वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
हाई-को ?
बढ़ा तो ‘पग ले’ ।
गुरु जी लगाते सबको गले ।।
तुमरी करुणा का पार नहीं ।
है तुमको किस से प्यार नहीं ।।
तुम हो गो वत्सल में आगे ।
तुम दो खो गांठ नेह धागे ॥
संप्रीत मीन ज्यों पानी से ।
संप्रीत तिरी हर प्राणी से ।।
मुस्कान मुफ्त बाँटा करते ।
पर पीर-गर्त-पाटा करते ।।
सुन दुख हल्का कर देते हो ।
निष्काम पोत शिव खेते हो ॥
विश्वास सभी पे करते तुम ।
तम गम मातम तुम करते तुम ॥
हर लेते हो पीड़ा सबकी ।
मूरत दूजी सी ही रब की ।।स्थापना।।
चूँमे कदम तो कैसे कामयाबी
पाँचों सभी के सभी पाप हावी
और हम अकेले,
भगवान् मेरे
आँखें तरेरे,
अंतस्-अंधेरे
दे रोशनी दो भगवान् मेरे
चूँमे कदम तो कैसे कामयाबी
कषायें सभी चार की चार हावी
और हम अकेले,
चूँमे कदम तो कैसे कामयाबी
मिल दोनों ही राग-द्वेष हावी
और हम अकेले,
भगवान् मेरे ।।जलं।।
पलक भी
जो झलक तेरी
न पाते हैं
तो भर आते हैं
मेरे ये नैन
कुछ तो करो
‘जि गुरु जी अहो
‘कि पा जायें चैन
मेरे ये नैन
लो बना पीछी ही,
जिसे हाथों मे लिये रहते हो
लो बना पोथी ही,
जिससे आँखें लगाये रहते हो
दिन-रैन
‘कि पा जायें चैन
मेरे ये नैन
ले बना अपने वचना,
अमृत जिससे झिरता है
लो बना, सपना अपना,
परहित जिसमें विचरता है
लो बना रतन,
न रहते हो, जिनसे जुदा कभी
लो बना जतन,
न बनते बिना जिसके खुदा कभी ।।चन्दनं।।
सब ही तो लुटा दिया,
जग को जग का,
‘जि गुरु जी ने, क्या न लौटा दिया
सब ही तो लुटा दिया
और तो और,
अभी भी रहे लुटा,
भर-भर अंजुरी
सबको बुला-बुला
मुस्कान मिसरी घुरी ।
वाणी मुरली दूसरी ।
और तो और,
अभी भी रहे लुटा,
दिल खोल कर
अकसीरे-नजर ।
अतिवीरे-डगर ।
और तो और,
अभी भी रहे लुटा,
सबको बुला-बुला
बेवजह ही दुआ ।
‘जी’ जगह करके दया ।।अक्षतं।।
आप मेरे उन अपनों में आते हैं
जो न आते तो आँसु चले आते हैं
दिल की धड़कन थमने को कहने लगे
नाड़ी फड़कन ठहरने को कहने लगे
इधर आप जो नजर न उठाते हैं
तो आँसु चले आते हैं
साँसों की सरगम बेसुरी सी होने लगे
जिस्मो-जाँ संगम दूरियाँ बोने लगे
रख मुझे नजर, जो आप न मुस्कुराते हैं
तो आँसु चले आते हैं
पलकों की थिरकन पन चंचल खोने लगे
रोमावलि पुलकन धूमिल सी होने लगे
मुस्कुरा मुझसे, जो आप न बतियाते हैं
तो आँसु चले आते हैं ।।पुष्पं।।
‘के बन जाती हर मुश्किल आसाँ
है आती वो गुरु जी को भाषा
है लाजमी भी
हैं पूर्ण मा’ई क्योंकि
वृक्ष फलदाई क्योंकि
‘रे अपना के,
अपना ये सिर तो झुका जरा सा
सहजता की गुरु जी परिभाषा
है लाजमी भी
हैं दिले-दरिया क्योंकि
तम तले न दिया क्योंकि
है लाजमी भी
है बाल सा मन क्योंकि
फुहार सावन क्योंकि ।।नैवेद्यं।।
