परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
रक्षाबंधन विधान
*पूजन *
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।
बार बार करता आह्वानन ।
सविनय मैं करता संस्थापन ।।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार सन्निधि-करण ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।स्थापना।।
आग हो चली पानी पानी ।
भाग हमारे आनी जानी ।।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार धारा नयन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।जलं।।
द्वार चन्दना खड़े विधाता ।
मेरा वन क्रन्दन से नाता ।।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार धार चन्दन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।चन्दनं।।
शिला टूक अक्षत बजरंगी ।
लहरे जीवन मेरे तंगी ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार धाँ शालि-कण ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।अक्षतं।।
मेंढ़क सुमन पाँत में आया ।
हाय ! न अब तक मैं ढ़क पाया ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार पुष्प नन्दन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।पुष्पं।।
पट खुल पड़े पांव सति लागा ।
सोया मेरा भाग न जागा ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार दिव्य व्यंजन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।नैवेद्यं।।
ग्वाला कुन्द कुन्द बन चाला ।
छाया मन मेरे अंधियारा ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार दीपक रतन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।दीपं।।
नाग बना अध-लोक भूप है ।
घर मेरे दिन भर न धूप है ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार दश गंध अन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।धूपं।।
श्रीफल ने सुन गिरी गिरा ली ।
झोली मेरी अब तक खाली ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार फल नन्द वन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।फलं।।
जल गंधाक्षत पुष्प अनूठे ।
दीपक चरु फल सुरभी फूटे ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार द्रव्य अनगण ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।अर्घ्यं।।
विधान प्रारंभ
चतुर्थ वलय पूजन विधान
सहना आता ।
रहना सादा ।
गहना नाता, बहना पसंद ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०१।।
ॐ ह्रीं श्री दक्ष मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मन का तप ना ।
धन का जप ना ।
वन का नपना, तिनका न ग्रन्थ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०२।।
ॐ ह्रीं श्री सुरेन्द्र मन्यु मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्ञानी नागर ।
दानी बादर ।
पाणी पातर, ध्यानी अनन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०३।।
ॐ ह्रीं श्री गुण सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हंसा मानस ।
ध्वंसा तामस ।
वंशा तापस, मंशा अबंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०४।।
ॐ ह्रीं श्री अतिवीर्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ओढें अम्बर ।
दौड़ें अन्दर ।
जोड़ें सम्वर, छोड़ें सुगंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०५।।
ॐ ह्रीं श्री विजय शार्दूल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जोड़ी कछुआ ।
चोरी मनुआ ।
छोड़ी बटुआ, ओ ‘री भदन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०६।।
ॐ ह्रीं श्री परमोत्साह मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जब हैं हारे ।
सब हैं प्यारे ।
अब हैं न्यारे, कब हैं स्वछन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०७।।
ॐ ह्रीं श्री निर्वाण घोष मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
श्रुत से जागे ।
मद से आगे ।
बुत से लागे, खुद से सुदन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०८।।
ॐ ह्रीं श्री जित पद्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जन जन नाता ।
कण कण ज्ञाता ।
धन धन त्राता, मन मन वसंत ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३०९।।
ॐ ह्रीं श्री सुमित्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वस्ता छूटा ।
रस था फूटा ।
रिश्ता नूठा, रस्ता सुझन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१०।।
ॐ ह्रीं श्री प्रिय बन्धु मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कुढ़ना भूले ।
कब न झूले ।
जड़ ना फूले, त्रुटि न पसंद ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३११।।
ॐ ह्रीं श्री रत्नजटी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धनु धर दीना ।
तनु भर लीना ।
