फल, नवल-नवल ।
मनवा दे बिला, पाप जेते ।। फलं ।।
दूर रहता आलस इनसे ।
यदपि है ये अभी ‘जिन’ से ।।
लिये वसु द्रव, समेत अदब ।
कह दीजिये ‘अपना’ मन से ।। अर्घं ।।
==दोहा==
सीखी जिनसे पीछिका,
जाँ बेजुबाँ बचाव ।
गुरु विद्या शिव-नाव वे,
ले चालें शिव गाँव ।।
॥ जयमाला ॥
गुमाँ दो गुमा ।
गुरु-देव रहनुमा ।
बला व्यर्थ घर मकाँ ।
भला अर्थ किस दुकाँ ।।
मुस्कान एक दो थमा ।
गुरु-देव रहनुमा ।
बला व्यर्थ चंचला ।
भला अर्थ किस कला ।।
बला, गिला दो गला ।
गुरु-देव रहनुमा ।।
बला व्यर्थ साथिया ।
भला अर्थ किस प्रिया ।।
जला हिया दो दिया ।
गुरु-देव रहनुमा ।।
बला व्यर्थ पन जवाँ ।
भला अर्थ किस दवा ।।
मिश्री छुवा दो जुबाँ ।
गुरु-देव रहनुमा ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
बड़ी कोई नहिं प्रार्थना,
छोटी सी गुरु-देव ।
यूँ ही छाया आपकी,
मिलती रहे सदैव ॥
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