सिन्धु परन्तु मीठे कौन ।
संतन इन्दु सरीखे कौन ।।
गुरु पर नहीं डूबते कौन ।
प्रभु-थुति नहीं उबते कौन ॥
बनें, लाठी न लेते कौन ।
बना माटी घट देते कौन ।।
वर्तमान गोपाला कौन ।
वर्धमान गौशाला कौन ॥
विद्यासागर विद्यासागर ।
ज्ञान दिवाकर गुण रत्नाकर ।
विद्यासागर-विद्यासागर ।।दीपं।।
किस बात की अब, करनी फिकर ।
गुरुजी ने ली जो अँगुली पकड़ ।।
क्या चीज पाई, क्या चीज खो दी ।
क्या सोचना, हूँ गुरुदेव गोदी ।।
रख जो दिया है, हाथ बागवाँ ने ।
अपना लिया बेशक आशमाँ ने ।।
बनते ही शिल्पी के वो देखो साथी ।
आती कहाँ अब दुखियों में माटी ।।
दुखता हुआ भी दुखता न माथा ।
तर प्यार माँ हाथ सर पे क्या आता ।।
पाई जिन्होंने गुरु देव छाया ।
चलकर किनारा नजदीक आया ।।धूपं।।
तुम जो न मुझको देते सहारा ।
बना स्वप्न रहता पाना किनारा ।
भरे गम से, मातम से होते नयन ।
मेरा कहाँ ये, दिया तेरा जीवन ।।
तुम जो न अपना कहके बुलाते ।
लिख थे रहे पानी, माटी न पाते ।।
अरमाँ बना रहता छूना गगन ।
रो था रहा वन अकेले तेरे बिन ।।
तुम जो ना सुनते, व्यथा आप बीती ।
रही आती वर्षा में, अँखिया ये तीती ।।
अधूरे रहे आते सारे सपन ।
मेरा कहाँ ये दिशा तेरा जीवन ।।
रो था रहा वन अकेले तेरे बिन ।।फल।।
देखो ‘ना’, पग तले सड़क,
रोदें सारी दुनिया ।
फिर भी खड़ी नहीं क्या,
ले हाथों में थम्ब दिया ।।
देखो ‘ना,’ साबुन ने अपना,
जीवन मिटा दिया ।
पर कपड़ों को मर-मिट भी,
नव जीवन भिंटा दिया ।
देखो ‘ना,’ वो हमें बनाते,
शाला टूट गई ।
जाते-जाते दे सम्पद ,
माँ-गाय अटूट गई ।।
देखो ‘ना’, तरु धूप खा रहे,
खिला रहें छाया ।
प्यास बुझा उर निर्झर,
कब कुछ पाने ललचाया ।।
अधिक और क्या,
शीष खपाये शीश दूसरों को ।
बना रही निश्चिन्त रबर,
निशि दीस दूसरों को ।।
जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
हवा-से, गुरु जी ।
न दिखें, रहे पै आस-पास ही ।।
आश पुरानी पीछी तोर ।
‘ले आये’ नम दृग् कोर ।
पुरानी पीछी से जोड़ने बंधन ।
भेंटूँ चन्दन ।
पुरानी पीछी चाहिये, लाये धाँ ।
न करना मना ।
आप पुरानी पीछी मिले ।
चढ़ाऊँ ‘कि पुष्प खिले ।
आश पुरानी पीछी आप शुरू से ।
पूजूँ चरु से ।
भेंटूँ दीव ।
हो पुरानी पीछी तेरी मेरे करीब ।
दो पूर आप पुरानी पीछी आश ।
भेंटूँ सुवास ।
पुरानी पीछी तेरी हो मेरी ।
भेंटूँ श्री फल ढ़ेरी ।
तेरी पुरानी पीछी पे जा टिके दृग् ।
भेंटूँ अरघ ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
जो दुखिया को पातीं ।
गुरु अँखियाँ डबडबातीं ।।
तुम भू-द्यु में न खींचो लकीर ।
सो भेंटूँ नीर, चन्दन ।
जैसा भवन, तुम्हें वैसा वन ।
तुम्हें कुटिया एक कोठी आलिशाँ ।