मन मर्जी ना, अनुचर जिनन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१२।।
ॐ ह्रीं श्री चक्ररथ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पथ नापा वन ।
सत् भाँपा मन ।
मद काँपा धन ! रत आप निन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१३।।
ॐ ह्रीं श्री साहस गति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हर छिन देवा ।
तर दिन सेवा ।
तर बिन खेवा, अर छिन्द छिन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सबजी छोड़ें ।
कब जी तोड़ें ।
रव जी जोड़ें, अभिजीत जिन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१५।।
ॐ ह्रीं श्री सुयोधन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पुरु सा ‘भी’ धन ।
गुरु सा ही मन ।
तरु सा जीवन, पुरुषार्थ वन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१६।।
ॐ ह्रीं श्री महाबाहु मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नौ बिन तीरा ।
दव घिन चीरा ।
रव जिन वीरा, भव भिन्द भिन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१७।।
ॐ ह्रीं श्री निश्चल प्रभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विश्वास महज ।
निश्वास सहज ।
नु-श्वास अरज, निस्वार्थ वृन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१८।।
ॐ ह्रीं श्री कुमुद चंद मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जग जग ज्योती ।
जगमग मोती ।
रग रग पोथी, नँग नँग सुकन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३१९।।
ॐ ह्रीं श्री महाकांति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सध्वा जैसी ।
विधवा वैसी ।
निध भा ऐसी, विद् भाष हिन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२०।।
ॐ ह्रीं श्री रत्नाकर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सावन तरु तर ।
पावन गुरुतर ।
भावन पुरु दर, धावन अदन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२१।।
ॐ ह्रीं श्री विभूति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रतिभा रत हैं ।
पत भारत हैं ।
हत स्वारथ हैं, नत भाल इन्द्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२२।।
ॐ ह्रीं श्री सनत कुमार मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धो खा चखते ।
चौखा लिखते ।
नौका रखते, नवकार मंत्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२३।।
ॐ ह्रीं श्री पुण्य वर्धन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक तू रटते ।
खुश्बू रखते ।
बस भू रिश्ते, इक दूर द्वन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२४।।
ॐ ह्रीं श्री पूर्व धन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जग प्रीती है ।
रग नीती है ।
दृग भीती है, दृग नीर बिन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२५।।
ॐ ह्रीं श्री मेघ सघन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आनन चन्दर ।
कानन अन्दर ।
पाँवन सुन्दर, आनन्द कन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२६।।
ॐ ह्रीं श्री कनक प्रभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रग रग जनहित ।
डग मग न चरित ।
जग जग चर्चित, अघ संजयन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२७।।
ॐ ह्रीं श्री संजयन्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जश वैरागी ।
शिशु वय त्यागी ।
शश बेदागी, वश वैजयंत ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२८।।
ॐ ह्रीं श्री विजयन्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वरना मुक्ति ।
तरणा भुक्ति ।
शरणा भक्ति, सुर नाग वन्द्य ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३२९।।
ॐ ह्रीं श्री विबुधधर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भक्ती सरसुत ।
शक्ती अद्भुत ।
मुक्ती निश्चित, गुप तीन संध्य ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३०।।
ॐ ह्रीं श्री यमधर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निध जित चितवन ।
सुध नित प्रतिक्षण ।
बुध अति इति धन, शुद्ध चिदानंद ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३१।।
ॐ ह्रीं श्री दमधर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बलभद नूरी ।
छल छिद दूरी ।
शल भिद चूरी, कल छत्र फुन्द।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३२।।
ॐ ह्रीं श्री श्रीधर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दे जो न कहत ।
मैं जो मेंटत ।
सहजो मैं रट, तेजो प्रचण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३३।।
ॐ ह्रीं श्री द्युति मण्डल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चीरत चीरा ।
तीरथ नीरा ।
