वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
सुन था रक्खा
आपको सुन आज अमृत चखा
कहा आपका,
‘जी’ छू जाता,
आपको क्या जादू आता
।। नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।
अब बँधने वाली शिव पगड़ी ।
जाने, जानें दुनिया सगरी ।।
अरिहन्तों का हमें सहारा ।
स्वप्न कहाँ अब स्वप्न सरीखा ।
लगा माथ अधिपति शिव टीका ।।
शरण हमें सिद्धों का द्वारा ।
लिये धर्म ध्वज सबसे आगे ।
संघ पतंग हाथ इन धागे ।।
थवन सूरि भव जलधि किनारा ।
स्वार्थ विसर श्रुत सुधा पिलाते ।
आते उन्हें बिठाते जाते ।।
त्रिजग भक्त उवझाय तिहारा ।
फिरके में आते कब मन के ।
फिर नवकार रहे कर ‘मनके’ ।।
‘जयतु श्रमण’ जप किन्हें न प्यारा,
नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।स्थापना।।
।। गुरु-वाणी साबुन सोडा ।।
र…ज, ज…र पना न पाई है ।
शिशु वय, हुई बिदाई है ।
गति ले अस्ल नस्ल घोड़ा ।
दाग उड़ चले हल्दी-से ।
मैल कट चला जल्दी से ।।
देखो कहीं श्याह थोड़ा ।
गरदा दर चाली यम के ।
इक भीतर बाहर चमके ।।
सार्थ नाम ‘क…पड़ा’ ओड़ा ।
गुरु-वाणी साबुन सोड़ा ।।जलं।।
अमृत बरसे ।
गुरु मुख से ।
आ लें लूट इसे ।।
सुनते सोया भाग जगाता ।
लगे-हाथ, जो माँगा जाता ।।
पल-छूट न जाये, हाथ से ।
उधड़े रिश्तों की तुरपाई ।
कर दे, भर रिश्तों की खाई ।।
फल टूट न जाये डाल से ।
क्षण-तनाव के विघटा सारे ।
मन-मुटाव दे लगा किनारे ॥
कल रूठ न जाये आप से,
आ लें लूट इसे ।।चन्दनं।।
माधुरी ।
धुन बाँसुरी ।
मिसरी घुरी ।।
ए जी ! बड़ी सुहानी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
दुख हरती ।
सुख कर्तृ ।।
दुनिया तभी दिवानी ।
वरदानी ।
कल्याणी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
अघ हरती ।
निर्मल करती ।
जैसे गंगा पानी ।।अक्षतं।।
सीप जगमगाती मोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
उजला-उजला अन्तरंग है
एक न उठती मन तरंग है
परिणत अब न काग धोती
एक अलग सी ठण्डक मन में
सहज निराकुल दण्डक वन में
रह पाना, न बात छोटी
परहित हुए पनीले नयना
अल, कल-दूत रसीले वयना
भार न ‘अव-मत’ सर ढ़ोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती ।।पुष्पं।।
विद्या सागर अमरित वाणी
सागर-सागर सुना हलाहल
सागर- सागर हा ! बड़वानल
जब-तब छीन चला जिन्दगानी
सागर हितु सकलंक निशाकर
सागर एक नाम मकराकर
याद शेष बस हाथ निशानी
सागर-सागर भँवर भयानक
सागर-सागर विषधर क्या शक
शुरु होते ही खत्म कहानी
जब-तब छीन चला जिन्दगानी
विद्या सागर अमरित वाणी
सागर-सागर खारा पानी ।।नैवेद्यं।।
गुरु जी ने भर दी,
अमृत से जिसकी कर्णाञ्जुली,
उसकी किस्मत खुली,
शाम से पहले, घर वो आ गया,
मुकाम दूर भले, पर वो पा गया,
पतंग उसकी उड़ी,
पंक्ति हंसों में, सिरमौर बन गया
‘वंशी’, वंशों में चित्-चोर बन गया
रही बात नहीं हल्की,
भूल-भुलैय्या का, तोड़ पा गया
चूल पहड़िया का दौड़ आ गया
पाँचों घी में अँगुलीं ।।दीपं।।
मछरिया को पानी चाहिये
जीने के लिये
हमें गुरु-वाणी चाहिये,
खुशबू के बिना,
गुल खूबसूरत भी बेकार है
इस प्राणी का,
गुरुवाणी के बिना, कहाँ उद्धार है
दरिया को रवानी चाहिये
गुरुवाणी वो ड़ोरी,
‘के आसमां छुये पतंग
गुरुवाणी माँ की लोरी,
ले निंदिया चैन ‘के मन तरंग
गुरुवाणी दीपक राग,
‘के जल उठे दीपक बुझे
गुरुवाणी जादू चिराग,
मनचाहा मिला चाहे जिसे ।।धूपं।।
तुम्हारे द्वारा दिया
‘दीया’-संबोधि क्या लिया
उस ही पल
गया बदल
मेरे जीने का नजरिया
अब मुझे मृत्यु का डर नहीं
आँख दिखाती कोठरी काजर नहीं
लगा लौं मंजिल से बहूँ वैसे
जैसे ‘के दरिया
अब मुझे किसी से भी, होती नहीं जलन
जिस किसी के लिये, भींग चलते मिरे नयन
दिल में अजीब सी इक ठण्ड़क रहने लगी
उसे हमारी खबर,
क्या करनी हमें फिकर,
ये कहने लगी ।।फलं।।
जयतु जयतु जय गुरु-वाणी
जय जयतु जयतु जय गुरु-वाणी
गुड़ से मीठी गुरु-वाणी
अमृत मिश्री गुरु-वाणी
कान्हा मुरली गुरु-वाणी
गुरु-वाणी गंगा-पानी
दे मत हंसी
सन्मत वंशी
सित मुनि मन सी
गुरु-वाणी कलि कल्याणी
सहज निराकुल
सुरग धरा पुल
