वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
सदलगा में
चाँद,
जनमा तारा, अजमेर में ।
॥ विद्या गुरुकुल अजब अनोखा ॥
होता यहाँ परिश्रम कस से ।
होता परिषह सहना हँस के ॥
आय न मौका, जाय ‘कि टोका ।
इक ना यहाँ मँजे हैं सारे,
इक से अहा सजे हैं सारे ॥
भले खाय, न खिलाय धोखा ।
परहित नम हैं, नयन सभी के ।
परहित निकसें वयन सभी के ॥
खे ना रहे सलंगर नौका ।
कला यहाँ हल्के बनने की ।
बला कहाँ कल के बनने की ॥
पलक न ले सामायिक झोंका ।
पीछे कोइ न, कोइ न आगे ।
हिल मिल साथ चले सब, जागे ॥
क्या गुण गाऊँ, देऊँ ढ़ोका ।
विद्या गुरुकुल अजब अनोखा ॥
।।स्थापना।।
माटी बने न यूँ ही मटकी
देनी पड़ती अग्नि परीक्षा है
गुरु आज्ञा पालन करना ही,
सच्ची दीक्षा है
साल पे साल गुजरते जाते,
वैसे ढ़ाई आखर की शिक्षा है
सिर्फ ढ़ोलना घडे़ न फल हित
करनी पड़ती रित की प्रतिक्षा है
जैसे राखें वैसे रहना है
उफ न करना, सब कुछ सहना है
गुरु भक्ति धारा में बहना है
जय विद्या, जय विद्या कहना है ।।जलं।।
अब मेरी चाँदी चाँदी है ।
मिली पञ्छी आजादी है ।।
हो चला खातमा गम ।
किनारे मुझसे हुई फिकर ।
आप जो रखने लगे खबर ।।
खो चला आज मातम ।
आपने क्या देखा मुझको ।
पाप ने ना देखा मुझको ।।
खो चला, आतमा-तम ।
बने क्या बागवाँ तुम ।।
छू चलें आसमाँ हम ।
बने क्या बागवाँ तुम ।।चन्दनं।।
जय जयतु जय जय गुरुदेव ।।
था माटी, मटकी कर लिया ।
था लाठी, मुरली कर दिया ।।
‘के तर खुशियों से, जिन्दगी जेब ।
आईना किया, था काँच मैं ।
खरा सोना ‘तप’ ‘तेज’ आँच में ।
पेश आता ‘के अब, अदब से दैव ।
सहज कर लिया, निराकुल किया ।
तले न तम, किया ऐसा दिया ।।
याद न मुझे, था कब मिला फरेब ।
कृपा बरसाये रखना सदैव ।।अक्षतं।।
रखते भींजी आँख
बोझ न रखते नाक
रखते दूजी साख
सद्-गुण रत्नाकर
गुरु विद्या-सागर
रखते आँख शरम
दिल में रखें रहम
रखते सधे कदम
नेकी सौदागर
गुरु विद्या-सागर
रखते हंस विवेक
रखें इरादे नेक
सहज निरा ‘कुल एक
इक अन्दर बाहर
गुरु विद्या-सागर
शाला दूसरी ही, दूसरी ही कक्षा
गुरु विद्या-सागर
ले रहे शिक्षा, ढ़ाई आखर ।।पुष्पं।।
नजर कीनी इक नजर जो
फिकर कीनी अठ पहर जो
आशीर्वाद जो दिया है ।
रख सर हाथ जो दिया है
क्या कुछ नहीं दिया है, तूने मुझे
तोहफा मुस्कान है दिया जो
अनोखा मुझे ज्ञान है दिया जो
पाद प्रक्षालन जो दिया है
घर पर पाद प्रक्षालन जो दिया है।
आशीर्वाद जो दिया है
क्या कुछ नहीं दिया है, तूने मुझे
अकसर साथ जो दिया है।
रख सर हाथ जो दिया है।
ए दिले दरिया
क्या कुछ नहीं दिया है, तूने मुझे
दे ‘दिया’
सब कुछ तो दे दिया है, तूने मुझे ।।नैवेद्यं।।
जुबाँ मिसरी घोलते, अंधियारा खो चले
आँख अपनी खोलते ‘के उजाला हो चले
तुम्हीं से ही तो जग में रोशनी है
नींद अपनी तोड़ के, सूरज को उठाते
लग न जाये आँख चाँद, रात जाग बिताते
औरों पे की निसार तुमनें अपनी जिन्दगी है
आसमाँ थमा, थमी जमीं है
बेवजह करीब आके, और खोट हर लेते
बढ़ न चले कोई दीप, आके ओट कर देते
औरों को देख खुश, तुम्हें होती बड़ी खुशी है
