श्री मऊ जी के आदिनाथ भगवान् का पूजन विधान
*समर्पण भावना*
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
*विनय-पाठ*
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरब-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साधु-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
थिर-अथिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
‘रे…खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रती उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘आ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, कण-शाल, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शाल, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शाल, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शाल, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, कण-शाल, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं आचार्य श्रीविद्यासागरादि-
त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
अनन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्-ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्-प्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रम-चर्य-घोर ।
मह-दुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि
“आद्य-अष्टक”
राखें, राखी लाज हमेशा ।
नमन तिन्हें वे वृषभ जिनेशा ।।
अभिनन्दित शत इन्द्र समाजा ।
आदि एक भव-जलधि जहाजा ।।
लोकालोक एक अधिशासी ।
ज्ञान-दीप जग-तीन प्रकाशी ।।१।।
बेड़ा पार करें जिन पूजा ।
मुक्ति हेत न जिन सा दूजा ।।
नाभि-राय नृप-नैन सितारे ।
मनुज, नाग, सुर तारण-हारे ।।२।।
जपे नाम तुम पाप पलाया ।
आया सूरज तिमिर बिलाया ।।
थे आने को भू, द्यु-पुर से ।
बरसे रत्न कोटि अम्बर से ।।३।।
जन्म जान शचि मंगल गाया ।
न्हवन सुमेर सुरेन्द्र कराया ।।
आदि प्रजा पालक कहलाये ।
जिन्होंने षट्-कर्म सिखाये ।।४।।
फिर असार संसार जान के ।
ली जिन दीक्षा विपिन आन के ।।
पाया केवल-ज्ञान अनोखा ।
देखा युगपत् लोक-अलोका ।।५।।
आठ-प्राति-हारज आभरणा ।
समव-शरण अशरण इक शरणा ।।
निर्मल जैसा गंगा-पानी ।
वाणी स्याद्वाद कल्याणी ।।६।।
खोल-खोल निधि आप दिखाई ।
पाई सिद्ध शिला ठकुराई ।।
आप आप सम करने वाले ।
पाप ताप अप-हरने वाले ।।७।।
धरा स्वर्ग भवि धरने वाले ।
शिव-वधु इक भरतार निराले ।।
भाग जिन्हें पा गणधर जागे ।
‘सोम से…न जी’ जिनके आगे ।।८।।
राखें, राखी लाज हमेशा ।
नमन तिन्हें वे वृषभ जिनेशा ।।
।।पुष्पांजलिं क्षिपामि।।
“पूजन”
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
शान्त्योदय तीरथ गुण गाओ ।
आदि ब्रह्म जय कार लगाओ ॥
ढोल बजाओ,
ढपली लाओ ।
धूम मचाओ,
नाचो-गाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
भेंटा पानी, सीता रानी ।
आगी खानी, पानी पानी ॥
कलश सजाओ ।
जल भर लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भेंटा चन्दन, त्रिशला नन्दन ।
द्वारे चन्दन, टूटे बन्धन ॥
झार सजाओ ।
चंदन लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
भवाताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भेंटी थाली, अक्षत शाली ।
द्रुपद दुलारी, चीर बढ़ा ‘री ॥
थाल जगाओ ।
अक्षत लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अक्षय पद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुल प्रभु आगे, रख बढ़ भागे ।
लाखन जागे, दृग झिर लागे ॥
थाल सजाओ ।
फुलवा लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
कामबाण विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भेंटा आ…जा, चरु घी ताजा ।
सति नभ गाजा, खुल दरवाजा ॥
थार सजाओ ।