मोक्ष, मिला-कुल
गुरु-वाणी औघड़ दानी ।।अर्घ्यं।।
विधान प्रारंभ
(१)
सुत सिरी-मन्त माँ ।
नीर क्षीर भर लाया हूँ ।
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के छू पाऊँ आसमाँ ।।
मलय गंध घिस लाया हूँ ।
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के कर सकूँ पुण्य जमा ।।
धान कटोरे लाया हूँ ।
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के पधारें कण्ठ माँ ।।
पुष्प सुगंधित लाया हूँ ।
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के गुमा सकूँ हा ! गुमाँ ।।
बना चारु चरु लाया हूँ ।
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के क्षुधा कहें अलविदा ।।
दिये साथ में लाया हूँ ।
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के आजूँ ज्ञान सुरमा ।
नूप धूप घट लाया हूँ
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के पायें न कर्म घुमा
वन-नन्दन फल लाया हूँ
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के रिझाऊँ शिव रमा।
द्रव्य दिव्य दिव लाया हूँ
लिये आश ये आया हूँ ।।
‘के दो दर्शन रहनुमा
शश शरद पूर्णिमा ।
सुत सिरी-मन्त माँ ।
हृदय करुणा क्षमा ।
कल निराकुल नमो नमः ।।अर्घ्यं।।
(२)
न निराकुल इनसा ।
दरिया दिल इंसाँ ।।
मसीहा अहिंसा ।
सम्पूरो मंशा ।।
विद्या सागर ओ ।
लाये आ चल जल ।
अपहरने छल-पल ।।
छल सभी विहर लो ।।
लाये घिस चन्दन ।
अपहरने क्रन्दन ।।
वन-रुदन विहर लो ।।
लाये अछत,अछत ।
अपहरने पद-छत ।।
कपि गफलत हर लो ।।
लाये सुमन सुमन ।
अपहरने छुटपन ।।
मति मराल कर लो ।।
लाये व्यंजन घृत ।
अपहरने क्षुध् गद् ।।
विदा क्षुधा कर दो ।।
लाये दीवा घी ।
अपहरने धी ‘ही’ ।।
आदर ‘भी’ भर दो ।।
लाये सुगंध घट ।
अपहरने संकट ।।
शिव नागर कर दो ।।
लाये ऋतु-ऋतु फल ।
अपहरने अटकल ।।
उर साहस भर दो ।।
लाये सरब, दरब ।
अपहरने अब-तब ।।
विद्या सागर ओ ।
सु-मरण कर-कर दो ।।अर्घं।।
(३)
निराकुलता से नेह इन्हें ।
निराकुल रहना गेह इन्हें ।।
सिन्धु विद्या छोटे बाबा ।
हरो छल-छिद्र वा छलावा ।।
नीर से भरे लाये झारी ।
तुम्हीं से बनने अविकारी ।।
मलय-रस भर लाये गगरी ।
तुम्हीं से बनने शिव शहरी ।।
अछत सित भर लाये थाली ।
तुम्हीं से होने मद खाली ।।
पुष्प ले आये मनहारी ।
तुम्हीं से बनने ‘दृग्-धारी’ ।।
लिये व्यंजन आये घी के ।
तुम्हीं से बनने धनि धी के ।।
दीप की ले आये माला ।
तुम्हीं से बनने गोपाला ।।
शोध लाये सुगंध कर में ।
तुम्हीं से रहने अब घर में ।।
सरस ऋतु फल लाये न्यारे ।
तुम्हीं से गुण पाने सारे ।।
थाल द्रव्यों से भर लाये ।
तुम्हीं सी चर्या है भाये ।।
सिन्धु विद्या छोटे बाबा ।
हरो छल-छिद्र वा छलावा ।।अर्घं।।
(४)
निराकुल तुम्हीं ।
यमी संयमी ।।
सिन्धु ज्ञान सुत ।
आठवीं दो जमीं ।।
भरे जल घड़े ।
लिये दर खड़े ।।
मनवा न लड़े ।।
लिये रज मलय ।
समीप सविनय ।।
सदय हो हृदय ।।
आये खाली ना ।
लाये शालि धाँ ।।
हटे कालिमा ।।
हटा धूल को ।
लाये फूल को ।।
क्षमा भूल हो ।।
चरु लिये सरस ।
धर हिये हरष ।।
दो दिखा दरश ।।
घृत दीप लिये ।
‘कि समीप किये ।।
जग उठें दिये ।।
लिये धूप घट ।
दिये रख निकट ।।
विघटे संकट ।।
फल वरण वरण ।
रख दिये चरण ।।
हो सहज मरण ।।
लिये सब दरब ।
हिये धर अदब ।।
सिन्धु ज्ञान सुत ।
गले अब गरब ।।अर्घं।।
(५)
निराकुल निरुपम ।
तम-विहर, हर-गम ।।
सुत वे गुरु ज्ञान ।
भर दें दम अदम ।।
‘जि-लाय’ नीर हम ।
सताय पीर गम ।।
हर लो हर सितम ।।
‘जि लाय गंध कण ।
भाय स्वच्छंद पन ।।
हर लो द्वन्द मन ।।
जि लाय शालि धाँ ।
लुभाय कालिमा ।।
हर लो कालि ऽमाँ ।।
‘कि लाय फूल ‘जी’ ।
न गिनाय भूल की ।।
दो पद-धूल ही ।।
लाय बहु पकवाँ ।
हाय ! बहु शकवाँ ।।
न रहूँ धिक् वाँ ।।
घृत लाय दीवा ।
कुप् आय ऽतीवा ।।
दो बना धी वाँ ।।
जि लाय धूपम् ।
न हाय धूर्त कम ।।
दो बना अनुपम ।।
जि लाय फल छटे ।
स्व से रहें कटे ।।
मुश्किल ऽखिल हटे ।।
जि लाय सब दरब ।
रहें भरे गरब ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
कर लो समाँ अब ।।अर्घं।।
(६)
जन जिन्हें निराकुल कहते हैं ।