तुम्हीं से ही तो जग में रोशनी है ।।दीपं।।
तले अंधेरा नहीं,
कोई क्यों-कर हँसे
न दे धोखा, हवा का झोका जिसे
अबुझ अद्-भुत
इक जगत रोशन, रतन दीव वे
हैं बड़े ही खुश नसीब वे
हमेशा, पा रहे है हटके कुछ ऐसा
जिसके आगे, फीका है रुपया-पैसा
पा रहे सुकून, इक अजीबोगरीब वे
हैं बड़े ही खुश नसीब वे
दूर तलक न जाते छोड़ने गुजरा कल
सुदूर तलक जाते न लेने मेहमां कल
सहज निराकुल जीते,
वर्तमाँ में सदीव वे
हैं बड़े ही खुश नसीब वे
गुरु जी के करीब जे ।।धूपं।।
जब मैं कुछ ज्यादा ही, बेचैन हो जाता हूँ
आस-पास तेरे
अय ! खासम-खाम मेरे
तब में, आसपास तेरे, चला आता हूँ
तेरे इन पाँवों में,
घनी बरगदी छाँवों में
और बैठ तेरी पाँव छाँव में,
जो आँसू झिराता हूँ
तो हलका हो जाता हूँ
और बैठ तेरे सामने
देख खुद को आप आईने,
जो कालिख मिटाता हूँ
हो रास्ता पा जाता हूँ ।।फलं।।
सागर में जल-कण जितने
अभिलाष अमर-क्षण जितने
समय चक्र में जितने आरे
तुम्हें उतने नमन हमारे ।
रतन रत्नाकार जितने ।
अमृत-कण निशाकर जितने ।।
स्वप्न जवाँ जितने सारे ।
तुम्हें उतने नमन हमारे ।
बौंर आम्र तर जितने
महल हवा थर जितने
जितने जा पहुँचे निज द्वारे
तुम्हें उतने नमन हमारे ।
हैं गगन में जितने तारे ।
तुम्हें उतने नमन हमारे ।
गुरुजी… गुरुजी… गुरुजी ।। अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
तुम चन्दा, मैं चकोर,
तभी ले आता, रोज नम दृग् कोर,
तभी ले आता, रोज चन्दन घोर,
तभी ले आता, रोज अक्षत जोड़,
तभी ले आता, रोज पुष्प बटोर,
तभी ले आता, रोज चरु घृत बोर,
तभी ले आता, रोज लौं बेजोड़,
तभी ले आता, रोज फल चित् चोर,
तभी ले आता, रोज सुगंध भोर,
तभी ले आता, रोज अर्घ अमोल,
हो तुम जो भीतर
फिर फिर नजर
छू रही जिगर
हो तुम जो भीतर
अय ! मेरे गुरुवर ।।अर्घ्यं।।
(२)
थी चल रही जोर से
हवा चारों ओर से
कर ओट तुम्हीं ने तो,
आँचल के छोर से
की रक्षा है मेरी,
दी ये हर-खुशी है तेरी
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा कलशे,
न एैसे वैसे कंचन के,
भर क्षीर सिन्ध जल से,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा चन्दन,
न एैसा वैसा मलयजी,
के महके धरा-गगन,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा अक्षत,
न ऐसे वैसे धाँ शालिक,
कण-कण माफिक नक्षत,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा कुसुम,
न ऐसे वैसे महकते,
‘के कुछ कुछ सुर-द्रुम,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा चरु घी,
न ऐसी वैसी गाय गिर,
‘जि वो भी अपहरी,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा दीवा,
न ऐसी वैसी लौं अबुझ,
नयन-सुख संजीवा,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा सुगंधी,
न ऐसी वैसी कस्तूरी,
चन्दन चूरी कपूरी निरी,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा श्री फल,
न ऐसे वैसे दक्षिण के,
गदगद हृदय, दृग्-सजल,
क्यूँ न चढ़ाऊँ, में तो चढ़ाऊँगा अरघ,
न ऐसा वैसा कुछ अलग,
लिये कुछ कुछ बनक सुरग,
