वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
हाई-को ?
न कोई भी दुखी रहे ।
रोंआ रोंआ श्री गुरु जी कहे ।
मैं तो छोड़ भी सकता हूँ
हाथ तेरा
इतनी समझ ही कहाँ रखता हूँ
हाथ मेरा, तुम न छोड़ोगे कभी
है मुझे यकीं
तुम न छोड़ोगे कभी हाथ मेरा
मैं मंजिल तक चाहता हूँ साथ तेरा
है पहेली सफर
ऊँची नीची डगर
मेरा हाथ थाम लो,
बना बिगड़ा काम दो
रात स्याही घनी
और है दूर छावनी
मेरा हाथ थाम लो ।।स्थापना।।
माटी हूँ मैं, है बनना मुझे घड़ा
कस के अंगुली लो मेरी पकड़
मुश्किल सी लगे डगर
सुनते हैं, मार कुदाल की पड़ती है
लेते ही नाम
हाय राम !
पैरों तले रोदे जाने का
लेते ही नाम
मेरी तो जान निकलती है
ओ ! अपने अपनों में
‘जि गुरुवर
कर लो अपने चरणों में, मुझे खड़ा
पहला ही अभी, मैं रहा कदम बढ़ा
सुनते हैं, चक्कर चक्के पे खाने पड़ते हैं
लेते ही नाम
हाय राम !
अग्नि परीक्षा का
लेते ही नाम
मेरे तो प्राण निकलते हैं ।
मुश्किल सी लगे डगर
बन जाओ ना, तुम मेरे हमसफर ।।जलं।।
गुरु जी जो चल रहे हैं आगे ।
तभी तो न चुभ रहे हैं काँटे ।
गुरु जी के संग,
इक अलग ही अहसासे डूब है
सँग-सँग ही चल रहे छोर-खींचे
गुरु जी कब निकल रहे छोड़ पीछे
तभी, रास्ते-नेकी, छा-पाई न दूब है
न सिर्फ हाथ में, ‘दिया’ कर दिया
हमारे साथ में गुरु जी ने चल दिया
गुरु जी का चलना, वाह-वाह, वाह खूब है
तभी, रास्ते-नेकी, छा-पाई न दूब है ।।चन्दनं।।
मुझे विश्वास है
रहता तू मेरे आस-पास है
अहमीयत अहसासों की
बन करके खुशबू सासों की
सरगम हल्की हल्की
बन करके धड़कन दिल की
जिस्म भले जुदा एक रूह
बन करने रग-रग में लहू
रहता तू मेरे आस-पास है
मुझे विश्वास है ।।अक्षतं।।
रोते किसी को भी,
देख सकते ही नहीं
रहम दिल इतने हैं
नैन नम रखते हैं
गैरों में किसी को भी,
रखते ही नहीं ।
बस कदम एक बढ़ाना हमें
बढ़ कर आते हैं, गुरु जी दो कदम
खड़े ही रहते हैं,
गुरु जी खड़े ही रहते हैं,
अपने सर पर, लेने हमारे गम, सितम ।
हमारा झुकता है, झुकता रहेगा सर
चाहा कहाँ गुरु जी ने
झुका हुआ सर हमारा पर
सर झुकाने से पहले ही
मुँह तलक झोली भर दे दिया
छप्पर फाड़ कर ।।पुष्पं।।
सारे बन्धन तोड़,
होके भाव विभोर,
झुक-झूमें मन-मोर
पुलकित रोम करोड़,
जबसे,
‘जि गुरु जी तुमसे,
बाँधी जीवन-डोर,
रबर का घुरना मिट गया
नजर का लगना मिट गया
घट गया अंधेरा घोर
प्रकटा सुनहरा भोर
अम्बर छूने में आ गया
समन्दर मोती चढ़ा गया
चेहरे मुस्कान चित् चोर