मुस्कान बाँटते रहते हैं ।।
माँ श्रीमति मल्लप्पा नन्दन ।
शत सतत तिन्हें सविनय वन्दन ।।
लाये घट प्रासुक जल भर के।
नहिं निलय बने किस-किस डर से ।।
विघटा दो भव-भव के बन्धन ।।
भर लाये रज मलयज कलशे ।
कलि विकसाना चाहा बल से ।।
विघटा दो वन निर्जन क्रन्दन ।।
लाया धाँ-शालि के दाने ।
पद अब अखण्ड अक्षत पाने ।।
दो नादि नन्त सुलझा उलझन ।।
हैं रंग-बिरंगे फूल लिये ।
नहिं कहो कौन सी भूल किये ।।
भूलों का करें न अभिनन्दन ।।
घृत दिव्य-दिव्य व्यंजन लाये ।
हा ! ध्वज व्यसनों का लहराये ।।
जा जा न छुये व्यसनों को मन ।।
माला ले दीवा घृत वाली ।
मन सकी न अब तक दीवाली ।।
लग हाथ जाय अब शिव-स्यंदन ।।
सुरभित सुगंध लाये नीकी ।
कल्याणी कब, ‘वाणी’ तीखी ।।
हर लो वचनों का दारिद पन ।।
ऋतु-ऋतु के लाये फल सारे ।
छाये जीवन में अंधियारे ।।
दो बाग-बाग कर मन-वच-तन ।।
वसु-विध ले द्रव्य सभी आया ।
हा ! बोल रही सिर चढ़ माया ।।
माँ श्री मति मल्लप्पा नन्दन ।
दो लगा माथ सुमरण चन्दन ।।अर्घं।।
(७)
इक यही निराकुल हैं ।
गुरु ज्ञान बाग गुल हैं ।।
ओ ! गुरु विद्या सागर ।
अपना लो करुणा कर ।।
संशोधन कर जल का ।
फिर भर मणिमय कलशा ।।
हित अन्त समाधि मरण ।।
आये हम आप शरण ।
हित निरसन जमन मरण ।
त्रिभुवन जन मनहारी ।
भर कर चन्दन झारी ।।
छत्रच्छाया पाने ।
ले अछत अछत दाने ।।
हित केवल ज्ञान किरण ।।
आये हम आप शरण ।
हित मन मानिन्द श्रमण ।
सुरभित प्रफुल्ल अच्छे ।
चुन पुष्पों के गुच्छे ।।
रस दार बने घी के ।
‘कर’ कर व्यंजन नीके ।।
निवसा लो निकट चरण ।
आये हम आप शरण ।
बैठा लो मुकति तरण ।
घृत आठ पहर वाला ।
ले दीवों की माला ।।
ले धूप नूप प्यारी ।
दृग्-नासा गुण-कारी ।।
हों पाचों वशी-‘करण’ ।
आये हम आप शरण ।
हित दुख संसार क्षरण ।
ऋतु फल बढ़िया-बढ़िया ।
भर हाथ परात लिया ।।
गा झूम बजा ताली ।
वसु द्रव्य लिये थाली ।।
आये हम आप शरण ।
खे दो उस पार तरण ।।अर्घं।।
(८)
बनने चले निराकुल ।
रहना सीखे मिलजुल ।।
गुरु वे विद्या-सागर ।
अपना लें, करुणा कर ।।
भर झारी जल लाये ।
मन चंचल पन भाये ।।
मन गहल दो विदा कर ।
गुरुवर विद्या-सागर ।
मन छुये न विषय जहर ।
घिस रस मलयज लाये ।
मन पाप तरफ धाये ।।
ले शाली धान आये ।
मन गहल श्वान भाये ।।
मन तजे गहल वानर ।
गुरुवर विद्या-सागर ।
मन कर पाऊँ चाकर ।
ले पुष्प थाल आये ।
मन मनमानी भाये ।।
ले व्यंजन घृत आये ।
अनुराग न क्षुध् जाये ।।
मन बने न भेदी घर ।
गुरुवर विद्या-सागर ।
मन रहे न अब पामर ।
घृत दीप थाल लाये ।
मन रह-रह तलफाये ।
दश गन्ध धूप लाये ।
मन गीत मृदा गाये ।।
मन भ्रमे न इधर उधर ।
गुरुवर विद्या-सागर ।
मन रहे न अब बाहर ।।
ऋतु फल डल पक लाये ।
मन भग भग दिखलाये ।
ले सरब दरब आये ।
मन वश में कब आये ।।
गुरुवर विद्या-सागर ।
मन उठती थमे लहर ।।अर्घं।।
(९)
निरे निराकुल यही ।
खोज लिया हर कही ।।
यही सभी ने कही ।
सिर्फ इन्हीं से यही ।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।
कहाँ धीर साथ में ।
लिये नीर हाथ मैं ।।
पन स्वछंद साथ में ।
लिये गन्ध हाथ मैं ।।
गरम बात बात में ।
लिये अछत हाथ मैं ।।
कहाँ सुकूँ साथ में ।
लिये प्रसूँ हाथ मैं ।।
हा ! गुरुर हाथ में ।
लिये चरु-परात मैं ।।
गरीबा अनाथ मैं ।
लिये दीव हाथ में ।।
भेक-कूप नाथ ! मैं ।
लिये धूप हाथ में ।।
चपल प्रात-रात मैं ।
लिये फल परात में ।।
स्वप्न अनघ साथ में ।
लिये अरघ हाथ मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।अर्घं।।
(१०)
निराकुल निरभिमानी ।
निराकुल ‘जिन-कि’ वाणी ।।
गुरु वे बाबा-छोटे ।
लें भाव विहर खोटे ।
लाये जल भरे घड़े ।
रहते नित भाव बड़े ।।
लाये चंदन घट ये ।
पन पाप चलें सटके ।।
लाये हैं शाली, धाँ ।
अवतारी ही अभिमाँ ।।
ले आये थाल पुहुप ।
अघ वार करे छुप-छुप ।।
पकवान लिये थाली ।
हूँ सद्-भावन खाली ।।
लाये दीपक घी के ।
अनुयायी इक ‘ही’ के ।।
लाये सुगंध सौंधी ।
को ? बढ़ हमसे क्रोधी ।।
फल लाये रस वाले ।
पल कौन न विष प्याले ।।
लाया द्रव हर हूँ मैं ।
माया अवतर हूँ मैं ।।
