परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 112
प्रिय शिष्य ज्ञान सागर ओ !
तिय संध्य ध्यान-भा धर ओ !
इतनी सी करुणा कर दो ।
निशि-दीस बना जागर लो ।।स्थापना।।
मेरी बदमाशी हर लो ।
अपने जैसा ही कर लो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो जल अविकारी ।। जलं।।
मेरी हा ! गहल विहर लो ।
निज मन सा निर्मल कर लो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो चन्दन झारी ।। चन्दनं ।।
तम मातम मम अपहर लो ।
परमातम खुद सा कर लो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो अक्षत थाली ।। अक्षतम् ।।
आलस-पन मेरा हर लो ।
साहस मन निज सा भर दो ।।
गुरु ज्ञान चरण रजधारी ।
स्वीकारो पुष्प पिटारी ।। पुष्पं ।।
सारीं गड़बड़ियाँ हर लो ।
अपने सा बढ़िया कर लो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो चरु घृत वाली ।। नैवेद्यं ।।
मन की गुदगुदी विहर लो ।
सुध बुध अपने सी भर दो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो घृत दीपाली ।।दीपं ।।
खदबद खदबद मन हर लो ।
श्रुत सुत अद्भुत धन कर लो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो गन्ध निराली ।। धूपं ।।
मेरी बुराईयाँ हर लो ।
निज सी अछाईयाँ भर दो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो फल मनहारी ।।फलं ।।
मेरी त्रुटि पर न नजर दो ।
निज सा चोटी पर कर लो ।।
गुरु ज्ञान चरण रज धारी ।
स्वीकारो द्रव्य हमारी ।।अर्घं।।
==दोहा==
सीखी जिनसे कोकिला,
मधुर बोलने बोल ।
गुरु विद्या अनमोल वे,
मृदुता दें वच घोल ॥
॥ जयमाला ॥
॥ गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ॥
निधि खर्चों बढ़ती ही जाये ।
उर शिशु के भी सहज समाये ॥
देख-रेख में लगे न कौड़ी ।
गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ॥
चुरा न चोर सके, नहिं खोई ।
दृग्-कर लाल लाल भी कोई ॥
वक्र बाल कर सके न थोड़ी ।
गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ॥
देश-विदेश ख्यात दश-दिश् में ।
नामो-निशाँ खोट न इसमें ॥
जगत् दूसरी और न जोड़ी ।
गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ॥
इक मंशा-पूरण जग माँहीं ।
दिवि क्या, शिव सोपान कहाँहीं ॥
वशीकरण मन चञ्चल घोड़ी ।
गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
हाथ उठा गुरुदेव ने,
दिया जिसे आशीष ।
सोना, चाँदी हो रही,
लो उसकी निशिदीस ॥
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