वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
गुरु से गुरु ने पूछा,
रक्खूं नाम क्या ?
विद्या-धर ।।
सफर-नामा
बालक विधाघर से विद्या-सागर का
आज भारत का बच्चा-बच्चा जानता
न सिर्फ ‘जाने-रामा’
सफर-नामा
दिन शरद पूर्णमा
बालक विद्याधर जनमा
पिता मल्लप्पा सदलगा
गोद श्री मन्त माँ
दिन शरद पूर्णमा
बालक विद्याधर जनमा
वर्तमाँ वर्धमॉं
सूर देशभूषण
व्रत ब्रह्मचर्य ग्रहण
साक्ष गोम्मटेश भगवन्,
नूर रहनुमा वर्धमॉं
सूर ज्ञान-सागर
विद्याधर दीक्षा दैगम्बर
साक्ष अजमेर नगर
जय जयतु जय विद्या-सागर
जयतु जय सूर ज्ञान-सागर ।।स्थापना।।
पाठ शाला चाले विद्या ।
साथ लेकर गहरी श्रद्धा ।।
शीघ्र आ कण्ठ वसीं माता ।
जुड़ चला अक्षर-सुर नाता ।।
फबे काँधे पे बस्ता है ।
पैर छू चाला रस्ता है ।।
ठगी सी रह जाती दुनिया ।
देख ये कौन फरिश्ता है ।।
आँख जिसकी हैं झुकीं झुकीं ।
किसी को देख न सके दुखी ।।
मिले जब समय, भिंजा अंखियाँ ।
प्रार्थना रत ‘सब रहें सुखी ।।
झाँकते शुक-कोयल बगलें ।
बोल मुख निकले मनु गजलें ।।
देखते ही जिसकी मुस्काँ ।
झुका ले गुल अपनी नजरें ।।जलं।।
विद्याधर !
अनगढ़ पाथर
बिन टोका-टाँकी
मूरत करुणा गढ़ दी
धन ! शिल्प ज्ञान सागर
नैन नम
सदे-सदे कदम
वैन सरगम,
नैन नम
गुण रत्नाकर
धन ! शिल्प ज्ञान सागर
मन सुमन
क्षण क्षण सुमरण
स्वानुभवन
मन सुमन
कल शिव-नागर
धन ! शिल्प ज्ञान सागर
‘तरु’ हृदय
मुद्रा अभय
सहजो विनय
तर हृदय
सूर प्रभाकर
धन ! शिल्प ज्ञान सागर ।।चन्दनं।।
रख सामने आईना
वाह…’रे वाह…क्या कहने
पहना रहे हैं लाजो-शरम गहने
हूबहू कमल पाँखें हैं
‘रे झुकीं-झुकीं सीं आँखें हैं
लगे ऐसा,
मानो हम देख रहे हों, कोई सपना
शिल्पी ज्ञान-सागर
कुछ रहे बना
पलकें पल के लिये खुलें
अलकें अलि से कुछ-कुछ मिलें
मिसरी फीकी बोली आगे
सुनने वाले बस बड़-भागे ।।अक्षतं।।
नजर पारखी
गुरु ज्ञान सिन्ध की
अपने ही जैसी मूरत गढ़ दी
दया मयी
क्षमा मयी
करुणा मयी
अपने ही जैसी अहिंसा मूरत गढ़ दी
आँखों में शरम
हैं बातें सरगम
अक्ष विजयी
दया मयी
धी पाप सकोच
लचीली सोच
एक विनयी
क्षमा मयी
परहित एक साध्य
अहिंसा आराध्य
दृढ़ निश्चयी
करुणा मयी
अपने ही जैसी अहिंसा मूरत गढ़ दी ।।पुष्पं।।
सीप ज्ञान सागर
विद्या-सागर मोती
श्री गुरु कृपा थोड़ी भी
थोडे़ से थोड़ी भी,
श्री गुरु कृपा कम नहीं होती
नूर ऐसा और नहीं
सूर ऐसा और नहीं
और तो और चाँद भी, ऐसा गौर नहीं
किसे नहीं पता
पन्ने पन्ने तो छपा
रोशनी कुछ हटके, आके झोली पड़ी