गुरु-वर बाबा-छोटे ।
लो भाव विहर खोटे ।।अर्घं ।।
(११)
जिन्हें निराकुलता प्यारी ।
जिनसे आकुलता हारी ।।
गुरु विद्या वे अविकारी ।
कर लें विरति निरतिचारी ।।
लिये उदक प्रासुक आया ।
पाने तव छत्रच्छाया ।।
कर दो कुछ यूँ मुनिराया ।
दिखा पीठ भागे माया ।।
लिये हाथ बावन चन्दन ।
विहँसाने कानन क्रन्दन ।।
ओ ! गुरुदेव ज्ञान नन्दन ।
छुड़ा बार इस दो बन्धन ।।
लाये भर अक्षत थाली ।
रात अमावस की काली ।।
लाली ओ ! सुबहो वाली ।
भर दो रँग डाली डाली ।।
आये पुष्प लिये न्यारे ।
हा ! मनमथ बाजी मारे ।।
त्रिभुवन ओ ! पालन हारे ।
खोवें पाप भाव सारे ।।
मीठे ये व्यंजन घी के ।
कर्म प्रहार करे तीखे ।।
कलि हिमेश इक ओ ‘धी’ के ।
दो परिणाम बना नीके ।।
लिये दीप घृत अठ पहरी ।
चालें चले कर्म गहरी ।।
अपर भावि ! ओ ! शिव शहरी ।
त्राहि माम् अघ दोपहरी ।।
नूप-धूप घट मन भावन ।
लाये तुम चरणन पावन ।।
ओ ! समान पतझड़ सावन ।
मन चल पड़े न पथ रावन ।।
भर परात लाये फल के ।
हित होने तुमसे हलके ।।
अधिपति ओ ! तीरथ चल के ।
भर दो श्रुत गागर, झलके ।।
अरघ लिये प्यारा न्यारा ।
एक शरण थारा द्वारा ।।
शान्ति दुग्ध धारा ऽऽधारा ।
हो नो दो ग्यारा कारा ।।अर्घं।।
(१२)
तू ही तुहीं इक निराकुल है ।
मंजिल तुहीं मिरा साहिल है ।।
क्या है नहीं, है तू सब मिरा ।
यहाँ तक कि, है तुहीं शिव मिरा ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
भरी जल की लिये गागर हूँ ।
अमर फिर भी बना पामर हूँ ।।
शीघ्र सुलझा मिरी उलझन दो ।।
भर घड़े खड़े ले चन्दन से ।
कम न, जकड़े आठ बन्धन से ।।
राह दिखला विभव जिन गुण दो ।।
अछत से भर ली थालियाँ हैं ।
अकृत ‘कि यूँ मिली गालियाँ हैं ।।
सुकृत से भर मिरा जीवन दो ।।
पुष्प लाया हूँ सुगंधित मैं ।
किस पाप से न अभिनन्दित मैं ।।
सुमन सा बना मेरा मन दो ।।
लिये पकवाँ मैं घृत से बने ।
आशा अभी भी दिवाली मने ।।
हाथ मेरे लगा भी सपन दो ।।
घृत अठ पहरी लिये हूँ ‘दिया’ ।
बना मिथ्यात्व हहा साथिया ।।
खोल कृपया तीजा नयन दो ।।
खास कुछ धूप लिये हाथ में ।
आश शिव भूप लिये साथ में ।।
लगा हाथ में गुण सज्जन दो ।।
ऋतु फल से भर ली परात है ।
छाई किलकिल रूप रात है ।।
विघटा निशि, ला प्रशमन दिन दो ।।
दरब एक न लाये सब हैं ।
गरब एक न भाये सब हैं ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
मद करा मर्दित ‘वसु-मदन’ दो ।।अर्घं।।
(१३)
निराकुलता जिनका वाना ।
जिन्हें कम ही बाहर आना ।।
चाँद वे शरद पूर्ण मासी ।
करें शुद्धात्म निलय वासी ।।
मिरे भगवन् विद्या सागर |
नीर ले आये हाथों में ।
पीर ला दे, जल आँखों में ।।
पीर दो विहँसा करुणा कर ।।
लिये वावन चन्दन आया ।
मिरे सावन छीने माया ।।
खबर लो माया करुणाकर ।।
भर लिये थाल धान शाली |
घर किये सी संध्या लाली ।।
सुबह लाली दो करुणाकर ।।
पुष्प की लिये पिटारी हम ।
कहाँ कम दे दुश्वारी गम ।।
सितम गम हर लो करुणाकर ।।
सरस रच व्यञ्जन घृत लाये ।
क्षुधा रह-रह के तलफाये ।।
विदा कर दो क्षुध् करुणाकर ।।
दीव की ले आये माला ।
परेशाँ करे मोह-हाला ।।
मोह दो विखरा करुणाकर ।।
धूप सुरभित लाये न्यारी ।
लोभ छीने पद अविकारी ।।
क्षोभ दो विनशा करुणाकर ।।
शोध फल भाँत-भाँत लाये ।
क्रोध आ बात बात जाये ।।
बोध दो प्रकटा करुणाकर ।।
दरब वसु विध लाये नीकी ।
जिन्दगी करे पाप फीकी ।।
मिरे भगवन् विद्या-सागर |
पाप दो विगला करुणा कर ।।अर्घं।।
(१४)
कहाँ इन सा निराकुल पना ।
रहे सबको निराकुल बना ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
हाथ-थाम लो हहा तम घना ।।
लिये जल से भरी गगरिया ।
स्वप्न कब से परी नगरिया ।।
दो थमा भी विमुक्ति आँगना ।।
रस हाथों में चन्दन घिसा ।
बस बातों में चिन्मय-‘किसा’ ।।
लो विहर वन विजन रोवना ।।
थाल अक्षत लिये हाथ में ।
थल अछत कब लगा हाथ में ।।
पाऊँ ‘अब-तब-समय’ देशना ।।
लिये सुमन की पिटारी भरी ।
हुई सपन अविकारी घरी ।।
कर सकूँ अब ‘कि मन्मथ मना ।।
लिये व्यञ्जन गो घृत विरच ।
हो रहे व्यसनन सुकृत खरच ।।
हो क्षुधा का सुदूर दीखना ।।
लाये दीव थाल हाथ में ।