दी ये हर-खुशी है तेरी
दी ये जिन्दगी है तेरी
इस ‘दीये’ दी ये रोशनी है तेरी ।।अर्घ्यं।।
(३)
क्यूँ न मैं, भेंटूँ मण कलशे,
लबालब क्षीर सिन्ध जल से,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ घट चन्दन,
मँगा देवों से वन-नन्दन,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ धाँ शाली,
साथ जय-कार, बजा ताली,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ नवल कवँल,
न ऐसे वैसे सहस्र दल,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ व्यंजन घृत,
और मिसरी अपूरब अमृत,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ दीपक मण,
ज्योत मारुत अगम्य धन धन,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ अगर-तगर,
चूर चन्दन, कस्तूर इतर,
क्यूँ न मैं, भेंटूँ रित-रित फल,
हृदय गद-गद, ले नयन सजल
क्यूँ न मैं, भेंटूँ द्रव सबरी,
साथ झालर मृदंग मुरली,
चाँद पूनम शरद मेरा
आज आया उतर आँगन
गया पतझड़, आया सावन
भर चला खुशिंयों से दामन
चाँद पूनम शरद मेरा
आज आया उतर आँगन ।।अर्घ्यं।।
(४)
त्राहि-माम्,
अय ! मेरे राम,
लाये नीर,
घनेरी पीर,
लाये गंध,
दृग् तरेरे बंध,
लाये धान,
ढ़ेर अरमान,
लाये पुष्प,
गुल पुण्य शुष्क,
लाये भोग,
लग पाँत रोग,
लाये ज्योत,
खतर’नाक’ क्रोध,
लाये धूप,
धी मण्डूक कूप,
लाये भेल,
तिष्णा विष बेल,
लाये अर्घ,
पाप संसर्ग,
त्राहि-माम्,
अय ! मेरे राम,
दुख दिल दुखाये,
शरण तेरी आये ।।अर्घ्यं।।
(५)
तू अपना ले मुझे,
गंग जल लिये,मैं निश्चल हिये खड़ा हूँ
रज मलयज लिये, मैं मोति गज लिये खड़ा हूँ
धाँ अक्षत लिये, मैं अक्ष-नत हिये खड़ा हूँ
ले शिशु मन ये, मैं चरु घृत लिये खड़ा हूँ
गद-गद हिये, मैं ज्योति लिये खड़ा हूँ
लें दृग्-मोति ये, मैं सुगंधी लिये खड़ा हूँ
लें भक्ति-अंधी ये, फल थाल लिये खड़ा हूँ
मैं कर ताल लिये, ले द्रव राश ये खड़ा हूँ
मैं विश्वास लिये खड़ा हूँ
तू अपना ले मुझे,
हूँ मैं वगैर तेरे अधूरा
मैं मानूँ सब-कुछ अपना तुझे ।।अर्घं।।
(६)
पाके अपने द्वार तुझे
जल अप्रमाण तुझे
मैं चढ़ाऊँ, गंध खुद समान तुझे
शालिक धान तुझे
मैं चढ़ाऊँ, पुष्प बागान तुझे
घृत-पकवान तुझे
मैं चढ़ाऊँ, दीप रवि छविमान तुझे
धूप गुण धान तुझे
मैं चढ़ाऊँ, फल ऋत प्रधान तुझे
पाके अपने द्वार तुझे
मैं चढ़ाऊँ, अर्घ सश्रद्धान तुझे
है मिला जहान मुझे ।
था जिसे ढूँढ रहा मैं,
वह मिला भगवान् मुझे ।।अर्घ्यं।।
(७)
यूँ ही करीब बैठ के तेरे
मैं चढ़ाऊँ दृग्-जल
पाने कुछ स्वर्णिम पल
मैं चढ़ाऊँ चन्दन
पाने कुछ अनछुये क्षण
मैं चढ़ाऊँ अक्षत
पाने शिव, सुन्दर सत्
मैं चढ़ाऊँ दिव-गुल
पाने कुछ क्षण मंजुल
मैं चढ़ाऊँ चरु घृत
पाने कुछ क्षण अद्भुत
मैं भेंटूँ दीप अबुझ
पाने क्षण अपने भाँत कुछ
मैं भेंटूँ सुगन्ध घट
पाने कुछ अनुभव हट
मैं चढ़ाऊँ श्री फल
पाने कुछ निमिष नवल
मैं भेंटूँ थाल अरघ
पाने कुछ लम्हें अलग
‘के अपलक
पाता रहूँ तेरी झलक,
यूँ ही करीब बैठ के तेरे
अय ! गुरुदेव मेरे ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाथों में जल गगरी है,