सो भेंटूँ शालि-धाँ, पुष्प मैं ।
बँगला एक झुपड़िया तुम्हें ।
तुम्हें मकान एक श्मशान ।
सो भेंटूँ पकवा, ‘दीया’ ।
तुम्हें हूबहू कोठी जैसी कुटिया ।
तुम्हें अटारी, टपरी एक रूप ।
सो भेंटूँ धूप, फल ।
वैसा जंगल तुम्हें जैसा महल ।
मकां, मशां में न तुम्हें फरक ।
सो भेंटू अरघ ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
श्री गुरु के संग ।
सफर का कुछ दूजा ही रंग ।।
बदली नव-जबां तकदीर ।
मैं भी लाया नीर ।
सर्वोदय ने क्या न पाया ।
चन्दन ले मैं भी आया ।
संस्था पूर्णायु सुर्ख़ियों में ।
धाँ लाया आने भक्तों में ।
भाग्योदय ने भाग जगाया ।
पुष्प ले मैं भीं आया ।
प्रतिभा-मण्डल झुक-झूमे ।
भेंटने लाया चरु मैं ।
सिद्धोदय ने नाम कमाया ।
दीप ले मैं भी आया ।
दयोदय ने पाई छाया ।
सुगंध ले मैं भी आया ।
भारत भाषा जुबां-जुबां खेले ।
में भी लाया भेले ।
अक्षर बन चाले मन्दर ।
भेंटूँ अर्घ सादर ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
लगने पाये न खबर ।
चित् चुरा लें गुरुवर ।।
दृग् सजल, ये गुल फल भेंटूँ ।
‘कि भ्रमण जामन-मरण मेंटूँ ।
‘कि जन्म जन्मातर आतप मेंटूँ ।
‘कि पद जेते क्षत-विक्षत मेंटूँ ।
‘कि सिर-चढ़ बोले ये मन्मथ मेंटूँ ।
‘कि जग भखना ये रोग क्षुध् मेंटूँ ।
‘कि महा-मोह रूप ये अंधेरा मेंटूँ ।
‘कि प्रद-कष्ट ये अष्ट करम मेंटूँ ।
‘कि नरकादि सात-पृथ्वियाँ मेंटूँ ।
‘कि मन वाक् काय रूप त्रिवर्ग मेंटूँ ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
छू पूजा गुरु-भगवन् ।
छूमंतर दुविधा मन ।।
हम लाये दृग्-जल चढ़ाने ।
तीजे दृग् भींजे पाने ।
गति-गति का बंध मिटाने ।
लाये गंध, धाँ शाली चढ़ाने ।
दीवाली अब ‘कि मनाने ।
दृग् सुर-तिय जय-श्री पाने ।
लाये पुष्प, चरु चढ़ाने ।
क्षुधा रोग से पीछा छुड़ाने ।
बने, जीवन-जीव बचाने ।
लाये दीव धूप चढ़ाने ।
मत मण्डूक कूप सिराने ।
विरला मुक्ति फल पाने ।
लाये श्रीफल अर्घ चढ़ाने ।
मोक्ष पदवी अनर्घ्य पाने ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
रखता कभी न प्यासा ।
जिया गुरु हूबहू माँ सा ।।
दृग् जल, लाये जल-फल चढ़ाने ।
भावी सिद्धों की श्रेणी में आने ।
जमीं आठवीं निजी बनाने ।
सिद्ध-शिला सम्राट कहाने ।
शिव बागान झूमने-गाने ।
वापिस कभी न नीचे आने ।
कतार ज्ञान शरीरी पाने ।
अविनश्वर हट सकून पाने ।
खो औ’गुन, छू शगुन पाने ।
सपना बना अपना पाने ।
लाये अर्घ चढ़ाने ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
गुरु जी ‘जहाँ’ रक्खें पग ।
भूमि वो बने सुरग ।।
तेरे चरणों में चढ़ाऊँ ।
सादर, जल गागर ।
सानंद, गागर गंध ।
अतुल, शालि तण्डुल ।
सजग, पुष्प सुरग ।