तर जल-मीठे दृग्-कोर
डग भरा मंजिल आ गई
बिन वक्त के बात छा गई
आया शश-पूनम दोर,
चूनर सितार बेजोड़ ।।नैवेद्यं।।
शामिल सत्संग में
रँगे जो गुरु रंग में
क्या कहना उनका,
सारा जहां उनका
दिया-बाती वे
अब सुराही,
थे पहले माटी वे
हंस वे,
अब बाँसुरी,
थे पहले वंश वे
साँच वे
अब हैं आदर्श,
थे पहले काँच वे
वशीभूत मन उनका
मिला मीत उनको मन का
क्या कहना उनका ।।दीपं।।
इक अजनबी को
गुरु जी आपने जो
लिया अपना
आपका क्या कहना
जलना ‘दिया’ सा
खातिर और नदिया सा
दौड़ बहना
आपका क्या कहना
सरगम दे
और अपने सर, गम ले
मुस्कुराते रहना
आपका क्या कहना
अनछुवा अधूरा
छुवा आसमाँ, पूरा किया सपना
आपका क्या कहना ।।धूपं।।
आप जगह तुम जो मुझसे कह दिया
मुट्टी-भर इस दिल में मेरे रह लिया
दृग् नम हमारे हो गये
हम तुम्हारे हो गये
गुल झरा ‘के नूर नज़र पा गया ‘दिया’
न बूँद-बूँद बढ़, रवानी पा गया दरिया
गम नजारे खो गये
बेल पा गई सहारा आसमां दिखी
पाई सीप स्वाति-धार थम चली सिसकी
सरगम सितारे हो गये
हम तुम्हारे हो गये ।।फलं।।
आपकी सेवा में गुजारे,
पल जो कुछ थोडे़ बहुत
उनका ‘जि गुरुदेव जी यदि,
फल हो कुछ थोड़ा बहुत
तो बस,
और बस यही प्रार्थना
मंजिल से पहले,
छोड़ देना साथ ना ।
हमसफर तुम्हारे जैसा कहीं और नहीं है
नम नज़र तुम्हारे जैसा कहीं और नहीं है
क्षमा बुत !
अय ! माँ श्री-मन्त सुत
इक तुम्हारे सिवा,
कौन बिना वैशाखी चलता है
हर काई यहाँ,
एक दूसरे से जलता है
दूर सर, नाक पर भी,
तुम्हारे बोझा नहीं
किया और के नाम अपना सब,
हाथ सकोचा नहीं ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
हाई-को ?
मेरे भगवन् दर्शन आ दो ।
नैना सावन भादों ।
जल चढ़ाऊँ,
कल फिर बुलाने ‘कि मना पाऊँ ।
‘कि पुन: ऐसे पल-स्वर्णिम पाऊँ ।
गंध चढ़ाऊँ ।
थाली धाँ शाली चढाऊँ ।
दीवाली ‘कि रोज मनाऊँ ।
स्वप्न जो हुआ पूरा, ढ़ोल बजाऊँ ।
पुष्प चढ़ाऊँ ।
चरु चढ़ाऊँ ।
तुम्हें घर अपने पा नाचूँ गाऊँ ।
यूँ ही तेरे अपनों में ‘कि आ पाऊँ ।
दीप जगाऊँ ।
धूप चढ़ाऊँ ।
पा गुपाल गुलालो-रंग उड़ाऊँ ।
पा तुम्हें अतिथि न फूला समाऊँ ।
भेला चढ़ाऊँ ।
थारी राह ।
न देखती रहे फिर म्हारी निगाह ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
माँओं की छैय्या जहाँ ।
हैं खुशियाँ ही खुशियाँ वहाँ ।
दिया तेरा ही ।
सिवा दृग्-जल, कुछ भी, मेरा नहीं, ।
क्या चढ़ाऊँ ।
ये चन्दन, मेरा नहीं, दिया तेरा ही ।
क्या भिंटाऊँ ।