सामने अँधेरे के, आके शामत खड़ी
बेजोड़ी ‘के बन चली जोड़ी अनूठी
मोती विद्या-सागर
मनीषा अहिंसा अंगूठी ।।नैवेद्यं।।
भव ढ़ेर पुण्य
अजमेर धन्य
वैराग वन्त
श्रीमन्त नन्द
जय जय जयन्त
मारग जिनन्द
गजराज, ढ़ोल
अद्भुत बिनौल
जश-तप अमोल
‘हरि-बोल’ बोल
पल यह अनन्य
भव ढ़ेर पुण्य
अजमेर धन्य
कच लोच हाथ
पट मोच हाथ
संबोध हाथ
जश-तप अमोल
कल सिद्ध स्वाम
मुनि विद्य नाम
सद्-गुरु प्रणाम
‘हरि-बोल’ बोल ।।दीपं।।
आपके सदे हुये कदम
कुछ कहते से हरदम
कहाँ न चिकनाई,
हर कहीं, हहा ! काई,
न हो जायें फिसलना
‘रे साधो ! संभलना,
ये दुनिया बड़ी ठग है,
इस दुनिया का दूनिया अलग है,
यहाँ,
लेता सनेही पतंगे की जाँ, दीपक है,
लेता सनेही पतंगे की जाँ,
यहाँ, दीपक है,
इस दुनिया का दूनिया अलग है,
‘रे साधो ! संभलना,
दोगली ये दुनिया, है स्वार्थी बड़ी,
नागिन अपने ही ‘जाये’, खाने खड़ी,
यहाँ,
लागी मगर आँखों से हहा ! सावन झड़ी,
लागी मगर आँखों से हहा !
यहाँ, सावन झड़ी,
नागिन अपने ही ‘जाये’, खाने खड़ी,
दोगली ये दुनिया, है स्वार्थी बड़ी,
‘रे साधो ! संभलना ।।धूपं।।
धन्य नसीराबाद ।
दो सूर मुलाकात ।।
दोनों तेजस्वी ।
दोनों ओजस्वी ।।
दोनों अपने भाँत ।
दो सूर मुलाकात ।।
धन्य नसीराबाद ।
जाऊँ बलिहारी ।
दोनों तिमिरारी ।।
पुञ्ज प्रकाश ललाट ।
दोनों अपने भाँत ।।
दो सूर मुलाकात ।
धन्य नसीराबाद ।
मद उलूक भागे ।
बुध पंकज जागे ।।
करुणा धर्म निनाद ।
दोनों अपने भाँत ।।
दो सूर मुलाकात ।
धन्य नसीराबाद ।।फलं।।
अपने विद्या की
देख महकते खुशबू
खुश बड़े होते हैं, श्री गुरु ज्ञान सिन्धू
संघ को आज गुरुकुल बना दिया
था जो औरों का,
औरों को लौटा दिया
और तो और,
अपना भी औरों पे लुटा दिया
संघ को आज गुरुकुल बना दिया
गुरुकुल आज कुल-गुरु बना दिया
जगह एक न रुकते हैं, जैसे नदिया
और हित तिल-तिल जलते हैं, जैसे ‘दिया’
गुरुकुल आज कुल-गुरु बना दिया
श्रुत सार, जीवन में उतार दिखला दिया
ढाई आखर, जा हद से पार
जन जन को सिखला दिया
श्रुत सार, जीवन में उतार दिखला दिया
अपने विद्या की
देख महकते खुशबू
खुश बड़े होते हैं, श्री गुरु ज्ञान सिन्धू ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
टोका-टाँकी के बिना, दे बना ।
गुरु जी अन्तर्मना ।।
लाये दृग् जल-घट ।
विषय-राग ‘कि जाये विघट ।
विषय राग मन वाक् तन मेंटूँ ।
चन्दन भेंटूँ ।
भेंटूँ शालि धाँ सजाग ।
मेंट विषयों का राग ‘कि मनाऊँ फाग ।
‘खो ‘के’ विषयों का राग जाये ।
