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RakshaVandhan

3. रक्षाबंधन विधान 201 to 300

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

रक्षाबंधन विधान

*पूजन *
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।
बार बार करता आह्वानन ।
सविनय मैं करता संस्थापन ।।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार सन्निधि-करण ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।स्थापना।।

आग हो चली पानी पानी ।
भाग हमारे आनी जानी ।।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार धारा नयन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।जलं।।

द्वार चन्दना खड़े विधाता ।
मेरा वन क्रन्दन से नाता ।।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार धार चन्दन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।चन्दनं।।

शिला टूक अक्षत बजरंगी ।
लहरे जीवन मेरे तंगी ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार धाँ शालि-कण ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।अक्षतं।।

मेंढ़क सुमन पाँत में आया ।
हाय ! न अब तक मैं ढ़क पाया ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार पुष्प नन्दन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।पुष्पं।।

पट खुल पड़े पांव सति लागा ।
सोया मेरा भाग न जागा ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार दिव्य व्यंजन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।नैवेद्यं।।

ग्वाला कुन्द कुन्द बन चाला ।
छाया मन मेरे अंधियारा ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार दीपक रतन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।दीपं।।

नाग बना अध-लोक भूप है ।
घर मेरे दिन भर न धूप है ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार दश गंध अन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।धूपं।।

श्रीफल ने सुन गिरी गिरा ली ।
झोली मेरी अब तक खाली ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार फल नन्द वन ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।फलं।।

जल गंधाक्षत पुष्प अनूठे ।
दीपक चरु फल सुरभी फूटे ।
आन पधारो, हृदय हमारे ।
मुझे उबारो, लाखों तारे,
स्वीकार द्रव्य अनगण ।
जयतु सप्त-शत अकंपनादिक,
विष्णु कुमार श्रमण ।।अर्घ्यं।।

विधान प्रारंभ

तृतीय वलय पूजन विधान

प्रद्योत रतन ।
संज्योत मगन ।
शिव पोत चरण, तट निराबाध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०१।।
ॐ ह्रीं श्री प्रद्योत मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

जग मित्र करण ।
हित चित्त हरण ।
तज वित्त शरण, वन निजाराध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०२।।
ॐ ह्रीं श्री पुष्प मित्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

शिव सुरग तरण ।
दिव सजग चरण ।
छव अलग वदन, शश प्रभ विराध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०३।।
ॐ ह्रीं श्री नरसिंह मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

लख विष विषयन ।
दिश् विदिश् वसन ।
प्रति क्रमण शरण, वध निरपराध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०४।।
ॐ ह्रीं श्री नाग सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नाता सुमरण ।
माता प्रवचन ।
त्राता त्रिभुवन, पूरण मुराद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०५।।
ॐ ह्रीं श्री राम सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मन धीर धरण ।
गंभीर वचन ।
भय पीर हरण, भवि दृष्टिपात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०६।।
ॐ ह्रीं श्री धृतिषेण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दल पद्य नयन ।
प्रभ चन्द्र वदन ।
कल पाणिग्रहण, वधु मुक्ति राध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०७।।
ॐ ह्रीं श्री रतिषेण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

द्रुम सुरुत रमण ।
नम विनत नयन ।
तम विमत हरण, हट मुख प्रसाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०८।।
ॐ ह्रीं श्री रविषेण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

अमरित वर्षण ।
समकित दर्शन ।
अर्पित चरणन, श्रद्धा अगाध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२०९।।
ॐ ह्रीं श्री सोमसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

जित अक्ष करण ।
निष्पक्ष वरण ।
अध्यक्ष धरण, रत गुणाराध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१०।।
ॐ ह्रीं श्री जिनसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

पशु खाज हरन ।
शिशु आज सुमन ।
अशु ताज सदन, शिव स्वर्ग माथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२११।।
ॐ ह्रीं श्री वीरसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

सुर खड़े चरण ।
स्वर बड़े कमन ।
फिर बढ़े चरण, लख चार हाथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१२।।
ॐ ह्रीं श्री देवसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

छोड़ी खनखन ।
तोड़ी अनबन ।
दौड़ी सुरगन, सम्पद अबाध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१३।।
ॐ ह्रीं श्री वारिषेण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

सुकुमाल चरण ।
हित काल हनन ।
घुँघराल कचन, लुंचन स्व हाथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१४।।
ॐ ह्रीं श्री कुमार सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

