वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
हाई-को ?
छुयें श्री गुरु-पाद-धूल आ…
छूने कुछ अन्छुआ ।।
ज्यों ही शब्द निकसे
गुरु जी के मुख से
हैं रहते नहीं अधूरे
होते ही होते है पूरे
लौट दरिया ‘कि पलट आये
चाहे दुनिया ही पलट जाये
आशीष मिले बड़ी मुश्किल से
गुरु जी ने मुख से
झूठ बोलते ही नहीं,
श्री गुरु जी क्योंकि
दो टूक बोलते ही नहीं
चुगली खातें ही नहीं
श्री गुरु जी क्योंकि
निज प्रशंस नाते ही नहीं ।।स्थापना।।
मिला देती जो अपनों से बिन मुहूरत है
‘जि गुरु जी,
ये दुनिया सपनों की, बड़ी खूबसूरत है
किसी भी तरह की यहाँ,
टोका-टाकी नहीं
इस जमाने की,
जहाँ ताकाँ-झाँकी नहीं
देखो जहाँ, वहाँ ढ़ाई आखर मूरत है
जहाँ बहती धारा में बस बहते जाना है
न पहाड़ सा पड़ाड़ा,
बस क्या एकम् ? बताना है
यहाँ बहती धारा में बस बहते जाना है
नफरत न फरत जहाँ,
सिर्फ बरसा सनेहिल
दूर दूर तक न काग, बस राग छेड़े कोकिल
ये दुनिया सपनों की, बड़ी खूबसूरत है ।।जलं।।
दी लगा किसी ने अश्रु-धार
देख मुझे गुनहगार
तो वो हो तुम
न कोई और, हो वो सिर्फ तुम
गाँव सदलगा में लेने वाले जनम
छाँव देने वाले वेवजह दरख़्त सम
नाव खेने वाले बेवजह दिव-शिवम्
दी लगा किसी ने अश्रु-धार
देख मुझे गुनहगार
तो वो हो तुम ।।चन्दनं।।
पूरी करते हैं इच्छा
भक्तों को गुरुदेव
बेवजह करते है रक्षा
सुरीली बाँसुरी, वंशा
भक्तों को गुरुदेव
‘रे कर देते हैं हंसा ।
बन करके बागबाँ
भक्तों को गुरुदेव
छुवा देते हैं आसमाँ ।
स्वयमेव, आकर के सदैव
उठा लेते गोद में गुरुदेव
काँटे बिखरे रास्ते में देख ।।अक्षतं।।
सुनते हैं, आपने सबके मन की कर दी
‘जि गुरु जी, मैनें भी आवाज दी
किसी को क्षमा सागर कर दिया
किसी को आसमां नजर कर दिया
मेरी भी तो सुन लो अरजी,
किसी को दया सागर कर दिया
किसी के हाथ में ‘दीया’ धर दिया
किसी को सुधा सागर कर दिया
किसी को दिखा ख़ुदा का घर दिया
‘जि गुरु जी,
मैनें भी आवाज दी ।।पुष्पं।।
मुझे देख उलझन में
गुरु जी आ गये छिन में
छू न पाये भू,
मेरे आँसू
जय जय, जयतु जय श्री गुरु
माँकी गोदी जैसे
सहज मोती जैसे
अबुझ ज्योती जैसे
गुरु जी खुद जैसे हूबहू
काकी, काकू जैसे
पाछी वायू जैसे
चिराग जादू जैसे
गुरु जी खुद जैसे हूबहू
भँवर नैय्या जैसे
वृक्ष छैय्याँ जैसे
ध्रुव तरैय्या जैसे
गुरु जी खुद जैसे हूबहू
जय जय, जयतु जय श्री गुरु ।।धूपं।।
पीछे हमें लगा लो
पीछी वाले ओ !
