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विधान

03. चौसठ ऋद्धिधारी विधान

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

*पूजन*
एक सहारा हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा ।
जय जय कारा, जय जय कारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम् ।
अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्

कलशी लाकर ।
जल की सादर ॥
भेंट हेत रत्नत्रय धारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वाणमीति स्वाहा ।

चन्दन गागर ।
चन्द न ‘भा’ कर ॥
भेंट हेत भव जलधि किनारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

अक्षत पातर ।
अपर क्षपाकर ॥
भेंट हेत सिध रिध परिवारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
अक्षयपद प्राप्ताय
अक्षतान् निर्वाणमीति स्वाहा।

भा रतनारी ।
पुष्प पिटारी ॥
भेंट हेत दिव कुंज विहारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
कामबाण विध्वंशनाय
पुष्पम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

अमृत, निराली ।
चरु घृत वाली ॥
भेंट हेत क्षुद-बाध निवारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
क्षुधा रोग विनाशनाथ
नैवेद्यम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

गो घी वाली ।
नव दीवाली ॥
भेंट हेत भीतर उजियारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
मोहान्धकार विनाशनाय
दीपम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

दश विध गन्धा ।
स्वर्ण सुगन्धा ॥
भेंट हेत निरसन भव-कारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
अष्टकर्म दहनाय
धूपम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

दिव्य नवेले ।
श्रीफल भेले ॥
भेंट हेत दिव-शिव अवतारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
मोक्ष फल प्राप्ताय
फलं निर्वाणमीति स्वाहा ।

दिव पुर नाता ।
द्रव्य पराता ॥
भेंट हेत पल अन्त सहारा ।
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जय जय ऋषि, मुनि, यति, अनगारा ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
अनर्घ्य पद प्राप्ताय
अर्घ्यं निर्वाणमीति स्वाहा ।।

*विधान प्रारंभ*

करुणा, क्षमा भण्डारी ।
ऋषि, मुनि, यती, अनगारी ।।

करके महर्षि का ध्यान ।
मनचाहा मिला वरदान ॥
महिमा महर्षि न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो: नम:
अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम् ।
अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्

*बुद्धि ऋद्धि*

वैसा काम, जैसा नाम ।
औ’-धी धारते, निष्काम॥
वाणी स्वर्ग-शिव-कारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥1॥
ॐ ह्रीं अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः

मन की जान लेते बात ।
मन ना मान देते भ्रात॥
‘मनके’ फिरें णवकारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥2॥
ॐ ह्रीं मन:पर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

जानें जगत् सब इक-साथ ।
‘जीवन मुक्त’ हाथ उपाध॥
केवल ज्ञान रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥3॥
ॐ ह्रीं केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

छोटा बीज, वृक्ष महान ।
रखते बीज-पद का ज्ञान॥
बुद्धी बीज भव हारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥4॥
ॐ ह्रीं बीजबुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

भवि ! धानाद कोष्ठ अधार ।
धारण रूप ज्ञान अपार॥
बुद्धी कोष्ठ शिव कारी।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥5॥
ॐ ह्रीं कोष्टबुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

पद अनुशरण कार अशेष ।
ईहा-वाय ज्ञान विशेष॥
रिध पद-अनुशरण न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥6॥
ॐ ह्रीं पादानुसारिणी बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

युगपत् सुनें भाष-विभिन्न ।
‘बहु’-विध क्षिप्र ज्ञाँ सम्पन्न॥
धन ! संभिन्न श्रोता ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥7॥
ॐ ह्रीं संभिन्न श्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

चाखें दूर योजन संख ।
जे जे स्वाद भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर स्वादा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥8॥
ॐ ह्रीं दूरस्वादित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नम:।

पर्सें दूर योजन संख ।
जे जे पर्श भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर-पर्शा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥9॥
ॐ ह्रीं दूरस्पर्शत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

सूँघें दूर योजन संख।
जे जे गन्ध भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर-धाणा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥10॥
ॐ ह्रीं दूरघ्राणत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

सुन लें दूर योजन संख ।
जे जे शब्द भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर-श्रवणा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥11॥
ॐ ह्रीं दूरश्रवणत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

देखें दूर योजन संख ।
जे जे वर्ण भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर-दर्शा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥12॥
ॐ ह्रीं दूरदर्शित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

पढ़ कर अंग-ग्यारह सर्व ।
पढ़ लें पूर्व दश, गतगर्व॥
धन ! रिध पूर्व दश धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥13॥
ॐ ह्रीं दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

पाठी सर्व चौदह पूर्व ।
अर्चा-महा देव अपूर्व॥
धन ! रिध पूर्व चौदा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥14॥
ॐ ह्रीं चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

जानें फल शुभाशुभ लोक ।
आठ निमित्त द्वारा, ढ़ोक॥
अंगठ निमित महतारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥15॥
ॐ ह्रीं अष्टांग निमित्त बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः

कर्मज, वैनयिक, परिणाम ।
उत्पत, चार प्रज्ञा नाम॥
प्रज्ञा श्रमण दृग्-धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥16॥
ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रमणत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

बिन उपदेश ही वैराग ।
बुद्ध निमित्त इक, बड़-भाग॥
बुध प्रत्येक जय थारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥17॥
ॐ ह्रीं प्रत्येक बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

परमत-वादि अभिजित एक ।
‘भी’तर डूब, हंस विवेक॥
बुध वादित्व जय थारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥18॥
ॐ ह्रीं वादित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

*विक्रिया ऋद्धि*

अणु से अणू कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह॥
अणिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥19॥
ॐ ह्रीं अणिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

मह से महत् कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह॥
महिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥20॥
ॐ ह्रीं महिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

लघु से लघू कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह॥
लघिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥21॥
ॐ ह्रीं लघिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

गुरु से गुरू कर लें देह ।
रहते ‘भले देह विदेह॥
गरिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥22॥
ॐ ह्रीं गरिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

बैठे धरा अम्बर पार ।
जपते अनवरत णवकार॥
प्रापति विक्रिया धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥23॥
ॐ ह्रीं प्राप्ति विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

तैरें भूम, नीर विहार ।
जपते अनवरत णवकार॥
धन ! प्राकाम्य रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥24॥
ॐ ह्रीं प्राकाम्य विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

आज्ञा मानता संसार ।
जपते अनवरत णवकार॥
धन ! ईशत्व रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥25॥
ॐ ह्रीं ईशत्व विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

वश में नाग, नर, सुर-चार ।
जपते अनवरत णवकार॥
रिध वशि-विक्रिया धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥26॥
ॐ ह्रीं वशित्व विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

सहज प्रवेश वृक्ष-पहाड़ ।
जपते अनवरत णवकार॥
अप्-प्रति घात रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥27॥
ॐ ह्रीं अप्रतिघात विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

लेते आप सब को देख ।
देते दिखाई कब, लेख॥
अन्तर्धान रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥28॥
ॐ ह्रीं अंतर्धान विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

मन चाहा बना लें रूप ।
लखते अनवरत चिद्रूप॥
सिध-रिध कामरूपा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥29॥
ॐ ह्रीं कामरूपित्व विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

चारण क्रिया ऋद्धिधारी

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन नभ निष्पन्द॥
चारण क्रिया नभ धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥30॥
ॐ ह्रीं नभस्तल गामित्वचारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन जल निष्पन्द॥
चारण क्रिया जल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥31॥
ॐ ह्रीं जल चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
करते गमन अविचल जंघ॥
चारण क्रिया जंघा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥32॥
ॐ ह्रीं जंघा चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
फल पुष्परु गमन निष्पन्द॥
धन गुल-पत्र-फल चारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥33॥
ॐ ह्रीं फल पुष्प पत्र चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन घन निष्पन्द॥
चारण क्रिया घन धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥34॥
ॐ ह्रीं मेघ चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन मकड़ी-तन्त॥
चारण तन्तु रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥35॥
ॐ ह्रीं तन्तु चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
धूमानल गमन निष्पन्द॥
चारण अगनी धूमा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥36॥
ॐ ह्रीं अग्निधूम चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेतु रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन रवि रिख चन्द॥
चारण ज्योति रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥37॥
ॐ ह्रीं ज्योतिश्चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
मारुत गमन धन ! निष्पन्द॥
चारण मरुत् रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥38॥
ॐ ह्रीं मरुच्चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

तप ऋद्धिधारी

घट में जब तलक है श्वास ।
क्रमश: बढ़ा एक उपास॥
धन ! धन ! उग्र तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥39॥
ॐ ह्रीं उग्र तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

जब-तब साधना उपवास ।
देह प्रदीप्त शशि उपहास॥
धन ! धन ! दीप्त तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥40॥
ॐ ह्री दीप्त तपः ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

भोजन कम नहीं, पर्याप्त ।
कब नीहार आप समाप्त॥
धन ! धन ! तप्त तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥41॥
ॐ ह्री तप्त तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

केवल ज्ञान छोड़ समस्त ।
रिध सिध तप महत्त्व विशिष्ट॥
धन ! धन ! महातप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥42॥
ॐ ह्रीं महातप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

द्वादश तप तपें दिन-रात ।
साधें योग मूल-तराद॥
धन ! धन ! घोरतप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥43॥
ॐ ह्री घोरतप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

सार्थक नाम ‘गिर’ निश्वास ।
छवि-रवि, दें सुखा जल-राश॥
ना-मनु-रूप तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥44॥
ॐ ह्रीं घोर पराक्रम तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

अक्षर ब्रह्म आप प्रभाव ।
ईत्यादिक लगें यम गाँव॥
ब्रह्मा-घोर तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥45॥
ॐ ह्रीं अघोर ब्रह्मचारित्व तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