रखें सदीव काल हाथ में ।।
हो सके तम-विमोह विसरना ।।
धूप घट लिये अनूप हैं ।
कूप-मण्डूक, यद्यपि भूप हैं ।।
भूले, दो सिखा दहाड़ना ।।
लिये अनेक फल पके-पके ।
लगें हरेक पल थके-थके ।।
धीर दो, कर सकें सामना ।।
लिये अरघ द्रव सभी मेलकर ।
जा रहा युँ हि नृभव खेलकर ।।
सिन्धु-विद्या श्रमण दृढ़-मना ।
पन अलस कर दो पन-दश फना ।।अर्घं।।
(१५)
जिन्हें निराकुलता से प्रीत ।
निराकुलता जिनका संगीत ।।
गुरु वे विद्या सिन्धु विनीत ।
पल सन्मृत्यु भिंटायें जीता ।।
भर लाये कलशों में नीर ।
सही न जाये अब भव-पीर ।।
जमा न पग ले किल्विष रीत ।।
लिये झारिएँ चन्दन हाथ ।
हाथ थामिये चन्द…न रात ।।
बने शिव-तलक रहिये मीत ।।
हाथ अछत के भरे परात ।
हाथ अछत अब करें प्रभात ।।
हाथ थमा दें श्रुत नवनीत ।।
वरण-वरण के सुमन अनेक ।
सब साधा साधें अब एक ।।
मदन न ले फिर मुफ्त खरीद ।।
षट् रस मिश्रित घृत पकवान ।
हुआ बहुत क्षुध करे प्रयाण ।।
रहूँ प्रपञ्चों से भयभीत ।।
माला ले मणिमय घृत दीप ।
आने स्वातम-राम समीप ।।
साँझ न ‘बन-के’ होय व्यतीत ।।
अद्भुत धूप सुगंधित चूर ।
पद अनूप अब रहे न दूर ।।
मन पापों से जाये रीत ।।
लिये रसीले ऋतु फल साथ ।
रहे न गीले दृग्-दल नाथ ।।
नापूँ कभी न पथ विपरीत ।।
लिये हाथ सब द्रव्य अनूप ।
लगे हाथ अब दिव्य स्वरूप ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु विनीत ।
‘सिआ-राम’ मन गाये गीत ।।अर्घं।।
(१६)
‘रे मगन निराकुलता में ।
माहनन पताका थामे ।।
गुरु कुन्द-कुन्द सारीखे ।
हैं किसके नहीं सभी के ।।
सिंह सी चर्या पाले हैं ।
इक निस्पृह रख-वाले हैं ।।
गुरु मानतुङ्ग सारीखे ।
स्वीकारो जल घट नीके ।।
जागृत रहते निशि दीसा ।
विगलित लत-गलत खबीसा ।।
गुरु भद्र-समन्त सरीखे ।
स्वीकारो चन्दन ‘जी ये ।।
दी विहँसा मनमानी है ।
की सिरसा जिनवाणी है ।
अकलङ्ग देव सारीखे ।
स्वीकारो, अक्षत पीले ।।
दृग् जमीं देखती रहतीं ।
पर पीर देखती बहतीं ।।
गुरु वट्ट-केर सारीखे
स्वीकारो पुष्प अजी ये ।।
गुरु हाथ थाम चलते हैं ।
ठगते न स्व पर मिलते हैं ।।
गुरु नेमीचन्द्र सरीखे ।
स्वीकारो, व्यञ्जन घी के ।।
पल-एक न व्यर्थ गवाते ।
रट ही नवकार लगाते ।।
धर-सेनाचार्य सरीखे,
स्वीकारो दीवा घी के ।।
दृग् खोल तीसरा रखते ।
रस स्वानुभूति नित चखते ।।
शुभचन्द्राचार्य सरीखे ।
स्वीकारो धूप सुधी ये ।।
नहिं करते टोका टाँकी ।
नहिं करते ताँका-झाँकी ।।
गुरु पूज्य-पाद सारीखे ।
स्वीकारो ऋतु-फल मीठे ।।
अपना नहिं काम कराते ।
कब किसके काम न आते ।।
आचार्य शिवार्य सरीखे ।
स्वीकारो, वसु द्रव नीके ।।अर्घं।।
(१७)
फब रहे हैं गीत पल के ।
कब रहे हैं मीत कल के ।।
वर्तमाँ-वर्द्धमाँ,
कुल मिला के निराकुल ये ।।
इन्हें छूँ न पाये गुमाँ ।
यदपि छूँ ये रहे आसमाँ ।।
लिये है जल, छना निर्मल ।
लो खुद सा बना रहनुमा ।।
इन्हें गुस्सा नहीं आता ।
यदपि सब ही आता-जाता ।।
लिये मलयज, सहज गत-रज ।
बना नीरज लो विधाता ।।
इन्हें ईर्ष्या नहीं भाती ।
यदपि छद्मस्थता थाती ।।
लिये अक्षत, समाँ नक्षत ।
मुकति पढ़ ले प्रणय पाती ।।
गहल इनसे दूर रहती ।
यदपि रहते इसी धरती ।।
सुमन लाये, चुन सजाये ।
समाँ कर लो नदी बहती ।।
इन्हें लालच लोभ नाहीं ।
यदपि रहे नृलोक माहीं ।।
लिये व्यंजन, वरन-वरन ।
लो बना स्वात्म अवगाही ।।
इन्हें भाती न मनमानी ।
यदपि भू मर्त्य के प्राणी ।।
लिये दीवा, जला घी का ।
लो स्वयं सा बना ध्यानी ।।
इन्हें चुगली नहीं रुचती ।
यदपि भो-जल में ही किस्ती ।।
धूप लाये, मन लुभाये ।
मनवा दे, भुला अबकि मस्ती ।।
कभी धोका न ये देते ।
यदपि नौका स्वयं खेते ।।
लिये ऋतु फल, नवल-नवल ।
मनवा दे बिला, पाप जेते ।।
दूर रहता आलस इनसे ।
यदपि है ये अभी ‘जिन’ से ।।
लिये वसु द्रव, समेत अदब ।
कह दीजिये ‘अपना’ मन से ।।अर्घं।।
(१८)
विद्या सिन्धु अहो ।
इक तुम्हीं निराकुल हो ।।
इक तुम्हीं नेक-दिल हो ।
विद्या सिन्धु अहो ।।
इक तुम्हीं सुधा रस हो ।।
इक तुम्हीं सुधारक हो ।
विद्या सिन्धु अहो ।
इक तुम्हीं तीर-तट हो ।।
इक तुम्हीं दिल-निकट हो ।
विद्या सिन्धु अहो !