है मँझधार में मेरी नैय्या
न समझदार मैं, न है खिवैय्या
जाना तुम्हें ‘जी जहाँ
जाना हमें भी वहाँ
सीधी सी है भी कहाँ राहें
लगी छलिंयों की भी निगाहें ।।नैवेद्यं।।
तेरी शरण में आके ।
रज चरण तेरी पाके ।
अपना तुझे बना के
सपनों में तुझे पाके
तिरे दर पे सर झुका के
तिरा हाथ सर पे पाके
अञ्जुली में ग्रास लाके
तेरी नवधा भक्ति पाके
नजराना नजर पाके
तेरा, तराना गुन गुनाके
तुझे दोल दृग् झुला के
तिरे बोल अमृत पाके
जो अब-तक न हाथ आया,
वो सुकून मैनें पाया ।।दीपं।।
है मीठी इतनी, ‘के जुबाँ आपकी,
मिश्री दही,
क्या गुड़-घी,
झाँकता है बगलें, अमृत भी,
आपके आगे
है और अभागे
‘जी गुरुदेव जी
बड़ी सीरी जुबां है
इक वारी छुआ है
जिसने सच्चे हृदय से
उसने छुवा आसमां है
तुम्हारी बड़ी सीरी जुबां है
माँ की फूक वाली दवा है,
आगे धकाती, पाछी हवा है
जाने जमाना
न जाना जायका बद्-दुआ है
पड़ती रहती दुआ है ।।फलं।।
कभी भुलाते नहीं
दिल दुखाते नहीं
कभी रुलाते नहीं,
भक्त वत्सल गुरु जी कहाते तभी
काली घनी जब भी छायें घटायें
बनके हवा, गुरु जी आ विघटा जायें
आने में देरी न लगाते कभी
भान आसमान चढ़ के जब भी तमतमाया
आ किया घना सिर में गुरु जी ने साया
नहीं कहा कभी ‘कि ठहरो आते अभी
आंधी और तूफानों ने जब भी कहर ढ़ाये
करीब-दीव गुरु जी बन के ओट नजर आये
आस पास ही रहे न दूर जाते कहीं
भक्त वत्सल गुरु जी कहाते तभी ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
लाज राखना थोड़ी ।
तेरे लिये ही दुनिया छोड़ी ।
ले अपना तू ।
ए दयालु ! ए कृपालु !
भेंटूँ जल ।
भेंटूँ खुश्बू ।
दो भेंट खुश्बू ।
न उबले खूँ ।
भेंटूँ चावल ।
भेंटूँ प्रसूँ ।
दो भेंट सुकूँ ।
जुड़ा रहूँ भू ।
भेंटूँ चरु ।
भेंटूँ लौं अरु ।
होऊँ हूबहू ।
हों कर्म धू-धू ।
भेंटूँ अगरु ।
भेंटूँ फल ।
दो धरा वसु ।
दो पोंछ आँसू ।
भेंटूँ अर्घ्य ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
गुरु चलाते अँगुली थाम ।
माँ के ही दूजे नाम ।।
सिन्धु भी नहीं आप जैसा गंभीर ।
सो भेंटूँ नीर, गन्ध ।
कहाँ चन्दन की आप-सी सुगंध ।
और अक्षत न स्वाभिमान ।
भेंटूँ सो शालि-धान, गुल ।
कुल-गुरु जो तुम्हारा गुरु-कुल ।
रखते तुम माँ जैसा ध्यान ।
भेंटूँ सो पकवान, दीया ।
तुमने कभी तेरा-मेरा न किया ।
तुम राखो न चश्मा नाक पर ।
सो भेंटूँ अगर भेले ।
मेले भी तुम रह लेते अकेले ।
तुम्हें न भाई श्वान सा मुँ बाऊँ ।
सो अर्घ चढ़ाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