ग्रीष्म शिखरन ।
झिर तर तरुअन ।
चतु पथ ठण्डन, कट चले रात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१५।।
ॐ ह्रीं श्री यशोभद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मन पर शासन ।
दृढ़तर आसन ।
रुचि उपवासन, ऊनोदराद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१६।।
ॐ ह्रीं श्री जिनेद्र बुद्धि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

पाणी भोजन ।
वाणी रोथन ।
पानी लोचन, लख और बाध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१७।।
ॐ ह्रीं श्री गुण रत्न मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नित श्रुत मंथन ।
व्रत संरक्षण ।
संस्तुति वन्दन, तिहु जगन्नाथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१८।।
ॐ ह्रीं श्री वज्रनंदि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

उपरत वंचन ।
परिणत कंचन ।
विद जग मंचन, नट जीव काठ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२१९।।
ॐ ह्रीं श्री लोक नन्द मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दृग तीजी धन ।
रग श्री जी जन ।
जग जी जी मन, कुछ धस समात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२०।।
ॐ ह्रीं श्री सुरेन्द कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

धिक चालें हन ।
लख चालें वन ।
टिक चालें धन, इक घड़ी आध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२१।।
ॐ ह्रीं श्री जगत्कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दृग दो सावन ।
जग दो पावन ।
भग दो पाँवन, नापें न काद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२२।।
ॐ ह्रीं श्री नयन कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

श्रुत पारायण ।
बुत आराधन ।
व्रत आसादन, प्रतिकमण हाथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२३।।
ॐ ह्रीं श्री शुभ कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

झिर, शीत, तपन ।
इक पार्श्व शयन ।
सिरहान सपन, करते न पार ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२४।।
ॐ ह्रीं श्री त्रिभुवन कीर्ति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मन हटा व्यसन ।
मन कटा, वसन ।
मन उठा प्रशन, दें बिठा हाथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मल पाटल तन ।
धन ! आभूषण ।
मन गत दूषण, न्हवन न घाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२६।।
ॐ ह्रीं श्री निर्मम मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मिथ्यात्व हनन ।
सम्यक्त्व ग्रहण ।
जिन दीक्ष वरण, तजकर उपाध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२७।।
ॐ ह्रीं श्री अनन्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

थिति भुक्त लखन ।
थिति गुप्ति करण ।
श्रुति मुक्ति चरण, भजकर समाध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२८।।
ॐ ह्रीं श्री गुण नन्दि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मासूम सुमन ।
रत भूम शयन ।
गत झूम पवन, मन दीप ख्यात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२२९।।
ॐ ह्रीं श्री दुर्लभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

तन गुप्त नगन ।
मन गुप्त सजन ।
संगुप्त वचन, गत आध व्याध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३०।।
ॐ ह्रीं श्री शिवगुप्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

बसते जो’वन ।
रिसते लोचन ।
रिश्ते पौधन, दें प्रेम खाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३१।।
ॐ ह्रीं श्री विनयन्-धर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नदिया लें फन ।
वतिया लें क्षण ।
हथिया लें मन, हिरदय विराट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३२।।
ॐ ह्रीं श्री माघ नन्दि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

कब बलकल तन ।
कब हलचल मन ।
कब छल बल क्षण, इति’हास गाथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३३।।
ॐ ह्रीं श्री गुरुदत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

वृत गोचर धन ।
व्रत अख म्रक्षण ।
वृत भ्रमर अशन, लेते न स्वाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३४।।
ॐ ह्रीं श्री विशाखा नन्दि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

भगवान् भजन ।
अभिमान शमन ।
जिनवाण वचन, कब काट छाँट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३५।।
ॐ ह्रीं श्री विशाख भूति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

अख मन मुंडन ।
वच तन मुण्डन ।
हथ, पद मुण्डन, रत विरद भाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३६।।
ॐ ह्रीं श्री विद्युत् प्रभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

रहना कण कण ।
रहना वन वन ।
रहना जन मन, सिर कहाँ छाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३७।।
ॐ ह्रीं श्री वशिष्ट मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

उत्सुकता हन ।
उत्साह रमन ।
उत्सव क्षण क्षण, निरसन विषाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३८।।
ॐ ह्रीं श्री वरुण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

छरहरा बदन ।
जल भरा नयन ।
चल धरा गगन, हरि, हर, विधात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२३९।।
ॐ ह्रीं श्री वैश्रवण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