पुष्प द्यु बाग लाये ।
भेंटूँ पकवाँ ।
हो चाले हवा, विषय-राग, ‘के न सर चढ़ाऊँ ।
चरु चढ़ाऊँ ।
भेंटूँ सुगंध ।
‘के न पाये संध ।
राग विषयों का ‘कि ले निकल ।
मैं भेंटूँ श्रीफल ।
सब दरब लाये ।
राग विषयों का ‘कि सिराये ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
हैं मतलबी सभी तो ।
एक छोड़ के गुरु जी को ।।
दृग् जल लाये ।
ठग भोगों को ठग सकने आये ।
ठग भोगों को ‘कि ठग लूँ तत्क्षण ।
भेंटूँ चन्दन ।
शालि-धान दाने लाये चढ़ाने ।
ठग भोगों को ठग पाने ।
ठग भोगों को ठग पाऊँ ।
सुरग पुष्प चढ़ाऊँ ।
आये ले पकवान ।
ठग भोगों को ठगना ठान ।
ठग भोगों को ठगूँ, वर दो ।
भेंटूँ दीप घृत-गो ।
धूप पाँवन रखूँ ।
ठग भोगों को ‘के ठग सकूँ ।
ठग भोगों को ‘कि ठगने दूँ चल ।
भेंटूँ श्री फल ।
थाल अरघ लाये ।
ठग भोगों को ठगने आये ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
श्री गुरु ।
नाम से जिनके ज़िन्दगी खत्म औ’ शुरु ।।
कृपा ‘कि गुरु जी, आपकी पा जाऊँ ।
जल चढ़ाऊँ, भेंटूँ चन्दन घिसा ।
किरपा आप ‘कि दो बरषा ।
कृपा कि सत्-संगत पाऊँ ।
दाने अक्षत चढ़ाऊँ ।
भेंटूँ नन्दन फूल ।
पा आप कृपा, मन्मथ ‘कि चाटे धूल ।
कृपा गुरु जी आपकी पाने ।
लाये चरु चढ़ाने ।
भेंटूँ दीव ।
‘कि कृपा गुरु जी, आप की हो नसीब ।
आपकी कृपा अनूप ।
‘कि पा जाऊँ, चढ़ाऊँ धूप ।
भेंटूँ फल सरस ।
कृपा आप ‘कि जाये बरष ।
पा आप कृपा, ओघ-अघ मेंटूँ ।
‘कि अरघ भेंटूँ ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
श्री-गुरु
सब कुछ देख सकते, ‘पर’ न आँसु ।।
भेंटूँ मैं आपके चरणों में,
सम्हार, जल धार ।
सहज, मलयज ।
वर्धमाँ, अक्षत धाँ ।
मंजुल सुर-गुल ।
सदैव, घी नैवेद ।
विख्यात, द्वीप पाँत ।
सानन्द, दशगंध ।
नवल, ऋत फल ।
अनर्घ,
भेंटूँ मैं आपके चरणों में,
अन अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
जुबाँ कहते ही ‘गुरु जी’ ।
हो जाती मीठी-गुड़-सी ।।
रक्खूँ पाँवन उदक ।
पाने आपकी एक झलक ।
पाने आप शरण ।
छुऊँ देहरी लिये चन्दन ।
आया, करीब ले शालि-धान ।
पाने आप मुस्कान ।
पाने आप विश्वास ।
चढ़ाऊँ पुष्प और सुवास ।
लाया व्यंजन ‘तीस-छब्बीस’ ।
पाने आप आशीष ।
पाने आप पीछिका ।
आया शरण, ले घी दीपिका ।
आया दर, ले धूप इतर ।
पाने आप नजर ।
पाने आप चौमास ।
रक्खा श्री फल, पाँवन पास ।
रक्खूँ चरणों में अरघ ला,
पाने आप किरपा ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
खुद-सा मुझे लो-बना सबेरा ।
मैं घना अंधेरा ।।