सिर्फ आपके लिये है हुआ आना ।
दो मुस्कुरा ‘ना’ ।।
‘कि जल चढ़ाऊँ ।
पाने राख, न चन्दन जलाऊँ ।
कंचे पे कंचे न बिठाऊँ ।
‘कि घट-गंध, धाँ चढ़ाऊँ ।
चने के झाड़ पे चढ़ना भुलाऊँ ।
‘कि बारिस में न अश्क बहाऊँ ।
‘कि द्यु-पुष्प, चरु चढ़ाऊँ ।
ईंधन डाल, न अग्नि बुझाऊँ ।
लाठी उठा न अंधेरा भगाऊँ ।
‘कि धूप, दीप चढ़ाऊँ ।
पाने कस्तूरी मृग सा न धाऊँ ।
फेंक मोति न कागा उड़ाऊँ ।
‘कि श्री फल, अर्घ चढ़ाऊँ ।
भर चुटकी न पारा उठाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
‘अंक-शून’ का ।
‘रिश्ता गुरु-शिष्य का दूजा खून का ।।
प्रणाम, वन्दन मेरे,
कर स्वीकार लो, ये घडे़ पानीय, चन्दन मेरे ।
ढोक फर्सी ।
लो कर स्वीकार, ये धाँ शाली गुरु जी ।
दे चरणों में दो जगह, पुष्प लो स्वीकार यह ।
ओ गुरुराई ।
कर स्वीकार लो, ये घृत मिठाई ।
न और अर्जी ।
लो स्वीकार, ये दीप मोर गुरु जी ।
नन्त नमन ।
कर स्वीकार लो, ये सुगंध अन ।
श्री फल ढेरी ।
गुरु देवा, स्वीकार लो, सेवा मेरी ।
गुरु देवा मैं ।
लाया अर्घ स्वीकारो आया सेवा में ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
जिनके गुरु रखवारे ।
होते वे किस्मत वाले ।।
‘जल’ लौटा न निराश हो ।
रख अपने पास लो ।
‘चन्दन’ सा इस दास को ।
‘अक्षत’ सा बना खास लो ।
सुमन’ ये मेरे स्वास ओ ।
‘व्यञ्जन’ रु स्वर-भाष ओ ।
‘ज्योति’ और मोति-राश ओ ।
‘सुगंध’ सो…ना’ सुवास ओ ।
‘भेले’ मेले समाकाश ओ ।
‘अर्घ’, नहीं अभिलाष औ ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
अनूठे, गुरु पाँवन अँगूठे की भक्ति
दे मुक्ति ।।
मेरी भी कभी सुन लो,
मेरी भी धारा दृग्-पानी चुन लो ।
मेरी भी चन्दन झारी चुन लो ।
धाँ मेरी भी कभी चुन लो ।
मेरी भी पुष्पों की थाली चुन लो ।
मेरी भी चरु घी-वाली चुन लो ।
मेरी भी घी-ज्योति चुन लो ।
मेरी भी सुगंधी न्यारी चुन लो ।
मेरी भी पिटारी भेली चुन लो ।
मेरी भी द्रव्य ये सारी चुन लो ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
करें मन्नत पूरी ।
‘गुरु’ पाट दें जन्नत दूरी ।
तुझे खुद से बढ़के पर-पीर ।
सो भेंटूँ नीर, चन्दन ।
मेंटे तू सुन के और क्रन्दन ।
चलते ‘और’ चलाते सत्पथ ।
सो भेंटूँ अक्षत, सुमन ।
आपके वश में आपका मन ।
तिहारे वश में जो क्षुध् मरज ।
सो भेंटूँ नेवज, दीपक ।
छाया न तुझ सी कल्प-विरख ।
कामयाबी न हाबी तेरे-सर ।
सो भेंटूँ अगर, भी फल ।
तू रखता न बोझ सर-कल ।
बहे जो गुरु आज्ञा रग-रग ।
जो भेंटूँ अरघ ।।अर्घं।।
(८)
हाई-को ?