श्म’शान सदन ।
पाषाण रतन ।
अपमान भजन, इक वटु किरात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४०।।
ॐ ह्रीं श्री शिवदत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

भीतर फौरन ।
मनके पौरन ।
लख त्रुट औरन, झट दृग झपात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४१।।
ॐ ह्रीं श्री समुद्र दत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

गत शल्य सुमन ।
रत मल्ल यजन ।
वात्सल्य भुवन, तज जात पात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४२।।
ॐ ह्रीं श्री समुद्र विजय मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नित एकासन ।
हित मित भाषण ।
जिन पत शासन, कीरत बढ़ात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४३।।
ॐ ह्रीं श्री सागरदत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

जड़ अनंग हन ।
लड़ फिरंग फन ।
बढ़ तरंग मन, झट पट बिठात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४४।।
ॐ ह्रीं श्री प्रतिज्ञा सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दूनर, जश छिन ।
चूनर शश, गिन ? ।
शूनर जल बिन, सुन घट झुकात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४५।।
ॐ ह्रीं श्री प्रबोध मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

स्मर सपने हन ।
‘कर’ सपने धन ।
पर अपने मन, साहस बँधात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४६।।
ॐ ह्रीं श्री महोदधि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मृग दौड़ शमन ।
नम कोर नयन ।
वन ओर गमन, तज ठाठ-बाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४७।।
ॐ ह्रीं श्री विद्युत्केश मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

भू लपट अगन ।
लू लपट तपन ।
गर्मी भीषण, दिन गिर बितात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४८।।
ॐ ह्रीं श्री वज्रदन्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दो नौ न चरण ।
धोनो, न न्हवन ।
नौ नौ विचरण, क्या कटे बात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२४९।।
ॐ ह्रीं श्री सुयशोदत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

पत गुरुकुल धन ।
निर् आकुल मन ।
अविरल सुमरण, नित सुप्रभात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५०।।
ॐ ह्रीं श्री सुप्रभात मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

स्वाध्याय मगन ।
अकषाय वरण ।
असहाय शरण, नत देवराट् ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५१।।
ॐ ह्रीं श्री धर्म नन्दन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

न चलें मांगन ।
न मिलें रावन ।
नच लें सावन, उपवास साथ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५२।।
ॐ ह्रीं श्री विचित्रोत्सव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

हैं दूर जलन ।
हैं दूर चलन ।
हैं दूर कुढ़न, खोदे न खात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५३।।
ॐ ह्रीं श्री विमुचि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

खोलें लोचन ।
खो लें जो’वन ।
खोलें जो धन !, शिव दर कपाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५४।।
ॐ ह्रीं श्री प्रतिष्ठित मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

तप भान किरण ।
बढ़ ध्यान अगन ।
श्रुत ज्ञान पवन, भव जल सुखात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५५।।
ॐ ह्रीं श्री भवभूति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।

मन सूक्ति रमन ।
संगुप्त वचन ।
धन मुक्ति जतन, गुप समिति मात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५६।।
ॐ ह्रीं श्री मुनिचन्द्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।

बिन घोड़े मन ।
पट ओड़े बिन ।
श्रुत थोड़े धन ! शिरपुर बरात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५७।।
ॐ ह्रीं श्री चक्रांक मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

हित भार वचन ।
गत राग लखन ।
सर्वग भगवन्, श्रद्धा अकाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५८।।
ॐ ह्रीं श्री जयघोष मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

लट घूँघर धन ।
पट चूनर बिन ।
नूपुर रुनझुन, मुख चन्द्र भांत ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२५९।।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रवाहन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

श्रुत माता चुन ।
शिव दाता धुन ।
पुरु गाथा पुन, जब तब सुनात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६०।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मंशा पूरण ।
ध्वंसा दूषण ।
हंसा भूषण, जग तीन त्रात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६१।।
ॐ ह्रीं श्री विश्वसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

प्रणिपात चरण ।
परमाद शमन ।
आराध जतन, नव अर झरात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६२।।
ॐ ह्रीं श्री नन्दि घोष मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

उपसर्ग सहन ।
अपवर्ग न मन ।
जप स्वर्ग न धन !, सुर नान्द पाठ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६३।।
ॐ ह्रीं श्री अग्नि भूति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

अवीचि सु-मरण ।
धन ! पीछि लखन ।
बन पाछि पवन, स्वर्गन धकात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६४।।
ॐ ह्रीं श्री वायुभूति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