ये धाँ थाल, मेरा नहीं, दिया तेरा ही ।
क्या भेंटूँ,
पुष्प थाल ये, मेरा नहीं, दिया तेरा ही ।
दृग् झुकाऊँ ।
ये नैवेद्य मेरा नहीं, दिया तेरा हो ।
सूरज को क्या दिखाऊँ ।
मेरा नहीं, ‘दिया’ तेरा ही ।
क्या खेयूँ ।
धूप-घट ये मेरा नहीं, दिया तेरा ही ।
क्यूँ बचाऊँ ।
ये श्री-फल मेरा नहीं, दिया तेरा ही ।
सिर नवाऊँ ।
ये अर्घ्य मेरा नहीं, दिया तेरा ही ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
पाता रहे यूँ-ही, गन्धोदक तेरा ।
मस्तक मेरा ।
स्वीकार ये दृग् जल गुरुदेव ।
कर लो सुखी सदैव ।
पार दो लगा खेव ।
स्वीकार गंध ये, ये धाँ गुरुदेव ।
पुण्य से भर दो जेब ।
मेंट दीजे कुटेव ।
स्वीकार पुष्प ये, चरु ये गुरुदेव ।
दीजे सुलटा दैव ।
कीजे बिदा फरेब ।
स्वीकार दीप ये, धूप ये गुरुदेव ।
मौका दीजिये सेव ।
स्वीकार फल ये अर्घ्य ये गुरुदेव ।
थमा दो ‘दृग्’ कलेव ।
कर दो स’माँ’ रेव ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
ख्याति पा सकी ।
लाजवन्ती गुरु जी कृपा आपकी ।
भव-भव दृग् जल भेंट फल ।
‘धी’ जल-भिन्न कमल ।
हटके ठण्डक दिल ।
भव-भव चन्दन भेंट फल ।
भव-भव तण्डुल भेंट फल ।
कदम चूमें मंजिल ।
हाथ दो सुकून पल ।
भव-भव सुमन भेंट फल ।
भव-भव नैवेद भेंट फल ।
न करे क्षुधा विकल ।
भीतर ज्ञान पटल ।
भव-भव प्रदीप भेंट फल ।
भव-भव अगर भेंट फल ।
आज न फिकर कल ।
वैभव इह सकल ।
भव-भव श्रीफल भेंट फल ।
भव-भव अरघ भेंट फल ।
दो टूक ‘नन्त’ गहल ।।अर्घं।।
(५)
हाई-को ?
भोर क्या शाम ।
‘जी’ धक-धक, जपे आपका नाम ।
साथ में दृग् जल लाये ।
जुड़ने आप से हैं आये ।
मिलने आप से हैं आये ।
सुनने आप से हैं आये ।
दिखने आप से हैं आये ।
बनने आप से हैं आये ।
जगने आप से हैं आये ।
थमने आप से हैं आये ।
नमने आप से हैं आये ।
खिलने आप से हैं आये ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
होता हूबहू माफिक मक्खन ।
श्री गुरु का मन ।
मना ‘जल’सा ।
एक नजर तुमनें जो दी उठा ।
ये जो काली नज़र दी तुमने हटा ।
भेंटूँ गंधा ।
भेंटूँ धाँ,
कालीं ये बदलियाँ दी जो तुमनें छटा ।
जो भारी हृदय किया तुमने हल्का ।
भेंटूँ फुल्वा ।
भेंटूँ पकवाँ ।
बर्सी जो आज तेरी मुझपे कृपा ।
जो रिश्ता करीबी जुड़ तुमसे गया ।
भेंटू दीवा ।
भेंटूँ सुगंधी ।
भले हल्की सी, दे एक मुस्कान दी ।
थे पड़गे आज तक स्वप्न अकेले ।
भेंटूँ भेले ।
अर्घ्य भेंटूँ ।
‘कि बिखरी टुकाँ जाते जाते समेंटूँ ।।अर्घं।।
(७)
हाई-को ?