धूप में घनी छाँव ।
श्री गुरुदेव की रज-पाँव ।।
पा पुण्य-पीछी सा जाऊँ ।
ले भाव ये जल चढ़ाऊँ ।
‘पीछी-पुण्य’ ले आश ।
भेंटूँ चन्दन और सुवास ।
पीछी सा पुण्य कमाने ।
चढ़ाऊँ धाँ अक्षत दाने ।
लगे माथे ‘कि पीछी-पुण्य-कुंकुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
पुण्य-पीछी ‘कि रीझे ।
चढ़ाऊँ चरु गो-घृत भींजे ।
कतार-पीछी-पुण्य ‘कि पा जाऊँ ।
घी-दीवा चढ़ाऊँ ।
पुण्य-पीछी ‘कि उठाये नजर ।
ये भेंटूँ अगर ।
उकरें हाथ ‘कि पीछी-पुण्य पल ।
भेंटूँ श्री फल ।
पीछी सा पुण्य ‘लगे-हाथ’ ।
चढ़ाऊँ अर्घ परात ।।अर्घं।।
(९)
हाई-को ?
उठ न रहा था पलड़ा ।
‘जी ‘गुरु’ सो नाम पड़ा ।।
अय ! सुमेर-वत् चारित अविचल ।
मैं भेंटूँ दृग् जल, चन्दन ।
अय ! पाँच पाप हिंसादि निकंदन ।
अय ! दया क्षमा करुणा अवतार ।
मैं भेंटूँ धाँ न्यार, सुमन ।
अय ! अभिजित रण-चितवन ।
अय ! चौ कषाय क्रोधादिक भंजन ।
मैं भेंटूँ व्यंजन, दीवाली ।
अय ! समरस विरदावली-गाली ।
अय ! विरहित छल-छिद्र ठगी ।
मैं भेंटूँ सुगंधी, श्री फल ।
अय ! विरहित गफलत-गहल ।
अय ! अवहित मन-वाक्-काय वर्ग ।
मैं भिटाऊँ अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
गुरु-वाणी,
दे निर्मल कर मन, गंगा का पानी ।।
देना सँभाल ‘कि अखीर ।
नीर रोज ‘सो ले आता’ गंध ।
जोड़ने आप-से संबंध ।
तुम कभी तो दोगे ध्यान ।
धान रोज ‘सो ले आता’ गुल ।
हित प्रवेश गुरु-कुल ।
जाने कब दे मुस्कुरा तू ।
चरु रोज ‘सो ले आता’ दीव ।
और आ पाऊँ ‘कि करीब,
दूजा न तेरे जैसा रूप ।
धूप रोज ‘सो ले आता’ फल ।
तेरे पा सकूँ ‘कि दो पल ।
स्वर्ग मेरा तू ही पवर्ग ।
रोज ‘सो ले आता’ अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
लग काँधे माँ चाहिये दूजी ।
बच्चों को वो गुरु जी ।।
भेंटूँ मैं सिर्फ नीर ।
तूने बदल दी तकदीर ।
मुझ पे तेरी दया अनन्त ।
मैं सो गंध, भेंटूँ मैं सिर्फ धान ।
मुझ पे तेरा एहसान ।
जीवन दिया तूने अमूल ।
सिर्फ फूल भेंटूँ मैं सिर्फ नेवज ।
तुम्हारा मुझ पे करज ।
बहुत कुछ तुमने दिया ।
सिर्फ दीया भेंटूँ मैं सिर्फ धूप ।
मुझ पे कृपा तुम्हारी खूब ।
तुमने सौंपा स्वर्णिम कल ।
सिर्फ फल भेंटूँ मैं सिर्फ अर्घ ।
तुम दातार स्वर्ग-पवर्ग ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
सुमरते ही बिगड़ी बनी ।
गुरु जी चिन्तामणी ।।
लाये चढ़ाने जल नयन ।
पाने सम्यक् रतन ।
पाने स्वात्म चिंतन ।
घट चन्दन, लाये चढ़ाने अक्षत कण ।