भद्दे न वचन ।
गंदे न चरण ।
गद्दे न शयन, छूते न खाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६५।।
ॐ ह्रीं श्री कीर्तिमान मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नेकान्त शरण ।
एकान्त रमण ।
उपशान्त करण, उपरत विवाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६६।।
ॐ ह्रीं श्री सुमेरु मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

धन चिन्-चिंतन ।
जित रण चितवन ।
गत विष विषयन, बढ़ सिंह निनाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६७।।
ॐ ह्रीं श्री महाबल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

श्रुत संपादन ।
वृत अनुपालन ।
रत आराधन, जिन आद आद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६८।।
ॐ ह्रीं श्री पद्य मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नित जागृत धन !
प्रतिभारत मन ।
व्रति स्वारथ हन, निज निन्द भात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२६९।।
ॐ ह्रीं श्री प्रीतिकान्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मुखड़ा मोहन I
मथ्था रोशन ।
तन गोरोचन, छव पुष्प दाँत ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७०।।
ॐ ह्रीं श्री पंकज गुल्म मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

चल तीरथ धन ! ।
ध्वज कीरत पुन ।
नेकी रट मन, पद पद्य यात्र ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७१।।
ॐ ह्रीं श्री दृढ़ रथ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नीरा नयनन ।
हीरा मन मन ।
तीरा जन जन, बीड़ा उठात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७२।।
ॐ ह्रीं श्री महा मेघरथ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दृग झरना धन ! ।
रग करुणा कण ।
जग अपनापन, वत्सल सजात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७३।।
ॐ ह्रीं श्री श्रीधर्म मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

कद दूज भुवन ।
मद कूँच रणन ।
सत गुंज गगन, सूर पूज पाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७४।।
ॐ ह्रीं श्री सुरश्रेष्ठ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

जग राता धुन ।
जग त्राता चुन ।
जग दाता पुन, दें देव दाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७५।।
ॐ ह्रीं श्री यशस्कान्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

गत भार गमन ।
गलहार जतन ।
श्रुत सार रमन, कल सिद्ध पाँत ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७६।।
ॐ ह्रीं श्री वज्रसेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नम कोर नयन ।
यम दोर मदन ।
कमजोर न मन, सिंह शत्रु माँद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७७।।
ॐ ह्रीं श्री महासेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

गिर गिर अंगुलिन ।
चल चक्र चरण ।
वश दृष्टि धरण, श्वस शंखनाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७८।।
ॐ ह्रीं श्री रिपुन्दमन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

ठाड़े सावन ।
माड़े आसन ।
जाड़े तापन, निर्जन लुभात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२७९।।
ॐ ह्रीं श्री स्वयं प्रभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

तन्द्रिल ना तन ।
निन्दित ना जन ।
निन्द्रित ना क्षण, घर के न बांट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८०।।
ॐ ह्रीं श्री प्रौष्ठिल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

सार्थक बन्धन ।
तीर्थक वन्दन ।
तीर्थक नन्दन, शिव राध थात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८१।।
ॐ ह्रीं श्री शिवभूति मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

सम्मुख दर्पण ।
नित् सुख पर्शन ।
पर दुख दर्शन, लोचन प्रपात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८२।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मरुचि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

हूँ ज्ञायक सुन ।
सामायिक चुन ।
धन ! क्षायिक पुन, जश लोक फाँद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८३।।
ॐ ह्रीं श्री परीक्षित मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

वासर कुप् बिन ।
अंदर गुप्तिन ।
ठाकुर मुक्तिन, कल घात घात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८४।।
ॐ ह्रीं श्री जिनदत्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मैं ढकने वन ।
दण्डक सेवन ।
ठण्डक जेहन, बीती सपाट ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८५।।
ॐ ह्रीं श्री विचित्रगुप्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

निश दिवस जतन ।
वश सरस-वतिन् ।
जश ! निवस चरण, मन आ, न जात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८६।।
ॐ ह्रीं श्री चित्रगुप्त मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

कब वन क्रन्दन ।
छव तन चन्दन ।
भव हन वन्दन, दिवि भुवि अराध ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८७।।
ॐ ह्रीं श्री त्रिलोक भूषण मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मैत्री त्रिभुवन ।
‘मैं’ क्षीण करण ।
जै ‘ही’ विवरण, पथ तीन साठ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८८।।
ॐ ह्रीं श्री सुप्रभ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

वसते कानन ।
हँसते आँखन ।
रिश्ते धागन, देते न गाँठ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२८९।।
ॐ ह्रीं श्री सुनन्दन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