‘आये बनने’, सहजो-गभीर,
दृग्-नीर, लाये चन्दन ।
‘आये बनने’, सहजो-निरंजन ।
‘आये बनने’, सहजो-निराकुल ।
तण्डुल ले करके आये सुमन ।
‘आये बनने’, सहजो-सुजन ।
‘आये बनने’,सहजो-सम-रस ।
षट्-रस लाये दीपक घी ।
लाये ‘आये बनने’, सहजो-स्वानुभवी ।
‘आये बनने’, सहजो-निष्फिकर,
अगर ले के आये श्रीफल ।
‘आये बनने’, सहजो-सरल ।
‘आये बनने’, सहजो-सजग,
ले आये संपूर्ण अरघ ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
अकेले झूझ-ना,
लो पहेली आ श्री गुरु पूछ ‘ना’
भेंटूँ जल कलशे ।
रख सकने मैत्री सब से ।
रख सकने शिशु नौ-जात मन ।
भेंटूँ चन्दन ।
भेंटूँ धाँ-राश ।
रख सकने निंदक आस-पास ।
रख सकने होंठो पे आप-जप ।
भेंटूँ पहुप ।
भेंटूँ नैवेद ।
रख सकने ‘मृणमय चिन्मय’ भेद ।
रख सकने नासा नजरिया ।
मैं भेंटूँ घी-दीया ।
भेंटूँ सुवास यह ।
रख सकने नेह-निस्पृह ।
रख सकने भार उतार ।
भेंटूँ फल पिटार ।
भेंटूँ अरघ ।
रख सकने फूॅंक-फूॅंक के पग ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
जिया श्री गुरु जितना ।
गंभीर न सिन्धु उतना ।।
हो मृत्यंजय तुम ।
जल भेंटूँ, ‘कि हो मृत्यु गुम ।
दूर ‘भौ-दाह’ तुम ।
गंध भेंटूँ, ‘कि हो चाह गुम ।
शाश्वत तुम ।
अक्षत भेंटूँ, ‘कि हो दुगर्ति गुम ।
जिताक्ष तुम ।
सुमन भेंटूँ, ‘कि हो कटाक्ष गुम ।
क्षुध् अभिजित तुम ।
व्यंजन भेंटूँ ‘कि हो क्षुध् गुम ।
विश्रुत तुम ।
प्रदीप भेंटूँ, ‘कि हो दुर्मत गुम ।
धर्म विद् मर्म तुम ।
धूप भेंटूँ ‘कि हों कर्म गुम ।
हो निराकुल तुम ।
फल भेंटूँ ‘कि हो छल गुम ।
दृश् स्वर्ग तुम ।
ये अर्घ्य भेंटूँ ‘कि हों त्रिवर्ग गुम ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
लो गुरूर छू हुआ ।
नाम ‘कि अभी सद्-गुरु छुआ ।।
अविचल, पदवी पाने निरंजन ।
दृग् जल श्री गुरु ! मैं भेंटूँ ये चन्दन ।
अक्षत, श्री गुरु ! मैं भेंटूँ ये कुसुम ।
शाश्वत, पदवी पाने अनुपम ।
अरु, पदवी पाने सित ।
चरु श्री गुरु ! मैं भेंटूँ ये दीप गो-घृत ।
अक्षर पदवी पाने विनिश्चल ।
अगर, श्री गुरु ! मैं ये भेंटूँ श्रीफल ।
पदवी पाने निरी ।
श्री गुरु ! मैं भेंटूँ ये द्रव्य शबरी ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
किरदारे माँ निभाते ।
बुलाते ही आ गुरु जाते ।।
न सिर्फ अकेले आये ।
आंखों में झिर जल लाये ।
बन्दर-बाँट
‘कि अन्धर-हाट बिलाये ।
कङ्कर चाल
‘कि कन्दर्प-भाव बिलाये ।
व्यन्तर-विघ्न
‘कि मन्थर गति बिलाये ।
अन्तर-द्वन्द
‘कि अन्तर-जल्प बिलाये ।