पाने सम्यक्त्व धन ।
पाने स्वानुभवन ।
दिव्य सुमन, लाये चढ़ाने घृत व्यञ्जन ।
पाने सम्यक् दर्शन ।
पाने प्रीति चेतन ।
दीप रतन, लाये चढ़ाने सुगंध अन,
पाने निद्वन्द मन ।
पाने स्वर्णिम क्षण ।
फल ‘तरुन’, लाये चढ़ाने अर्घ शगुन ।
पाने आप शरण ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
पलक भी, की आपसे बात,
बड़ी सौगात ।
लाया चढ़ाने जल ।
बचाने, यूँ ही खो रहे पल ।
बचाने, खोते यूँ ही क्षण ।
चन्दन, चढ़ाने लाया शाली धाँ ।
क्षण न जायें खो विरथा ।
यूँ ही पल न होवें गुम ।
कुसुम, चढ़ाने लाया षट्-रस ।
खो जायें न यूँ ही निमिष ।
पल न जायें खो नाहक ।
दीपक, हट घट धूप लाया चढ़ाने ।
नूप-पल न यूँ ही गवाने ।
खो रहे यूँ ही पल, बचाने ।
श्री फल, नव्य द्रव्य चढ़ाने लाया ।
पल करने न यूँ ही जाया ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
करें किसी को न मना,
गुरु सभी को लें अपना ।
दृग् जल
अपना लो, जल, फल
रहा उलझ ।
‘कि जाऊँ सुलझ ।
पनीले नैन ।
‘कि पाऊँ चैन ।
बजे द्वादश ।
बजें, ‘कि दश-दश ।
बिगड़े काम ।
‘कि पाऊँ मुकाम ।
रिझायें दौड़ ।
‘कि पाऊँ ठौर ।
अँधेरी रात ।
‘कि देखूँ प्रभात ।
भूमि दरार ।
‘कि रीझे फुहार ।
बीच भँवर ।
‘कि जाऊँ तर ।
गर्दिश तारे,
‘कि लगूँ किनारे ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
राहे-मिलन-प्रभु,
गुजरे छूती चरण गुरु ।
‘सुनते तुम’
तुम फेरते तकदीर,
सो भेंटूँ नीर ।
तुम मेंटते पाप-बंध
सो भेंटूँ गंध ।
तुम एक रहनुमाँ ।
सो भेंटूँ शालि धाँ ।
तुम और चन्दा-पून,
सो भेंटूँ प्रसून ।
‘सुनते तुम’ दुखिया अरज ।
सो भेंटूँ नेवज ।
तुम सुनते न खाली ।
सो भेंटूँ दीपाली ।
गुरु-भक्ति-अंधी,
सो भेंटूँ सुगंधी ।
तुम न पड़ते झमेले ।
सो भेंटूँ भेले ।
तुम जाओगे फिर स्वर्ग ।
सो भेंटूँ अर्घ ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
प्रभु, न सुख ही, दें दुख भी ।
पै, दें गुरु सुख ही ।
जल चढ़ाऊँ,
कहीं मैं गिर न जाऊँ ।
लो सँभाल ।
ले फाँस वन क्रन्दन ।
भेंटूँ चन्दन ।
धाँ शालि चढ़ाऊँ ।
मैं भटक न जाऊँ ।
लो सँभाल,
हो मेरे अकेले तुम ।
भेंटूँ कुसुम ।
भेंटूँ चरु घी ।
न आया चलना अभी ।
लो सँभाल,
मैं अभी बालक ही हूँ ।
दीपक भेंटूँ ।
भेंटूँ सुगन्धी ।
मैं ठगा न जाऊँ कहीं ।
लो सँभाल,
दृग् तरेरे गहल ।
मैं भेंटूँ श्री फल ।
अर्घ चढ़ाऊँ ।
लो सँभाल,
मैं कहीं ठोकर न खा जाऊँ ।।अर्घं।।
(१७)
हाई-को ?