चौबीस शरण ।
इकबीस चरण ।
दिन तीस जतन, गत खुरापात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९०।।
ॐ ह्रीं श्री स्वतंत्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

मनमानी हन ।
हन वाणी जन ।
जिनवाणी मन, गत साँठ-गाँठ ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९१।।
ॐ ह्रीं श्री अमितांक मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

बोधी अर्जन ।
क्रोधी अर जन ।
गोदी ‘सर’, क्षण कर्मन छुड़ात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९२।।
ॐ ह्रीं श्री सुधर्म मित्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

चिटियन रक्षण ।
पीछी मार्जन ।
त्रुटि प्रतिक्-कमण, विरहित प्रमाद ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९३।।
ॐ ह्रीं श्री कपिल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

तम धूम्र न कण ।
रोशन त्रिभुवन ।
धन ! दीप रतन, लौ अबुझ वात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९४।।
ॐ ह्रीं श्री अचल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

खेवे नावन ।
चुप बैठा मन ।
कह बेटा धन ! आशा जगात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९५।।
ॐ ह्रीं श्री नंदिमित्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नेहा जन जन ।
गेहा मन मन ।
‘रे हाँ कण कण, गुण असंख्यात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९६।।
ॐ ह्रीं श्री रूप कुम्भ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

अर्णव गुण धन !
भव दव निरसन ।
नव नव चिंतन, पलकें बिछात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९७।।
ॐ ह्रीं श्री स्वर्ण कुम्भ मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

नित ध्यान मगन ।
श्रुत ज्ञान रमन ।
गत मान मदन, नभ कीर्ति गात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९८।।
ॐ ह्रीं श्री शक्र भाल मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

धीरा जो’वन ।
हीरा रोशन ।
पीड़ा औरन, निज दृग भिंजात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।२९९।।
ॐ ह्रीं श्री स्वयंबुद्ध मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

सहसा न गमन ।
रख मार्ग नयन ।
बढ़ चलें चरण, कब जीव घात ।
जय सन्त साध, जय सन्त साध ।।३००।।
ॐ ह्रीं श्री सुव्रत मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

॥ जयमाला ॥

महिमा रक्षा बंधन पर्व अपार ।
जयतु सप्त शत, मुनि जय विष्णु कुमार ।।

नगरी उज्जैनी रजधानी ।
नृप श्री-वर्मा, श्रीमति रानी ।।
नमुचि, वृहस्पति, बलि प्रहलादा ।
मंत्रि मंत्रणा मद आमादा ।।
सप्त शतक मुनि सहित पधारे ।
सूर अकम्पन तारण हारे ।।
देख भक्त जन आना जाना ।
राजा ने भी जाना ठाना ।।
रोक खड़े मंत्री चारों के चार ।
लो पीछे, जब चलने नृप तैयार ।।१।।

राजा ने दी ढोक सभी को ।
ध्यान मग्न थे चूँकि सभी वो ।।
तभी न आशीर्वाद नवाजा ।
वृत्ति निरीह प्रभावित राजा ।।
झुके न, मंत्री अड़े खड़े हैं ।
बोले, ये सब मूर्ख निरे हैं ।।
पहले ही चित चारों खाने ।
लाज बचायें, मौन बहाने ।।
चलो यहाँ से चलें शीघ्र सरकार ।
समय कीमती यूँ ही व्यर्थ निछार ।।२।।

देख मार्ग में आते मुनि को ।
मंत्रि लगे छेड़ने उनको ।।
बैल पेट भरकर आ चाला ।
भैंस बराबर अक्षर काला ।।
उत्तर दे चाले तपाक से ।
मुनि श्रुत सागर सार्थ आप से ।।
वाद विवाद मंत्रि गण हारे ।
गूंजे दया धर्म जयकारे ।।
साँच कहावत नीचे ऊंट पहाड़ ।
नजर चुरा मंत्री गण नौ दो ग्यार ।।३।।

मुनि ने गुरु से सब कह डाला ।
गुरु ने कहा, सुनो यति बाला ।।
आती आपद के पग बांधो ।
प्रतिमा-योग वहीं जा साधो ।।
ठाना कहर संघ पर ढ़ाना ।
निकले मंत्री लिये कृपाणा ।।
देख सामने अपना वैरी ।
किया प्रहार, न कीनी देरी ।।
कीलित सभी, खड़े बुत से लाचार ।
नृप ने सुबह देश से दिये निकाल ।।४।।