चरु भर लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्योत जगाना, प्रभु रोजाना ।
तिय जय राणा, विघ्न विलाना ॥
दीप सजाओ ।
ज्योत जगाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सभक्ति अंधी, भेंट सुगंधी ।
सुत बजरंगी, ‘तिया-निसंगी’ ॥
धूप चढ़ाओ ।
ज्वल घट लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अष्ट कर्म दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भेंट अकेला, रोहणि भेला ।
सुत अलबेला, ‘पत’ सुर झेला ॥
थाल सजाओ ।
श्रीफल लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
मोक्ष फल प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भेंटी शबरी, सोमा द्रव ‘री ।
अहि घट-गगरी, माला निकरी ॥
थाल सजाओ ।
जल फल लाओ ॥
श्री मऊ जी के बड़े बाबा की ।
पूजन मिल कर आन रचाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“कल्याणक अर्घ”
शेष मास षट् गर्भ, अजूबा ।
बरसे रत्न अयोध्या डूबा ।।
दिव छप्पन सुकुमारिंयाँ आईं ।
भेंट दिव्य माँ मरु-हित लाई ।।
ॐ ह्रीं आषाढ कृष्ण द्वितीयायां
गर्भ मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आज पुरी साकेत सजाई ।
द्वार नाभि-नृप बजी बधाई ।।
आदि प्रभु ने जनम लिया है ।
न्हवन मेरु सौ-धरम किया है ।।
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण नवम्यां
जन्म मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
विष क्यों आगे ‘विष’य लगाया ।
विसर विषय, ठुकराई माया ।।
बैठ पालकी आये वन में ।
पट फेंके, लट खेंचे छिन में ।।
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण नवम्यां
तपो मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धुनि अन-आखर ‘आखर-ढ़ाई’ ।
दूर नहीं अब शिव ठकुराई ।।
भींजे नयना, तीजे नयना ।
साथ सींह हिरणा सम-शरणा ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण एकादश्यां
केवल ज्ञान प्राप्ताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ह्रश्व पाँच स्वर पढ़ पाते हैं ।।
पार ‘थान-गुण’ बढ़ जाते हैं ।।
‘सहज-निराकुलता’ मनभाई ।
समय मात्र भू-अष्टम् पाई ।।
ॐ ह्रीं माघ कृष्ण चतुर्दश्यां
मोक्ष मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला
भू गर्भ हुआ है धन्य आज ।
दिश-विदिश आ रही इक अवाज ॥
प्रतिमा न एक बस निकली है ।
धन ! खड़ी निकले अगली है ॥
इतिहास उजाकर कर चाली ।
था जैनों का वैभव भारी ॥
इक परचम दया लहरता था ।
कल पाप न मनस् ठहरता था ॥
घर घर में भरत-विरागी थे ।
निर्ग्रंथ पंथ अनुरागी थे ॥
लोटा, छन्ना, डोरी चिह्ना ।
श्रावक-श्रावक सेठी धन्ना ॥
मंदिर उतने, थे घर जितने ।
मंदिर अकृतिम सुन्दर उतने ॥
पचरंग ध्वजा लहराती थी ।
जश धर्म दिगम्बर गाती थी ॥
मंदिर मंदिर ऊपर कलशा ।
त्योहार न, रोजाना जलसा ॥
प्रतिमा रख हाथ हाथ बैठी ।
दृग-नाक कहे अन्दर पैठी ॥
दूजा माथा सूरज नाता ।
चन्दा मुखड़ा दुखड़ा त्राता ॥
चाउर चढ़ते, चांवर ढुलते ।
सिर ऊपर तीन छतर फबते ॥
धन ! शुक्ला अगहन द्वादश की ।
प्रतिमा निकली प्रभु पारस की ॥
यह प्रतिमा खड्गासन वाली ।
दृग रखी नजर उतरी काली ॥
दिन मंगलवार पूर्णिमा थी ।
निकली मुनिसुव्रत प्रतिमा थी ॥
आसान खड्गासन बढ़ फबता ।
क…छुआ भीतर कछु…आ कहता ॥
बुधवार तदपि थी पूनम ही ।
प्रतिमा प्रकटी प्रभु आदिम की ॥
पद्मासन बढ़ गौरव गरिमा ।
धन ! धन्य ! मूल नायक प्रतिमा ॥
निकली है दिन शश पूरण जो ।
करती है मनशा पूरण सो ॥
रज चरण लगाते ही मस्तक ।
आ खुशियाँ देती हैं दस्तक ॥
जो बाबा की आरति करते ।
वह अपने दुख संकट हरते ॥
बाबा सिर छतर लगाते जो ।
घर अपने छप्पर छाते वो ॥
आ चंवर ढुराये हैं जिसने ।
जश गाया उसका दश दिश् ने ॥
सिर बाबा जल धारा करना ।
श्रावक ! यदि भव सागर तरना ॥
ना-रियल चढ़ाना बस साथी ।