माँ हैं, आत्मा हैं
‘गुरुजी’ महात्मा हैं, परमात्मा हैं ।
जल कलश भेंटूँ मलय-रस ।
पाने तुम सा सम-दरश ।
पाने तुम-सा सम्यक् दर्शन ।
अछत-कण भेंटूँ पुष्प अनेक ।
पाने तुम सा दर्शन नेक ।
पाने समान तुम श्रद्धान ।
घी-पकवान, भेंटूँ दीपक घृत ।
पाने तुम सा ही समकित ।
पाने तुम सी दृग् प्रीत नूप ।
पुनीत धूप, भेंटूँ रसीले फल ।
पाने तुम सा दृग् समुज्ज्वल ।
पाने तुम सा ही सम्यक् दृग् ।
भेंटूँ अलग अरघ ।।अर्घं।।
(१८)
हाई-को ?
देते हैं चाँद तारे छुवा,
‘गुरु जी’ पिटारे दुआ ।
भेंटूँ जल कलशे ।
धनी निर्धन तुम्हें एक से ।
तुम्हें निर्धन एक ‘गिर-धन ।
सो भेंटूँ चन्दन ।
सो भेंटूँ धाँ मैं ।
पैसे वाले-से, भाग के मारे तुम्हें ।
तुम्हें रईस सा सईस ।
सो भेंटूँ पुष्प शिरीष ।
भेंटूँ ‘सो ला’ पकवाँ ।
तुम्हें निर्धना एक धनवां ।
जैसा अमीर तुम्हें वैसा गरीब ।
सो भेंटूँ दीव ।
सो भेंटूँ धूप ।
तुम्हें सुखिया, दुखिया एक रूप ।
सेठ सा तुम्हें फटे हाल ।
सो भेंटूँ श्री-फल थाल ।
सो भेंटूँ जल आद ।
कुबेर भाँत तुम्हें तंग-हाथ ।।अर्घं।।
(१९)
हाई-को ?
करें गुरु जी जिसकी रक्षा ।
उसे डर किसका ।।
तेरे चरणों में भगवन्,
निर्मल, भेंटूँ दृग्-जल ।
सानन्द, चढ़ाऊँ गंध ।
ले श्रद्धा, भेंटूँ शालि-धाँ ।
दृग् नम, भेंटूँ कुसुम ।
सहज, भेंटूँ नेवज ।
सदीव, चढ़ाऊँ दीव ।
अनूप, चढ़ाऊँ धूप ।
‘अकेले’ चढ़ाऊँ भेले ।
सजग, भेंटूँ अरघ ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
विष्णु, विधाता, भोला-भण्डारी
सार्थ श्री ‘गुरु’-भारी ।
‘आ…शा…न बढ़ा’
शिक्षा तुम्हार,
भेंटूँ सो जल धार ।
‘मैं दो…गला’
‘जी शिक्षा तोरी,
भेंटूँ सो गंध कटोरी ।
ओढ़नी चुन ‘री
शिक्षा आप,
भेंटूँ धाँ शुद्ध-साफ ।
‘वासना वास…ना ‘री’
शिक्षा तुम,
सो भेंटूँ कुसुम ।
‘न खाना, दबा खाना’
शिक्षा-तोर,
सो भेंटूँ ‘बेजोर’ ।
‘मान सी’ आई-डी’
शिक्षा तुम्हारी,
सो भेंटूँ दीवाली ।
‘धुनि निर्-म…दा’
शिक्षा तुमरी,
भेंटूँ सो धूप निरी ।
‘भी’तर ‘क’छु-आ
शिक्षा तेरी,
भेंट तो फल-ढ़ेरी ।
‘के ‘न…फरत’
शिक्षा थारी,
भेंटूँ ‘सो ला’ अर्घ थाली ।।अर्घं।।
(२१)
हाई-को ?