पहुंच हस्तिनापुर अब मंत्री ।
खड़े पद्म नृप सेवक पंक्ति ।।
सिंहबल नाम शत्रु नृप पदमा ।
ला बलि खड़ा किया नृप कदमा ।।
खुश होकर नृप बोले बलि से ।
मांगो मनचाहा वर मुझ से ।।
बलि बोला, मम दृग पथ गामी ! ।
समझें उसे धरोहर स्वामी ! ।।
हुआ अकम्पन सूर ससंघ विहार ।
कभी हस्तिनापुर लख वर्षा काल ।।५।।

बलि ने नृप वर याद दिलाया ।
सात दिवस का राज मँगाया ।।
घेर संघ जूठन फिकवाई ।
गला रुधा, यूँ धुंआ कराई ।।
दूर न जब तक यह उपसर्गा ।
साध खड़े मुनि कायोत्सर्गा ।।
अवधि ज्ञान दृग दिया दिखाई ।
शिख ढ़िग विष्णु कुमार पठाई ।
सुन रिध विक्रियधर उपसर्ग निवार ।
हेत परीक्षा मुनि दी बाहु पसार ।।६।।

बलि से बोले विष्णु कुमारा ।
क्या बिगाड़ते साधु तुम्हारा ।।
क्यों ये पाप कार्य करते हो ।
क्या उससे भी ना डरते हो ।।
बलि बोला, ये राज हमारा ।
छोड़ इसे, यह करें विहारा ।।
ऋषि बोले, यह जा नहीं सकते ।
जगह एक बरसात ठहरते ।।
अच्छा सुनो करो इतना उपकार ।
भूमि तीन डग दे दो, बनो उदार ।।७।।

बलि बोला, ना ज्यादा दूँगा ।
बाद खबर इन सबकी लूँगा ।।
फिर क्या ? विष्णु कुंवर हुंकारे ।
बढ़ ज्योतिस्-मण्डल छू चाले ।।
डग पहले सुमेर गिर नाका ।
दूज मानुषोत्तर गिर राखा ।।
डग तीजा नभ में लहराये ।
नर, सुर, नाग धरा थर्राये ।।
निरत भक्ति सौधर्म साथ परिवार ।
मुनि सकोचि विक्रिय सुन धुन रिध-धार ।।८।।

क्षमा संघ से बलि ने मांगी ।
‘धर्म वृद्धि’ कह चले विरागी ।।
श्रावक मुनि पड़गा हरषाये ।
नवधा भक्ति अहार कराये ।।
रक्षा बंधन पर्व मनाया ।
जश मुनि विष्णु कुमार बढ़ाया ।।
हित प्रायश्चित ऋषि बढ़ चाले ।
कर्म सभी ध्यानानल जारे ।।
समय मात्र परिणाई शिवपुर नार ।
लागी सौख्य ‘निराकुल’ अविरल धार ।।९।।

दोहा
यह रक्षा बंधन कथा,
पढ़ें सुन जे जीव ।
उनके जीवन में जगे,
सम्यक् ज्ञान प्रदीव ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

*विसर्जन पाठ*
अंजन को पार किया ।
चंदन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।

धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।

अगनी ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।

बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।
( निम्न श्लोक पढ़कर
विसर्जन करना चाहिये )

*दोहा*
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)

।।आरति।।

आरती विष्णु कुमार श्रमण ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।

आरती पहली धन समता ।
नीर बहता जोगी रमता ।।
मंत्रि बलि आद अत्त ढ़ाया ।
संघ न माथ शिकन लाया ।।
लेख कृत पूरब किया सहन ।

सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।

आरती दूजी धन शक्ती ।
नाग, नर, देव करें भक्ती ।।
कौन इनसे ऊँचा जग में ।
नाप ली धरती दो डग में ।।
निकट गुरु खड़े हित प्रतिक्रमण ।

सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।

आरती तीजी धन करुणा ।
हिरण सिंह बैठे सम शरणा ।।
क्षमा माँगी, दृग नम कीनी ।
ढोक बलि आदि मंत्रि दीनी ।।
‘निराकुल’ सुख आशीष वचन ।

सिर्फ न सांझ सांझ निश दिन ।
आरती विष्णु कुमार श्रमण ।।
धरूँ मैं दृग अनगिन मोती ।
करूँ ले घृत अनबुझ ज्योती ।।

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