बल ऋद्धिधारी

लागा बस मुहूरत एक ।
चिन्तन सकल-श्रुत, अभिलेख॥
धन ! बल-रिद्ध मन धारी।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥46॥
ॐ ह्रीं मनोबल ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

बार अनेक श्रुत संपाठ ।
माथे-शल न खेद, विषाद॥
धन ! रिध वचन बल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥47॥
ॐ ह्रीं वचन बल ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

पशु लख शिल खुजावत खाज ।
चिर-गिर खड़े, मोख-जहाज॥
धन ! रिध-काय बल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥48॥
ॐ ह्रीं काय बल ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

औषधि ऋद्धिधारी

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पद रज-पर्श, अपहर-रोग॥
औषध रिध अमर्शा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥49॥
ॐ ह्रीं आमर्शौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पर्श कफाद, अपहर रोग॥
औषध खेल्ल रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥50॥
ॐ ह्रीं खेल्लौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पर्श-पसेव अपहर रोग॥
औषध जल्ल रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥51॥
ॐ ह्रीं जल्लौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’।
तन-मल पर्श अपहर रोग॥
धन ! रिध मलौषध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥52॥
ॐ ह्रीं मल्लौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
‘विष्ठा-पर्श, अपहर रोग॥
औषध-विष्ठ रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥53॥
ॐ ह्रीं विप्रौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
सर्वस्-पर्श, अपहर रोग॥
औषध सर्व रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥54॥
ॐ ह्रीं सर्वौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

‘बल आता-पनादिक ‘योग’ ।
निर्विष श्रवण-वच संजोग॥
रिध निर्-विषौ-षध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥55॥
ॐ ह्रीं मुख निर्-विषौ-षधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।

‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
निर्विष पात-दृग संजोग॥
दृग् निर्-विषौ-षध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥56॥
ॐ ह्रीं दृष्टि निर्-विषौ-षधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

रस ऋद्धिधारी

मुँह से निकलते ही बात ।
प्रतिफल आ लगे झट हाथ॥
रस रिध आशि-विष धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥57॥
ॐ ह्रीं आशीर्विष रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

ले, जे भाव दृष्टी पात ।
प्रतिफल आ लगे झट हाथ॥
रस रिध दृष्टि विष धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥58॥
ॐ ह्रीं दृष्टिविष रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः

भो ! जन-पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ दुग्ध समान॥
क्षीरस्-स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥59॥
ॐ ह्रीं क्षीरस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

भो ! जन पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ मधुः समान॥
रस मधु-स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥60॥
ॐ ह्रीं मधुस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

भो ! जन पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ अमृत समान॥
अमृरस् स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥61॥
ॐ ह्रीं अमृतस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः

भो ! जन पाण, भोजन-पान ।
‘लागे हाथ’ घिरत समान॥
सर्पिस् स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥62॥
ॐ ह्रीं सर्पिस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः

अक्षीण ऋद्धिधारी

घर जिस महर्षिन् आहार ।
जीमे सैन्य चक्रि अपार॥
अक्षत महानस धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥63॥
ॐ ह्रीं अक्षीण महानस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।

कुटि जिस, थमें ‘पाणी पात्र’ ।
बैठें ‘सहज’ प्राणी मात्र॥
अक्षत महालय धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥64॥
ॐ ह्रीं अक्षीण महालय ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः

जाप्य-मंत्र
‘ॐ ह्र: श्री ऋद्धिधारी
सर्वऋषिभ्यो: नमो नमः’

जयमाला
==दोहा==
देह नगन दे देशना,
जग विरागता सार ।
जे धरती के देवता,
वन्दन बारम्बार ।।

सद्गुरु अपने जैसे एक

नरक दुख डर जो’वन चाले,
जगा अन्तर्मन हंस विवेक ।
सद्गुरु अपने जैसे एक

आन तरु तल आसन माड़ा,
देख बिजुरी नभ काले मेघ ।।
सद्गुरु अपने जैसे एक

दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर सन्मुख ठाड़े अनिमेष ।
सद्गुरु अपने जैसे एक

तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ओढ़ धृति कम्बल चतुपथ बैठ ।
सद्गुरु अपने जैसे एक

-दोहा-
दुनिया स्वारथ साधती,
इक साँचे गुरुदेव ।
करने मिले, न छोड़िये,
पल भी गुरु की सेव ।।

‘सरसुति-मंत्र’

ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*विसर्जन पाठ*

अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।१।।

धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।२।।

अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।३।।

बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।४।

=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)

==आरती==

जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।

पहली आरति ग्रीष्म दुपारी ।
सूर्य आग बरसाता भारी ।।
चढ़ पहाड़ शिल तप्त निहारा ।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।

दूजी आरति वरषा वासा ।
बिजली देख मेघ काला सा ।।
वृक्ष तले आ आसन माड़ा ।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।

तीजी, आरति ठण्ड करारी ।
सायं साँय कर मारुत चाली ।।
लुभा रहा तब जिन्हें चुराहा ।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।

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