सदैव, घृत नैवेद्य ।
त्रिकाल, प्रदीप-माल ।
अनूप, दशांग धूप ।
हरस, फल सरस ।
सम्भाल, अर्घ पिटार ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
डोर शबरी थामी ।
लो थाम और हमरी स्वामी ।।
दृग् धार छोड़ी ।
पा कृपा आप बाँस आलाप छेड़ी ।
कुंकुम तुम धूली पाँवन ।
सो भेंटूँ गंध-बावन ।
भेंटूँ शाली धाँ ।
तुमने छुआ ‘अन’ मिश्री हुआ ।
बढ़े दाम क्या पत्थर बैठे तुम ।
सो कुसुम भेंटूँ ।
भेंटूँ नैवेद्य घृत ।
छुआ ‘आप’ ‘कि हुआ अमृत ।
तेरे चरण छू के कंकर मोती ।
सो भेंटूँ ज्योति ।
भेंटूँ सुगंधी ।
तुम चरण-धूल चन्दन सी ।
तूने दृष्टि क्या ‘डाली’ दीवाली ।
सो भेंटूँ श्रीफल थाली ।
शुक्रिया, अर्घ भेंटूँ ।
दिया ‘कि हाथ दोनों समेटूँ ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
हंस को एक ।
पता विवेक, गुरु जी को अनेक ।।
प्रतिभा…रत संस्कृति संरक्षक ।
भेंटूँ उदक ।
भेंटूँ चन्दन धार ।
कर्तृ गृह-गृह श्री-जी जीर्णोद्धार ।
कृपाल ! कलि-जुग-गोपाल !
भेंटूँ थाल धाँ-शाल ।
मन सुमन सिर-मौर !
मैं भेंटूँ सुमन और ।
भेंटूँ निर्मित घृत पकवाँ,
नाम तथा गुणवाँ ।
हंस-अहिंस संस्कृति संरक्षक !
भेंटूँ दीपक ।
हत-करघा जीवन सतरंग !
भेंटूँ सुगंध ।
नैन सजल !
जल-भिन्न कमल !
भेंटूँ श्री फल ।
यम नियम संयमाधार !
भेंटूँ अर्घ पिटार ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
धीर हैं, वीर हैं, गंभीर हैं ।
‘गुरु’ बेनजीर हैं ।।
दृग् सजल, द्यु-स्यंदन तुम्हें जान के ।
दृग्-जल, चन्दन भेंटूँ आन-के,
दया निधाँ, मंशापून तुम्हें जान के ।
शालि-धाँ, प्रसून भेंटूँ आन-के ।
माँ सदृश किरपालु तुम्हें जान के ।
षट्-रस, दीवा-द्यु भेंटूँ आन-के ।
भक्त-स्नेही, नेक-दिल तुम्हें जान के ।
सुगंधी, श्रीफल भेंटूँ आन-के ।
दुग्ध-रग तुम्हें जान के ।
मैं अरघ भेंटूँ आन-के ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
मिली क्या आप पाँव-रज ।
गुत्थियाँ गई सुलझ ।।
दृग् जल लाया ।
श्री-वाहन मैं, ज्ञाँ-कण बोने, आया ।
जी-पाहन मैं, माखन होने आया ।
जी-रावन मैं, पावन होने आया ।
‘ही’-भाजन मैं, दामन धोने आया ।
श्री-राजन ! ‘भी’ भाजन होने आया ।
धीवाँ-धन ! धिक् ध्यां-पन खोने आया ।
धी-माहन ! धी-रावन खोने आया ।
जी पावन ! जी-पाहन खोने आया,
न सावन, न कानन रोने आया ।
जल-फल लाया ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
ए ! दूजे चाँद पूनम-शरद ।
आ कीजे मदद ।।
अखीर उड़ा सकने, ‘अबीर’ ।
मैं भेंटूँ दृग्-नीर ।
अखीर कर पाने सु-मरण ।
चन्दन मैं भेंटूँ अक्षत ।
अखीर बीते ‘जै-वीर’-जपत ।
अखीर रह पायें ‘कि दृग्-नम,
कुसुम, मैं भेंटूँ नेवज ।
अखीर बीते ‘कि रह सहज ।
अखीर खोये न आप झलक ।