शिव नगरी से ‘कि जुड़े नाता
हाथों में घट चन्दन है,
शिव-स्यन्दन से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में धाँ शाली है
दीवाली से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में नन्दन गुल है,
पुरु गुरुकुल से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में व्यंजन घृत है,
कण्ठ-अमृत से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में ज्योत अबुझ है,
कुछ अद्भुत से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में घट सुगंध है,
चिदानन्द से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में पिटार फल है,
न्यार कल से, ‘कि जुड़े नाता
हाथों में द्रव शबरी है
दिव नगरी से, ‘कि जुड़े नाता
और जायज ही है,
माँग मैं कर न रहा ज्यादा ।।अर्घ्यं।।
(९)
रख चाह सिर्फ गन्धोदक
तुम्हें भेंटूँ मैं गंग-उदक
रख चाह अभिषेक चरण
तुम्हें भेंटूँ मैं, घट चन्दन
रख चाह बस भक्ति नवधा
तुम्हें भेंटूँ मैं, शालिक धाँ
रख चाहा चरणा-सिंचन
तुम्हें भेंटूँ मैं, गुल नन्दन
रख चाह अभिसेचन पद
तुम्हें भेंटूँ मैं, व्यंजन घृत
रख चाह सुख अपूर्व कुछ
तुम्हें भेंटूँ मैं, दीप अबुझ
रख चाह द्वार पड़गाहन
तुम्हें भेंटूँ मैं, सुगंध अन
रख चाह आहार पल
तुम्हें भेंटूँ मैं, पिटार फल
रख चाह पड़गाहन द्वारे
तुम्हें भेंटूँ मैं, द्रव्य सारे
तेरा ही मुझे विश्वास,
करूँ और किसकी आश
बनके आती जाती श्वास,
तू रहे जो आस-पास ।।अर्घ्यं।।
(१०)
विद्या शरद पूनम चाँदा,
और ज्ञान सागर ।
लुटाये कहाँ से,
यही से तो भर-भर गागर ।।
वो ज्ञानामृत,
प्यासे हम भी जरा हमें भी दे दो ।
निकाले पाप रिश्तेदारी,
अपना हमें कह दो ।।
न और अरजी
बुलाने लगो तुम कहके मुझे भी,
भेंटूँ दृग्-जल, जी गुरु जी,
बिठा अपने अपनों में लो मुझे भी
आशीर्वाद ‘के दे दो पीछी से मुझे भी
भेंटूँ चन्दन, अक्षत जी गुरु जी,
मुस्कान छोर-क्षितिज दे दो मुझे भी
जख्मे-फूंक वो माँ सी दे दो मुझे भी
भेंटूँ दिव गुल, नेवज, जी गुरु जी,
पल ‘पलक’ जगह दे दो मुझे भी
लगातार ‘नौ’धा-भक्ति दे दो मुझे भी
भेंटूँ दीपक, सुगंध जी गुरु जी,
पुरानी पीछि अपनी दे दो मुझे भी
जिस्म जुदा, जाँ एक कर लो मुझे भी
भेंटूँ श्री फल, सब कुछ, जी गुरु जी,
न और अरजी ।।अर्घ्यं।।
(११)
कलश रतनार
गंग जल धार
गिर मलय सार
गंध-मय झार
अछत धाँ शाल
मण मोति थाल
नन्द गुल माल
गन्ध मनहार
घिरत तत्काल
चरु चारु थाल
दीपिका माल
अगम्य बयार
ऋत नाम धार
सुगंध अपार
सुगंधित न्यार
रित-फल पिटार
दिव्य दृग्-हार
द्रव्य जुग चार
ये आँसू बेशुमार
है तुझको रहे बुला
क्यूँ मुझको दिया भुला
अय ! भगवन मेरे
दीदार बिन तेरे
बेकरार नयन मेरे
अय ! भगवन मेरे ।।अर्घ्यं।।
(१२)
तुम्हें घर अपने, ‘कि पाऊँ फिर कल
दृग्-जल, संदल
भिंटाऊँ चावल
लर गुल, चरु दल
भिंटाऊँ अविचल
परिमल, श्री फल
भिंटाऊँ जल-फल
तुम्हें घर अपने, ‘कि पाऊँ फिर कल
न रह जाना भूल के
खुश्बू बिना, क्या न सुना,
फूल गिना समाँ धूल के ।।अर्घ्यं।।
(१३)
जयतु जयतु जय जय