मुँह की खाती साढ़े साती ॥
परिकम्मा तीन लगानी हैं ।
लख जोन चुरास नशानी हैं ॥
बस ध्यान लगाना है काफी ।
बाधा ऊपर थर-थर काँपी ॥
जय आद ब्रह्म साधो साधो ।
आते कर्मों के पग बाँधो ॥
कब रुकी कुदाल उतर गहरे ।
लाई खुशियाँ भक्तन चेहरे ॥
दिन शुक्र पौष कृष्णा दूजी ।
जयकार आद भगवन् गूँजी ॥
जिन आद, पद्म, जिन नेम नाथ ।
हो चले प्रकट मिल एक साथ ॥
जनवरी इकीसी दो हजार ।
तारीख तीन दिन सूर्य-वार ॥
दिन इसी द्वार तोरण निकला ।
नव प्रतिमा शिलापट्ट विरला ॥
थी चौथ साथ में ही पाँचे ।
मन भाव विभोर सभी नाँचे ॥
प्रतिमा जिन सम्भव, महावीर ।
भवि ! दर्श मात्र भव सिन्ध तीर ॥
सप्तमी पौष कृष्णा न्यारी ।
खुश बड़े आज सब नर नारी ॥
विधि विधान वेदि विराजमान ।
मंदिर ध्वज छूता आसमान ॥
अक्-कृतिम जिनालय ही दूजा ।
दिवि उतर देव करते पूजा ॥
महिमा अद्भुत अपने जैसी ।
बन पड़ी, कही ऐसी वेसी ॥
दो बना ‘निराकुल’ बस मुझको ।
चाहिये नहीं धन, जश मुझको ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दोहा
बस इतना कर दीजिये,
मेरे प्रभु-आराध ।
पल पल सुमरण साध के,
पाऊँ अन्त समाध ॥
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
==विधान प्रारंभ==
“अष्ट दलकमल पूजा
विधान की जय“
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं*
सुनते, भव जल डूबते,
आदि लगाया-पार ।
भर जल-सागर आँख में,
मैं भी रहा पुकार ।।१।।
ॐ ह्रीं नरक तिर्यंच दुर्गति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि-जिणाणं*
थुति विरची तुम इन्द्र ने,
चुन, जन-मन-हर छन्द ।
टूटी-फूटी तुम रचूँ,
थुति मैं भी मति-मन्द ।।२।।
ॐ ह्रीं छिद्रान्वेष दुर्मति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि-जिणाणं*
लाज छोड़ मति-मन्द मैं,
थुति-हित आप अधीर ।
शिशु सिवाय पकड़े भला,
कौन चन्द्रमा नीर ।।३।।
ॐ ह्रीं निस्वार्थ सहाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि-जिणाणं*
गुण तेरे गा, अन्त में,
सुर-गुरु मानी हार ।
भूखे जलचर सिन्धु वो,
कौन भुजा से पार ।।४।।
ॐ ह्रीं जल जन्तु भय विमोचकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं*
शक्ति नहीं फिर भी करूँ,
थुति तुम भक्ति वशात् ।
सिंह से जा हिरणी भिड़े,
करने शिशु निज हाथ ।।५।।
ॐ ह्रीं मनोवांछित फल प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ-बुद्धीणं*
भक्ति आप मुखरी करे,
रहवासी मैं ग्राम ।
कूके कोयल, मन हरे,
वजह मंजरी आम ।।६।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज-बुद्धीणं*
सिमरन क्या तुमरा किया,
दूर दिखे जा पाप ।
रवि देखे, अन्धर निशा,
भागे अपने आप ।।७।।
ॐ ह्रीं पाप फल विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदानु-सारीणं*
थुति होगी यह मन-हरा,
पा कर आप प्रसाद ।
दल-कमलन जल-कण पड़ें,
दिपैं मोतियन भाँत ।।८।।
ॐ ह्रीं संकट मोचनयाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल ले के, चन्दन ले के मैं ।
अक्षत लिये, सुमन ले के मैं ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, दो लगा किनारे ।।
ॐ ह्रीं अष्टदल कमल हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“षोडश दलकमल पूजा
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो संभिण्ण-सोदाराणं*
दूर थवन, तुम नाम भी,
करता पाप विनाश ।
दूर गगन, वन-पद्म में,
भरता आप विकास ।।९।।
ॐ ह्रीं अरिष्ट ग्रह निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं-बुद्धाणं*
भक्त, नाम तुम रट लगा,
तुम समान गुणवान ।
रक्खे सेवक ही बना,
नाम धनी बस जान ।।१०।।
ॐ ह्रीं दारिद्रय निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय-बुद्धाणं*
नैन और टिकते नहीं,
देख तुम्हें इक बार ।
पिया क्षीर जल, बुध कहाँ ?