दीपक, मैं भेंटूँ सुगंध ।
अखीर बन सकूँ ‘कि निर्ग्रन्थ ।
अखीर ‘कि न अपनाने छल ।
श्री फल मैं भेंटूँ अरघ ।
अखीर रह पाने ‘कि सजग ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
गलें शिकवे गिले,
आप दर्शन से सुकूँ मिले ।
निरख सकूँ, अन्तस् तस्वीर ।
भेंटूँ नैनन नीर ।
कर सकूँ ‘गो-चरी’ अभिनन्दन ।
चन्दन, भेंटूँ अक्षत ।
हो सकूँ अन्त-अन्त-तक विरत ।
हो सकूँ, ‘पाय’ हवा बेत सा दून ।
प्रसून भेंटूँ नैवेद ।
विथला सकूँ, ‘आप’ घरौंदा रेत ।
आ सकूँ और अपने ही करीब ।
प्रदीव, भेंटूँ सुगंध ।
छ्क ले सकूँ स्वाद सहजानंद ।
संभाल सकूँ आज अपना-कल ।
श्री फल भेंटूँ अरघ ।
उतार सकूँ जमीन पे सुरग ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
पाये रोशनी सितारे ।
आये हम भी तेरे द्वारे ।
जजूँ ले द्रव्य भाँत-भाँत ।
मन ‘कि लगे मानने बात ।
पा ‘कि सकूँ आपका साथ ।
पद-अक्षत करने हाथ ।
लाने जीवन में नौ-प्रभात ।
करने क्षुधा-विघात ।
उकेरने धी-लकीर माथ ।
रिझाने गात संज्ञान मात्र ।
विघटाने खिल-प्रमाद ।
जजूँ ले द्रव्य भाँत-भाँत ।
हो सकूँ ‘कि पवर्ग पात्र ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
कीजे श्री गुरु जी आ रोशनी ।
रात अँधेरी घनी ।।
होने आप-सा सुख-आकर ।
भेंटूँ जल गागर ।
होने आप-सा सुख-सदन ।
घट चन्दन, भेंटूँ धाँ, ध्याँ समेत ।
होने आप-सा सुख-निकेत ।
होने आप-सा सुख-धाम ।
द्यु-पुष्प तमाम, भेंटूँ घी के पकवान ।
होने आप-सा सुख-थान ।
होने आप-सा सुख-संस्रोत ।
दीपक ज्योत, भेंटूँ धूप-इतर ।
होने आप-सा सुख-मन्दर ।
होने आप-सा सुख-गेह ।
श्री फल सनेह, भेंटूँ अरघ यह ।
होने आप-सा सुख-निलय ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
गुरु हूबहू माँ ।
ले गोद में, जो, दें छुवा आसमाँ ।।
यूँ ही, रोज ही,
पाने गंधादक ।
मैं भेंटूँ उदक ।।
भेंटूँ चन्दन ।
पाने आप दर्शन ।
राख लेना पत ।
मैं भेंटूँ अक्षत ।
भेंटूँ पुष्प बगान ।
पाने मुस्कान ।
हों पूरे अरमाँ ।
मैं भेंटूँ पकवाँ ।
लाया भिंटाने ।
‘दीवाली’ ‘मना पाने’ ।
मिला पाने विधी ।
मैं भेंटूँ सुगंधी ।
‘कि भेंटूँ भेले ।
खुशी-चेहरे खेले ।
जाऊँ पहुँच स्वर्ग ।
‘कि भेंटूँ अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
न्यारे, ‘श्री गुरु’ ।
चमकते सबसे तेज सितारे ।।
न ठुकराना ।
ले जल आये गंगा का जाना माना ।
ठग जमाना ।
आये, चन्दन धाँ लाये,
इक नजर दो उठा ना ।
शरण आये, लाये सुमन नाना ।
आये, घृत-निर्मित ले पकवाना ।
लाये दीप, सकाय मानस वाणा ।
ले आये सुगंध न और जहाना ।
लाये फल नन्दन, नाम बागाना ।
लिये अर्घ, हुआ दृग् सजल आना ।
न ठुकराना ।।अर्घं।।
(१८)
हाई-को ?