भेंटूँ साथ विनय
बनने धीर-गंभीर
प्रासुक गंगा नीर
बनने अधिपति मोख
चन्दन मलय अनोख
बनने दया निधान
सुरभित शालिक धान
बनने व्रत-शशि-पून
नन्दन बाग प्रसून
बनने रसिक विवेक
घृत निर्मित चरु नेक
बनने दृग्-अविकार
ज्योत अबुझ दृग्-हार
बनने वधु-शिव कन्त
दश मन-हार सुगंध
बनने दिव सिरमौर
वन-नन्दन फल-और
बनने सज्जन साध
सबरी द्रव्य पटात
भेंटूँ साथ विनय
जयतु जयतु जय जय
धर्म अहिंसा नूर
मन्शा सहज प्रपूर
जयतु जयतु जय जय
विद्या सागर सूर ।।अर्घ्यं।।
(१४)
सद्-गुरु वन्दन
शत-शत वारा
जय जय कारा, जय जय कारा
क्षीरी सागर
पीरी गागर
छोडूँ धारा
सद्-गुरु चरणन
नन्द मँगाकर
चन्दन गागर
छोडूँ धारा
सद्-गुरु चरणन
अक्षत पातर
भेंटूँ सादर
हित संथारा
सद्-गुरु चरणन
फुल फुलवा सर
भेंटूँ सादर
हित अविकारा
वच माया मन
चरु मनवा हर
भेंटूँ सादर
हित उस पारा
भव-जर-मरणन
दीप जगाकर
भेंटूँ सादर
हित श्रुत धारा
‘ही’ हन ‘भी’ धन
सुगंध लाकर
भेंटूँ सादर
हित उजियारा
शासन माहन
फल दिव भा-धर
भेंटूँ सादर
हित वर न्यारा
शिशु वसु प्रवचन
अर्घ सजाकर
भेंटूँ सादर
हेत विहारा
शत दल कमलन
सद्-गुरु वन्दन
शत-शत वारा
जय जय कारा, जय जय कारा ।।अर्घ्यं।।
(१५)
नीर भर लाया गंगा घाट,
भिंटाऊँ गहरी श्रद्धा साथ,
झार चन्दन मलयागिर ख्यात,
भिंटाऊँ घिस कर अपने हाथ,
शालि-धाँ अक्षत स्वर्ण परात,
भिंटाऊँ छव मुक्ताफल भाँत,
नमेरू सुन्दर पारी-जात,
भिंटाऊँ भाँत-भाँत गुल-पात,
याद रह जाने वाला स्वाद,
भिंटाऊँ चरु घृत पहरी-आठ,
स्वर्ण दीवा, करपूरी बात,
भिंटाऊँ ना इकाद लग पात,
दिव्य घट सुगंध दश इक साथ,
भिंटाऊँ पुलकित रोमिल गात,
रसीले फल ऋत-ऋत विख्यात,
भिंटाऊँ साथ प्रणव इक नाद,
गंध फल गुल तण्डुल जल आद,
भिंटाऊँ जोड़ हाथ रख माथ,
एक फरियाद न और मुराद,
तुम मुझे रख लो अपने साथ
हमारे सर पे रख दो हाथ,
एक फरियाद न और मुराद ।।अर्घ्यं।।
(१६)
जय-जय, जयतु-जय श्री गुरु ।
आप चरणों में अर्पण करूँ ।
क्षीर सागर ।
नीर गागर ।।
क्यार नन्दन ।
न्यार चन्दन ॥
शाल अक्षत ।
थाल मरकत ।।
श्रद्धा सुमन ।
विद्या श्रमण ।।
निर्मित तुरत ।
नेवज घिरत ।।
सीप थाली ।
दीप आली ॥
नूप गौरव ।
धूप-सौरभ ।।
धरोहर जल ।
मनोहर फल ।।
छव निराली ।
दरब सारी ।।
आप चरणों में अर्पण करूँ ।
जय-जय, जयतु-जय श्री गुरु ।।
छू न पाये भू,
मेरे आँसू,
मुझे देख उलझन में,
गुरु जी आ गये छिन में,
छू न पाये भू,
मेरे आँसू,
जय-जय, जयतु-जय श्री गुरु ।।अर्घ्यं।।
(१७)
नमो-नमः नमो-नमः
सागर क्षीर,
भेंटूँ नीर,
हेत मनस् नव-जात समां,
विनय समेत,
मलयज भेंट,
हाथ लगे जा ‘कि आसमां,
भेंटूँ थाल,
धाँ इक शाल,
देखे मुख यमराज गुमां,
दिव्य अमूल,
भेंटूँ फूल,
विघटे रात’कि पाप अमा,
भेंट विमान,
घृत पकवान,
सकूँ सातिशय पुण्य कमा,
ज्योत सदीव,
भेंट प्रदीव,
आन विराजें कण्ठ ‘कि माँ,
उपवन नन्द,
भेंट सुगंध,
ढ़ोलूँ व्यर्थ न पुण्य जमा,
भेंट पिटार,
फल रसदार,
रीझ चले झट मुक्ति रमा,
भेंट परात,
गुल फल आद,
लागूँ पार न अर अरमाँ,
नमो-नमः नमो-नमः
अवतार क्षमा
गुरु पूर्ण माँ,
नमो-नमः नमो-नमः ।।अर्घ्यं।।