चाहे सागर क्षार ।।११।।
ॐ ह्रीं तुष्टि पुष्टि करणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय-बुद्धाणं*
आप रचे परमाणु वे,
प्रशमित राग अनूप ।
बस उतने, तुम सा तभी,
और न दूजा रूप ।।१२।।
ॐ ह्रीं मनकाम रूप प्रदाय
श्रीवृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु-मदीणं*
निर्विकार तुम मुख कहाँ,
मनहर सुर, नर, नाग ।
ढाक पत्र दिन चन्द्रमा,
दागदार हतभाग ।।१३।।
ॐ ह्रीं स्व शरीर रक्षकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल-मदीणं*
शशि भा-से गुण आपके,
लाँघ चले तिहु लोक ।
जिन्हें शरण है आपकी,
कौन सकेगा रोक ।।१४।।
ॐ ह्रीं भूत प्रेतादि भय निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वियाणं*
सार्थ नाम रम्भा चली,
पलटा पग, सिर टेक ।
चले प्रलय मारुत भले,
‘अचल’ मेरु अभिलेख ।।१५।।
ॐ ह्रीं रंगाँगन रक्षणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चोद्दस-पुव्वियाणं*
तेल विवर्जित वर्तिका,
तले न तम, निर्धूम ।
आप दीप जगमग सदा,
वात-अगम, गत-झूम ।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्य-वशीकरणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्ठंग महा निमित्त-कुसलाणं*
राहु ग्रास कब कर सका,
मेघ न पाया झाँप ।
जगमग द्यु, पाताल, भू,
सूर्य अलौकिक आप ।।१७।।
ॐ ह्रीं मन्द कषाय करणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं*
झाँप न पाया घन कभी,
उदित रहे दिनरात ।
तमहर शशि मुख आपका,
अगम राहु निज भाँत ।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रोध उन्मूलन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जा-हराणं*
नूर आप बिखरा रहे,
विचरें क्यों शशि-भान ।
क्यों गरजें आ बादरा,
पक पहुँची घर धान ।।१९।।
ॐ ह्रीं मन कालुष्य निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं*
सार्थ नाम केवल निरा,
ज्ञान न औरन पास ।
किरणाकुल भी काँच का,
मणि सा कहाँ प्रकाश ।।२०।।
ॐ ह्रीं व्यापार वृद्धि बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण-समणाणं*
भला और दर घूमना,
पाया साँचा धाम ।
हन्त ! आप से लाभ क्या ?