खिसकाते ही, गुरु नाव
‘मन-के’
सुधरें भाव ।।
दृग् जल,
भेंटूँ जल फल
ए ! गुरु परम ।
मेंट दो जरा जनम ।
दृग् दो भेंट नम ।
लूँ ‘तोर’ भरम ।
रख सकूँ शरम ।
त्राहि-माम् छुये यम ।
राह नापे मोह तम ।
मर हम हो मरहम ।
शिव न हो अगम ।
गुम कर दो गम ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
श्री गुरु, बिना जादू-टोना ।
बदलें खुशी में, रोना ।।
दृग् जल
ये मेरे जल-फल अपना कर ।
हूँ पामर, दो पावन कर ।
मैं हूँ बाँस, दो वंशी कर ।
हूँ पतझड़, दो सावन कर ।
मैं हूँ माटी, दो मटकी कर ।
मैं हूँ कपास, दो डोरी कर ।
मैं हूँ काँच, दो आईना कर ।
मै मोर पंख, दो पीछी कर ।
मैं हूँ बीज, दो वृक्ष कर ।
हूँ दुखिया, दो सुखिया कर ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
काम अपने टाल ।
दें गुरु झोली सपने डाल ।।
स्वीकारो नीर, गंध लाये ।
‘के साँचे क्षीर-हंस ढ़लने आये ।
स्वीकारो सुधाँ, गुल लाये ।
साँचे वसुधा-पुल ढ़लने आये ।
स्वीकारो चरु दिया लाये,
‘के साँचे तरु-नदिया ढ़लने आये ।
स्वीकारो धूप, फल लाये,
‘के साँचे कूप-अनिल ढ़लने आये ।
स्वीकारो अर्घ लाये ।
साँचे चंद्रार्क ढ़लने आये ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
गुरु, तरु से होते ।
स्वयं के लिये कभी न रोते ।।
आ जिया वसो ।
लाये जल चरणों में निवसा लो ।
गंध भिटाऊँ ।
तेरे चरणों में यूँ ही रहा आऊँ ।
तेरे चरणों में मिले शरणा ।
‘ले आश’ लाये धाँ ।
लाये सुमन खिले ।
तेरी चरण-शरण मिले ।
भेंटूँ भोग,
‘कि जुड़े तोर चरण शरण जोग ।
तेरी चरण-शरण हो हमारी,
भेंटूँ दीवाली ।
तेरी चरण शरण पाने,
लाये धूप चढ़ाने ।
मिले चरण-शरण तेरी ।
लाये श्री फल ढ़ेरी ।
तेरी चरन शरण ‘कि पा पाऊँ,
अर्घ चढ़ाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
गुरु, समान महावीर ।
मिटाने में लगे पीर ।।
न पाप विनाशक,
आप ‘सिवा’ न पाप निकन्दन ।
सो भेंटूँ उदक चन्दन ।
न पाप हर्ता,
आप ‘सिवा’ न पाप दृग्-हरण ।
सो भेंटूँ न्यार शालि धाँ सुमन ।
न पाप-धी विहँस,
आप ‘सिवा’ न पाप-दूर ।
सो भेंटूँ षट्-रस, ज्योति कपूर ।
न पाप-अपहर,
आप ‘सिवा’ न पाप-हार ।
सो भेंटूँ अगर, फल पिटार ।
आप ‘सिवा’ न पाप-शून ।
सो भेंटूँ द्रव्य संपून ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
जहाँ सभी की हो सुनवाई ।
‘द्वार’ वो गुरुराई ।।
नीर-नयन, भेंटूँ चन्दन रस ।
कृति-चेतन, श्री गुरु ‘ज्ञान’ पुत्र औरस !