धी मत वीरा, कीरत अमन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३४।।
ॐ ह्रीं श्री अशोक तिलक मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सत् सति पीछे ।
श्रुत रति खींचे ।
पथ अति नीचे, गत प्रतिद्-द्वन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३५।।
ॐ ह्रीं श्री अजित सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समरथ विशेष ।
सुमरत जिनेश ।
निरखत स्वदेश, उपरत प्रबंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३६
ॐ ह्रीं श्री विचित्र सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कब विष बोबत ।
सब दिश् शोभत ।
कब निश सोवत, कब विषय फन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३७।।
ॐ ह्रीं श्री जय सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रस ‘जग’ जीते ।
धँस दृग तीते ।
झष जग रीते, जश दिग् दिगंत ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३८।।
ॐ ह्रीं श्री जयकीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
छाया आतप ।
काया का तप ।
भाया स्वा जप, माया निकन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३३९।।
ॐ ह्रीं श्री विजय कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ना दो कहते ।
आंखों रहते ।
साधो ! सहते, ना दोष धुन्ध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४०।।
ॐ ह्रीं श्री कन-कोज्ज्वल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रागी जिनमत ।
जागी परिणत ।
त्यागी दुर्मत, भागी सुनन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४१।।
ॐ ह्रीं श्री कनक नंदि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
क्रूरी खा लें ।
पूरी ना लें ।
नूरी पा लें, दूरी वितन्द्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४२।।
ॐ ह्रीं श्री भव्यसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गृध खनखन तज ।
पद वन वन रज ।
कद जन जन स्रज, मद खण्ड खण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४३।।
ॐ ह्रीं श्री पृथ्वी चंद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वनपत गौ’री ।
सम्पत छोड़ी ।
जिन मत जोड़ी, मण रत्न धंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४४।।
ॐ ह्रीं श्री समुद्र गुप्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फिक्री मुक्ता ।
शक्री भक्ता ।
अंघ्रि मुक्ता, चक्री त्रिखण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४५।।
ॐ ह्रीं श्री रत्नश्रवण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बुत रम जाते ।
नित गम खाते ।
झट नम जाते, श्रुत अमृत कुण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४६।।
ॐ ह्रीं श्री सागर सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चरणा शरणा ।
करुणा तरुणा ।
तरणा किरणा, चरणा-रविन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४७।।
ॐ ह्रीं श्री रश्मिवेग मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बिन पतवारा ।
छिन तर धारा ।
दिनपत हारा, जिन भक्ति अंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४८।।
ॐ ह्रीं श्री विपुल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घोड़ा छोड़ा ।
मोरा तोरा ।
हिवरा धौरा, शिव राध कन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३४९।।
ॐ ह्रीं श्री शिव कुमार मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कछुआ ‘भी‘तर ।
न छुआ ही स्वर ।
न धुँआ, धीवर, मनुआ अतन्द्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५०।।
ॐ ह्रीं श्री गुप्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
साहिल केवल ।
काहिक थे कल ।
काबिल केवल, गाफिल न चन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५१।।
ॐ ह्रीं श्री सुगुप्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देशक सुर…भी ।
बेशक सुरभी ।
ले रख चरु घी, सेवक सुरिन्द्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५२।।
ॐ ह्रीं श्री देवेन्द्र कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फूटी झिर सत ।
नूठी फुरसत ।
रूठी दुरमत, छूटी भिड़ंत ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५३।।
ॐ ह्रीं श्री विनय कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सत् का वर्णन ।
पत का रक्षण ।
मन का शिक्षण, कृतकाल अन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५४।।
ॐ ह्रीं श्री वज्रजंघ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अवसर पुण्या ।
रव सुर धन्या ।
भव हर गुण्या, शिव स्वर्ग स्यंद ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५५।।
ॐ ह्रीं श्री श्वेतसंदीव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दीक्षा गूंजी ।