भगवत् खोज विराम ।।२१।।
ॐ ह्रीं सौभाग्य साधकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं*
लाल नाम के गोद माँ,
पुन अपूर्व तुम मात ।
दिश् दिश् दीखें तारिकां,
सूरज पूरब हाथ ।।२२।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी-विसाणं*
पुरु ! तिमिरारी ! पुनीत ओ !,
पुण्य-पुरुष सिरमौर ।
शिवपंथी, मृत्युंजयी,
भक्त तिहार न और ।।२३।।
ॐ ह्रीं जिन दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठि-विसाणं*
बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा, तुम्हीं,
शिव भोला-भंडार ।
और गुण परक नाम से,
जजे तुम्हें संसार ।।२४।।
ॐ ह्रीं आजिविका बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भर लाया जल-चन्दन झारी ।
धान-शालि-सित, पुष्प पिटारी ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करुँ यजन, दुख मैंटो सारे ।।
ॐ ह्रीं षोडशदल-कमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“चतुर्विंशतिदल कमल पूजा’
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग-तवाणं*
बुद्ध ज्ञान केवल वशी,
शंकर प्रद सुख-सात ।
पुरु, पुरुषोतम सिद्ध ही,
विध शिव मार्ग विधात ! ।।२५।।
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष निरोधकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त-तवाणं*
क्षिति-तल भूषण वन्दना,
त्रिभुवन दुख हर्तार ।
भव-दधि शोषण वन्दना,
भुवन भुवन भर्तार ।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्ध शिरः पीडा शामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त-तवाणं*
लख तुम गुण मुख तक भरे,
औगुण नापा पाथ ।
अर आश्रित भर गर्व से,
मुड़ न निहारा बाद ।।२७।।
ॐ ह्रीं शत्रु उन्मूलन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महा-तवाणं*
तर अशोक तर आपका,
रूप सुवर्ण सुगंध ।
प्रकट निकट मनु मेघ के,
रवि तेजो छवि-वन्त ।।२८।।
ॐ ह्रीं आक्रन्दन शोक परिहारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-तवाणं*
मणि विचित्र सिंह-पीठ पे,
तन तुम वर्ण सुवर्ण ।
उदयाचल के श्रृंग से,
सहस-रश्मि अवतर्ण ।।२९।।
ॐ ह्रीं नेत्र पीडा विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुणाणं*
तन कंचन प्रभु आपका,
ढुरें चँवर नव कुन्द ।
तट सुमेरु तिस श्रृंग से,
झरना झिरे अमन्द ।।३०।।
ॐ ह्रीं रिद्धि-सिद्धि प्रदायकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर-परक्-कमाणं*
छतर तीन शशि छव लिये,
भान प्रताप विलीन ।
कहे जगमगा झल्लरी,
ईश्वर तुम जग तीन ।।३१।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुण-वंभ-यारिणं*
सुर गभीर, रव-तार ले,
हित शिव संगम टेर ।
हंस राज सद्-धर्म जै,
बाजे तब जश भेर ।।३२।।
ॐ ह्रीं सत्पथ प्रदर्शकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमो-सहि-पत्ताणं*
गुल नमेर, सुन्दर तथा,
पारिजात बरसात ।
धार-गंध, मनहर हवा,
झिर वच तुम लग पाँत ।।३३।।
ॐ ह्रीं समस्त ज्वर रोग शामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लो-सहि-पत्ताणं*
अद्-भुत तुम तन वृत्त-भा,
जित दुतिवन्त जहान ।
जोड़ भान अनगीनती,
सौमिल सोम समान ।।३४।।
ॐ ह्रीं गर्भ संरक्षकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लो-सहि-पत्ताणं*
पटु बखान सद्-धर्म ‘भी’,
प्रद पथ स्वर्ग-पवर्ग ।
अर्थ विशद दिव धुन अहा !,
परिणत भाषा सर्व ।।३५।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि अनावृष्टि निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पो-सहि-पत्ताणं*
नख-नख जगमग चाँदनी,
श्रुति दुति भाँत प्रयोज ।
चरण आप रखते जहाँ,
विरचें देव सरोज ।।३६।।