खबर, रक्खा करते नजर ।
माँ सी गुरुवर ।
तोहफा दृग्-जल मेरा ।
अ’जि ‘जी’ चुरा पाये तेरा ।
तुझसे लागी लगन मोरी ।
भेंटूँ गंध कटोरी ।
भेंटूँ धाँ ढ़ेरी ।
तेरा नाम ले न थके जुबाँ मेरी ।
भक्त मैं तेरा, मेरे भगवन् तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ नेवज ।
जुड़ चला तुमसे रिश्ता सहज ।
न आज की तेरी मेरी पुरानी प्रीति ।
भेंटूँ ज्योति ।
भेंटूँ सुगंधी तुझे ।
लागी लगन अंधी तुझसे ।
तुझसे लागी लगन म्हारी,
भेंटूँ फल-पिटारी ।
भेंटूँ द्रव सरब
मेरे गरब ! ए मेरे-रब ! ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
गुरु उतने खासमखास ।
लेनी जितनी श्वास ।।
भेंटूँ निर्मल नीर ।
दृग्-नीर, धीर-वीर-गंभीर ।
निर्जन वन क्रन्दनहार ।
चन्दन धार भेंटूँ अक्षत धान ।
करुणा-दया-क्षमा निधान ।
कलि गोपाल ! मति-मराल ।
सुमन थाल, भेंटूँ छप्पन भोग ।
‘दर्शन’ मणि काञ्चन जोग ।
कर्तार जिन-मत उद्योत ।
अखण्ड ज्योत, भेंटूँ अनूप धूप ।
चिच्चिदानंद ! चैत्य चिद्रूप ।
साध सहज-दृग् शिर मौर ।
श्री फल और, भेंटूँ अरघ दूज ।
एक मत भू-सुरग पूज ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
बड़े सरल ।
होते गुरु जी जल भिन्न कमल ।।
भेंटूँ जल,
ए ! विगत माया-मिथ्या-निदान शल ।
गंग-जमुन-दृग् ! ‘कि सुना क्रन्दन ।
भेंटूँ चन्दन, अक्षत ।
अय ! संरक्षक ‘भा-रत संस्कृत’ ।
काम धेन ! ए ! मनो कामना पून ।
भेंटूँ प्रसून, पकवाँ ।
वर्तमां वर्धमां ! ए ! किरपा निधाँ ।
जहां मावस, रात औ’ उजियाली ।
भेंटूँ दीपाली, सुगंध,
चाँद बीच तारन सन्त-निर्ग्रन्थ ।
ए ! कलि धारक रत्न-तीन निर्मल ।
भेंटूँ फल, अरघ ।
सहजो-निरा-कुल ! ए ! जेय-जग ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
गुरु शगुन हैं ।
दीवाली का दिन है, फागुन हैं ।।
भेंटूँ दृग् नीर ।
लघु नन्दन वीर !