मिलते ही श्री गुरु से मन्त्र ।
दिखे गुरूर अन्त ।
लाये भाव ये दृग् जल संग ।
आसमाँ छुये पतंग ।
मने त्यौहार रंग ।
भाये पद निःसंग ।
उठे ही न ‘जी’ तरंग ।
क्षुध् अब करे न तंग ।
न आऊँ बहिर् ‘भी’ गंग ।
लूँ जीत कर्मों से जंग ।
उड़ता जाये विहंग ।
पाऊँ द्यु-शिव सुरंग ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
रज-पाँवन ये माथा ।
विधाता ! यूँ ही पाता रहे ।
तुम्हें मनाने आये ।
झिरी चाँद से, वो सुधा लाये ।
उसी में घोर, चन्दन लाये ।
उसी से सराबोर, धाँ लाये ।
उसी से सींच, पुष्पों को लाये ।
उसी से बने, व्यंजन लाये ।
उसी माफिक, दीपिक लाये ।
उसी-सी नूप, ये धूप लाये ।
उसी से नीके, ये फल लाये ।
यूँ अलग,ये अरघ लाये ।
तुम्हें मनाने आये ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
जो आँचल न छोड़ें ।
‘गुरु’, उनका दिल न तोड़ें ।
लाये दृग् जल, आये द्वार ।
बोझा ‘सर’ दो उतार ।
नैय्या लगा दो किनार ।
‘हंस’ वंश लो बिठार ।
हित स्वानुभौ औतार ।
भोग-रोग दो विडार ।
रंग-आप लो श्रृंगार ।
राह-श्याह दो सँहार ।
संकटों से दो उबार ।
सुन भी तो लो पुकार ।
लाये दृग् जल, आये द्वार ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
तरु को किया सफल,
दृग् अभी भी मेरे सजल ।
लिये आये भेंट दृग् जल ।
बनने जल भिन्न कमल ।
पाने आपके कुछ पल ।
पाने आप का गुरुकुल ।
पाने मुनि सा मन मंजुल ।
पाने अनन्त बल ।
पाने ज्ञान सकल ।
पाने आप संबल ।
पाने आप-सा कल उज्ज्वल ।
होने भव्य सफल ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
झिराना भूले न प्रेम ।
‘गुरु’ पूछ कुशल क्षेम ।
लिये दृग् जल, आये चढ़ाने ।
अक्षर स्वानु-भव बनाने ।
तेरे रँग में रँग पाने ।
तेरे चरणों में शरण पाने ।
मद-मदन चूरा बनाने ।
मनमानी क्षुध् विनशाने ।
अंधेरा तेरा-मेरा मिटाने ।
मजा कर्मों को चखाने ।
घर-अपने तुझे पाने ।
द्यु-शिव-पुर राधा रिझाने ।
लिये दृग् जल, आये चढ़ाने ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
किये छिद्रों को देते हैं भर ।
‘धागे’ श्री गुरुवर ।
तुमने मेरी पीड़ा समझ ली ।
ये दृग् जल की ।
तभी तुम्हें, भेंट की,
ये चन्दन की ।
तपन मिटी ।
मिलती खुशी ।
ये अक्षत की ।
तभी तुम्हें, भेंट की,
ये सुमन की ।
बने जिंदगी ।
क्षुधा ने विदा ली,
ये चरु की ।
तभी तुम्हें, भेंट की,
ये दीपक की ।
पतंग उड़ी ।
फिरकी थमी ।
ये सुगंध की ।
तभी तुम्हें, भेंट की,
ये श्रीफल की ।
लगन लगी ।
मंजिल मिली ।
तभी तुम्हें, भेंट की, ये अरघ की ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
करने जन्म-चन्दन ।
गुरु पाद-पद्म-वन्दन ।
पा कृपा तोर, पार चौर
हा ! नम मोर, दृग् कोर ।
पहली, छोड़ मछली व्याध तीर,
दृग् मोर नीर ।
भील छोड़ के काग मांस ऊ-पार,