हाथों में जल-फल लाये ।
मन्तर-स्याह ‘कि बिलाये ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
आ बैठें गुरु समीप पल ।
छूने अन्छुये हल ।
बहस ‘कि जाय विहँस ।
जल-कलश चढ़ाते घट चन्दन ।
‘कि विघटे वन-क्रन्दन ।
पदवी पाने शाश्वत ।
दाने धाँ अक्षत, चढ़ाते वन-नन्दन फूल ।
पाने चरण धूल ।
पाने पुण्य भाँत चन्दन ।
घृत व्यंजन, चढ़ाते घृत दिया ।
चित-चाहत अमित धिया ।
हित स्वानुभौ रूप संपत ।
धूप घट, चढ़ाते फल मिश्री ।
थमे ‘कि जोन-जोन चकरी ।
‘कि रहें नहीं अभव्य अब ।
चढ़ाते द्रव्य सब ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
समाँ भगवान् ।
बाँटा करते गुरु मुफ्त मुस्कान ।।
देर रात, न लागे आँख तुम ।
सो आया दृग् नम ।
दिखे दृग् तीजी, आप वैभव नंत ।
भेंटूँ सो गन्ध ।
नाक सिवा, न दिखता कुछ तुम्हें ।
सो भेंटूँ धाँ मैं ।
‘पलक’ पल को उठाते तुम ।
सो भेंटूँ कुसुम ।
तोय दृग् गंग-जमुन धारा ।
भेंटूँ सो चरु न्यारा ।
दृग् कोर भींजी रहतीं तुम्हारी ।
सो भेंटूँ दीपाली ।
तोय-दृग् छाया रहे एक चिद्रूप ।
सो भेंटूँ धूप ।
चढ़ाऊँ भेले ।
‘तोय-दृग्’ भीतर ही भीतर खेले ।
भेंटूँ अरघ,
समाये दिल-मुठ्ठी जो, आप जग ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
दें डाँट ।
गुरु ‘शिष्य शीशी’
न होवे ‘कि बारा-बाट ।।
तेरे चरणों में,
सुत गीर् !
चढ़ाऊँ मैं, नीर क्षीर ।
चित् चोर !
चढ़ाऊँ मैं, गंध घोर ।
कामगो !
चढ़ाऊँ मैं, धाँ-शालि धो ।
अमूल,
चढ़ाऊँ मैं, दिव्य फूल ।
अद्भुत,
चढ़ाऊँ मैं, चरु घृत ।
दयाल !
चढ़ाऊँ मैं, दीप-माल ।
सानंद,
चढ़ाऊँ मैं, दंश गंध ।
नवल !
चढ़ाऊँ मैं, नारियल ।
अनघ !
चढ़ाऊँ मैं, ये अरघ ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
जान जाता तू तकलीफ मेरी ।।
है तारीफ तेरी ।
लाया जल के सुनहरे घड़े ।
दो मेंट दुखड़े ।
होने विरले ।
लाया चन्दन घट मुँः तक भरे ।
लाया अक्षत दाने खिले-खिले ।
‘कि सम्यक्त्व मिले ।
हित स्वानन्द ।
लाया पिटार पुष्प-फूटे सुगंध ।
लाया नैवेद्य बड़े रसीले ।
त्राहि-माम् दृग पनीले ।
होने भाँति आप सरीखे ।
लाया दीप घी के नीके ।
लाया अनूप धूप ।
मुँह फेर लें ‘कि बहुरूप ।
‘कि सिर चढ़े न पैसे ।
लाया श्रीफल, आप जैसे ।
लाया आठों ही द्रव्य निरे ।
‘कि दुख किनारा करें ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
मुस्कुरा, गुरु जी दिये बिना वक्त ।
लें बना भक्त ।।
‘के पाऊं मैं…ढक ।
उदक मैं चढ़ा रहा चन्दन ।