अय ! गभीर ।
भेंटूँ चन्दन ।
भंजन भौ-क्रन्दन !
ए ! निरंजन ।
भेंटूँ धाँ न्यार ।
अमंगलहार !
ए ! मंगलकार ।
भेंटूँ सुमन ।
धनी मुस्कान धन !
अय ! शगुन ।
भेंटूँ नेवज ।
निराकुल सहज !
औ’ रेखा-गज ।
भेंटूँ दीप ।
ए ! समोति सीप !
गुरु पाँव समीप ।
भेंटूँ सुगंध ।
निमग्न सरानन्द !
अय ! निष्पन्द ।
भेंटूँ श्री फल ।
जन्म ‘मानौ’ सफल !
ए ! दृग् सजल ।
भेंटूँ अरघ ।
तर-करुणा-डग !
अय ! सजग ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
काफी है गुरु का नाम ।
ले लीजे जो बिगड़े काम ।।
आये द्वार पे तेरे,
लाये उदक, खोने अंधेरे ।
लाये चन्दन, होने विरले ।
लाये धां, खोने रोने चहरे ।
लाये सुमन होने गहरे ।
लाये नैवेद्य खोने पहरे ।
लाये दीपक पाने सबेरे ।
लाये सुगन्ध खोने नखरे ।
लाये श्री फल बनने चेरे ।
लाये अरघ, आने नियरे ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
भूल किसी से भी हो ।
आँखें गुरु जी की पड़तीं हैं रो ।।
छोड़ी तुमनें जो गहल-म्याऊँ ।
सो जल चढ़ाऊॅं ।
छोड़ी तुमनें जो गफलत-भृंग ।
भेंटूॅं सो-गंध ।
छोड़ी तुमनें मीन-गफलत ।
सो भेंटूॅं अक्षत ।
छोड़ी तुमनें गहल ‘ना…गिन’ ।
सो भेंटूॅं सुमन ।
छोड़ी तुमनें गफलत गज ।
सो भेंटूॅं नेवज ।
छोड़ी तुमनें गहल-खरगोश ।
सो भेंटूॅं ज्योत ।
छोड़ी तुमनें टेव कूप-मण्डूक ।
सो भेंटूॅं धूप ।
छोड़ी तुमनें वानरी गहल ।
सो चढ़ाऊँ फल ।
छोड़ी तुमनें टेव-शतुरमुर्ग ।
सो भेंटूॅं अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
अंधेरा पग उल्टे जाता भाग ।
श्री गुरु चिराग ।।
भेंटूँ जल के घड़े ।
होने आप से दिल के बड़े ।
होने आप से सज्जन निरे ।
चन्दन घड़े, भेंटूँ अक्षत निरे ।
होने आप से भास्वत खरे ।
होने आप से सगुण अरे ।
सुमन निरे, भेंटूँ चरु घी भरे ।
होने आप से तरु ‘जी’ भरे ।
होने आप से हिये ‘भी’ भरे ।
दिये घी भरे, भेंटूँ सुगंध घडे़ ।
खोने आप से नन्त दुखड़े ।
होने आप से साफ सुथरे ।
श्री फल बड़े, भेंटूँ दरब निरे ।
खोने आप से अघ सबरे ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
अजूबा,
छोटी-सी आँखों में,
‘गुरु’ हो के भी गये आ ।।
दृग्-जल,
जल फल चढ़ा रहा ‘मैं’,
जल, बना दो मोति हमें ।
बाँस, बना दो वंशी हमें ।
कपास, बना दो कपड़ा हमें ।
धूल, बना दो फूल हमें ।
काँच, बना दो शीशा हमें ।
शिल, बना दो शिव हमें ।
धूप, बना दो छाँव हमें ।
बीज, बना दो फल हमें ।
माटी बना दो घड़ा हमें ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
गई खो काली रैन ।
गुरु जी ने, थे ही खोले नैन ।।
भेंटूँ दृग्-नीर आप को,