इक तुम्हीं गुपाला हो ।।
इक तुम्हीं कृपाला हो ।
विद्या सिन्धु अहो !
इक तुम्हीं आसमाँ हो ।।
इक तुम्हीं माँ समाँ हो ।
विद्या सिन्धु अहो !
इक तुम्हीं बागवाँ हो ।।
इक तुम्हीं रहनुमा हो ।
विद्या सिन्धु अहो !
इक तुम्हीं उजाले हो ।।
इक तुम्हीं निराले हो ।
विद्या सिन्धु अहो ।
इक तुम्हीं मसीहा हो ।।
विद्या सिन्धु अहो ।
इक तुम्हीं साथिया हो ।।
इक तुम्हीं ज्ञाँ ‘दिया’ हो ।
विद्या सिन्धु अहो ।
इक तुम्हीं खिवैय्या हो ।।
इक तुम ही छैय्या हो ।
विद्या सिन्धु अहो ।।अर्घं।।
(१९)
जिन्हें लुभाती रहे निराकुलता ।
जिनके दर्शन से सुकून मिलता ।।
गुरु विद्या वे माँ श्री मति नन्दन ।
अन्तरंग से नन्त तिन्हें वन्दन ।।
नाता कब बन्ध्या सुत सेहरे से ।
नजर न हटती जिनके चेहरे से ।
करूँ समर्पित जल कण तिन चरणन ।।
जाना चाहे मन करीब उड़ उड़ ।
जिन्हें देखना चाहे मन मुड़-मुड़ ।
करूँ समर्पित चन्दन तिन चरणन ।।
ना जाने क्या है जादू-टोना ।
कोना कोना चाह रहा होना ।
करूँ समर्पित अक्षत तिन चरणन ।।
लगे मुझे तो मोहन धूली सी ।
दृग् बिन जिनके गीली-गीली सी ।
करूँ समर्पित फुल्वा तिन चरणन ।।
जिन्हें पुकारें मोहन कह सारे ।
फीके जिनके आगे शशि-तारे ।
करूँ समर्पित व्यञ्जन तिन चरणन ।।
रहा करिश्मा कोई ना कोई ।
देखे दुनिया जो खोई-खोई ।
करूँ समर्पित दीपक तिन चरणन ।।
कभी बात न करते है फीकी ।
नहीं बात हाँ! करते हैं ‘फी’-की ।
करूँ समर्पित सुगन्ध तिन चरणन ।।
छूट नजूमों से जाते, नाते ।
छूते पद-रज कारज बन जाते ।
करूँ समर्पित श्रीफल तिन चरणन ।।
काफी है मुस्काना ही जिनका ।
‘मन’-भी, जाये उतर भार मन का ।।
गुरु विद्या वे माँ श्री मति नन्दन ।
करूँ समर्पित सब द्रव तिन चरणन ।।अर्घं।।
(२०)
चलें निराकुल पंथ ।
भक्तों के भगवन्त ।।
गुरु विद्या निर्ग्रन्थ ।
वन्दन तिन्हें अनन्त ।।
हम सबके भगवान् ।
दे दो इक मुस्कान ।।
लाये उज्ज्वल नीर ।
पाने भौ-जल-तीर ।।
लिये सुगंधित गंध ।
पाने नन्त सुगंध ।।
लाये अछत परात ।
लगे अछत-पद हाथ ।।
लिये सुवासित फूल ।
खोने काम समूल ।।
व्यञ्जन लिये नवीन ।
करने क्षुधा विलीन ।।
ले हाथों में दीप ।
आये आप समीप ।।
लिये हाथ में धूप ।
पाने आत्म स्वरूप ।।
लिये सरस फल थाल ।
खोने जग-जंजाल ।
लाये अद्भुत अर्घ ।
पाने थान अनर्घ ।।
हम सबके भगवान् ।
दे दो इक मुस्कान ।।अर्घं।।
(२१)
मैं आकुल-व्याकुल ।
हैं आप निराकुल ।।
कर निज-सा लीजे ।
घर निज-सा कीजे ।।
मैं पुलिन्दा खता !