ॐ ह्रीं बान्धव बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्वो-सहि-पत्ताणं*
रिध-निध वैभव आप सा,
हाथ और के झूठ ।
कहो दिवाकर सी कहाँ,
छव नक्षत्र अनूठ ।।३७।।
ॐ ह्रीं वैभव वर्धन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो मण-बलीणं*
अलि गुनगुन पारा चढ़ा,
झिर मद धार अटूट ।
नाम आपके जाप से,
गज तुरंत वशभूत ।।३८।।
ॐ ह्रीं कामानल उपशामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वच-बलीणं*
मण-गज दी श्रृंगार भू,
नख गज कुम्भ विदार ।
नाम आपके जाप से,
करे न सिंह प्रहार ।।३९।।
ॐ ह्रीं श्वान वृत्ति विधूताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय-बलीणं*
प्रलय पवन बल झूमती,
ग्रास भुवन रख चाह ।
नाम आपके जाप से,
गोद भूमि ले राह ।।४०।।
ॐ ह्रीं राग आग परिदाहनाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीर-सवीणं*
स्याही कोकिल कण्ठ सा,
फण विशाल, दृग-लाल ।
नाम आपके जाप से,
विषधर बिल तत्काल ।।४१।।
ॐ ह्रीं विष विषय रति हरणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सप्पि-सवीणं*
घोड़े, दौड़ें गज जहाँ,
मचा हहा उत्पात ।
नाम आपके जाप से,
लगे विजय-श्री हाथ ।।४२।।
ॐ ह्रीं रणाँगन रक्षणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुर-सवीणं*
बही खून-हाथी नदी,
आतुर तरने सैन ।
नाम आपके जाप से,
छू रवि, छू तम रैन ।।४३।।
ॐ ह्रीं कर्मारि विध्वंसकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमिय-सवीणं*
बिजुरी, पानी, आँधियाँ,
नैय्या बिच मँझधार ।
नाम आपके जाप से,
लगती ‘सहजो’ पार ।।४४।।
ॐ ह्रीं संसार सागर तारणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीण-महा-णसाणं*
रोग जोग ऐसा जुड़ा,
छोड़ी जीवन आश ।
नाम आपके जाप से,
लौ पाये फिर श्वास ।।४५।।
ॐह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढ-माणाणं*
काल कोठरी बेढ़ियाँ,
प्यास सताये भूख ।
नाम आपके जाप से,
आप आप दो टूक ।।४६।।
ॐ भव बन्धन विमोचकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्व सिद्धा-यदणाणं*
भीति, भँवर, सिंह, रोग, दौ,
गज, रण, बंधन, नाग ।
नाम आपके जाप से,
दिखे द्वार यम भाग ।।४७।।
ॐ ह्रीं भय सप्तक विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वसाहूणं*
विरची तुम गुण बाग से,
चुन-चुन आखर फूल ।
करें कण्ठ गुणमाल वे,
मान-तुंग भव कूल ।।४८।।
ॐ ह्रीं निरा’कुल प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
जल पावन, वावन चन्दन ले ।
अक्षत अछत, सुमन मोहन ले ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, टक दो जश तारे ।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशति दल कमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“महा-अर्घं”
जल मीठा लें चन्दन नीका ।
तण्डुल, गुल-कुल आप सरीखा ।।
चरु ले, दीप-धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, हित शिरपुर द्वारे ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-चत्वारिंशद्-दलकमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
:: जाप्य ::
।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं
श्री वृषभ नाथ तीर्थंकराय नमः ।।
==जयमाला==
“लघु चालीसा”
“दोहा”
संचित, सिंचित पाप का,
करने काम तमाम ।
आदिनाथ भगवान् का,
काफी केवल नाम ।।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।
बनें हमारे, शरण सहारे ।।
देश नाम कौशल शुभ कारी ।
मध्य पट्-टनन पुरु मन हारी ।।
नाभिराम नृप नयन सितारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।१।।
कृत कारित से, अनुमोदन से ।
निरत काज शुभ मन वच तन से ।।