(१८)
नन्दन माँ श्री-मन्त,
विद्या सागर सन्त,
अरहत् भावी,
सरल स्वभावी,
भेंटूँ जल पय सिन्ध,
कषाय त्यागी,
व्रत अनुरागी,
भेंटूँ कलशा गंध,
बड़े अनोखे,
घर रत्नों के,
भेंटूँ धाँ भा वन्त,
दृग्-अविकारी,
छव मनहारी,
भेंटूँ पुष्प वसन्त,
निष्पृह शरणा,
बस गृह करुणा,
भेंटूँ चरु सानन्द,
परहित भींजे,
लोचन तीजे,
भेंटूँ ज्योत अमन्द,
समरससानी,
ओघड़ दानी,
भेंटूँ दिव्य सुगंध,
अपहर पीरा,
हृदय गभीरा,
भेंटूँ फल वन-नन्द,
दया अनूठी,
क्षमा विभूति,
भेंटूँ द्रव्य समन्त,
विद्या सागर सन्त,
नन्दन माँ श्री-मन्त,
बड़े तपस्वी,
इक तेजस्वी,
नन्दन माँ श्री-मन्त,
वन्दन कोटि अनन्त ।।अर्घ्यं।।
(१९)
बड़ी मेहरवानी
बदली मेरी जिन्दगानी
आ आपके चरणों में,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं कलशे,
भर-भर के कंचन जल से,
आपके चरणों में,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं चन्दन,
घिस भर के प्याली कंचन,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं अक्षत,
नाम जैसा वैसे ही अछत,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं लर-गुल,
सुगंधी वन नन्दनी मंजुल,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं व्यंजन,
नयन-हर, मन-हर क्षुध्-भंजन,
क्यूँ न चढ़ाऊँ दीपाली,
ज्योत अनबुझ दे दे ताली,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं सुरभी,
चन्दन-चूरी कस्तूरी,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं भेले
श्री फल बना हाथ सिर पे ले,
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं जल फल,
गद गद हृदय, ले दृग्-सजल,
आपके चरणों में,
मेरे कोटि प्रणाम
आपके चरणों में
सुबह और शाम
भगवन् मेरे ! मेरे कोटि प्रणाम
आपके चरणों में ।।अर्घ्यं।।
(२०)
मुझ-मीरा ए ! किशन,
दे मुझे भी तो दो दर्शन,
बना लो अपना हमें,
दृग् जल चढ़ाऊँ मैं,
मैं चढ़ाऊँ चन्दन,
सुन लो मेरा क्रन्दन,
मैं चढाऊँ अक्षत,
मुझे ठुकराओ मत,
चढ़ाऊँ दिव्य कुसुम,
मुझे अपना लो तुम,
चरु चढ़ाऊँ घृत गो,
मत भुलाओ मुझको,
ज्योत जगाऊँ मैं,
‘के मना पाऊँ तुम्हें,
मैं खेऊँ धूप अगर,
इधर भी लो उठा नज़र,
भेंटूँ फल अनूठे,
हो क्यूँ मुझसे रूठे,
चढ़ाऊँ द्रव्य सभी,
‘के रहूँ न अजनबी,
रक्खें कितनी शबर,
हैं माटी के ही ये मेरे नयन,
वीर को बाला चन्दन की,
फ़िकर थी सुनते हैं
आ श्री राम ने शबरी की,
खबर ली, सुनते हैं
मुझ-मीरा ए ! किशन,
दे मुझे भी तो दो दर्शन,
रक्खें कितनी शबर,
हैं माटी के ही ये मेरे नयन ।।अर्घ्यं।।
(२१)
जय विद्यासागर जय ।
भेंट रहा सविनय ।
‘अर-णव’ गागर नीर ।
हित भव सागर तीर ।।
चन्दन गागर सोन ।
खातिर भीतर मौन ।।
जुदा थाल, घाँ शाल ।
हित मत हंस मराल ।।
नन्दन-बाग प्रसून ।
हेत विराग सुकून ।।
व्यंजन घृत गिर गाय ।।
हेत प्रशान्त कषाय ।।
दीपिका बाति कपूर ।
हित विमोह तम चूर ।।
दश विध सुगंध धूप ।
हित निध अनन्त डूब ।।
फल ऋत-सकल पिटार ।
हेत स्वर्ग शिव द्वार ।।
परात जल फल आद ।
हित पत अन्त समाध ।।
भेंट रहा सविनय ।