हैं आप देवता ।।
मैं तरबतर गुमां ।
हैं आप रहनुमा ।।
मैं पाप-सरगना ।
हैं आप दृढ़मना ।।
मैं हद विकार की ।
हैं आप पारखी ।।
मैं परेशाँ क्षुधा ।
हैं आप ज्ञाँ-सुधा ।।
मैं आलय-आमय ।
हैं आप निरामय ।।
मैं आस्पद-आपद ।
हैं आप निरापद ।।
मैं पात्र हंसी का ।
हैं आप मसीहा ।।
मैं पाप-के रस्ते ।
हैं आप फरिश्ते ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।।अर्घं।।
(२२)
हैं आकुल-व्याकुल हम ।
हो शान्त निराकुल तुम ।।
प्यारा सपने जैसा ।
कर लो अपने जैसा ।।
हैं गफलत मूरत हम ।
हो भले मुहूरत तुम ।।
हैं संध्या लाली हम ।
हो समाँ दिवाली तुम ।।
हैं उड़ते भू रज हम ।
हो उगते सूरज तुम ।।
हैं अमा चन्द्रमा हम ।
हो समाँ चन्द्रमा तुम ।।
अभिमान हिमालय हम ।
संज्ञान क्षमालय तुम ।।
घर मायाचारी हम ।
करुणा अवतारी तुम ।।
मञ्जूषा-नेही-हम ।
प्रत्यूषा-नेही तुम ।।
है राग पिटारे हम ।
हो भाग सितारे तुम ।।
बेताबी-सागर हम ।
शिव-भावी-नागर तुम ।।
प्यारा सपने जैसा ।
कर लो अपने जैसा ।।अर्घं।।
(२३)
कहाँ निराकुल इन जैसा ।
आकुलता-कारण पैसा ।।
है करीब ना जो इनके ।
सो करीब ना क्या इनके ।।
नहीं क्रोध से नाता है ।
द्वन्द्व क्रोध उपजाता है ।।
साध अनेक न एक रहे ।
तभी सभी सिर टेक रहे ।।
छूता इन्हें न मान कभी ।
चाह रहे सम्मान नहीं ।।
खो ना स्वाभिमानी रहे ।
तभी देव दे मान रहे ।।
कोश दूर हैं माया से ।
नेह कहाँ है काया से ।।
छाया पीछे धावें ना ।
तभी कौन जो ध्यावें ना ।।
स्वानी-गहल सुहाये ना ।
गहल वानरी भाये ना ।।
कीर गहल नो दो ग्यारा ।
तभी विहँसने को ‘कारा’ ।।
लालच से संबंध नहीं ।
नया कर रहे बंध नहीं ।।
रहे पुराना बंध झड़ा ।
तभी ‘जहाँ’ कर-बद्ध खड़ा ।।
माँ समीप कर-बद्ध खड़े ।
लिये रिझा सब ग्रंथ बड़े ।।
मुदा, लुटाते ज्ञान सुधा ।
तभी मानते सभी खुदा ।।
देख पीर पर पाते ना ।
अपनी पीर बताते ना ।।
कलि करुणालय एक यही ।
तभी छिड़कती जान मही ।।
छल प्रपंच से प्रीत नहीं ।
नापें पथ विपरीत नहीं ।।
अपनों से हारा करते ।
तभी सभी का दिल हरते ।।
रस लेते ना निंदा में ।
डूब रहे ना तन्द्रा में ।।
रहें कंदरा-आत्म सदा ।
तभी भावि परमात्म अहा ।।अर्घं ।।
(२४)
रग रग ऐसे बसी निराकुलता ।
नमक नीर में जैसे घुल मिलता ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
तर टोटे, कर दें वारे न्यारे |।
जान हेत संक्लेशों का, लड़ना ।
पानी जैसा सीख लिया मुड़ना ।।
लाये हैं जल-गुण भेंटें सारे ।।
बचना चूँकि निर्जन क्रंदन से ।
महक दे रहे घिस भी चंदन से ।।
लाये चन्दन गुण भेंटें सारे ॥
अक्षत भाँति न दुनिया फिर आना ।
जमीं बिछौना किया गगन वाना ।।
लाये अक्षत-गुण भेंटें सारे ।।
बीच शूल फूलों सा मुस्काने ।
मन्मथ छाती खड़े तीर ताने ।।
लाये पहुपन-गुण भेंटें सारे ।।
पाने व्यंजन सी मिठास खासी ।
गफलत ओढ़, न करा रहे हाँसी ।।
लाये व्यंजन-गुण भेंटें सारे ।।
बनना जो है अबकि नन्त धी वाँ ।
खबर ले रहे अँधर बन दीवा ।।
लाये दीवा-गुण भेंटें सारे ।।
होने अधिपति अष्टम वसुंधरा ।
महका रहे धूप से गगन धरा ।।
लाये सुगन्ध-गुण भेंटें सारे ।।
तरु से दे फल रहे उपल बदले ।
रहना भाँति न कल-से अब गंदले ।।
लाये ऋतु फल-गुण भेंटें सारे ।।
नभ पहुँचे लख कुछ साथी अपने ।
निरत पूरने में अपने सपने ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये वसु द्रव-गुण भेंटें सारे ।।अर्घं।।
(२५)
बड़े बाबा दीवाने ।
तुम्हें न कौन जाने ।।
जहाने ! छोटे बाबा ।
लगा उस तट दो नावा ।।
नीर भर लाये गगरी ।
भाये सिद्धों की नगरी ।।
सभी के छोटे बाबा ।
घिस लिये चंदन आये ।
इसलिये, क्रन्दन जाये ।।
रहनुमाँ छोटे बाबा ।
सित अछत लाये दर पे ।
ले चलो लोक शिखर पे ।।
फरिश्ते ! छोटे बाबा ।
पुष्प भर लाये थाली ।
लो विहर काम बीमारी ।।
मिरे ओ छोटे बाबा ।
लिये नव व्यंजन घी के ।
न छेडूँ लेख विधी के ।।
‘सिद्ध कल’ छोटे बाबा ।
लिये दीपक घृत आये ।