मैं भी तुम्हार ।
चाण्डाल गले फूल माल,
रखना मेरी भी ख्याल ।
शियार कक्षा दूसरी पास,
हाथ मेरे आयास ।
•नेवला, साँप वानर धन,
मेरा पामर मन ।
राजकुंवर नंदी,
हा ! मैं कागद ‘गुल’ सुगंधी ।
तरी केशरी ‘तरी’
मेरी हो रही न झण्डी हरी ।
मेढ़क देव विमान वासी,
मीन पानी मैं प्यासी ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
काँटे सैकण्ड के होते ।
‘गुरु’ घड़ी भर न सोते ।।
भाग दृग् जल सा पाने आये ।
दाग हटाने आये ।
तुम्हें मनाने आये ।
भाग चन्दन सा पाने आये ।
भाग अक्षत सा पाने आये ।
गाने तराने आये ।
तृष्णा सिराने आये ।
भाग सुमन सा पाने आये ।
भाग चरु घी सा पाने आये ।
स्वात्म तपाने आये ।
मोह मिटाने आये ।
भाग प्रदीप सा पाने आये ।
भाग सुगंध सा पाने आये ।
द्वन्द घटाने आये ।
जाग रिझाने आये ।
भाग श्रीफल सा पाने आये ।
भाग अरघ सा पाने आये ।
अघ झराने आये ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
छाये आनंद ही आनंद ।
आगम ‘सन्त’ बसन्त ।
दृग् भर आये ।
मेरी कुटिया में आज तुम आये ।
आ तुमने की कुटिया मेरी धन ।
भेंटूँ चन्दन ।
भेंटूँ धाँ तुम्हें ।
आये हो तुम, जो मेरी कुटिया में ।
मेरी कुटिया में, जो आये हो तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ चरु घी ।
कुटिया मेरी धन आ तुमने की ।
तुम जो आये हो मेरी कुटिया में ।
भेंटूँ दीया मैं ।
भेंटूँ सुगंधी ।
आ तुमनें की धन कुटिया मेरी ।
पा तुम्हें कुटिया मेरी रंग उड़ेले ।
भेंटूँ भेले ।
भेंटूँ अर्घ्य ।
पा गई कुटिया मेरी नजारा स्वर्ग ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
धूल ही मैं, क्या रही भूल ।
‘चन्दन’ कर दी धूल ।
जल भरा लिये कलशा ।
फनाफन दो विहँसा ।
अनबन दो विघटा ।
घिस लाया चन्दन निरा ।
परात-धाँ लिये खड़ा ।
दर्पण दो बना जरा ।
बचपन दो फिर ला ।
थाल-पुष्प भेंटूँ ये भरा ।
भेंटूँ घी-गो व्यञ्जन नाना ।
गुण धनवाँ दो बना ।
तीजे नयन दो प्रकटा ।
दीप घी-गो रहा भिंटा ।
धूप-घट भेंटूँ हरषा ।
बन्धन-भौ दो विनशा ।
कञ्चन दो बना खरा ।
लाया श्री फल विरला ।
द्रव्य लाया थाल में सजा ।
उलझन दो सुलझा ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
मंगल हमीं पे, ‘करना’ ।
जब भी भक्त गणना
कानी-फूसी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ जल-झारी आपको ।
टोका-टाकी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ गन्ध न्यारी आपको ।
बेशर्मी-गर्मी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ धाँ-शालि आपको ।
खींचा-तानी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ फुल-बारी आपको ।
मारा-मारी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ चरु थाली आपको ।