जय विद्यासागर जय ।
शरद पून शश गौर ।
सन्तन इक सिर-मौर ।।
कब अनसुनी करें आवाज,
चले आते झट दौड़ ।।
जय विद्यासागर जय ।
जय विद्यासागर जय ।।अर्घं।।
(२२)
भगवन् मिरे सिन्धु विद्या ।।
भेंट हेत सम्यक् श्रृद्धा ।
दृग् से जल धारा बरसे ।
जल से भर लाया कलशे ।।
भर लाया चन्दन कलशे ।।
धाँ-शाल बड़े सुन्दर से ।।
लाया गुल नन्दन वन से ।।
चर तरबतर इतर रस से ।।
दीप लबालब घृत-गिर से ।।
लाया धूप स्वर्ग-पुर से ।।
स्वर्ण पिटार भरे फल से ।।
विरले द्रव्य जगत् भर से ।।
भेंट हेत सम्यक् श्रृद्धा ।
भगवन् मिरे सिन्धु विद्या ।।
अय ! निर्झर दया ।
अकारण शिव साथिया ।
जगे तुम नाम का दिया,
मेरे मन मन्दिर में ।। अर्घं।।
(२३)
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नीर झार हाथ में ।
नीर धार आँख में ।।
मण सुराही गंध की ।
हाथ राह बंध की ।।
हाथ थाल शालि-धाँ ।
हा ! कराल कालिमा ।।
पुष्प थाल स्वर्ग की ।
गंध न अपवर्ग की ।।
पिटार चरु चारु घी ।
फुर कहीं मराल धी ।।
हाथ दीप मालिका ।
माथ दुख-घना लिखा ।।
दिव्य द्रव्य धूप है ।
गुम कहीं स्वरूप है ।।
परात फल स्वर्ण की ।
पाँत जन्म-मर्ण की ।।
अर्घ थाल रूप सी।
धी मडूक कूप सी ॥
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।अर्घं।।
(२४)
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सानन्दना ।
भेंट नीर ।
हेत तीर ।।
भेंट गंध ।
हेत नन्द ।।
भेंट धान ।
हेत ध्यान ।।
भेंट फूल ।
हेत कूल ।।
भेंट भोग ।
हेत योग ।।
भेंट ज्योत ।
हेत बोध ।।
भेंट धूप ।
हेत डूब ।।
भेंट भेल ।
हित अचेल।।
भेंट अर्घ ।
हित पवर्ग ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।अर्घं।।
(२५)
शरण आये
चरण लाये, जल गंग घट
हा ! पड़े पीछे,
हाथ धोके धिक् छल कपट
हा ! पड़े पीछे,
हाथ धोके भव-बंधन
शरण आये
चरण लाये, मलय-चन्दन
शरण आये
चरण लाये, सित शालि-धाँ
हा ! पड़ी पीछे,
हाथ धोके चित्-कालिमा
हा ! पड़ी पीछे,
हाथ धोके विषय-हाला
शरण आये
चरण लाये, पुष्प-माला
शरण आये
चरण लाये, चरु रसदार
हा ! पड़े पीछे,
हाथ धोके ‘सुर’ कलदार
हा ! पड़ी पीछे,
हाथ धोके धिया ‘ही’ हा !
शरण आये
चरण लाये, दिया घी का
शरण आये
चरण लाये, इतर सुगंध
हा ! पड़े पीछे,
हाथ धोके जड़ संबंध
हा ! पड़ी पीछे,
हाथ धोके गफलत श्वान
शरण आये
चरण लाये, फल बागान
शरण आये
चरण लाये, जल फल-फूल
हा ! पड़ी पीछे,
हाथ धोके पल-पल भूल
दरद-मन्द तुम हो
मेरी कुछ तो मदद करो
जुड़ना तुम से मुझे
बिछुड़ना तम से मुझे
दरद-मन्द तुम हो
मेरी कुछ तो मदद करो ।।अर्घ्यं।।
(२६)
‘के तेरी याद बनी रहे ।
लेकर एक यही फरियाद,
क्षीर, भर कलशे लाया हूँ ।।
मैं तेरी शरण में आया हूँ ।
भावना चन्दन, अखण्डित अक्षत लाया हूँ ।
पुष्प वन नन्दन, चारु चरु षट् रस लाया हूँ ।
खचित मण दीपक, गंध विध-विध दश लाया हूँ ।
बाग नन्दन फल , द्रव्य मन भावन लाया हूँ ।
लेकर एक यही फरियाद,
‘के तेरी याद बनी रहे ।
मैं कभी कहीं भी रहूँ ।
मेरे साथ तेरी रोशनी रहे ।।
तेरी याद बनी रहे।।अर्घं।।
(२७)
दूज शरद पूनम चंदा !