तिमिर मिथ्या भरमाये ।।
विदिश्-दिश् छोटे बाबा ।
धूप लाये मनभावन ।
ऽनूप जायें बन पावन ।।
न किसके, छोटे बाबा ।
लिये फल मनहर मीठे ।
आप से होने नीके ।।
मसीहा छोटे बाबा ।
सभी ले लाये वसु द्रव ।
खुशी हो, मिलने की रब ।।
निराकुल छोटे बाबा ।
लगा उस तट दो नावा ।।अर्घं।।
(२६)
निराकुल है रोम रोम ।
रहें जपते ओम-ओम ।।
सिन्धु विद्या वे मुनीश ।
दें आशीष निशि-दीस ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
लिये नीर झारिंयाँ ।
रहे हार पारिंयाँ ।।
दीजे बना साहसी ।।
लिये मलय नीर हम ।
छूये असह्य पीर गम ।।
रहे कोई न दुखी ।।
लिये अछत थालिंयाँ ।
रहीं छिन दिवालिंयाँ ।।
दो सँवार जिन्दगी ।।
सुमन-ए-पिटारिंयाँ ।
मदने दुश्वारिंयाँ ।।
गले गहल श्वान ‘ई’।।
पकवान घृत बने ।
कण-कण अमृत सने ।।
पाये हर हर खुशी ।।
दीप ले सुहावने ।
छकाया मोह भाव ने ।।
चले न अब मोह की ।।
लिये धूप हाथ में ।
भाव नूप साथ में ।।
पा लूँ आठवीं जमीं ।।
फल सभी ही रसीले ।
दृग् अभी भी हैं गीले ।।
आ भी जाओ इस गली ।।
अरघ ले परात में ।
हूँ अनाथ, नाथ ! मैं ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
दास लो बना निजी ।।अर्घं।।
(२७)
जहाँ, निराकुल और नहीं ।
यहाँ न गुरुकुल और कहीं ।।
वे गुरु ज्ञान चरण वसिया ।
लें कर हमें चरण रसिया ।।
गुरुकुल बड़ा निराला है ।
सुकूँ थमाने वाला है ।।
नीर भेंट करते विनती ।
शिष्यों में कर लो गिनती ।।
गन्ध भेंट करते विनती ।
गुरुकुल है प्यारा सबसे ।
भेंट करा देता रब से ।।
गुरुकुल है जाना माना ।
सिखलाता नित मुस्काना ।।
अक्षत भेंट, करें विनती ।
शिष्यों में कर लो गिनती ।।
पुष्प भेंट करते विनती ।
गुरुकुल छुये आसमाँ है ।
करे पास प्रवचन माँ है ।।
गुरुकुल है जग से न्यारा ।
धरा धराये सिर-भरा ।।
व्यंजन भेंट करें विनती ।
शिष्यों में कर लो गिनती ।।
दीप भेंट करते विनती ।
गुरुकुल परम पुनीत अहा ।
सिखला निस्पृह प्रीत रहा ।।
गुरुकुल एक अनोखा है ।
कलि प्रदत्त सत् तोहफा है ।।
धूप भेंट करते विनती ।
शिष्यों में कर लो गिनती ।।
श्रीफल भेंट करें विनती ।
गुरुकुल ख्यात दिशावन दश ।
माफिक पारस मणिन-परस ।।
शिष्यों में कर लो गिनती ।।
गुरुकुल इक सम रस सानी ।
रीझे स्वयं मुक्ति रानी ।।
अर्घ भेंट करते विनती ।
शिष्यों में कर लो गिनती ।।अर्घं।।
(२८)
निराकुल और न्यारे ।
बच्चों से दिल हारे ।।
रब से छोटे बाबा ।
सब के तारण-हारे ।।
बच्चे जब भी आते ।
मुस्काँ नुख्सा पाते ।।
साहस ढांढस पाते ।।
आशीष-शीश पाते ।।
अच्छा रस्ता पाते ।।
हल प्रश्नों के पाते ।।
दो ‘स्यात्’ बात पाते ।।
ऽऽचरणा-शरणा पाते ।।
सुख चैन-अमन पाते ।।
नवकार मन्त्र पाते ।।
दृग् जल लाये,
जल फल लाये
हम सब आये गुरु जी !
झूमते ढ़ोल बजाते ।।अर्घं।।
।।जयमाला।।
हाई-को ?
ले हर
हर-का दिल,
गुरु-वाणी समाँ कोकिल
॥ गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ।।
निधि खर्चों बढ़ती ही जाये ।
उर शिशु के भी सहज समाये ॥
देख-रेख में लगे न कौड़ी ।
चुरा न चोर सके, नहिं खोई ।
दृग्-कर लाल लाल भी कोई ॥
वक्र बाल कर सके न थोड़ी ।
देश-विदेश ख्यात दश-दिश् में ।
नामो-निशाँ खोट न इसमें ॥
जगत् दूसरी और न जोड़ी ।
इक मंशा-पूरण जग माहीं ।
दिवि क्या, शिव सोपान कहाहीं ॥
वशीकरण मन चञ्चल घोड़ी ।
गुरु निधि रहे लुटा, ले दौड़ी ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
आरतिया कीजे ।
थाल दिया लीजे ।।
आरतिया पहली, सम्यक् दर्शन की ।
शिव सीढ़ी पहली, सम्यक् दर्शन ही ।।
हेत नेत्र भींजे ।
थाल दिया लीजे, आरतिया कीजे ।।
आरतिया दूजी, सम्यक् अवगम की ।
इक सांची पूंजी, सम्यक् अवगम ही ।।
हेत नेत्र दूजे ।
थाल दिया लीजे, आरतिया कीजे ।।
आरतिया तीजी, सम्यक् चारित की ।
नम अंखिया तीजी, सम्यक् चारित ही ।।
हेत नेत्र तीजे ।
थाल दिया लीजे, आरतिया कीजे ।।
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