शिक्षा पूंजी ।
कक्षा दूजी, रक्षा सुगंद ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त।।३५६।।
ॐ ह्रीं श्री यशोधर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मुखिया श्रमणा ।
अंखिया करुणा ।
दुखिया अपना, सुखिया समन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३५७।।
ॐ ह्रीं श्री सुधर्माचार्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कँपते किस से ।
गप थे किस्से ।
दिपते शश से, नपते सुपन्थ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त।।३५८।।
ॐ ह्रीं श्री मंदिर स्थविर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाठी न शरण ।
पाटी न नयन ।
घाटी ना कठिन,पाठी कृदन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त।।३५९।।
ॐ ह्रीं श्री अमितगति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भरमण अब ना ।
अनबन अब ना ।
सुमरण कब ना, कर्मन स्वतंत्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६०।।
ॐ ह्रीं श्री जयवर्धन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पल्या जीना ।
शल्या बीना ।
दल्या घ्रीणा, कल्याण पंत ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६१।।
ॐ ह्रीं श्री कल्याण सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुषमा अर ना ।
शिशु माँ करुणा ।
तुष मा रुष ना, सुसमाध तंत्र ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त।।३६२।।
ॐ ह्रीं श्री आत्म प्रकाश मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चश्मा फेंका ।
जश माँ रेखा ।
हॅंस मांगें क्या ? वसु मात नन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६३।।
ॐ ह्रीं श्री पुण्डरीक मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रतिमा भगवत ।
गरिमा अगणत ।
सत् मारग रत, महिमा अचिन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६४।।
ॐ ह्रीं श्री अचिंत्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुख बो चाले ।
दुख खो चाले ।
झुक जो चाले, मुख बोल ग्रंथ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त।।३६५।।
ॐ ह्रीं श्री विशुद्ध बुद्धि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मग प्रीती है ।
अघ भीती है ।
अख जीती है, कुछ पीन तुण्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६६।।
ॐ ह्रीं श्री महासागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विषधर लाँधें ।
ईश्वर माँगें ।
रस हर त्यागें, जश धरम नन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६७।।
ॐ ह्रीं श्री अनंत धर्म मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दव ना कामा ।
भव ना आमा ।
लव ना श्यामा, नव नाहिं बंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६८।।
ॐ ह्रीं श्री अरिदमन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नख शिख हटके ।
कब शिख भटके ।
वच शिख तट के, हिम शिखर कंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३६९।।
ॐ ह्रीं श्री शंख छव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुनना सीखा ।
पुन नादी का ।
बुनना नीका, गुण नाहिं अन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७०।।
ॐ ह्रीं श्री अशंख गुण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बाला नुमास ।
बाला निराश ।
‘बाला’ दुमास, काला जयन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७१।।
ॐ ह्रीं श्री अमोघ विजय मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तांता सेवक ।
साता देवक ।
त्राता बेशक, पाँता सतिन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७२।।
ॐ ह्रीं श्री भूरिश्रवा मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तन पट फेंके ।
जिन रट लेके ।
धन ! भट देखे, मल पटल मण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७३।।
ॐ ह्रीं श्री वीरभद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नव रस मण्डन ।
दव दश भंजन ।
रव जश गुंजन, छव पुष्प कुन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७४।।
ॐ ह्रीं श्री स्तिमित मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भागा अरि ग्रह ।
त्यागा परिग्रह ।
माँगा हरि-गृह, धागा न ग्रन्थ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७५।।
ॐ ह्रीं श्री अयोधन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नमते कब ना ।
भ्रमते अब ना ।
जमते सब ना, रमते अजन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७६।।
ॐ ह्रीं श्री सात्यकि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नूरी आभा ।
भूरी लाभा ।
सूरी कावा, दूरी घमण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७७।।