सप्त-भै भंजन हित पद अनछत ।
अक्षत, मैं चढ़ा रहा सुमन ।
हित जित चितवन ।
आश ले रोग क्षुध् फासले ।
षट्-रस निरे, मैं चढ़ा रहा दीवा घी ।
मने ‘कि दीवाली ।
हेत अन्त-नन्त-अर,
इतर अगर, मैं चढ़ा रहा श्री-फल ।
आश केवल महा मोक्ष फल ।
आश रग-रग, वसु-भू-सुरग ।
भू मैं चढ़ा रहा अरघ ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
ऊँचे लोगों में देते बिठा ।
‘गुरु जी’ जमीं से उठा ।।
भेंटूँ उदक आँख ।
‘दृग्-पानी’ कहे क्या,
‘कि हो ज्ञात,
‘चन्द… न’ कहे क्या,
भेंटूँ चन्दन पात्र ।
भेंटूँ अक्षत नाथ ।
‘चा…बल’ कहे क्या,
‘कि हो ज्ञात,
‘वास…ना’ कहे क्या,
भेंटूँ पुष्प द्यु-ख्यात ।
भेंटूँ चरु दृग्-भात ।
कहे क्या, ‘दवा…खा…ना’,
‘कि हो ज्ञात,
दी…पाली’ कहे क्या,
भेंटूँ प्रदीप पाँत ।
भेंटूँ गंध दो आठ ।
‘इ…तर’ कहे क्या ।
‘कि हो ज्ञात,
‘ना…रियल’ क्या कहे ।
भेंटूँ श्रीफल हाथ ।
भेंटूँ अर्घ परात ।
‘द-रब’ कहे क्या,
‘कि हो ज्ञात ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
अपने लिये कम ही होती ।
गुरु जिन्दगी ज्योति ।।
सेव, स्वीकारो देव ।
जल से, भर लाये कलशे ।
‘जी’ मनहारी, चन्दन-झारी ।
निराली थाली, धाँ शालि वाली ।
ऐसे कुसुम, जो कं, भू, न खं ।
पकवाँ घृत के, अमृत से ।
दीपावली, घी निकाले अभी ।
सौरभ धूप, और न अनूप ।
मौसम वाले, फल निराले ।
अरघ, कुछ-कुछ अलग ।
सेव, स्वीकारो देव ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
जो आप पाँवों का ।
‘हो प्रक्षालन’ तो पाप भावों का ।।
पूजूँ जल से ।
जलन दिल से,
‘कि भाग निकले राग मन से,
चन्दन से, पूजूँ ‘कि तण्डुल से ।
मोह दिल से,
‘कि भाग निकले काम मन से ।
सुमन से, पूजूँ ‘कि व्यंजन से ।
क्षुधा मन से,
‘कि भाग निकले ‘ही’ दिल से’
लौं अचल से, पूजूँ ‘कि धूप-कण से ।
कुप् मन से,
‘कि भाग निकले फैशन दिल से ।
फल से, पूजूँ ‘कि द्रव्य सकल से ।
‘भाग’ निकले दिल से ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
तुझपे कुर्बां हों ।
एक क्या जिन्दगी मेरीं हजारों ।
पैसे रूप’ये तुम्हें न लुभा पाये ।
सो जल, चन्दन लाये ।
बन्धन, ये राग-रंग, तुम्हें न लुभा पाये ।
‘सो ले’ धाँ पुष्प आये ।
विषय-भोग, षट्-रस तुम्हें न लुभा पाये ।
‘सो ले’ व्यञ्जन दीप आये ।
ये फनाफन, ये दौड़-धूप, तुम्हें न लुभा पाये ।
सो धूप, फल लाये ।
ये चका-चौंध, मोहन माया तुम्हें न लुभा पाये ।
सो अर्घ्य लाये ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
देवता !