प्राणों से प्यारे श्री गुरु ज्ञान तुम्हें ।
सो भेंटूँ शालिक धान तुम्हें ।
नींव ए गुरु ज्ञान गुरुकुल ।
लो स्वीकार गुल ।
तुम्हें भगवान् श्री गुरु ज्ञान ।
भेंटूँ सो पकवान ।
श्री गुरु ज्ञान चरण वसिया ।
लो स्वीकार दिया ।
स्रोत श्री गुरु ज्ञान भक्ति अमन्द ।
भेंटूँ सुगंध ।
तुम्हें श्री गुरु ज्ञान, एक संबल ।
भेंटूँ सो फल ।
श्री गुरु ज्ञान दृग्-तारे ।
लो स्वीकार ये द्रव्य म्हारे ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
गुरु ले बस अपना ।
टोका-टाँकी बिना, दें बना ।
कर-पाने दृग्-नम,
लाये चढ़ाने उदक चन्दन हम ।
बसाने मन शम ।
पाने आत्मा में रम ।
लाये चढ़ाने शाली धाँ, कुसुम हम ।
कराने गुम गम ।
मिटाने भय-यम ।
लाये चढ़ाने नैवेद्य प्रदीवा हम ।
हराने मिथ्या तम ।
वस-पाने भू अष्टम् ।
लाये चढ़ाने ये धूप श्री फल हम ।
पाने धी-जल सम ।
नशाने सर्व भ्रम ।
लाये चढ़ाने ये अर्घ हम ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
देने आतुर खड़े ।
श्री गुरु से न माँगना पड़े ।।
भगवन् हमारे !
चरणों में तुम्हारे ।
नैन सजल, चढ़ाऊँ जल ।
कर वन्दन, चर्चूं चन्दन ।
झुका मस्तक, भेंटूँ अक्षत ।
सूरी श्रमण, भेंटूँ सुमन ।
श्रद्धा समेत, भेंटूँ नैवेद ।
दे दे-के ताली, भेंटूँ दीपाली ।
ले भक्ति अंधी, भेंटूँ सुगंधी ।
भाव के बल, भेंटूँ श्रीफल ।
कुछ अलग, भेंटूँ अरघ ।
कि टके चूनर सितारे ।।अर्घ्यं।।
।।जयमाला।।
दिल नेक बनें
हम एक बनें
संजीव बनें,
हम दीव बनें
गंभीर बनें,
हम वीर बनें
कातर न बनें,
तर नयन बनें
दुश्मन न बनें,
हम सुमन बनें
निष्काम बनें
श्री राम बने
निष्पाप बनें,
सम आप बनें
चरणन तेरे,
भगवन् मेरे !
दिल नेक बनें
हम एक बनें
ऐसा दो आशीर्वाद
न और फरियाद
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
गुरु वरद पुत्र मां शारद ।
कीजे आ-रति निःस्वारथ ।।
चलते रस्ते से लग के ।
पड़ते प्रपंच ना जग के ।।
भज ज्ञान दिवस बढ़ चाला,
कर ध्यान चली निश जग के ।।
भारत गौरव प्रतिभारत ।
गुरु वरद पुत्र मां शारद ।
कीजे आ-रति निःस्वारथ ।।१।।
कीनी किनार वैशाखी ।
पी लिया क्रोध, गम चाखी ।।
वश में रख आँख हमेशा,
पुरु साख, नाक-पुरु राखी ।।
अभिजात मात लाला वत् ।
गुरु वरद पुत्र मां शारद ।
कीजे आ-रति निःस्वारथ ।।२।।
रखते हैं निस्पृह नेहा ।
रह कर भी देह विदेहा ।।
शिव राधा ब्याह तृषातुर,
खुद जैसे निःसंदेहा ।।
सुख सहज निरा-कुल चाहत ।
गुरु वरद पुत्र मां शारद ।
कीजे आ-रति निःस्वारथ ।।३।।
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