ॐ ह्रीं श्री विनय दत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बोली मिसरी ।
गोरी निश’री ।
तोरी बिसरी, मोरी न गन्ध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७८।।
ॐ ह्रीं श्री मधु मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
साधित एका ।
साबित नेका ।
जागृत देखा, आदित्य पंक्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३७९।।
ॐ ह्रीं श्री आदित्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सीवन नाता ।
जीवन दाता ।
‘ही’वन घाता, जीवन्त ग्रन्थ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८०।।
ॐ ह्रीं श्री अत्रेय मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घेरें कर्मन ।
फेरें फिर मन ।
टेरें परिजन, छेरें न तन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८१।।
ॐ ह्रीं श्री वज्र मुष्ठि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
श्वासा नेकी ।
आशा फेंकी ।
नासा देखी, काषाय मन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८२।।
ॐ ह्रीं श्री कार्तिकेय मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ओढ़ा दिश् दश ।
छोड़ा विष दश ।
जोड़ा वृष दश, चौराह ठण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८३।।
ॐ ह्रीं श्री संकल्प भूषण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ऊँचा चिन्तन ।
पूजा इन्दन ।
गूंजा ग्रंथन, मूर्छा न सन्ध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८४।।
ॐ ह्रीं श्री दीक्षान्त सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल्दी-विसरी ।
हल्दी-बिखरी ।
ज्वल दी गठरी, चल नीर छन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८५।।
ॐ ह्रीं श्री अतिशय मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुख का झरना ।
दुख का झिरना ।
रुख काजर ना, मुख कान्त चन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८६।।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रकान्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तप राग बिना ।
जप रात दिना ।
कुप् राख बना, अपराध दण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८७।।
ॐ ह्रीं श्री काल संदीव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खुश्बू बिखरी ।
वसु भू पगड़ी ।
वस्तु विरली, जश पून चन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८८।।
ॐ ह्रीं श्री सोमयश मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रस आता ना ।
विष आशा ना ।
कृष आपा ना, शश आभ पंथ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३८९।।
ॐ ह्रीं श्री सोमप्रभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भूषण धरणी ।
मूरण करनी ।
चूरण भरनी, पूरण सुसिन्ध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९०।।
ॐ ह्रीं श्री पूर्ण सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कानन निवास ।
वाहन न पास ।
पाहन तराश, माहन महन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९१।।
ॐ ह्रीं श्री अपूर्व सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अरिहन कल के ।
अरि ! मन हल्के ।
हरि तन झलके, निर्ग्रन्थ पन्थ ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९२।।
ॐ ह्रीं श्री प्रतिसूर्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सरसुत कंठा ।
पथ निष्कण्ठा ।
गत पाखण्डा, दृग श्रुतस्-कंध ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९३।।
ॐ ह्रीं श्री विश्व लोचन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बद ना बोया ।
मदना रोया ।
कद ना खोया, मदना दुरंत ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९४।।
ॐ ह्रीं श्री संभव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
स्वारथ हाँपी ।
माँगत माफी ।
भा रत काफी, पावत-विनन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९५।।
ॐ ह्रीं श्री शंभू मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मन रखते वश ।
धन रखते जश ।
तन रखते कस, संरक्ष जन्त ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त।।३९६।।
ॐ ह्रीं श्री आत्मवान् मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कोटी सूरज ।
मोती भू रज ।
पोथी, छू कज, ज्योति अखण्ड ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९७।।
ॐ ह्रीं श्री स्वयं ज्योति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आलस छोड़ा ।
पारस मोरा ।
‘मानस’ जोड़ा, साहस अमंद ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९८।।
ॐ ह्रीं श्री दमीश्वर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दर दर भिक्षा ।