तुझे मनाना, क्या करना होगा दे-बता ।।
ले आये नीर नयन ।
पास गंगा-सिन्धु सुपन ।
अंश नाग-दंश चन्दन ।
नाम बस अक्षत कण ।
दृग्-ओझल वन-नंदन ।
गुम कहीं सुर व्यंजन ।
खोजा खोया दीप रतन ।
यही सोने सुगंध धन ।
मिला दूर तक न वन ।
ले आये नीर नयन ।
यही ‘द्रव’ और सघन ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
मिलें उठाते क्लेशा ।
और काज श्री गुरु हमेशा ।।
तरेरे आँखें पीर,
नीर भेंटते, भेंटिये धीर ।
दिखाये आँखें मान ।
गंध भेंटते, भेंटिये ज्ञान ।
उठाये आँखें क्रोध ।
सुधा भेंटते, भेंटिये बोध ।
मिलाये आँखें काम ।
पुष्प भेंटते, भेंटिये राम ।
लगाये आँखें क्षुधा ।
चरु भेंटते, भेंटिये सुधा ।
जमाये आँखें राग ।
दीप भेंटते, भेंटिये जाग ।
गढ़ाये आँखें रोष ।
धूप भेंटतें, भेंटिये होश ।
नचाये आँखें माया ।
फल भेंटते, भेंटिये छाया ।
झुकाये आँखें अघ ।
अर्घ भेंटते, भेंटिये मग ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
क्या लेना जहाँ से ।
सब ही तो मिल रहा यहां से ।।
जल चढ़ाने लाया,
‘कि समेटे माया ।
गफलत, नफरत
क्षत-पद, मन्-मथ
गद-मद, मन मत
हरकत छल-जिद
अर्घ चढ़ाने लाया ।
अघ-हद ‘कि समेटे माया ।।अर्घं।।
(२३)
हाई-को ?
तेरा मैं, मेरा तू ।
इस रिश्ते की न हो कम खुश्बू ।।
तेरी छांव में खड़े ।
फिकर मेरा दुश्मन करे ।
तेरा हाथ जो मेरे सिर-पर ।
क्यूँ करूँ फिकर ।
भागे फिकर दाबे दुम ।
दिये क्या दिखाई तुम ।
तुम्हें देखे ‘कि एक बार ।
फिकर चित् खाने चार ।
फिकर देखे यम दोर ।
क्या देखे नजर तोर ।
किस बात की फिकर ।
चालें साथ जो गुरुवर ।
फिकर उसे क्या करना ।
है जिसे तेरी शरणा ।
फिकर लागे किनारे ।
गुरुदेव तारणहारे ।
है नहीं जिस पे तेरी नजर ।
वो करे फिकर ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
आप आप ही छू पाप-भाव ।
छूते ही आप पाँव ।।
ओ ! अपना लो,
ये बढ़िया-बढ़िया, जल नदिया ।
ये मन हारी, भरी चन्दन झारी ।
ये न्यारी-प्यारी, थाली धाँ शाली वाली ।
ये खुशबू वाले, द्यु-पुष्प निराले ।
ये अमृत सरीखे, पकवाँ घी के ।
ये गुरु जी विरली, घी दीपावली ।।
ये दश-गन्ध वाली, धूप निराली ।
ये प्यारी भारी-न्यारी, फल पिटारी
ओ ! अपना लो,
ये कुछ अलग हाँ, अरघ महा ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
आप चरणों की धूल छू ।
जन्मों की, हुई भूल ‘छू’ ।।
हेत मुस्कान आया ।
जल प्रासुक मैं छान लाया ।
चन्दन आप समान लाया ।
फूटे सुगंध, ले धान आया ।
पुष्प नन्दन-बागान लाया ।
चरु षट्-रस निधान लाया ।
दीप न और जहान लाया ।
धूप महक-विमान लाया ।
फल दक्षिण प्रधान लाया ।
हेत मुस्कान आया ।
भक्ति-अटूट-श्रद्धान लाया ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
तारण-हारे !
