परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 155
आचार्य ।
थुति,
आर्य !
हित कार्य ।
अनिवार्य ।। स्थापना ।।
उदक सित ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। जलं ।।
गन्ध सित ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। चन्दनं।।
अछत सित ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। अक्षतम् ।।
पुष्प सित ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। पुष्पं ।।
चरु घिरत ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। नैवेद्यं ।।
दीव घृत ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। दीपं ।।
धूप घट ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। धूपं ।।
फल अमित ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। फलं ।।
अरघ सित ।
सुसंस्कृत ।।
हित अमृत ।
समर्पित ।। अर्घं ।।
==दोहा==
गुरुवर के गुण गान से,
करें पलायन पाप ।
आ गुरु के गुण गावते,
देर न रह चुपचाप ॥
॥ जयमाला ॥
स्वामी भरत क्षेत्र जमुन्दर ।
विद्यासागर ज्ञान समुन्दर ।।
जैसे लहर हाथ से सागर ।
करकट रख देता तट लाकर ॥
वैसे बाहर जैसे अन्दर ।
विद्यासागर ज्ञान समुन्दर ।।
यथा सीप ला ऊपर सागर ।
सुख पाता जल स्वाति पिलाकर ॥
तथा सत्य, यह शिव, यह सुन्दर ।
विद्या सागर ज्ञान समुन्दर ।।
निरखे बन्धु इन्दु ज्यों सागर ।
उमड़े लहर बाँह फैलाकर ॥
त्यों प्रमुदित पा शिष्य धुरंधर ।
विद्यासागर ज्ञान समुन्दर ।।
यदपि सिन्धु रत्नों का सागर ।
कौन डूब बिन पा पाया पर ॥
निरसक बन्दर बाँट ! पुरन्दर !
विद्यासागर ज्ञान समुन्दर ।।
वाह बड़ा उर कितना सागर ।
खुद सा बना रहा अपनाकर ॥
चल तीरथ अन्दर ‘जग-मन्दर’,
विद्यासागर ज्ञान समुन्दर ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
यही प्रार्थना आपसे,
माँ श्रीमति दृग् नूर ।
अलस भाव से, दो बता,
रहना कैसे दूर ॥
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