पाप ताप हर, पालन हारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।२।।
जन्म हुआ, सुर पति ने आके ।
मंगल द्रव्य दिव्य शुभ लाके ।।
कीना न्हवन लगा जय कारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।३।।
पहनाये कंकण हाथों में ।
फिर आँजा काजल आँखों में ।।
भासे चाँद देव-गण तारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।४।।
मुख मन-हरण, समुन्नत माथा ।
देख देख हरषायें माता ।।
ताण्डव विस्मित देखें सारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।५।।
विस्तृत क्षितिज राज तज दीना ।
विपिन ओर मुख अपना कीना ।।
वस्त्र उतारे, केश उखारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।६।।
आसन माड़ निजातम ध्याया ।
कर्म घातिया चार खपाया ।।
झलके ज्ञान अपूर्व नजारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।७।।
लगा सम-शरण जन-मन हरणा ।
बैठा सिंह करीब ही हिरणा ।।
वैर-भाव कर एक किनारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।८।।
खिर सर्वांग रही धुनि न्यारी ।
हुये संयमी पशु-नर-नारी ।।
छूने जल-संसार किनारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।९।।
ध्यानानल सित अन्त जला-के ।
कर्म अशेष नाम विथला के ।।
समय एक शिव धाम पधारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णाघं
निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
स्वानुभवन सुमरण लिये,
करने सु-मरण शाम ।
आदि नाथ भगवान् का,
काफी केवल नाम ।।
।।इत्याशीर्वादः।।
आचार्य श्री विद्या सागर जी अर्घ
सूरज से ज्यादा तेजस्वी ।
साधु मनस्वी, सन्त तपस्वी ।
भारत रत्न, अहिंसा गौरव,
महाश्रमण, वक्ता ओजस्वी ॥
कुन्द कुन्द गुरु ज्ञान दुलारा ।
जिन शासन अम्बर ध्रुव-तारा ॥
कहाँ दूसरा और दयालू ।
आज गुपाला बड़ा कृपालू ।
हिन्दी संवर्धक, संरक्षक,
करघा, संप्रेरक पूर्णायू ॥
छोड़ सिन्धु विद्या जल खारा ।
जिन शासन अम्बर ध्रुव-तारा ॥
अक्ष विजेता, ऊरध-रेता ।
मण्डल प्रतिभास्थली प्रणेता ।
मन्दर जीर्णोद्धारक, तारक,
निध वृत, दर्शन ज्ञान समेता ।
श्रावक, श्रमणी, श्रमण सहारा ॥
जिन शासन अम्बर ध्रुव-तारा ।
जय जय कारा, जय जय कारा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
आचार्य श्री समय सागर जी अर्घ
श्रद्धा सुमन लिये आया हूँ,
मन पुलकित, गदगद वाणी ।
आन पधारो हृदय हमारे,
आँखों से छलका पानी ।।
शील शिरोमण ! रक्षक गोधन !
अभिनव श्रमण सूर न्यारे ।
जयवन्तो धरती पर तब तक,
जब तक गगन सूर तारे ॥
भींने भींने भाव लिये मैं,
चरण शरण में आया हूँ ।
जल, गंधाक्षत, दिव्य पुष्प, चरु,
दीप, धूप, फल लाया हूँ ।।
कुन्द-कुन्द छवि ! विद्या नन्दन !,
सूरि समय सागर नामी ।
यही भावना, भव-भव मेरे,
आप बने रहना स्वामी ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समय सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
* श्री ‘सरसुति-मंत्र’ *
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*शांति पाठ*
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्श्री शांति-भक्ति कायोत्सर्गम् ,
करोम्यहम्
(९ बार णमोकार )
*चौपाई*
दर्शन मात्र मेंटता दुखड़ा ।
भाँत चन्द्रमा सुन्दर मुखड़ा ।।
नासा टिके नैन मनहारी ।
करें वन्दना नाथ ! तुम्हारी ।।
आप चक्रधर-पञ्चम नामी ।
वन्द्य इन्द्र शत, अन्तर्-यामी ।।
प्रभो शान्ति-जिन करके करुणा ।
करो शान्ति ! जश निरखो अपना ।।
छत्र, सिंहासन, वृक्ष-अशोका ।
धुनि, दुन्दुभि, दल-चँवर अनोखा ।।
भा-मण्डल झिर-पुष्प-अनूठी ।
प्रातिहार्य-वसु आप विभूती ।।
अर्चित-जगत् ! शान्ति करतारी ।
ढ़ोक करो स्वीकार हमारी ।।