पनडुब्बी ‘कि डूबी बनो सहारे ।
तुम सा कोई न दूजा ।
करता मैं जल से पूजा ।
चन्दन लाया पूजन हेत ।
श्रद्धा भक्ति समेत ।
आया सवाली, लाया धाँ शाली ।
साथ श्रद्धा निराली ।
होने शबरी के जैसा धन ।
भेंटूँ श्रद्धा सुमन ।
चरु नवीने लाये ।
कराने पार सफीने आये ।
श्रद्धा सबूरी साथ लिये ।
आया घी के लिये दिये ।
हृदय श्रद्धा से भर लाये ।
धूप चढ़ाना भाये ।
श्री फल श्रद्धा के साथ ।
सच, बना ही देता बात ।
आया श्रद्धा के साथ में ।
ले अर्घ का थाल हाथ में ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
मैं ना, ‘कि कह रही नासा ।
न इंसां कोई इनसा ।।
भक्त तुम्हारा मैं,
आया ले दृग् जल भिंजाने तुम्हें ।
आया ले चन्दन, रिझाने तुम्हें ।
आया ले धाँ घर बुलाने तुम्हें ।
आया ले सुमन भिंटाने तुम्हें ।
आया ले व्यंजन, खिलाने तुम्हें ।
आया ले दीप, चित् बिठाने तुम्हें ।
आया ले धूप, दृग् समाने तुम्हें ।
आया ले श्री फल, पा पाने तुम्हें ।
आया ले अरघ, मनाने तुम्हें ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
लागी लौं,
गुरु से जिनकी, उनकी पार लागी नौ ।
शुक्रिया
साधारण सा ये जल जो स्वीकार लिया ।
घट-चन्दन, ये माटी
अक्षत-थाल, ये बाल,
थाल-फुलवा, ये नादां,
‘जि तनिक-सा, ये चरु,
घृत-दीव, ये गरीब,
घट-धूप, ये छोटा सा,
‘जि श्रीफल, ये जरा-सा,
‘जि मुट्ठी भर, ये अर्घ,
जो स्वीकार लिया
शुक्रिया शुक्रिया ।।अर्घ्यं।।
=जयमाला=
सदलगा गौरव तुम ।
जैन कुल सौरभ तुम ।।
पिता मल्लप्पा जाँ ।
तुम्हारी श्री मति माँ ।।
शारदी मनहारी ।
पूर्णिमा अवतारी ।।
सूर तेजा माथा ।
नूर आसमां नाता ।।
की पढ़ाई न्यारी ।
अखर , ढ़ाई वाली ।।
भोग कब पग बाधा ।
योग अरहत साधा ।।
आश ब्रमचर पूरी ।
देश-भूषण सूरी ।।
ज्ञान गुरु, गुरु शिक्षा ।
ज्ञान गुरु, गुरु दीक्षा ।।
पुण्य भू अजमेरा ।
लगा भक्तन मेला ।।
गुरु उपाधी छोडी ।
रति समाधी जोड़ी ।।
नसीराबाद नगर ।
नसीबा हाथ अमर ।।
हाथ संयम खुशबू ।
बाद बुन्देली भू ।।
दिगम्बर दीक्षाएँ ।
आर्यिका बालाएँ ।।
ब्रह्म प्रतिभा मंडल ।
ब्राह्म आश्रम संदल ।।
ब्रह्मचारी ग्वाला ।।
दयोदय गोशाला ।।
प्राणदा वायू है ।
खुली पूर्णायू है ।।
काल अभिजित सुन्दर ।
लाल पत्थर मन्दर ।।
अचिन्त्य गौरव गाथा |
अन्त्य ‘नाता’ माथा ।।
‘निरा-कुल’ बन पाऊँ ।
भावना इक भाऊॅं ।।
सदलगा गौरव तुम ।
जैन कुल सौरभ तुम ।।
हाई-को ?
‘जि कभी मिलें, भिंजोने पाद ।
बिन पानी परात ।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
भव सागर तट धरें ।
गुरुवर संकट हरें ।
आओ आरति करें ।।
ओजस्वी हैं गुरुवर ।
तेजस्वी हैं गुरुवर ।
गुरुवर मनस्वी हैं,
तपस्वी हैं गुरुवर ।।
दीवाली घृत भरें ।
आओ आरति करें ।
भव सागर तट धरें ।
गुरुवर संकट हरें ।
आओ आरति करें ।।१।।
तरु-मूल खड़े बरसा ।
चौराहे शीत निशा ।
गिर शिखर ग्रीष्म ठाड़े,
जब तपे रश्मि-सहसा ।।
दीवाली घृत भरें ।
आओ आरति करें ।
भव सागर तट धरें ।
गुरुवर संकट हरें ।
आओ आरति करें ।।२।।
पर पीर देख चीखें ।
हित स्वपर लगे दीखें ।।
सुख चाह निराकुल ले,
सिख…लाते नित सीखें ।।
दीवाली घृत भरें ।
आओ आरति करें ।
भव सागर तट धरें ।
गुरुवर संकट हरें ।
आओ आरति करें ।।३।।
Sharing is caring!