भागा-दौड़ी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ दीप-आली आपको ।
जोड़ा-तोड़ी ‘कि जाये खो,
भेंटूँ धूप-प्यारी आपको ।
कमी-वेशी ‘कि जाये खो
भेंटूँ फल-डाली आपको ।
आवा-जाही कि जाये खो,
भेंटूँ द्रव्य-सारी आपको ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
‘गुरु-माँ होते’ खुश ।
देख बच्चों को बनते कुछ ।
जल ये भेंट रहा ।
जा रहे, चालो ले हमें वहाँ ।
आगे तुम है चन्दन कहाँ ।
चन्दन भेंट रहा ।
अक्षत भेंट रहा ।
ले आश सम्पत्-अर्हत महा ।
भाँत तुम न सुमन यहाँ ।
सुमन भेंट रहा ।
नैवेद्य भेंट रहा ।
शीघ्र ले विदा, रोग क्षुध् हहा ।
हा ! भागे मृग ‘जी’ जहाँ-तहाँ ।
दीप ये भेंट रहा ।
धूप ये भेंट रहा ।
हहा ! ‘जी’ गज सा रहा नहा ।
ले चालो हमें, जा रहे जहाँ ।
फल ये भेंट रहा ।
अर्घ ये भेंट रहा ।
ले आश, पद अनर्घ अहा ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
अकेले वो श्री गुरु ।
जो चाहें, फैले और खुशबू ।
दृग् बिन्दु लिये आँख में ।
व्यथा सुनाने आया तुम्हें ।
चलो, मनाने आया तुम्हें ।
चन्दन लिये हाथ में ।
ले धाँ विख्यात मैं ।
रोज स्वप्न में पाने आया तुम्हें ।
पाती-थमाने आया तुम्हें ।
सुमन ले परात में ।
चरु ले भाँत-भाँत मैं ।
छक देखने आया तुम्हें ।
सुनने आया तुम्हें ।
लिये दीपक, दृग् सुहात मेैं ।
धूप ले ‘गंध-तीन-सात’ मैं ।
छू पाने आया तुम्हें ।
शीश नवाने आया तुम्हें ।
ले फल जगत्-ख्यात मैं ।
अरघ लाया साथ में ।
गुरु बनाने आया तुम्हें ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
तोरा, हिवरा मोरा,
‘दीवाना’ चाँद का ज्यों चकोरा ।
जल चढ़ाऊँ ।
‘के झिल-मिला आपसे गुण पाऊँ ।
‘के आपसी चारित सुगंध पाऊँ ।
गंध चढ़ाऊँ ।
सुधाँ चढ़ाऊँ ।
‘के रत्नत्रय आप से जुदा पाऊँ ।
‘के मन्मथ के न झाँसे में आऊँ ।
पुष्प चढ़ाऊँ ।
चरु चढ़ाऊँ ।
‘के क्षुधा रोग से पा निजात जाऊँ ।
‘के सम्यक्-ज्ञान आप के जैसा पाऊँ ।
दीप चढ़ाऊँ ।
धूप चढ़ाऊँ ।
‘के भाँत आप कर्म धूम उड़ाऊँ ।
‘के बिलकुल आप ‘सा-ही’ कल पाऊँ ।
फल चढ़ाऊँ ।
अर्घ्य चढ़ाऊँ ।
‘के सोला वानी शुद्ध हो के दिखाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
देखूँ पलक न तुझे,
आयें आँसु झलक मुझे ।
दृग्-जल ये अपना लो ।
दे कमंडल अपना दो ।
बना नंदन अपना लो ।
चन्दन ये अपना लो ।
सुधान ये अपना लो ।
दे पल ध्यान अपना दो ।
भेंट कुटुम अपना दो ।
कुसुम ये अपना लो ।
मोदक ये अपना लो ।
दे गंधोदक अपना दो ।
दिखा वैभव अपना दो ।
दीप लौं ये अपना लो ।
सुगंध ये अपना लो ।
दे वक्त चन्द अपना दो ।
दे गुरुकुल अपना दो ।
श्रीफल ये अपना लो ।
द्रव्याठ ये अपना लो ।
दे आशीर्वाद अपना दो ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
आया, लो रँग मीरा रंग ।
रख लो अपने संग ।
दृग् मोति-लर,