प्राण-भूत, सत्, जीव समस्ता ।
पायें परिणति शान्त प्रशस्ता ।।
देवों में जो देव बड़े हैं ।
चरणों में हित सेव खड़े हैं ।।
हंस-वंश वे जग उजियारे ।
करें शान्ति मण्डित जग सारे ।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर
जल छोड़ना चाहिए)
शान्ति कीजिये गाँव-गाँव में ।
विश्व लीजिये पाँव-छाँव में ।।
डूब ‘साध-जन’ उतरें गहरे ।
लहर लहर-पचरंगा लहरे ।।
नृप धार्मिक बलशाली होवे ।
विकृति-प्रकृति मनमानी खोवे ।।
धर्म-चक्र-जिन सौख्य प्रदाता ।
रहे प्रवाहित यूँ हि विधाता ।।
द्रव्य सुमंगल-कारी होवे ।
क्षेत्र अमंगल-हारी होवे ।।
होवे काल सुमंगल-कारी ।
होवें भाव अमंगल-हारी ।।
कर्मन-घात घात मद सारा ।
सहजो सिद्ध रिद्ध परिवारा ।।
आदि आदि अर्हन् चौबीसा ।
शान्ति प्रदान करें निशि दीसा ।।
*दोहा*
किया शान्ति जिन भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
पाँच सभी कल्याणक धारी ।
आठ प्राति-हारज मन-हारी ।।
अतिशय तीस चार मण्डित हैं ।
अर बत्तीस इन्द्र वन्दित हैं ।।
चौ-विध संघ नखत मानिन्दा ।
राम श्याम चक्री, प्रभु ! चन्दा ।।
‘निलय-विनय’ अन-गिनत गभीरा ।
आद-आद जिन अंतिम वीरा ।।
अर्चन-पूजन-वन्दन करता ।
उनका मैं अभिनन्दन करता ।।
पीड़ा-दुक्ख-दरद-भय खोवे ।
मेरे कर्मों का क्षय होवे ।।
रत्नत्रय का मुझे लाभ हो ।
मेरी ‘गति-पंचम-उपाध’ हो ।।
मृत्यु-महोत्सव मना सकूँ मैं ।
जिन-गुण-सम्पद् कमा सकूँ मैं ।।
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्
श्री समाधि-भक्ति कायोत्सर्गम्
करोम्यहम्
(९बार णमोकार )
*चौपाई*
सदा शास्त्र अभ्यास करूँ मैं ।
सन्त समीप निवास करूँ मैं ।।
मौन धरूँ क्यूँ, गुणी दिखाये ।
गौण करूँ, यूँ दोष-पराये ।।
भावन-आत्म तत्व, नम-नयना ।
हित-मित रखूँ मधुरतम वयना ।।
जब तक राधा-मुक्ति रिझाऊँ ।
इन्हें जन्म जन्मान्तर पाऊँ ।।
तारण हारे…शरण सहारे ।
हृदय हमारे…चरण तुम्हारे ।।
चरण तुम्हारे…हृदय हमारा ।
रहे, तलक जब भव-जल-धारा ।।
स्वर-अक्षर पद मात्रा गलती ।
हुईं, चाहते बिन अनगिनती ।।
हो अपराध क्षमा यह मेरा ।
‘जैसा भी’ मैं अपना तेरा ।।
*दोहा*
किया समाधी, भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम्यक्-चारित, ताना-बाना ।।
रूप अनूप ध्यान परमातम ।
बुद्ध-विशुद्ध ज्ञान धर आतम ।।
पूजन नित वन्दन करता हूँ ।
अर्चन अभिनन्दन करता हूँ ।।
क्षय होवें दुख संकट सारे ।
क्षय हो जावें कर्म हमारे ।।
मुझे लाभ रत्नत्रय होवे ।
सुगति गमन, भय-सप्तक खोवे ।।
पाऊँ मरण-समाधी स्वामी ।
बनूँ रतन जिन-गुण आसामी ।।
‘पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्’
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र
पढ़ना चाहिए )
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।१।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।२।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।३।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
सपना नाता ।
अपना माता ।।
बरसे रतन, रतन बरसाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
गिरि मरु-नन्दा ।
स्वर्ण सुगन्धा ।।
सहस नयन से नयन बनाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
सागर क्षीरम् ।
कच मण नीलम ।।
नाद आद-जय गगन पठाओ ।।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
अर समशरणा ।
केशर हिरणा ।।
दृग्-नम श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
दिव से आगे ।
जा शिव लागे ।।
‘सहज-निराकुल शीश नवाओ ।
ढ़ोल बजाओ ।
नाचो, गाओ ।।
थाल सजाओ ।
ज्योत जगाओ ।।
आदि ब्रह्म की आरती, उतारें आओ ।
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