घर-घर शिक्षा ।
‘सर सर’ रक्षा, अर दरद मन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।३९९।।
ॐ ह्रीं श्री अमृतोत्सव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गोरी आदर ।
कोरी चादर ।
थोड़ी बाहर, जोड़ी जिनन्द ।
जय साध सन्त, जय साध सन्त ।।४००।।
ॐ ह्रीं श्री हृदय सुन्दर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
॥ जयमाला ॥
महिमा रक्षा बंधन पर्व अपार ।
जयतु सप्त शत, मुनि जय विष्णु कुमार ।।
नगरी उज्जैनी रजधानी ।
नृप श्री-वर्मा, श्रीमति रानी ।।
नमुचि, वृहस्पति, बलि प्रहलादा ।
मंत्रि मंत्रणा मद आमादा ।।
सप्त शतक मुनि सहित पधारे ।
सूर अकम्पन तारण हारे ।।
देख भक्त जन आना जाना ।
राजा ने भी जाना ठाना ।।
रोक खड़े मंत्री चारों के चार ।
लो पीछे, जब चलने नृप तैयार ।।१।।
राजा ने दी ढोक सभी को ।
ध्यान मग्न थे चूँकि सभी वो ।।
तभी न आशीर्वाद नवाजा ।
वृत्ति निरीह प्रभावित राजा ।।
झुके न, मंत्री अड़े खड़े हैं ।
बोले, ये सब मूर्ख निरे हैं ।।
पहले ही चित चारों खाने ।
लाज बचायें, मौन बहाने ।।
चलो यहाँ से चलें शीघ्र सरकार ।
समय कीमती यूँ ही व्यर्थ निछार ।।२।।
देख मार्ग में आते मुनि को ।
मंत्रि लगे छेड़ने उनको ।।
बैल पेट भरकर आ चाला ।
भैंस बराबर अक्षर काला ।।
उत्तर दे चाले तपाक से ।
मुनि श्रुत सागर सार्थ आप से ।।
वाद विवाद मंत्रि गण हारे ।
गूंजे दया धर्म जयकारे ।।
साँच कहावत नीचे ऊंट पहाड़ ।
नजर चुरा मंत्री गण नौ दो ग्यार ।।३।।
मुनि ने गुरु से सब कह डाला ।
गुरु ने कहा, सुनो यति बाला ।।
आती आपद के पग बांधो ।
प्रतिमा-योग वहीं जा साधो ।।
ठाना कहर संघ पर ढ़ाना ।
निकले मंत्री लिये कृपाणा ।।
देख सामने अपना वैरी ।
किया प्रहार, न कीनी देरी ।।
कीलित सभी, खड़े बुत से लाचार ।
नृप ने सुबह देश से दिये निकाल ।।४।।
पहुंच हस्तिनापुर अब मंत्री ।
खड़े पद्म नृप सेवक पंक्ति ।।
सिंहबल नाम शत्रु नृप पदमा ।
ला बलि खड़ा किया नृप कदमा ।।
खुश होकर नृप बोले बलि से ।
मांगो मनचाहा वर मुझ से ।।
बलि बोला, मम दृग पथ गामी ! ।
समझें उसे धरोहर स्वामी ! ।।
हुआ अकम्पन सूर ससंघ विहार ।
कभी हस्तिनापुर लख वर्षा काल ।।५।।
बलि ने नृप वर याद दिलाया ।
सात दिवस का राज मँगाया ।।
घेर संघ जूठन फिकवाई ।
गला रुधा, यूँ धुंआ कराई ।।
दूर न जब तक यह उपसर्गा ।
साध खड़े मुनि कायोत्सर्गा ।।
अवधि ज्ञान दृग दिया दिखाई ।
शिख ढ़िग विष्णु कुमार पठाई ।
सुन रिध विक्रियधर उपसर्ग निवार ।
हेत परीक्षा मुनि दी बाहु पसार ।।६।।
बलि से बोले विष्णु कुमारा ।
क्या बिगाड़ते साधु तुम्हारा ।।
क्यों ये पाप कार्य करते हो ।
क्या उससे भी ना डरते हो ।।
बलि बोला, ये राज हमारा ।
छोड़ इसे, यह करें विहारा ।।
ऋषि बोले, यह जा नहीं सकते ।
जगह एक बरसात ठहरते ।।
अच्छा सुनो करो इतना उपकार ।
भूमि तीन डग दे दो, बनो उदार ।।७।।
बलि बोला, ना ज्यादा दूँगा ।
बाद खबर इन सबकी लूँगा ।।
फिर क्या ? विष्णु कुंवर हुंकारे ।
बढ़ ज्योतिस्-मण्डल छू चाले ।।
डग पहले सुमेर गिर नाका ।
दूज मानुषोत्तर गिर राखा ।।
डग तीजा नभ में लहराये ।
नर, सुर, नाग धरा थर्राये ।।
निरत भक्ति सौधर्म साथ परिवार ।
मुनि सकोचि विक्रिय सुन धुन रिध-धार ।।८।।
क्षमा संघ से बलि ने मांगी ।
‘धर्म वृद्धि’ कह चले विरागी ।।
श्रावक मुनि पड़गा हरषाये ।
नवधा भक्ति अहार कराये ।।
रक्षा बंधन पर्व मनाया ।
जश मुनि विष्णु कुमार बढ़ाया ।।
हित प्रायश्चित ऋषि बढ़ चाले ।
कर्म सभी ध्यानानल जारे ।।
समय मात्र परिणाई शिवपुर नार ।
लागी सौख्य ‘निराकुल’ अविरल धार ।।९।।
दोहा
यह रक्षा बंधन कथा,
पढ़ें सुन जे जीव ।
उनके जीवन में जगे,
सम्यक् ज्ञान प्रदीव ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
*विसर्जन पाठ*
अंजन को पार किया ।
चंदन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।
अगनी ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।
( निम्न श्लोक पढ़कर
विसर्जन करना चाहिये )
*दोहा*
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
।।आरति।।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।
आरती पहली धन समता ।
नीर बहता जोगी रमता ।।
मंत्रि बलि आद अत्त ढ़ाया ।
संघ न माथ शिकन लाया ।।
लेख कृत पूरब किया सहन ।
सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।
आरती दूजी धन शक्ती ।
नाग, नर, देव करें भक्ती ।।
कौन इनसे ऊँचा जग में ।
नाप ली धरती दो डग में ।।
निकट गुरु खड़े हित प्रतिक्रमण ।
सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।
आरती तीजी धन करुणा ।
हिरण सिंह बैठे सम शरणा ।।
क्षमा माँगी, दृग नम कीनी ।
ढोक बलि आदि मंत्रि दीनी ।।
‘निराकुल’ सुख आशीष वचन ।
सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।
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