लो स्वीकार कर, ये जल गागर ।
दृग् गंग धार,
लो स्वीकार, चन्दन से मनहार ।
नम नयन,
आया, लाया धाँ शालि अक्षत कण ।
आँख पनीली,
आया, लाया पिटार पुष्प भा-पीली ।
दृग् बिन्दु झिर,
लो स्वीकार कर नैवेद्य घी गाय गिर ।
नेत्र सजल,
आया, लाया प्रदीप लौं अविचल ।
नम दृग् कोर,
आया, लाया दशांग धूप बेजोड़ ।
नयना सीले,
आया, लाया ये ऋत फल रसीले ।
भींजे भींजे दृग्,
आया, लाया अरघ कुछ अलग ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
बैठा लो समो शरण-अपने
न और सपने ।
भेंटूँ दृग् जल तुझे ।
अपना,मीरा लो बना मुझे ।
अपना, चेरा लो बना मुझे ।
भेंटूँ चन्दन तुझे ।
भेंटूँ अक्षत तुझे ।
अपना, कुछ लो बना मुझे ।
अपना, शिख लो बना मुझे ।
भेंटूँ मैं पुष्प तुझे ।
भेंटूँ नैवेद्य तुझे ।
अपना, छोरा लो बना मुझे ।
अपना, थोड़ा लो बना मुझे ।
भेंटूँ मैं दीप तुझे ।
भेंटूँ मैं धूप तुझे ।
अपना, दास लो बना मुझे ।
अपना, खास लो बना मुझे ।
भेंटूँ श्रीफल तुझे ।
भेंटूँ मैं अर्घ तुझे ।
अपना भक्त लो बना मुझे ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
विद्या सागर मंथन ।
दे अनेक नेक रतन ।
जल झारी चढ़ाऊँ ।
पा पंक्ति आप करीबी जाऊँ,
पा पंक्ति आप भक्त जाऊँ,
चन्दन झारी चढ़ाऊँ ।
धाँ, शाली चढ़ाऊँ ।
पा पंक्ति आप कृपा-पात्र जाऊँ
पा पंक्ति आप सनेही जाऊँ,
पुष्प चाँदी चढ़ाऊँ ।
नैवेद्य भारी चढ़ाऊँ ।
पा पंक्ति आप व्रती जाऊँ,
पा पंक्ति आप सेवक जाऊँ,
दीप आली चढ़ाऊँ ।
धूप न्यारी चढ़ाऊँ ।
पा पंक्ति आप नौ-रत्न जाऊँ,
पा पंक्ति आप शिष्य जाऊँ,
श्रीफल थाली चढ़ाऊँ ।
द्रव्य सारी चढ़ाऊँ ।
पा पंक्ति आप पुजारी जाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
गुरु झोपड़ी लें छू जिसकी ।
छड़ी जादू उसकी ।
भिंगाऊँ नैना ।
कृपा दृष्टि यूँ ही बनाये रखना ।
कृपा दृष्टि ‘कि रखना बनाये ।
ले चन्दन आये ।
भेंटूँ धाँ ।
कृपा-दृष्टि यूँ ही बनाये रखना सदा ।
कृपा-दृष्टि ‘कि पाऊँ रोजाना ।
भिंटाऊँ पुष्प नाना ।
भेंटू षट्-रस ।
कृपा दृष्टि यूँ ही रोज जाये बरस ।
कृपा दृष्टि तेरी ‘कि रोजाना पाऊँ ।
दीप चढ़ाऊँ ।
भेंटूँ सुगंधी ।
कृपा तेरी बरसे ‘कि रोज यूँ ही ।
कृपा दृष्टि यूँ ही ‘कि बरसे कल ।
भेंटूँ श्री फल ।
अर्घ्य भेंटूँ ।
‘कि पुण्य-आहार-आप फिर समेटूँ ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
वो फूल तुम ।
कभी न हो जिसकी मुस्कान-गुम ।।
जल लाये चढ़ाने ।
आज को कल-सा न गवाने ।
खुश्बू जल के भी दे पाने ।
चन्दन लाये चढ़ाने ।
चढ़ाने लाये अक्षत दाने ।
राज अक्षत पा पाने ।
रोज तराने तुम गाने ।
सरोज लाये चढ़ाने ।
चरु लाये चढ़ाने ।
बोझ सर का सरका पाने ।
तले अंधेरा विघटाने ।
घी दिया लाये चढ़ाने ।
धूप लाये चढ़ाने ।
पल चिद्रूप निरख पाने ।