विघटाने कीर-जाप को ।
विघटाने भवाताप को ।
विघटाने ओछी माप को ।
विघटाने सभी पाप को ।
विघटाने नादि श्राप को ।
विघटाने ‘ही-प्रताप’ को ।
विघटाने चाल-साँप को ।
विघटाने पद-चाप को ।
विघटाने स्याह-छाप को ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
आओ, देवता ओ ! ।
मेरे मन की, खो चंचलता दो ।।
जीभ चिढ़ाते गम ।
त्राहि माम्, नीर चढ़ाते हम ।
आँख दिखाते गम ।
त्राहि माम्, गंध चढ़ाते हम ।
हाथ उठाते गम ।
त्राहि माम्, सुधाँ चढ़ाते हम ।
भ्रूएँ चढ़ाते गम ।
त्राहि माम्, पुष्प चढ़ाते हम ।
धोखा खिलाते गम ।
त्राहि माम्, चरु चढ़ाते हम ।
तम फैलाते गम ।
त्राहि माम्, दीप चढ़ाते हम ।
जाते दबाते गम ।
त्राहि माम्, धूप चढ़ाते हम ।
गुस्सा दिलाते गम ।
त्राहि माम्, फल चढ़ाते हम ।
सितम ढ़ातें गम ।
त्राहि माम्, अर्घ चढ़ाते हम ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
ताने औरों के लिए छाता श्री गुरु ।
और ही तरु ।।
सुलझा भी दो उलझन ।
दृग्-जल करूँ अर्पण ।
चाह ले एक स्वानुभवन ।
साधूॅं अब ‘कि सु…मरण ।
चाह ले जित-चितवन ।
मेंटने रोग क्षुध् वेदन ।
खोलने तीजे लोचन ।
करने ढीला कर्म बन्धन ।
पाऊँ ‘कि पाद-प्रक्षालन ।
जल-फल करूँ अर्पण ।
थम सके ‘कि दौड़-हिरण ।।अर्घ्यं।।
*जयमाला*
बरसाई, आपने क्या ज्ञान-धारा
हमारा, चमका भाग सितारा
डरा डरा-सा, था सहमा-सहमा
आसमाँ छू रहा हूँ, है तेरा करिश्मा
लो दीखने ही लगा, वो किनारा
जारी था हा ! रह-रह के सिसकना
काई पर न हो रहा, अब फिसलना
जो मिल गया, आपका सहारा
गुम-सुम सा था, था खामोश मैं
साँझ-साँझ लो, आ गया होश में
पा गया सिर पे हाथ, जो तुम्हारा
हमारा, चमका भाग सितारा
हाई-को ?
मैं हूॅं आकुल-व्याकुल,
कीजे निज-सा निराकुल
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
गुरुदेव की उतारते आ आरती,
गुरुदेव की
गुरुदेव ही, रथ भुक्ति-मुक्ति सारथी,
गुरुदेव ही
गुरुदेव की उतारते आ आरती,
गुरुदेव की
यही तो, थमा देते खुशिंयों के आँसू
यही तो चुरा लेते अंखिंयों से आँसू
गुरुदेव ही, जानें कला उस पार की,
गुरुदेव ही
गुरुदेव ही, रथ भुक्ति-मुक्ति सारथी,
गुरुदेव ही
यही तो, छुवा देते हैं, आसमाँ को
यही तो, दुआ देते हैं, पास माँ जो
गुरुदेव ही, श्रुत-विश्रुत माँ भारती,
गुरुदेव ही
गुरुदेव ही, रथ भुक्ति-मुक्ति सारथी,
गुरुदेव ही
यही जगमगा देते, किस्मत सितारे
यही तो, लगा देते किश्ती किनारे
गुरुदेव ही, रखते हैं नज़र पारखी,
गुरुदेव ही
गुरुदेव ही, रथ भुक्ति-मुक्ति सारथी,
गुरुदेव ही
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