तुम्हें मना पायें, आये ।
नैन कटोरी जल लाये ।।
भक्ति भाव ‘चन्दन’ लाये ।।
गद-गद उर अक्षत लाये ।।
वर्ण विभिन्न पुष्प लाये ।।
फूटे सुगंध चरु लाये ।।
अनबुझ रतन ज्योत लाये ।।
‘पात्र’ स्वर्ग सुगंध लाये ।।
नवल नवल ऋत फल लाये ।।
शबरी द्रव्य थाल लाये ।।
पुलकन रोम-रोम छाये ।।
श्रद्धा सुमन सँजो लाये ।।
तारण तरण, दरद-मन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।अर्घं।।
(२८)
ना निराश कीजिये
‘जि आ वास कीजिये
भिंटाऊँ गंगा जल
‘के पाऊँ आप सा कल
भिंटाऊँ घट मलय रज
‘के पाऊँ लेख रेख-गज
भिंटाऊँ दाने अछत,
‘के पाऊँ पाँत तुम भगत
भिंटाऊँ श्रद्धा सुमन
पाऊँ पुन पड़गाहन
भिंटाऊँ चरु चारु घृत
‘के पाऊँ आप वचनामृत
जगाऊँ ज्योत अबुझ
‘के पाऊँ भीतर समझ
भिंटाऊँ सुगंध इतर
‘के पाऊँ आप इक नजर
भिंटाऊँ रित फल सरस
‘के पाऊँ आप सा जश
भिंटाऊँ द्रव्य वस विध
‘के पाऊँ समाँ आप निध
ना निराश कीजिये
‘जि आ वास कीजिये
लाये,
अभिलाष ये
हमें कुछ और पास से,
तोर दर्शन हो जायें
मोर भगवन् !
हो जायें हम, कुछ और खास-से
तोर दर्शन हो जायें,
हमें कुछ और पास से ।।अर्घ्यं।।
=जयमाला=
हाई-को ?
जिनके आँसु न थमें,
ले लो भक्तों में उन हमें
दुनिया की गुरु देते हैं, तस्वीर बदल ।
गुरुवर कर देते हैं, वक्त अखीर सफल ।।
गुरु के पास सवाली, खाली आते हैं ।
मनमानी झोली भर-भर, ले जाते हैं ।।
काली रातों में गुरु बन, जाते ज्योती ।
राह दिखें क्या काँटे, ले लेते गोदी ।।
घाम परेशाँ कर नहिं सके, गुरु छैय्या ।
दृग् तिरछी लख नचे कर्म, ता-था थैय्या ।।
दीप बुझाये आंधी ओट, बनें गुरु जी ।
कुम्भकार बन चुन-चुन खोट, हनें गुरु जी ।।
गुरु वनमाली भिजा रहे, आकाश तलक ।
पड़े न कहना, पाते गुरु की, काश ! झलक ।।
जग जाहिर गुरु माहिर, हरने में पीड़ा ।
माँझी गुरु रह दूर ही न, जाता तीरा ।।
।।जयमाला पूर्णार्घ्यं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
मोति सीप आखों में ।
ले लो दीप हाथों में ।।
उतारो आरती आओ,
आओ गुरु के गुण गाओ ।।
मां श्री मन्ती हाथ पूर्ण, चन्द्रमा लागा ।
सदलगा इक ग्राम पुण्य, सातिशाय जागा ।
श्रद्धा भक्ति प्रकटाओ ।
उतारो आरती आओ,
आओ गुरु के गुण गाओ ।।१।।
प्रतिमा ब्रह्म-चर्य गोम्म-टेश स-विधी ।
दीक्षा दिगम्बर सूरि, ज्ञान सन्निधी ।।
गुरु नाम ज्योति जगाओ ।
उतारो आरती आओ,
आओ गुरु के गुण गाओ ।।२।।
दीक्षा श्रमण-अर्जिका, एलक-क्षुल्लक ।
पीछे छूटी अंगुलियाँ, गिनती है मुलक ।।
अपूरब पुण्य कमाओ ।
उतारो आरती आओ,
आओ गुरु के गुण गाओ ।।३।।
जनहित गोशाला पूर्णायु, प्रतिभा स्थली ।
शान्ति दुग्ध-धारा प्रतिभा, प्रतिक्षा खुली ।।
सक्रिय समदर्शन पाओ ।
उतारो आरती आओ,
आओ गुरु के गुण गाओ ।।४।।
गा दूॅं गुण दो-चार कैसे ? गिन लूॅं सितारे ।
आशा सुख निराकुल ले, समपर्ण तुम द्वारे ।।
दोहा=
जग जाहिर गुरु आपको,
भारी बड़ो जहाज ।
भार म्हार कम, ले चलो,
शिव तक, राखो लाज ।।५।।
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