जगत् जगत रह पाने ।
श्री फल लाये चढ़ाने
ये द्रव्य लाये चढ़ाने ।
खोज सत्य की कर पाने ।।
‘राखी’ यूँ ही, राखना लाज ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
रहें, पै स्पर्शें न संसार जल ।
हैं गुरु कमल ।।
खोजा, न और कुछ पाया ।
आँखों में पानी ले आया ।
घोल के हल्दी ले आया ।
टुकड़ी धान ले आया ।
ले रँगे चावल आया ।
ले कि स्वर-व्यंजन आया ।
ले रँगे चिटक आया ।
तोड़ के लौंग ले आया ।
बादाम ले चला आया ।
ले जुड़े हाथ दो आया ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
गुरु लौटाने में कमी न रखते ।
दूजे फरिश्ते ।
आज मैं खुशी चन्दन सी पाऊँ,
दृग्-जल चढ़ाऊँ ।
सौ-गंध चढ़ाऊँ ।
धाँ शालि चढ़ाऊँ ।
द्यु पुष्प चढ़ाऊँ ।
षट् रस चढ़ाऊँ ।
घी ज्योति जगाऊँ ।
‘रु धूप चढ़ाऊँ ।
श्री फल चढ़ाऊँ ।
आज मैं खुशी चन्दन की पाऊँ ।
नौ अर्घ्य चढ़ाऊँ ।।अर्घ्यं।।
=जयमाला=
आ परम गुरुदेव जाओ,
भर नयन आये हमारे ।
हुआ रुँधने को गला,
आ पूर जाओ स्वप्न सारे ॥
नींद मीठी सुला सबको,
रात अब सोने चली है ।
किरण पहली उषा छूके,
उठ गई सोके कली है ॥
रात फिर आया दिवस यूँ ,
हाय ! युग है एक बीता ।
पर हृदय अपलक निरखता,
आज भी कल सी गली है ॥
विरह मावस चाँद सा क्या,
यह रहेगा उम्र सारी ।
सोच यह आशा मिलन के,
ढ़ह रहे रह-रह कगारे ॥
रात सा दिन हो गया है,
गगन काले मेघ छाये ॥
चमक बिजुरी रही, गर्जन,
सुन मयूरी छम छमाये ॥
कण्ठ सबके हुये तर,
झुक झूमती है प्रकृति सारी ।
बस पपीहा क्यों अकेला,
रटन पानी की लगाये ।।
नखत स्वाती बिन्दु जल पथ
खुद बना आना पड़ेगा ।।
हुआ अब तैयार नादाँ,
निगलने को अँग-अँगारे ।
चाह नहिं मन मोहनी,
जादू छड़ी लग हाथ जाये ।
चाह नहिं पर लोक को,
जाते समय कुछ साथ जाये ॥
सिर सभी के चढ़ छुऊँ,
आकाश यह नहिं चाह मेरी ।
चाह रज तेरे चरण की,
छू हमारा माथ जाये ॥
आने विवस कर दे तुम्हें,
वो निकल मुँह से बात जाये ।
टिका सुनते आसमाँ,
अब तलक आशा के सहारे ॥
।। जयमाला पूर्णार्घ्यं ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
धन भव मानव कर लीजे ।
श्री गुरु की आ-रति कीजे ।।
पाप कषाय भाव जीते ।
अबर आडम्बर रीते ।।
परहित नैन रखें तीते ।
गम खाते गुस्सा पीते ।।
हाथों में दीपक लीजे ।
श्री गुरु की आ-रति कीजे ।।१।।
वन जोवन बड़भागी हैं ।
केश लोंच अनुरागी हैं ।।
कागी परिणत त्यागी हैं ।
आप समान विरागी हैं ।।
गदगद बोल हदय भींजे ।
हाथों में दीपक लीजे ।
श्री गुरु की आ-रति कीजे ।।२।।
सूर सामने ग्रीषम पल ।
खड़े आन बरसा तरु-तल ।।
शिशिर सांझ मारुत शीतल ।
चतुपथ आन खड़े अविचल ।।
हित पनील लोचन तीजे ।
गदगद बोल हदय भींजे ।
हाथों में दीपक लीजे ।
श्री गुरु की आ-रति कीजे ।।३।।
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